मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

मैं कभी सीरियस ब्लॉग्गिंग नहीं करूँगा.

वर्ष २०१० अपने अंत के निकट है. लोग पीछे मुड़ कर देख रहे हैं  की वर्षभर क्या क्या किया. क्या खोया क्या पाया. मैंने भी ब्लोग्गिं इस वर्ष के शुरू में ही शुरू की थी तो मैं भी पीछे मुड़ कर देख सकता हूँ  और खोज सकता हूँ की मैंने ब्लॉग्गिंग में क्या पाया (मेरे लिए यहाँ  खोने को तो कुछ था ही नहीं).

मेरी ब्लोग्गिं करने की पृष्ठ भूमि सन २००९ में दिल्ली सरकार ने खुद ही बना दी  थी. पिछले वर्ष दिसम्बर माह में मुझे सरकार की तरफ से हमारे छटवें वेतन आयोग का बकाया पैसा मिल गया था . उसी माह  मैं दिल्ली सरकार की  सेक्शन ऑफिसर समकक्ष परीक्षा में भी  मैं सफल हो गया था. तो जनाब मेरे जैसा व्यक्ति जिसकी जेब में थोडा पैसा हो, बहुत सा वक्त हो और प्रतुल जैसा बाल सखा हो तो वो ब्लोग्गिं शुरू कर देता है.

जी हाँ ब्लोग्गिं नाम की  चिड़िया से मुझे प्रतुल जी ने परिचित कराया.  उन्होंने ही मेरा ब्लॉग बनाया और विचार शून्य का तगमा लगा कर चल दिए. शुरू में मुझे ब्लॉग्गिंग के विषय में कुछ भी पता नहीं था. जो पहला ब्लॉग मैंने अनुसरित किया वो था  AshokWorld. मैंने इस ब्लॉग को  कभी भी नहीं पढ़ा और इस पर कोई कमेन्ट नहीं लिख पाया क्योंकि ये  ब्लॉग जाने किस  दक्षिण भारतीय भाषा में लिखा जाता है. मुझे आज भी अपनी उस गधागिरी  पर हँसी  आती है पर मेरी ये आदत अभी तक बरक़रार  है. मेरे द्वारा अनुसरित अधिकांश ब्लॉग या ब्लॉगर जिनके लेखों पर मैं अक्सर टिप्पणियां कर बैठता हूँ "A" से शुरू होकर "S" तक ही फैले हैं.

Amit Sharma,  Sanjay Aneja, Satish Pancham.
Anshumala, Shaifali Pandey, Swapn Manjusha Ada.
Anurag Sharma, Salil- Chaitanya, Satish Saxena.

जब प्रतुल जी के कहे अनुसार ब्लॉग्गिंग शुरू की तो पता नहीं था की ये एक गंभीर कार्य है. मुझे तो ब्लॉग्गिंग ने अपने बीते हुए दिनों की याद दिला दी थी. मेरे बाल्यकाल के अंतिम दिनों में और युवावस्था के शुरुवात में मैं अपने यार दोस्तों के साथ लगभग रोज ही रात्रि भोजन के उपरांत खड़ी-बैठकों में भाग लिया करता था. खड़ी इसलिए  क्योंकि बैठने को तो मिलता ही नहीं था बस खड़े खड़े ही बातें होती थी. हम लोग  हर विषय पर बात करते  थे चाहे वो इरान इराक युद्ध हो या कालोनी के शर्मा जी और वर्मा जी की लड़ाई ,गावस्कर, कपिल और श्रीकांत का खेल हो या अपना अंडा-फट्टी टूर्नामेंट , राजीव गाँधी की राजनीती हो या महोल्ला सुधार समिति के झगड़े, सलमान खान और संगीता बिजलानी की लव लाइफ हो या कालोनी के पप्पू और डोली का रोमांस , सब पर विस्तार से चर्चा होती, बहस होती, तू तू मैं मैं और कभी हाथापाई तक भी बात पहुच जाती थी और ये मामला तब तक चलता जब तक कालोनी का कोई बुड्ढा हमें डाट कर भगा नहीं देता था.   हमारी ये महफ़िल अक्सर कालोनी के चौक पर होती पर कभी कभी कुछ ऐसे चुनिन्दा घरों के आगे भी अपनी महफ़िल सजाते थे जिनमे हमारी उम्र की सुन्दर कन्यायें निवास करती थी. ऐसी बैठकों में बहस या टीका टिप्पणी कुछ ज्यादा ही उत्साह से होती थी और ये टिप्पणिया उन लड़कियों के धीरे धीरे विकसित होते........बुद्धि चातुर्य पर भी होती थी. 

हमारी ये गतिविधियाँ तब तक चलती रहीं जब तक हम लोगों के पास रात्रि भोजन के उपरांत करने के लिए कुछ ज्यादा मजेदार काम नहीं था और जब वो मिला तो हम लोग उस में रम गए. अब सब लोग विवाहित हैं, बाल बच्चेदार  हैं.  घर आते हैं फिर कहाँ निकलना होता है.  

इस तरह जब प्रतुल की कृपा से जब मेरा परिचय ब्लॉग्गिंग से हुआ तो मुझे लगा की पुराने दिन लौट आए हैं. रात्रि भोजन उपरांत नेट पर जाओ. लोगों के विचार पढों. उन पर त्वरित  टिप्पणी दो, थोड़ी बहस करो, किसी से चुहल करो और थोडा मनोरंजन कर फिर चल दो   रात्रि विश्राम हेतु.  सच में मेरे लिए तो ब्लॉग्गिंग यही है. मुझे तो तब डर लगता है जब कहा जाता है  की लोग सीरियसली  ब्लॉग्गिंग नहीं करते. ब्लॉग्गिंग में गंभीर लोग होने चाहिए. अरे ऐसा होगा तो मेरे जैसे लोग कहाँ जायेंगे  जो यहाँ सिर्फ मनोरंजन के लिए  ही हैं. अरे भई आप लोग  हर चीज को इतना गंभीरता से क्यों लेते हैं?  वैसे कुछ लोगों को हर चीज में गंभीरता ढूंढने की आदत होती है.  भई सीरियसली हँसों..... अरे जनाब आप सीरियसली फ्लर्ट करो .......आप सीरियसली मजाक किया करो और जब वास्तव में कोई गंभीर कार्य करने की बारी आती है  तो ये लोग कहीं किसी कौने में जा छिपते हैं.

दोस्तों मेरे लिए तो ब्लॉग्गिंग मनोरंजनार्थ ही है और हमेशा ही रहेगी.  मैं कभी सीरियस ब्लॉग्गिंग नहीं करूँगा.







गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

कपोत पलटदास ब्लॉग अवतारी




एक रहन कपोत पलटदास ब्लॉग अवतारी
करके आंख बंद मन मा जाने का बिचारी


तबही आई वहां एक नार शायद वो कुंवारी

देख कपोत भये चकित मति गयी उनकी मारी

 संवारना उसका देख कर सोच उनकी भयी बिकारी

लगे सोचने होगा ये......


और होगा वो........


पर........ फुर्र हो गयी वो नारी




और रह गए पलट दास ब्रह्मचारी के ब्रह्मचारी.
 





इति.

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

ब्लॉगर पंच लक्षणं


स्वान निद्रा






कपोत ध्यानं


पोस्ट पढ़ता ,
टिप्पणीकर्ता,
चिट्ठाजगत अवतारी
हिंदी  ब्लॉगर पंच लक्षणं.


रविवार, 28 नवंबर 2010

स्त्री सिर्फ एक है बाकी सब पुरुष.

मेरी एक आदत है कि मैं अक्सर अपनी परिचित  महिलाओं को इस तरह से संबोधित करता हूँ मानो वो मेरे पुरुष मित्र ही हों.  दोस्त कैसे हो?.... हाल चल ठीक हैं  जनाब के....... दोस्त सुनो, एक बात बताओ  ...  भई सुनो एक बात पूछनी है.......अरे भैय्या काम हो तो रहा है इतनी जल्दी क्या है..... जैसे अनेक जुमले मैं अपने पुरुष साथियों और महिला साथियों के लिए समान रूप से प्रयोग में लाता हूँ. कुछ एक ने मेरी इस आदत पर ध्यान दिया और मुझे बताया पर कभी भी किसी ने कोई शिकायत या विरोध नहीं किया और मेरी इस आदत को सहजता से ही लिया .

कल  पहली बार सार्वजनिक रूप से किसी ने मुझे मेरी इस आदत के लिए टोका और टोका क्या धो के रख दिया. मैं  कुछ आवश्यक कार्यवश  बैंक गया था जहाँ पर एक सुन्दर सी महिला बैंक क्लर्क को मैं  एक क्षण रुकने के लिए कहना चाहता था . गलती से मैं कह बैठा "भैय्या  एक मिनट रुको.....".  मेरे ये शब्द सुनकर उन भद्र महिला ने जो मेरा सार्वजनिक अभिनन्दन किया वो मैं कभी भूल नहीं सकता. उनकी नाराजगी भी जायज थी. मेरे भैय्या के संबोधन ने उनके सजने सवारने को व्यर्थ कर दिया होगा. कभी सोचा ना था कि मेरी एक मासूम सी आदत  मुझे ये दिन भी दिखाएगी. मैंने तुरंत उनसे क्षमा मांगी और अपना कार्य पूरा कर घर वापस आ गया. जब कभी किसी बात पर मिटटी पलीद हो जाती है तो आदमी सोचता ही है कि कहाँ क्या गलत हुआ सो मेरा भी कल का सारा दिन इसी बात पर मनन में बीता कि मुझसे ये गलती क्यों होती है.

पता नहीं क्यों भौतिक रूप से  स्त्री व पुरुष मेरे लिए  एक से ही हैं. कोई स्त्री  मुझे मादा सी तब दिखती है जब उसे देख मेरे मन में कोई रासायनिक क्रिया शुरू हो वर्ना जैसा व्यवहार मैं किसी दुसरे पुरुष के साथ करता हूँ वैसा ही व्यवहार मैं महिला के साथ करता हूँ. 

कभी बस में जा रहा हूँ और भाग्यवश सीट मिल जाय और वो सीट महिलाओं के लिए अरक्षित ना हो तो किसी महिला को अपनी सीट मैं तभी दूंगा जब वो या तो बूढी होगी या फिर बच्चों के साथ होगी पर ऐसा तो मैं किसी बूढ़े के साथ या किसी ऐसे पुरुष के साथ भी करता हूँ जब उसके साथ उसके बच्चे हों. किसी महिला को बैठने के लिए अपनी सीट सिर्फ इसलिए दे देना कि वो महिला है मुझे ठीक नहीं लगता. आप कह सकते हैं कि मेरे अन्दर अंग्रेजी Gentelman वाले गुण नहीं हैं. ऑफिस में भी जब कोई महिला सहकर्मी काफी समय से लंबित पड़ा अपना  कार्य निपटवाने के लिए सहायता कि गुहार लगती हैं तो मैं उनकी सहायता के लिए कभी नहीं जाता. हलाकि बस में भी और ऑफिस में भी इन महिलाओं को सहायता का हाथ बढ़ाने वाले बहुतायत से मिल जाते हैं पर मैं बेशर्म ही बना रहता हूँ.  

जहाँ तक रासायनिक क्रिया द्वारा मादा को पहचानने कि बात है तो विवाह उपरांत तो मैं उस पदार्थ में परिवर्तित हो चुका हूँ जो सिर्फ एक से ही रासायनिक क्रिया कर पाता है और बाकी सभी के लिए  निष्क्रिय होता है .

अध्यात्मिक दृष्टि से विचार करता हूँ तो जैसे कुछ लोग कहते हैं कि इस जगत में पुरुष सिर्फ कृष्ण ही हैं बाकी तो सभी गोपियाँ हैं  उसी तरह से मेरे लिए तो अब इस संसार में स्त्री सिर्फ एक ही है बाकी तो सभी पुरुष हैं क्या नर क्या मादा .

काश ये बात बैंक कि वो महिला कर्मी समझ पातीं  तो वो इस तरह से मेरी सार्वजनिक धुलाई ना करती.... 

शनिवार, 20 नवंबर 2010

लड़कियों के नाक कान छिदवाना जरुरी है क्या ?

मैं ये जानना चाहता हूँ की लड़कियों के नाक और कान छिदवाना जरुरी होता है क्या? अगर उनके नाक और कान छिद्रित ना हों तो क्या फर्क पड़ेगा?

मेरी बिटिया ढाई वर्ष की हो गयी है. पत्नी चाहतीं हैं की उसके कानों में बाली पहना दी जाय जबकि मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ. मैं सोचता हूँ की जब वो बड़ी हो जाएगी और अगर उसकी इच्छा होगी तो वो ये काम खुद कर लेगी. हम अभी से जब उसे खुद इस बात की समझ नहीं है सिर्फ अपनी इच्छा के लिए क्यों ये काम करें. अगर वो कुंडल या नथ पहनना ही चाहेगी तो आजकल तो ये नाक और कान में छिद्र करवाए बिना भी संभव है. कुछ इस तरह के कानों के कुंडल आते हैं जिन्हें बिना छिद्र के भी पहना जा सकता है जैसे की अक्सर नाटकों में पहने जाते हैं.

इस विषय में मेरे एक मित्र ने मुझे बड़ी रोचक बात बताई. उनके अनुसार कान और नाक में छिद्र करवाने से स्त्रियों की कामुकता कम हो जाती है या उनके शब्दों में कहें तो शरीर की गरमी निकल जाती है. नाक कान छिदवाने का ये बहाना मुझे नहीं जंचा. शरीर क्या कोई गुब्बारा है की जिसमे छिद्र करो और गरमी बाहर. अगर ऐसे ही कामुकता ख़त्म होती हो तो सारे बलात्कारियों के नाक और कान छिद्वादो या सजा के तौर पर उनके नाक और कान कटवा ही दो. ना रहेगा बांस और ना रहेगी बांसुरी.

मित्र ने अपनी बात के समर्थन में पश्चिमी देशों का उदहारण भी दिया की वहा स्त्रियों के नाक और कान छिद्रित नहीं होते जिस वजह से वो इतनी हॉट होती हैं. वैसे पडोसी देश में ये रिवाज है की वो कामुक स्त्रियों के नाक कान कटवा देते हैं. कहीं इस रिवाज के पीछे की मानसिकता येही तो नहीं की नाक कान स्त्रियों की कामुकता को नियंत्रित करते हैं.

इस विषय में मेरा अपना एक अनुभव है. हम जनेऊधारी ब्रह्मण लोग शौच जाते वक्त अपने जनेऊ को कान पर लपेट लेते हैं. जब मैंने इसका कारण जानना चाहा तो मुझे बताया गया की हमारे कान में कोई ऐसा पॉइंट होता है जिसे दबाने पर पखाना तुरंत पास हो जाता है. एक बार मैं इसकी जाँच के लिए घंटे भर शौचालय में बैठ कर अपने दोनों कानों को दबाता रहा पर कोई ऐसा बिंदु नहीं मिला जहाँ पर दबाव पड़ते ही मीटर डाउन हो जाय. इस कसरत में कुछ नहीं हुआ बस घंटे भर बाद मैं लाल कानों के साथ टॉयलेट से बाहर आया.

भाई मैं तो अपनी गुडिया को इस उम्र में तंग नहीं करने वाला. बाद में जो होगा देखा जायेगा. वैसे व्यक्तिगत तौर पर मुझे स्त्रियों के छिदे हुए नाक और कान उस वक्त बिलकुल पसंद नहीं जब वे सूने पड़े होते है. बाली और नथ के बिना ये सूने नाक और कान मेरे मन को बहुत दुःख देते हैं और तब मुझे लगता है की स्त्रियों की नाक और कानों में छिद्र होता ही नहीं तो अच्छा होता.


गुरुवार, 11 नवंबर 2010

आइये जरा देखें और बताएं ये कौन सा पक्षी है.


दीपावली से एक दिन पहले मैं सुबह जब अपनी छत पर पौधों को पानी दे रहा था तो सामने वाले मकान की दीवार पर एक  पक्षी को  देख कर चौंक  गया. वो  छत की दीवार पर बैठा एक मांस का टुकड़ा खा रहा था. इस पक्षी का  आकार एक कोए के समान था. मुझे पहली नज़र में ये सिखों के गुरु गोविन्द सिंह जी के चित्रों में दिखाने वाले बाज पक्षी सा लगा. मुझे आश्चर्य हुआ कि दिल्ली में बाज जैसा पक्षी कैसे हो सकता है.

शिकारी जीवों में चाहे वो पक्षी हों या फिर जानवर एक अजब सा आकर्षण होता है. उनके हाव भाव उनके निर्भीक स्वभाव को दर्शाते हैं.  बड़े ही शांत भाव से वो अपने पंजे में दबे मांस के टुकड़े को खा रहा था. मैंने अपने जीवन में पहली बार किसी शिकारी पक्षी को इतने नजदीक से देखा.  मुझे इस शानदार पक्षी ने अपना एक चित्र भी लेने दिया और उसके बाद ये उड़ कर जाने कहाँ चला गया.

सफ़ेदपोश गिद्धों कि  दिल्ली में आए इस शिकारी पक्षी  के आप भी दर्शन करें और अगर जानते हों तो इसका सही नाम भी बता दें.

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

अरे देखो मैं तो ससुर बन गया.... और ससुर बन के भी तन गया.

 मेरे परिवार में आजकल शादी का माहौल है.मेरी भतीजी का विवाह तय हो चुका है इन नवरात्रों में हमने लडके वालों के घर जाकर बात पक्की कर दी . वर  पक्ष के  लोग हल्द्वानी में रहते हैं. आने वाली जनवरी में भतीजी का विवाह हो जायेगा. हमारे  होने वाले जंवाई सा दिल्ली में ही एक होटल में कार्यरत हैं या जैसे मैं उन्हें प्यार से कहता हूँ कि वो  भड्डू मैनेजर हैं.

भड्डू मैनेजर होना एक व्यंगात्मक कहावत है .  पहले जब पहाड़ से लोग दिल्ली जैसे आसपास के मैदानी इलाकों में रोजगार के लिए आते थे तो उनमे से ज्यादातर यहाँ किसी ढाबे या घर कि रसोई में बर्तन मजना और खाना पकाने जैसे छोटे मोटे कार्यों में लग जाते थे. जब वे कुछ पैसा कमाकर वापस पहाड़ लौटते तो वहा पर अपनी अमीरी का प्रदशन करते और ऐसे व्यवहार करते जैसे कि वो दिल्ली में कोई बड़ा काम  करते हों.उनकी असलियत जानने वाले लोग उन्हें भड्डू मैनेजर कह उनका मजाक उड़ाते थे. भड्डू एक प्रकार कि पीतल कि हंडिया होती है जिसमे दाल आदी पकाते हैं.

पर आजकल जो लोग उत्तराखंड से कामकाज के लिए बाहर निकलते हैं वो भड्डू मैनेजर नहीं बनते. यहाँ तक कि वो लड़के जो होटल मेनेजमेंट जैसे विषयों को पढ़कर आते है वो भी रसोइया बनना पसंद नहीं करते. ज्यादातर होटल के दुसरे विभागों में कार्य करना चुनते हैं.


हम लोगों में पुत्री के लिए योग्य वर कि तलाश करते वक्त दो शर्तों का पूरा होना जरुरी होता है.पहली है अपनी जाती का ऊँची धोती वाला ब्रह्मण परिवार  और दूसरी  कुंडली मिलन . इन दो अति आवश्यक शर्तों  पर खरा उतरने के उपरांत ही रिश्ते कि कोई बात आगे बढ़ती  हैं. सौभाग्यवश हम लोगों में कोई ऐसी  कुप्रथा नहीं है जिसमे वधु के पिता को विवाह में या उसके बाद कोई भी अनावश्यक परेशानी झेलनी पड़ती हो. अब देखिये मेरी भतीजी सांवली है और हमारे होने वाले जंवाई जी गोरे और सुन्दरता में हमारी बिटिया से इक्कीस पर फिर भी रिश्ता तय हो गया बिना किसी लेन देन कि बात हुए ही. इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है.

ये परंपरागत पहाड़ी समाज की विशेषता है कि हम लोगों में कोई भी ऐसी रस्म नहीं होती जिसमे वधु पक्ष के लोगों को अनावश्यक आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ता हो. मेरे ही परिवार में हमारी एक लड़की का विवाह यहाँ के ही स्थानीय ब्रह्मण परिवार में हुआ है. लड़की के पिता बड़े परेशान हैं. हर बार त्यौहार और मांगलिक कार्य में उन्हें लडके वालों को तरह तरह की सौगातें भेजनी पड़ती हैं जो की उनकी परम्परा में  है और दूसरी बहुओं द्वारा निभायी भी जाती है. अब अपनी पुत्री के मान सम्मान के लिए ही सही मज़बूरी में इन्हें भी बार बार लड़की के सास ससुर और ननदों के लिए कपडे व दुसरे उपहार भेजने पड़ते हैं. वहीँ उनकी दूसरी पुत्री जो कुमाउनी परिवार में ही ब्याही है के ससुराल से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं होती.  यहाँ  एक बात और भी कह  दूँ कि उत्तराखंड में समाज के किसी भी वर्ग में घूँघट प्रथा नहीं है. बहुएँ सिर पर पल्ला जरुर रखती हैं पर मैदानी इलाकों कि तरह से लम्बा घूँघट  नहीं निकलती. 

अब ऊँची धोती वाले ब्राहमण क्या होते हैं ये बात भी मैं स्पष्ट कर ही दूँ.  कुमाउनी ब्राहमण दो वर्गों में विभाजित हैं. एक वो जो अपने खेतों में खुद हल चलते हैं और दुसरे वो जो मुख्यतः धार्मिक कर्मकांड करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं और खुद कि खेती बड़ी होते हुए भी कभी भी हल नहीं चलते. ये लोग खुद को हल चलाने वाले ब्राह्मणों से ऊँचा मानते  हैं और हल चलाने वाले ब्राह्मणों से विवाह सम्बन्ध रखना अपमानजनक समझते हैं. मजाक में ये लोग ही ऊँची धोती वाले ब्राह्मण कहलाते हैं.

जो भी हो हमें अपनी पसंद का जंवाई मिल गया और हम लोग खुश हैं और होने वाले मांगलिक कार्य कि तैयारियों का मजा ले रहे हैं. बहुत सारी तैयारियां कि जानी हैं. तरह तरह कि खरीदारी होनी हैं.  कल यूँ ही मेरी पत्नी  ने अलमारी से पहाड़ी स्त्रियों द्वारा मांगलिक कार्यों में  ओढ़ी जाने वाली चुन्नी जिसे हम पिछोड़ा कहते  हैं निकाली   तो उसे देख कर मेरी ढाई वर्षीया पुत्री दुल्हन बनने को मचल गयी और उसने दुल्हन का रूप धर ये तस्वीर खिचवाई.


कहा जाता है कि बेटियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं. मेरी भतीजी का उदहारण मेरे सामने ही है. मेरी स्मृतियों में वो पल अभी भी एकदम स्पष्ट है जब पता चला था कि मेरी एक भतीजी पैदा हुई है. बचपन में उसकी शरारतें उसका चुलबुलापन सब बिलकुल आँखों के सामने ही है. लगता ही नहीं कि कुछ ही दिनों में वो विदा होकर अपनी ससुराल चली जाएगी.
शायद कुछ ही  वर्षों  बाद अभी खेल खेल में दुल्हन बन रही मेरी बेटी भी ऐसा ही पिछोड़ा पहन विदाई के लिए मेरे सामने खड़ी होगी. तब कैसा महसूस होगा ....
कोई बात नहीं १८ जनवरी २०११कि सुबह इस बात का भी एहसास हो ही जायेगा.










शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

डेंगू क्या सच में एक बीमारी है?

पिछले वर्ष हमारी कालोनी में डेंगू एक महामारी के रूप में फैला. बहुत से लोग इसकी चपेट में आए जिनमे से मैं खुद भी एक था. अब मैं मेरे खुद व अपने मित्रों के अनुभव आपसे बाट रहा हूँ.


पिछले वर्ष मैं बहुत समय बाद बीमार पड़ा. करीब पांच या छः  दिन तक लगातार १०२ डिग्री से ऊपर ही बुखार रहा. सिर में तेज दर्द  भी था.  मैंने डाक्टर साहब कि सलाह ली तो उन्होंने मुझे खून में प्लेटलेट कि जाँच करवाने के लिए कहा. मैंने दिल्ली कि मशहूर प्रयोगशाला लाल पैथ से जाँच करवाई तो  तीन दिन में ही मेरे रक्त में प्लेटलेट्स संख्या  दो लाख से  कम होते होते ८ हजार तक आ गयी .  डाक्टर साहब ने फ़ौरन मुझे अस्पताल जाने कि सलाह दी और मैंने सरकारी आदमी होने कि वजह से  राम मनोहर लोहिया अस्पताल का रुख किया जहा पर मेरी सारी रिपोर्ट्स देखने के बाद आपातकालीन विभाग कि डाक्टर साहिबा ने बताया कि अगर मेरी प्लेटलेट्स सख्या ७००० से कम होती है और शरीर में कही से खून का स्राव होता है तभी  मुझे अस्पताल में भर्ती किया जायेगा. मुझे आराम व कुछ जरुरी सलाहों के साथ घर वापस भेज दिया गया. भाग्यवश अगले दिन से ही मेरी प्लेटलेट्स संख्या में इजाफा होने लगा और मैं स्वस्थ हो गया. इस दौरान मुझे कभी भी जरा सी कमजोरी या अन्य कोई और शिकायत नहीं थी. सिर्फ तेज बुखार और सिर दर्द ही हुआ करता था.


ऐसा ही मेरे मित्रों के साथ हुआ पर  उन्होंने कुछ बड़े प्राइवेट अस्पतालों कि ओर दौड़ लगाई जहाँ उन्हें सात आठ  दिन ICU  जिसे शायद सघन चिकित्सा  कक्ष कहते हैं, में रखा गया. उन बेचारों को जब उनकी  प्लेटलेट्स संख्या  ३५००० के अस पास पहुंची तो प्लेटलेट्स भी चढ़ाये गए . सभी लोग निजी अस्पतालों में  ७०-८० हजार से डेढ़ लाख रुपये अर्पित करने के बाद डेंगू रूपी बीमारी से मुक्त हो पाये. 


मेरे   एक मित्र हैं जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव. उन्होंने भी पिछले वर्ष इन्हीं दिनों  अपनी पत्नी का इलाज नॉएडा के प्रसिद्द कैलाश हॉस्पिटल में करवाया. जब भाभी जी कि  प्लेटलेट्स संख्या ६०००० के आस पास थी तब उन्हें कैलाश हॉस्पिटल के  ICU में भर्ती कर लिया गया था. बाद में उन्हें भी प्लेटलेट्स का कोम्बो पेक चढ़ाने   कि आवश्यकता पड़ी जिसके लिए स्वस्थ रक्तदान करता ढूंढे गए. जगदम्बा जी कि जानकारी में जो पांच छः स्वस्थ युवक थे उन्हें बुलवाया गया और २०० रुपये के शुल्क के साथ उनका रक्त परीक्षण हुआ तो पता चला कि उन स्वस्थ युवकों के रक्त में भी आवश्यक प्लेटलेट्स संख्या पूरी नहीं थी. एक भाई के रक्त में  प्लेटलेट्स संख्या  तो शायद ६०००० थी जबकि वो एकदम स्वस्थ थे यानि कि उन्हें कोई बुखार सर्दी जुखाम या कोई अन्य प्रत्यक्ष बीमारी नहीं थी. बड़ी मुश्किल  से जगदम्बा प्रसाद जी ने दो ऐसे युवकों का इंतजाम किया जनके रक्त में आवश्यक प्लेटलेट्स संख्या विद्यमान थी.


इस वर्ष भी भाभी जी बीमार हैं पर  जगदम्बा प्रसाद जी उन्हें घर पर ही गिलोह के पत्तों का रस पिला रहे हैं ताकि उनके एक डेढ़ लाख रुपये बच सकें.


अपने खुद के और मित्रों के अनुभव से मेरे मन में डेंगू को लेकर कुछ प्रश्न उठे हैं .


१.  क्या डेंगू सच में एक खतनाक बीमारी है या सिर्फ media hype है ?


२.  क्या रक्त में प्लेटलेट्स संख्या बुखार के बिना भी कम हो सकती हैं ? यानि कि एक स्वस्थ व्यक्ति के रक्त में प्लेटलेट्स संख्या सामान्य से कम होने के बावजूद भी वो बिना किसी परेशानी के रह सकता है. अगर ऐसा है तो प्लेटलेट्स संख्या के लिए इतनी हाय तोबा क्या सिर्फ कुछ लोगों को फायदा पहुचाने के लिए है.


३.  कहते हैं कि डेंगू है या नहीं इसका पता जाँच के एक महीने बाद ही चल पाता है तो सिर्फ एक हफ्ते के बुखार के बाद ही डाक्टर लोग डेंगू है, डेंगू है का राग क्यों अलापने लगाते हैं ? सिर्फ लोगों को डराने के लिए.


४. सरकारी हॉस्पिटल वाले प्लेटलेट्स संख्या जब ७००० से नीचे पहुचती है और रक्त स्राव होता है तभी स्थिति को विकट मानते हैं जबकि निजी अस्पताल प्लेटलेट्स संख्या ६०-६५ हज़ार होने पर ही ICU में भर्ती कर लेते हैं और ३०-३५ हजार पर पहुचाने पर प्लेटलेट्स के कॉम्बो पेक चढ़ाने लगाते हैं. क्या सरकारी और निजी मापदंड अलग अलग है.


मैं नहीं जानता कि मैं सही हूँ या गलत पर मन में आम आदमी कि तहर से अक्सर चिकित्सा जगत कि इन विसंगतियों पर सवाल उठते रहते जिनका जवाब ढूंढ़ रहा हूँ.

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

मेरे पाप ग्रह.

आजकल नवरात्रों का जोर है. चारों तरफ देवी कि पूजा हो रही है. आज अष्टमी थी. सुबह सुबह छः बजे पड़ोस कि एक महिला ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया और बिटिया को कंजिका के लिए भेजने को कहा. मेरी बिटिया पिछले एक सप्ताह से वाइरल ज्वर से पीड़ित थी और उसे अभी भी हलकी खांसी है जिसकी वजह से मैंने विनम्रता से उन्हें मना कर दिया और समझाया कि बच्ची बीमार रही है और तला व भारी भोजन वो भी एकदम सुबह सुबह करने से उसका गला या पेट ख़राब हो सकता है पर वे महिला तो बच्ची को साथ ले जाने के लिए जिद पर अड़ गयीं. उन्हें मेरी परेशानी समझ ही नहीं आ रही थी. पुण्य कमाने के फेर में उन्हें मेरी बच्ची के स्वस्थ्य का कुछ भी ख्याल नहीं था अतः मुझे अष्टमी कि सुबह एक देवी को कटु शब्दों के साथ अपने द्वार से वापस भेजना पड़ा.

फिर छत पर अपने पौधों के पानी देने गया तो देखा कि गमले में लगे मेरे गुड़हल पर एक फूल खिला था. कहते हैं कि गुड़हल का फूल भगवती को बेहद प्रिय होता है और अगर ये देवी को अर्पण किया जाय तो वे प्रसन्न होती हैं. मेरा भी मन था कि देवी को प्रसन्न किया जाय पर अपने इस इकलौते गुड़हल के फूल कि बलि मैं देवी को नहीं दे पाया.


मुझे लगा कि अब देवी मुझ से प्रसन्न नहीं होंगी. मुझे वैष्णो देवी कि अपनी यात्रा कि भी याद आ गयी जब मैं भवन के मुख्या द्वार से  देवी के दर्शन किये बिना ही वापस लौट आया था. असल में क्या हुआ कि जब हम लोगों कि देवी के दर्शनों कि बारी आयी तो सुबह कि आरती के लिए भवन का मुख्या द्वार बंद कर दिया गया था जिससे वहां पर भक्तों कि भीड़ एकत्रित हो गयी. मैं एक किनारे हो कर देवी के भक्तों कि धक्का मुक्की देखने लगा कि मेरी नज़र कुछ ऐसे भक्तों पर गयी जो उस भीड़ का फायदा लेकर वहां खड़ी स्त्रियों से छेड़छाड़ कर रहे थे. मैंने जब ये द्रश्य अपने साथ खड़े मित्र को दिखाया तो उसने हँसते हुए कहा कि ऐसा तो भीड़ भाड़ में होता ही है तू अपनी नज़रें पवित्र रख और इन बातों पर ध्यान ना दे. पर जनाब मैं अपना ध्यान इन चीजों पर से हटा नहीं पाया और मैंने उस वक्त ही माँ के दर्शन किये बिना ही वापस लौटने का फैसला लिया.

ऐसा अक्सर होता है कि मैं समाज द्वारा स्थापित रीतियों का पालन नहीं करता. ज्योतिषी लोग कहते हैं कि ऐसा मेरी कुंडली के विभिन्न भावों में स्थित पाप ग्रहों के कारण होता है जिनकी मुझे शांति करवानी चाहिए.

सोचता हूँ कि कोई अच्छा सा पंडित मिले तो ग्रह शांति करवा ही लूँ ताकि अब कभी वैष्णो देवी जाने का अवसर मिले तो मुझे पहले जैसे द्रश्य नज़र ही ना आयें और फिर मैं भी अष्टमी को पुड़ियाँ खा खा कर परेशान हो चुकी कन्याओं के मुह में अपनी तरफ से भी दो पुरियां ठूस कर देवी को प्रसन्न करूँ और पुण्य कमाऊ.



और अंत में ये वो पुष्प है जिसे में देवी को अर्पित  नहीं कर पाया......


गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

अपराध की रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी क्या है ?

 
कल प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड में माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जिसमे माननीय जज साहब ने स्वीकार किया की संतोष सिंह ने ही प्रियदर्शिनी मट्टू की बलात्कार के बाद हत्या की लेकिन ये अपराध रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी में नहीं आता इसलिए उसकी मौत की सजा आजीवन कारावास में तब्दील कर दी गयी. जिसका अर्थ ये हुआ की वो अपराधी कुछ वर्षो के कारावास के बाद आम माफ़ी पा सकता है (जहाँ तक मुझे ज्ञात है एक आजीवन कारावास के अपराधी को अच्छे चाल चलन के आधार पर राज्य की तरफ से माफ़ी भी दी जा सकती है ).

क्या कोई बताएगा ये रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी का अपराध  क्या होता है?  

आप एक लड़की को तंग करें. उसका जीना दूभर कर दें. फिर मौका मिले तो उसे अपनी हवस का शिकार बनायें और फिर उसकी हत्या कर दें. अब इसके बाद एक व्यक्ति किसी के साथ और क्या कर सकता है जिसे अपराध की रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी  में रखा जायेगा. 

कुछ वर्षो पहले फ्रंट लाइन पत्रिका में एक महिला के शव की तस्वीरें छपी थीं. उस आठ माह की गर्भवती महिला की हत्या करके उसके पति ने उसके शव को छोटे छोटे टुकड़ों में कटा और उन्हें बोरे में भर कर रेल के डिब्बे में रख दिया. जब उस पति को सजा देने की बात आयी तो भी माननीय कोर्ट ने यही कहा की ये अपराध अपराधों  की रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी  में नहीं आता है.

क्या हमारे किसी माननीय जज साहब ने कभी उदाहण देकर  बताया है की  रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी  का अपराध ऐसा होता है ?

मुझे ये फैसला  हजम नहीं हुआ . हाजमोला मिलेगा.

बुधवार, 29 सितंबर 2010

शहीद भगत सिंह की याद में कुछ मेरे मन की कुछ बातें

शहीद भगत सिंह बचपन से मेरे हीरो रहे हैं. मैं छुटपन से ही किताबें पढने का शौक़ीन रहा हूँ. सभी क्रांतिकारियों के विषय में खूब पढ़ा. चंद्रशेखर आजाद ,भगत सिंह, अशफ़ाक उल्ला खाँ जैसे क्रांतिकारियों के बारे में जानकर मैं हमेशा ही उत्साहित होता रहा.
जाने क्यों मुझे कभी भी महात्मा गाँधी या जवाहर लाल नेहरू ने उतना प्रभावित  नहीं किया जितना इन क्रांतिकारियों ने किया. हो सकता है बाल अवस्था में बच्चे रोमांच कि ओर ज्यादा आकर्षित होते हों. बचपन के ही उस आकर्षण को लेकर बड़ा हुआ. 
दरियागंज के सन्डे बाजार में घूमते हुए एक बार शहीद भगत सिंह के बारे में लिखी किताब मेरे हाथ आयी जो शायद मैं पैसे कम पड़ने कि वजह से खरीद नहीं पाया और जिसका मुझे आज भी बहुत मलाल है. पर मैंने वही पर खड़े खड़े उसे पढ़ा. उसमे भगत सिंह जी के समाजवाद व अन्य विषयों पर लिखे कई निबंध नुमा लेख थे जिन पर एक नजर मारने पर ही मुझे एहसास हो  गया कि  वास्तव में भगत सिंह कितने बड़े विचारक थे. इतनी कम उम्र में भी उनकी सोच कितनी विकसित थी.
वो व्यक्ति  मात्र २३ वर्ष कि अवस्था में फंसी के फंदे पर झूल  गया और ये एक स्वयं  वरण की हुई शहादत थी जिससे वो चाहते तो आसानी से बच सकते थे.   ऐसे महान व्यक्तित्व को इस देश ने कितनी आसानी से भुला दिया. मैंने कल किसी भी राष्ट्रीय स्तर के समाचारपत्र में उनके विषय में कोई भी लेख नहीं देखा. हो सकता है की यहाँ वहां कुछ लिखा भी हो तो वो मेरी नज़र से चूक गया हो लेकिन कुछ विशेष कहीं नहीं था .  

वहीँ मैं जब भी उनके समकक्ष  जवाहर लाल नेहरू को रखता हूँ तो मैं नेहरू जी को बहुत बौना पाता हूँ. ज्यों ज्यों जवाहर लाल जी के विषय में जाना त्यों त्यों गाँधी परिवार के प्रति मेरे मन का सम्मान  जाता रहा. कहते हैं की मोती लाल नेहरू ने वकालत के पैसे से इतना धन कमाया था की उससे उनकी सात पीढियां आराम से खा सकती थी और  उन्होंने वो सब देश पर न्योछावर कर दिया पर मुझे ऐसा कुछ नहीं  लगता. मोती लाल जी ने एक सोचा समझा निवेश किया. उन्होंने अपने जीवन की कुछ वर्षों की कमाई देकर  इस देश पर राज करने का पट्टा  अपनी जाने कितनी  पीढ़ियों के नाम लिखवा लिया. जवाहर लाल, इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस देश पर राज किया और भविष्य में  राहुल गाँधी या प्रियंका गाँधी के राज करने की संभावना है.

जवाहर लाल जब प्रधान मंत्री बने तो उस वक्त उनसे ज्यादा सक्षम और बेहतर  नेता देश में मौजूद थे पर नेहरु जी का भाग्य उनके साथ और इस देश का भाग्य भगवान भरोसे था. जरा सोचो भगत सिंह २३ वर्ष में ही दुनिया छोड़ कर चले गए और अपने जवाहर लाल २४ या २५ वर्षा की आयु में मजे से विद्या अध्ययन कर इंग्लैंड से वापस लौटे. फिर उनका विवाह उनके पिता द्वारा विशेष रूप से चुनी गयी कन्या के साथ कर दिया गया. इसके बाद उन्होंने  असहयोग आन्दोलन के समय यानि की १९२१-२२ से देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जब उनकी आयु लगभग ३२-३३ वर्ष के आस पास रही होगी. यानि की कहा जा सकता है की वो जवानी  के पूरे मजे लेने के बाद स्वतंत्रता संग्राम के युद्ध में कूदे. इसके बाद  नेहरू के ऊपर  गाँधी जी का वरद हस्त रहा जिन्होंने उन्हें प्रधानमंत्री का पद दिलवा दिया. वहीँ हमारे प्यारे महात्मा गाँधी जी ने भगत सिंह जी की फांसी को टालने के लिए कुछ भी नहीं किया.

भगत सिंह जी ने इस देश के लिए अपनी जान दे दी और नेहरू जी इस देश को दी अपनी वो संताने जो  तमाम अक्षमताओं के बावजूद आज तक इस देश पर राज कर रही हैं.

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

जब आप सोचते हैं तो अपना कौन सा अंग खुजाते हैं?

अजीब सा प्रश्न है मेरा पर इस ओर मेरा ध्यान कैसे आकृष्ट हुआ बताता हूँ. . असल में कुछ दिन पहले मुझे कुछ property dealers के संपर्क में आना पड़ा. उनमे से एक थे मल्होत्रा साहब. मैं जब भी उन से कोई मुश्किल सा प्रश्न करता तो बरबस ही उनका हाथ नीचे उनके अंग विशेष पर चला जाता और वो अपने सारे विचारों को वहां से दुह कर लाते. उनकी इस हरकत ने मुझे इस विषय पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया.

मैंने अक्सर देखा है कि आप किसी से कोई ऐसा प्रश्न करो जिसका जवाब देने के लिए उसे थोडा मेहनत करनी पड़े तो वो अपने शरीर का कोई ना कोई अंग खुजलाने लगेगा. कोई सर खुजलायेगा, कोई अपनी कनपटी पर खुजलायेगा, कोई अपने कान खुजलाना शुरू कर देगा, कोई ठोड़ी खुजलायेगा, कोई अपना पेन लेकर अपनी पीठ खुजलाने लगेगा और कोई कोई भाई अपनी उंगली लेकर वहा तक पहुच जायेगा.


ये क्या हरकत है हम लोगों कि. हम ऐसा क्यों करते हैं. क्या बड़े बड़े पहुचे हुए लोग भी ऐसा करते हैं या ये हम जैसे निम्न वर्गीय लोगों का ही अधिकार है या समाज में ऐसा होता ही नहीं सिर्फ मेरी नजर ही ऐसी है. आपने कभी इस ओर ध्यान दिया है. शायद नहीं दिया होगा. ऐसी बचकानी हरकत करने का लाइसेंस मैने ही लिया है.


चलिए मैंने थोडा आगे सोचा कि ऐसा क्यों होता है. फिर मुझे याद आया कहीं पढ़ा था कि हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं और अलग अलग व्यक्ति कि चेतना अलग अलग चक्र पर स्थित होती है. जो निम्न वर्गीय होते हैं उनकी चेतना उनके मूलाधार चक्र पर अवस्थित होती है और जैसे जैसे उनका लेवल बढ़ता जाता है उनकी चेतना उर्ध्वगामी होती जाती है. तो शायद जब हम चेतन्य होने का प्रयास करते हैं तो हम अपने उस चक्र के आस पास के अंग को खुजलाते हैं जिस चक्र पर हमारी चेतना स्थित होती है.


मैंने तो बस यहीं तक सोचा और उससे आगे सोचने से ज्यादा बेहतर समझा कि समस्या को ब्लॉग जगत के हवाले कर दिया जाय. चलिए आप सोचे और बताये कि इस दौरान आपने अपना कौन सा अंग खुजाया.

वो एक घंटा जब मैं अजीम प्रेमजी के समान था.

सुख दुःख, हानि लाभ सिर्फ हमारी मानसिक अवस्थाएं हैं. ये बात मुझे सैद्धांतिक  रूप में तो मालुम थी पर इसका वास्तविक अनुभव मुझे अब  हुआ. मैं सप्ताहांत  व्यतीत करने के  लिए अपने  ससुराल गया हुआ था. अचानक रविवार शाम चार बजे  बड़े भाई साहब ने मुझे फोन कर बताया कि मेरे  घर का पिछला दरवाजा खुला पड़ा है और मैं जल्दी से घर वापस लौट आऊं.  शुक्रवार शाम जब हम लोग घर से निकले थे उस वक्त मैंने खुद ही सभी दरवाजे बंद किये थे. मुझे लगा कि हमारे घर में चोरी हो गयी है. जब मैंने ये बात अपनी पत्नी को बताई तो उनके चेहरे कि हवाइयां ही उड़ गयी. वहां का माहौल एक  ही क्षण में बिलकुल बदल गया. मेरे सास ससुर के चेहरे कि भी रंगत बदल गयी. अभी तक जहाँ सब कुछ शांत था वही एक हलचल सी मच गयी.मैंने पत्नी से कहा कि मैं अकेला घर वापस लौट जाता हूँ और वहा पहुच कर हालात कि जानकारी उन्हें दे दूंगा पर पत्नी ने कहा कि वो भी साथ में वापस लौटेंगी. आनन फानन में पत्नी ने घर लौटने  कि तैयारी शुरू की पर साथ साथ उनका मुझे कोसना भी शुरू हो गया कि ये घर कि सुरक्षा का कोई ख्याल नहीं रखते हैं. सारा घर राम भरोसे रहता है. घर के किसी भी  खिड़की या जंगले पर कहीं भी ग्रिल नहीं लगी है.  चोरो को खुला निमंत्रण  दिया हुआ है और अब घर का दरवाजा भी खुला ही छोड़ आए. चोरों ने पूरा घर साफ कर दिया होगा. कहते थे मेरी मेहनत कि कमाई है कहीं नहीं जा सकती. अब सिर पकड़ कर रोना आदी आदी.

असल पत्नी का मुझे कोसना वाजिब भी था क्योंकि मैं वास्तव में लापरवाह किस्म का आदमी हूँ और पैसे यूँ ही खुले में रख देना, घर का दरवाजा बंद किये बिना ही कहीं भी चल देना जैसी लापरवाहियां  अक्सर  करता रहता हूँ और जब पत्नी टोकती है तो कह देता हूँ कि मेरी मेहनत कि कमाई है यूँ ही बर्बाद नहीं जा सकती. इसके अतिरिक्त मेरे घर में चोरों से सुरक्षा के वास्तव में कुछ भी इंतजामात नहीं हैं. असल में मुझे कभी लगा ही नहीं कि मेरे घर में कुछ ऐसा है कि कोई चोर उसे चुराने  कि गलती करेगा. वैसे भी आसपास सभी को पाता है कि सरकारी नौकरी करता है इसके घर पर क्या होगा. ये बात सही भी है सरकारी तन्खाव्ह इतनी कम नहीं होती है कि आपके तन पर कपडे ना हों और इतनी ज्यादा भी नहीं होती कि आपकी अलमारी भी कपड़ों से भरी पड़ी हो.

पत्नी का मुझे कोसना चल रहा था और मैं चुपचाप सुने जा रहा था. मैं भी सोच रहा था  कि मेरे घर में तो कोई था ही नहीं और दरवाजा खुला रह गया तो चोर आराम से घर कि एक एक चीज उठा ले गए होंगे. मेरा नया कंप्यूटर भी चला गया होगा. कंप्यूटर जाने कि बात मन में आते ही  पहली बार मेरे माथे पर चिंता कि लकीरें उभरी कि अब मैं ब्लॉग्गिंग कैसे करूँगा. 
   
मेरे माथे पर चिंता कि लकीरें उभरी ही थी कि दोबारा से भाई साहब का फोन आ गया कि घर पर सब कुछ सुरक्षित है उन्होंने सब अच्छी तरह से जाँच लिया है और कोई चोरी वगेरह नहीं हुई. चिंता कि कोई बात नहीं है, हम आराम से आ सकते हैं. उन्होंने पिछले दरवाजे पर ताला लगा दिया है. 

अब सब ओर शांति ही शांति छा गयी. अंतिम प्रवचन सासु माँ का हुआ कि अपने घर में सुरक्षा व्यवस्था में सुधार  कर लो और निर्णय लिया गया कि अब आराम से चाय पीकर घर वापस लौटेंगे. 

इस एक घंटे में ही मैं  एक छोटे-मोटे निम्न मध्यम वर्गीय भारतीय से बिलकुल लुटा-पिटा भारतीय और फिर वापस वही निम्न मध्यम वर्गीय भारतीय हो गया था.   

कुछ समय पहले अपने   अल्पसंख्यक अरबपति प्रजाति के  भाई अजीम प्रेमजी को भी ऐसा ही एहसास हुआ होगा जब वो भारत के सबसे अमीर आदमी से अचानक विश्व के सबसे अमीर आदमी बने और फिर कुछ ही वक्त में वापस अपनी जगह पर लौट आये. वो उच्च वर्गीय  है इसलिए उन्हें उच्चतम बनने का सपना आया और मैं निम्नवर्गीय हूँ इसलिए मुझे निम्नतम हो जाने  का सपना आया. समानता एक ही है कि हम दोनों को सपने ही आए. 

इस तरह जीवन में पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सुख दुःख हानि लाभ सिर्फ हमारी मानसिक अवस्थाएं हैं.

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

एक भीगी सी शाम और शर्मशार कर देने वाले विचार.

कल शाम  मुझे अचानक अपनी ईस्ट दिल्ली से साऊथ दिल्ली जाना पड़ा. अब जो लोग और लुगाई दिल्ली के इन हिस्सों से अपरिचित हैं तो उन्हें बता दू की पूर्वी दिल्ली अधिकांशतः निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की दिल्ली है. ये सादी पेंट कमीज, कुरता पायजामा, सलवार कमीज और दुप्पट्टा पहनने वालों की दिल्ली है जबकि साऊथ दिल्ली इसकी एकदम उलट है.

साऊथ दिल्ली में खुलापन है. ऐसा लगता है की आप किसी यंगिस्तान में घूम रहे हैं. कोई बूढ़ा नजर ही नहीं आता. अब भला नजर आए भी तो कैसे जवानों की रंगीनियों से नजरें भटकती ही नहीं. यहाँ तरह तरह के हेयर स्टाइल ओढ़े और अलग अलग किस्मों के कपड़ों में ढके लोग चरों तरफ घूम रहे होते हैं. राम कसम  मैंने खुद के पैरों पर इधर उधर घूमते हुए  इन नजारों को नगीं बेशर्म आखों से कैच करते  कई शामें रंगीन की हैं. कोई कह सकता है की ऐसे भी क्या  शामें रंगीन होती हैं तो जनाब  हाँ कुछ लोग किनारे रहकर भी पानी को छू कर आ रही हवाओं से भीग जाते हैं. मैं उनमे से ही हूँ.  

ये सब बकवास छोड़ मैं मुद्दे की बात पर वापस आता हूँ.....तो क्या हुआ की मैं साऊथ एक्स से दिल्ली की प्रसिद्द ब्लू लाइन बस में अपनी पूर्वी दिल्ली वापस लौट रहा था.... जैसा दिल्ली में आजकल का मौसम है हलकी बारिश हो रही थी.....एक बस स्टेंड पर रुकने के बाद जैसे ही बस चली ही थी की अचानक पिछले दवाजे पर एक २०-२१ वर्ष का  लड़का प्रकट हुआ  जिसकी जींस की मियानी उसके घुटनों तक थी और कमीज उसके कूल्हों की हड्डी के उभार से डर कर  ऊपर चढ़ी जा रही थी और  शायद कमीज और जींस का मेल कराने के लिए उसने मिस इंडिया की तरह से एक लम्बी तनी वाला  बैग अपने जीरो साइज शरीर पर तिरछा टांग रखा था.  कलम को ज्यादा तकलीफ ना देते हुई यही कहूँगा की वो डांस इंडिया डांस के प्रिंस की ही कॉपी था. तो जब वो बस की एक सीढ़ी चढ़ गया तो ऊपर आने की बजाये वो वापस घुमा और अपना हाथ बाहर निकल कर चिल्लाने लगा... आजा आजा... जल्दी कर ना ....हाथ दे ...हाथ दे...

मैं समझ गया..... बेटे इसके  साथ कोई ना कोई लड़की जरुर है......और जो भी कोई लड़की है वो इसकी बहन नहीं है क्योंकि बहन होती तो पहले बहन को बस में चढ़ाता फिर खुद चढ़ता. अब जाहिर सी बात है की अपनी नजरे "वो कौन है" का इंतजार करने लगी  पर ये क्या इससे पहले की लड़की आती एक बाबाजी ने बस का डंडा पकड़ लिया और ऊपर चढ़ने की कोशिश  करने लगे. इधर लड़का अपनी संगिनी को बस में चढ़ाने  की फ़िराक में था उधर  बाबाजी ऊपर चढ़ने  की कोशिश कर रहे थे. दो पीढ़ियों के बीच के बीच की लड़ाई एक बार फिर सामने आ गयी. बूढ़े बाबाजी किसी तरह से खुद को बस में खीच लेना चाहते थे पर  जवान लड़का  बीच  में खड़ा था जो उनके पीछे की अपनी मित्र को पहले चढ़ाना  चाहता था.  खैर कन्डक्टर ने तेज होती बस रुकवाई तीनों बस में चढ़े और फिर दुबारा बस चली.

आह तेज चलती सांसें  और उनके प्रभाव से हरकत कर रहे उस मादा के अंगों को फिर से अपनी नंगी और बेशर्म आँखों से अच्छी तरह से नाप कर मैंने उस युवा जोड़े को सहज होने देने के लिए  अपनी तरफ की खिड़की से बाहर के अँधेरे में अपनी नजरों में कैद डाटा को प्रोसेस करना शुरू किया. लड़की छोटे कद की पर भरे-पूरे बदन की मालकिन  थी. चेहरा भी गोल मटोल और मासूम था. उसके चेहरे पर से बालपन की मासूमियत को निर्मम मर्दों से भरे  समाज ने अभी तक लुटा ना था(ओए होए......).  आवाज का टोन वही अपने धोनी जैसे क्रिकेटरों  वाला यंग  यंग सा. मुझे आजकल के लडके लड़कियों का ये क्रिकेटरों की तरह से बोलने का अंदाज बहुत पसंद है. वे  दोनों मेरे पड़ोस की बस के दरवाजे से लगाती सीट पर ही बैठ गए. कंडक्टर आकर उन्हें टिकट दे गया.लडके ने लक्ष्मी नगर का टिकट लिया और लड़की ने शाहदरा का टिकट. मेरा पहला अनुमान सही था की दोनों भाई बहन नहीं है. टिकट लेते वक्त भी दोनों ने दस रुपये का ही टिकट लिया. कंडक्टर उनकी इस हरकत से खफा था....लक्ष्मीनगर के १५ लगते हैं  पर बेचारे को लड़की ने उसे चुप करवा दिया... भैया पीछे आ रही डी टी सी बस में बैठ जाते तो तुम्हे ये भी नहीं मिलते. जो दे रहे हैं ले लो हम तो ब्लू लाइन में फ्री में चलते हैं...

वो दोनों साऊथ एक्स किसी व्यावसायिक पाठ्यक्रम के छात्र थे और अपनी कक्षा के उपरांत वापस लौट रहे थे. दोनों एकदम ताजा ताजा स्कूल से निकले बच्चे से लगाते थे. लड़का  कोई ज्यादा तेज तर्रार सा नहीं था. मुझे इस उम्र के लड़कों की अक्सर लड़कियों के सामने नजर आने वाली मर्दानगी उसमे अभी विकसित हुई सी नहीं दिख रही थी.  वो थोडा निढाल सा होकर अपनी सीट पर बैठ गया था. लड़की ने पूछा तुझे क्या हुआ... यार लगता है बारिश में भीगने से बुखार तो नहीं आ गया...

मुझे थोडा  अजीब लगा... अबे इतनी जल्दी बुखार...

लड़की ने लडके के माथे को छुआ... नहीं तो .. गर्म तो नहीं लगता. फिर उसने लडके के  गले पर इस कान से उस कान तक हथेली के पिछले  हिस्से से  ताप को महसूस किया... नहीं तो यहाँ भी गर्म नहीं है. अब लड़की का हाथ लडके की बाँहों पर फिसलता चला गया .... ना तू तो जरा भी गर्म नहीं है. अंत में लड़की ने अपनी हथेलिया लडके की हथेलियों पर रख दी ...ना कोई बुखार नहीं...तू जरा भी गर्म नहीं है.

मैं हक्का बक्का रह गया...लड़की ने लडके को छुआ और छूती चली गयी. मैं  दूर बैठा पूरा गर्म हो गया पर वो ठंडा ही रहा..कैसे?  ये उसकी मजबूती थी या मेरी कमजोरी?

क्या कहूँ ये छूने छुआने वाला मामला मुझे कभी रास नहीं आया.  

वो मीठी सी छुअन वो हलकी सी चुभन...ऐसे  शायराना शब्द मेरे लिए हमेशा से शब्द ही बने रहे मैं कभी इनका लुत्फ़  ना ले पाया.
अब इनमे लुत्फ़ वाली क्या बात है ?
है जनाब है...कहीं ना कहीं  तो है ही तभी तो शायरी भी हुई है.
अपन इसका लुत्फ़  क्यों नहीं ले पाते? असल में मेरा पिकअप लेमरेटा स्कूटर के ज़माने से ही आजकल की मोटर साइकिलों वाला रहा है..मैं कुछ ही सेकेण्ड में फुल स्पीड पकड़ लेता हूँ.
 मोटर गाड़ियों में इसे गुण और पुरुषों में अवगुण समझा जाता है. इसे कमजोरी की निशानी समझा जाता है. एक तरीके से सही भी है. मैं अपने इसी अवगुण की वजह से हमेशा लड़कियों से दूर दूर ही रहा. क्या करता कंट्रोल ही नहीं होता था. बिलकुल सच बोल रहा हूँ की मेरी पत्नी वो पहली लड़की थी जिसे मैंने छुआ था. और विवाह के १० वर्षों के उपरांत आज भी पत्नी को हिदायत देता रहता हूँ की बेवजह और बिना तैयारी के मुझे ना छूना. धीरे धीरे रे सजन हम प्रेम नगर के वासी..... वाली अपनी अदा नहीं है. अपनी मोटर तो रेस लगाने को तुरंत तैयार हो जाती है.

दोस्त लोग कहते हैं की ये कमी  है. मैं कहता हूँ की कमी या  कमजोरी तो तब हो यार जब गाड़ी की माइलेज कम हो और वो सवारी को बीच रास्ते में कहीं का ना छोड़ टें बोल जाय  पर अपनी गाड़ी तो जोरदार  पिकअप के साथ शानदार माइलेज भी देती है. अपनी माइलेज का स्तर बेशक अंतर्राष्ट्रीय ना हो  पर भारतीय परिस्थितियों में यहाँ के मानक स्तर को तो अवश्य ही छूता  है.   

अब अगर मन करे  तो इस विषय में अपने विचार दें ..........ना भी दे पाये तो कोई बात नहीं मुझे बुरा नहीं लगेगा.
शुभ रात्रि.......



रविवार, 5 सितंबर 2010

कश्मीर हमारा है

मैं छोटा था तब आपने परम मित्र प्रतुल के साथ संघ की शाखा में जाया करता था. वहां हम सभी बच्चे मिल कर एक खेल खेला करते थे "कश्मीर हमारा है". ये संघ का प्रयास था बच्चों के भीतर देश के महत्वपूर्ण हिस्से के प्रति प्रेम पैदा करने का और सच कहूँ तो इस प्रयास से मेरे जैसे अनेक भारतीयों के दिल में संघ ने अपने देश के उस अनदेखे हिस्से के प्रति प्रेम तो पैदा किया ही होगा.


आप कह सकते हैं की क्या सिर्फ कश्मीर ही हमारे देश का एक महत्व पूर्ण हिस्सा है. क्या बाकि हिस्से महतवपूर्ण नहीं तो इसका जवाब ये हैं की आजादी के बाद से कश्मीर हमारे देश का वो हिस्सा है जिस को देश से अलग करने का षड़यंत्र पडोसी देश पाकिस्तान अरसे से कर रहा है और कामयाबी की तरफ बढ़ता जा रहा है. यूँ तो चीन भी हमारे देश के एक हिस्से यानि की अरुणाचल प्रदेश पर अपना अधिकार जताता रहा है पर वहां पर हमारी चिंता बाहरी आक्रमण की है वहां भीतरघात की चिंता नहीं है. कश्मीर में तो मुस्लिम आबादी ज्यादा होने की वजह से भीतरघात सबसे बड़ी चिंता है.


कश्मीर समस्या सिर्फ इतनी सी है की मुस्लिम बहुल कश्मीर के हिन्दू राजा ने कश्मीर का भारत में विलय करवा दिया जो की पाकिस्तानी हुक्मरानों और कुछ तत्कालीन कश्मीरी मुस्लिम नेताओं को हजम नहीं हुआ. तब से आज तक पाकिस्तान के लिए ये सिर्फ नाक का सवाल बन गया है. एक आम कश्मीरी चाहे वो मुस्लमान हो या किसी दुसरे धर्म का (वैसे दुसरे धर्म के लोग कश्मीर में इस्लामिक आतंकवादियों ने छोड़े ही नहीं है और जो थोड़े बहुत हैं उन्हें भी घाटी छोड़ देने का नोटिस दिया जा चुका है ) कभी भी पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहेगा. ये बात १९४७ के बाद से अस्सी के दशक के अंत तक कश्मीर में व्याप्त शांति से स्पष्ट होती है. हालाँकि इस दौरान पाकिस्तान ने भारत के साथ कश्मीर को लेकर तीन युद्ध लड़े और सभी में मुह की खाई. अस्सी के दशक के अंत में जब अफगानिस्तान का मुद्दा ख़त्म हुआ और पाकिस्तान को भी तब तक समझ आ चुका था की प्रत्यक्ष युद्ध से कश्मीर को जीता नहीं जा सकता तो उसने अपने असली और ताकतवर हथियार का इस्तेमाल किया और वो हथियार था "कश्मीर में इस्लाम खतरे में है" अफगानिस्तान में लड़ रहे आतंकी कश्मीर आ गए और उन्होंने कश्मीर में इस्लामी आतंक की शुरुवात की. मासूम कश्मीरी पंडितों का कत्ले आम कर उन्हें घाटी से भगा दिया गया. आज कोई उनकी सुध लेने वाला और उन पर कविता लिखने वाला नहीं है. सभी लोग कश्मीर की पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित पत्थरमार भीड़ की क़ुरबानी पर कवितायेँ लिख रहे हैं.


अब  सारी बात साफ़ साफ़ बता ही दूँ. मेरे मन में कल से एक तूफान सा मचा है. एक ब्लॉग है जनपक्ष. उसमे कश्मीर पर एक कविता पोस्ट हुई. साथ में एक चित्र भी था. चित्र में एक वर्दीधारी एक महिला पर बन्दुक तन रहा है और कविता की एक पंक्ति कहती है "सिर पर निशाना साधे इतने जवान". बस क्या बताऊँ चित्र देख कर और कविता की इस पंक्ति को पढ़कर बहुत गुस्सा आया. अपना उस वक्त का सारा गुस्सा वही पर टिप्पणी के रूप में थूक आया पर दिल में शांति अभी भी नहीं हुई.


मुझे समझ नहीं आता की इस प्रकार की कविता लिखने वाले लोग क्या कश्मीर की समस्या को नहीं समझते? कश्मीर में जो कुछ भी इस वक्त हो रहा है वो सब इस प्रकार के भड़काऊ वक्तव्यों की वजह से ही हो रहा है. पाकिस्तानी एजेंट सुरक्षा बलों पर भीड़ भरे इलाकों में आक्रमण करते हैं और जवाबी कार्यवाही में जब आम कश्मीरी मुसलमानों हताहत होता है तो लोगों को बरगलाते हैं की भारतीय सेना कश्मीरी मुसलमानों का क़त्ल कर रही है. अभी कुछ वक्त पहले ही मैंने एक ब्लॉग पर भी एक कश्मीरी बच्चे के भारतीय सेना के जवानों द्वारा की गयी हत्या का बहुत ही विस्तृत वृतांत पढ़ा.शायद उस पोस्ट का शीर्षक था "क्या आपके आपके घर में भी सात साल का बच्चा है". उसे पढ़कर भी मुझे बहुत निराशा हुई थी की सब कुछ जानते और समझते हुए भी लोग किस तरह से झूट के जाल में फंस जाते हैं और इसे आगे फैलाते हैं . ये लोग वास्तव में इतने निर्दोष ह्रदय हैं जो पाकिस्तान के इतने साफ़ सुथरे षड़यंत्र को भी नहीं समझ पा रहे हैं या इनकी असलियत कुछ और ही है. जब पढ़े लिखे लोग भी इस तरह की बातों को बढ़ावा देते हैं तो आम जनता जब काले बन्दर पर या गणेश जी के दूध पीने की बात पर विश्वाश करती है तो उसे मुर्ख या अन्धविश्वाशी क्यों बताया जाता है.


मैं अपने सभी भाइयों से कहना चाहता हूँ की कश्मीर भारत का हिस्सा है. कश्मीर में आम जनता सडकों पर उतार कर जो भी विरोध कर रही है वो पाकिस्तानी एजेंटों के भड़काने पर कर रही है. हिंसक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए कभी कभी बल प्रयोग करना भी पड़ता है और इसमे कुछ जान माल की हानि भी होती है. ऐसे में सभी को मिलकर कुछ ऐसा करना चाहिए की आम लोगों का गुस्सा शांत हो ना की उनका गुस्सा और भड़क जाए.


जरा याद करें की उत्तराखंड की शांतिप्रिय जनता जब अलग राज्य की मांग कर रही थी तो उस वक्त भी अनेक लोग पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे. रामपुर तिराहा कांड में किस प्रकार से पुलिस कर्मियों ने औरतों के साथ बलात्कार किया था. वो उत्तराखंड के राष्ट्रभक्त लोगों के साथ किया गया क्रूरतम व्यव्हार था पर कभी भी उत्तराखंड के लोगों ने इस बात को लेकर देश से अलग होने के मांग नहीं की. ऐसी बात तो सुरक्षा बलों ने कश्मीर में कहीं भी नहीं की बल्कि कश्मीर में तो सुरक्षा बलों पर ही हत्या के मामले दर्ज किये जा रहे हैं. ये बात मैंने सिर्फ इसलिए याद दिलाई है ताकि वे लोग जो कश्मीर के हालात पर अपनी उलटी सीधी हरकतों से आम जन को भड़काने के लिए इस प्रकार के कार्य कर रहे हैं अपने बचाव में कोई कुतर्क ना पेश कर सकें.


वैसे तो मैं जानता हूँ की जिन लोगों के दिल में खोट है वो ठीक वैसा व्यव्हार करेंगे जैसा पाकिस्तानी अपने खिलाडियों के रंगे हाथों पकडे जाने पर भी उन्हें निर्दोष करार देकर कर रहे हैं.


मेरा पूरा विश्वाश है की जैसे पंजाब में पाक समर्थित आतंकवाद का सफाया हो चुका है और वहा अमन चैन व्याप्त है वैसा ही कुछ कश्मीर में भी अवश्य होगा क्योंकि कश्मीर हमारा है और हमारा ही रहेगा.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

नालायक का बस्ता भारी.

बचपन में कहावत सुनी थी नालायक का बस्ता भारी.....इसका मतलब हुआ की कम काबिलियत वाले दुसरे तामझाम से अपनी कमी को  छिपाते हैं जैसे की आपको अक्सर डरपोक आदमी ही अपनी  बहादुरी के किस्से बढ़ा चढ़ा कर सुनाता मिलेगा..... एक भ्रष्ट अधिकारी ज्यादा सख्त होगा....एक हिजड़ा कुछ ज्यादा  ही मटक मटक के चलेगा इत्यादी इत्यादि.

अब बचपन की ये कहावत क्यों याद आ रही है. असल में मेरे एक मित्र चाहते थे  की मैं अपने ब्लॉग पर कुछ सुधार करूँ ताकि ये सुन्दर दिखे. उन्होंने सुझाव दिया की मैं ब्लॉग पर कुछ सजावट करूँ... कुछ नए गैजट लगाऊ, एक आद घड़ी टांग दूँ, कुछ लिंक  डाल दूँ और  कुछ इसका थोबड़ा सुधार दूँ ताकि ब्लॉग पर आने वाले पाठक की रूचि में इजाफा हो.

मैंने इस विषय विचार किया. मुझे लगा की मित्र का सुझाव ठीक है पर तभी मुझे एक ब्लॉग दिखा जिसने मेरे मन से ब्लॉग को सजाने सवारने की मेरी इच्छा को बिलकुल ख़त्म ही कर दिया. जब मैंने पहली बार इस  ब्लॉग को  देखा तो मुझे लगा कि मेरे कंप्यूटर में कोई गड़बड़ी हो गयी है. कंप्यूटर में कोई खराबी है इसका ख्याल ही मुझे सदमा दे देता है तो जब मैं सदमे से उबरा मुझे बड़ा अच्छा लगा कि कोई अपने ब्लॉग को इस तरह से एकदम सादा भी रख सकता है.

अभी तक लेखन के अलावा दूसरी वजहों से मैं जिन ब्लोग्स कि तरफ आकर्षित हुआ वो हैं हथकढ़ और उम्मतें. हथकढ़ में टिप्पणी का आप्शन नहीं है पर लेखन और अपनी बात को कहने का अंदाज शानदार है और उम्मतें के बारे में लिख ही दिया है. 

अली साहब का ब्लॉग देख कर एक प्रश्न मन में अक्सर उठता है कि   पता नहीं अली साहब व्यक्तिगत जीवन में कैसे हैं. ब्लॉग देखकर लगता है कि सफ़ेद कुरते पायजामे में रहते होंगे पर क्या पता असलियत में नेल्सन मंडेला कि तरह से रंग बिरंगी कमीजे पहनते हों. चलो जो भी हो मुझे ये सादगी एकदम पसंद आयी और मैंने इस ब्लॉग का तुरंत अनुसरण करना आरंभ किया. अली साहब कि लेखनी शानदार है पढ़कर आनंद मिलता है.

तो साहब वापस अपनी बात पर आता हूँ कि मैंने अपने ब्लॉग का थोबड़ा सुधारने का विचार मैंने मन से निकल दिया है. डरता हूँ कि 'नालायक का बस्ता भारी' वाली कहावत का जीवंत उदहारण मैं ना बन जाऊं और लायक बनना  अपने बस में है नहीं. 

अब किसी भाई को मेरा ब्लॉग सादा और साधारण सा लगे तो अली साहब को नोटिस भेजें.

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

किसी से प्यार करो पर विश्वास नहीं..... क्या संभव है ?

ये कैसे हो सकता है की हम किसी से मोहब्बत तो करें पर उसका विश्वास ना करें.

हम जिस किसी से भी मोहब्बत करते हैं उस पर सहज ही विश्वास करने लगते हैं. यह एकदम   सामान्य सी बात है. ऐसा हो ही नहीं सकता की जिसे हम प्यार करें उसका विश्वास ही ना करें. असल में तो होता यह है की जब कोई व्यक्ति हमें अच्छा लगने लगता है तब हम उसकी हर अच्छी बुरी बात को भी पसंद करने लगते हैं और विश्वास करना इसी पसंद करने वाली भावना का अगला पढ़ाव होता है.

इसका अर्थ यह हुआ की ये कहना बिलकुल गलत है की प्यार  करो पर विश्वास नहीं. ऐसा हो नहीं सकता. 

वैसे क्या कुछ ऐसा हो सकता है की आदमी किसी पर विश्वास तो करे पर उससे मोहब्बत ना करे..... हाँ ऐसा तो हो सकता है की हम किसी व्यक्ति की बातों का विश्वास तो करें पर उससे प्यार ना करें.

तो क्या ऐसा भी हो सकता है की किसी व्यक्ति से हम घृणा करे  पर  उसका विश्वास भी करें. ...... शायद ऐसा नहीं हों सकता ... हम जिससे घृणा करेंगे उसकी बातों पर विश्वास तो कभी नहीं करेंगे.

अच्छा अगर हम साधारणतः जिस व्यक्ति से मोहब्बत करते हैं उस पर विश्वास ना करें तो क्या इसका कुछ फायदा होगा?

फायदे तो इस बात में बहुत हैं. उदहारण के लिए ..........

एक लड़की एक लड़के से मोहब्बत करती है. लड़का उसे अकेले में मिलने के लिए बुलाता है. चूँकि लड़की लड़के से मोहब्बत के साथ साथ  विश्वास भी करती है अतः उससे मिलाने के लिए अकेले चली जाती है और वहां लड़का आपने दोस्तों के साथ मिलकर लड़की से बलात्कार करता है. तो अपने विचार के अनुरूप यदि मोहब्बत विश्वास के बिना होती तो बलात्कार नहीं होता.

डिस्कवरी चेंनेल पर अंग्रेज पति फूट फूट कर रोता है. जिस पत्नी को प्यार किया और जिसका विश्वास किया वो बेवफा निकली. उनके बच्चों का पिता कोई और ही था. बन्दे का दिल टूट गया.  

आप आपने भाई से मोहब्बत करते हैं आप उस पर विश्वास भी करते हैं पर किसी दिन आपको पता चलता है की आपकी सारी संपत्ति उसने हथिया ली.

जनाब को  बेटे से बड़ा प्यार था और उस पर विश्वास भी बहुत था एक दिन पता चला की बेटा बुरी संगत में पड़ कर अपराधी बन गया.

तो क्या कहने वाले की बात सही है की प्यार करो पर विश्वास नहीं

और क्या यह संभव है की हम किसी से सिर्फ प्यार करें उस पर विश्वास नहीं?

ऑफिस में एक बंधू ने यूँ ही बातों बातों में विचार उछाला की मोहब्बत करो पर विश्वास ना करो. सारा ऑफिस उनका विरोधी हो गया. स्त्रियों ने इस विचार का सबसे ज्यादा विरोध किया. उन लोगों का मत था की विश्वास नहीं तो मोहब्बत नहीं. इस विचार के मुखर विरोधियों में से बहुत से ऐसे थे जिनके बारे में मुझे व्यक्तिगत रूप पता है की वो अपने प्रेमियों से विश्वासघात करते हैं. अतः मुझे इस विचार के पक्ष में आना पड़ा. वैसे भी अपनी हमेशा से "मां सेव्यं पराजितः" वाली मानसिकता रही है. मैंने आपने तर्क और कुतर्क लगा कर किसी तरह से बंधू की इज्जत बचायी. मामला वहीँ ख़त्म हो गया पर विचार मेरे मन में अटका ही रह गया.

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

लघु-शंका

उफ्फ.... ये लेह में क्या हो गया.... हे भगवान ये तू क्या क्या करता रहता है....... तेरी दुनिया में अव्यवस्था फैली पड़ी है..... जो निर्दोष हैं वो दुःख उठा रहे हैं और जो पापी हैं दुराचारी हैं वो फल फूल रहे हैं..... क्या हैं ये सब... हूँ...
...
.......

...............

देखा मैं इस ब्रह्माण्ड   के रचयिता उस सर्वशक्तिमान को यूँ पुकार रहा हूँ जैसे वो मेरा कोई  अधीनस्थ कर्मचारी हो और अपना कार्य सही ढंग से ना कर रहा हो पर  मैं भगवान राम या कृष्ण को कभी इस तरह से तू कहकर नहीं पुकारता जबकि वो उसके ही अवतार कहलाते हैं.

मुस्लिम भी अल्लाह को यूँ पुकारते हैं जैसे वो कोई भेड़ बकरी चराने वाला ग्वाला हो पर मजाल है की पैगम्बर हजरत मोहम्मद की शान में कोई गुस्ताखी हो जाय. कोई सलमान रुश्दी जैसा हो तो उसके नाम पर फ़तवा जारी हो  जाता है........

ऐसा क्यों है?
मुझे शंका है की कहीं हम लोग पागल तो नहीं हैं जो बिग बॉस को तो तू कहकर पुकारते हैं पर उसके सन्देश वाहकों को इतना सम्मान देते हैं......

रविवार, 15 अगस्त 2010

प्रेम प्रदर्शन, पत्नी की शिकायत और मेरा नजरिया

प्रेम क्या है मैं आज तक नहीं समझ पाया. पत्नी कहती है की अगर मैं उन्हें अंग्रेजी में I love you कहता हूँ या फिर महीने में एक बार फिल्म दिखाने ले जाता हूँ या समय समय पर लाल गुलाब भेंट करता हूँ तो मैं उनसे प्यार करता हूँ अन्यथा नहीं.

पता नहीं क्यों प्यार के इस प्रदर्शन को मेरा दिल स्वीकार नहीं पाता. मुझे मेरे बहुत से  मित्रों ने समझया की प्यार होना ही काफी नहीं कुछ लोगों के लिए प्रेम का प्रदर्शन भी बहुत आवश्यक होता है. हमें अपना प्रेम दर्शना भी आना चाहिए. वैसे तो हमारा प्रेम हमारे क्रिया कलापों से प्रदर्शित हो ही जाता है. पर फिर भी हमें कभी कभार इसका प्रदर्शन करना ही चाहिए.

मैं इन बातों को रोमांस की श्रेणी में रखता हूँ और साफ़ स्वीकारता हूँ की मैं रोमांटिक नहीं हूँ.

मैं सच्चे प्यार और रोमांस को एक ही बात नहीं मानता. आप बिना सच्चे प्यार के भी रोमांस कर सकते हैं.  रोमांस करना एक आदत हो सकती है पर प्यार करना एक आदत नहीं होती. सच्चा प्यार किसी किसी से ही हो पाता है और जरुरी ही नहीं की उसे प्रदर्शित भी किया जा सके.

 मेरी माँ ने या मेरे पिता ने कभी भी अपने प्यार को शब्दों में प्रकट नहीं किया. उनके प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी रोजमर्रा की बातों से ही हो जाती थी. मुझे इस तरह का प्रेम ही करना आता है जिसमे प्रेम करना ही महत्वपूर्ण है और उसका प्रदर्शन महत्वपूर्ण नहीं है.
 
मेरी इस बात  का मुझे यह उत्तर मिला की माता पिता और बच्चों का प्रेम कुछ और होता है और प्रेमी प्रेमिका या पति पत्नी का प्रेम कुछ और. ये बात भी मेरी समझ से परे है. मैं प्रेम को वर्गों में नहीं बाट पाता  की ये प्रेम माता पिता के लिए, ये प्रेम प्रेमिका के लिए, ये प्रेम भाई बहिनों  के लिए और  ये दोस्तों के लिए आदी आदी.  
 
 मेरे लिए प्रेम की भावना एक शाश्वत भावना है जो एक ही तरीके से हो सकता है . आप जिस से भी प्रेम करें उसे पूरी तरह से समर्पित होकर प्रेम करें. यही सच्चा प्रेम है. मुझे कभी नहीं लगता की अलग अलग लोगों के लिए किये गए प्रेम का अलग अलग महत्व होता है. अगर ऐसा है तो फिर वो भावना प्रेम नहीं कुछ और होगी. 
 
मैं जब समाज में देखता हूँ तो लगता है की आजकल प्रेम करो या ना करो पर उसका प्रदर्शन जरुर करो वाली मानसिकता चारों तरफ व्याप्त है.
 
कुछ लोगों के लिए ये प्रदर्शन का भाव इतना महवपूर्ण होता है की सच्चाई कहीं दूर उनके सीनों में दफ़न होती है. इसका एक ज्वलंत उदहारण अभी मुझे टीवी पर मिला जब मैं एक टीवी अभिनेत्री का उनके पुरुष मित्र (boy friend) वाला mms जो की समाचार चेनलों में प्रसारित हो रहा था देखा. उस mms में वो लड़की इतने विश्वसनीय  तरीके से अपने प्रेम का खुल्ला इजहार कर रही थी की कोई भी व्यक्ति किसी भी तरीके से उसकी बातों पर शक नहीं कर सकता था . पर  बाद में वही अदाकारा कहती है की वो सब बातें उससे जबरदस्ती बुलवाई या करवाई गयी थीं. मैं समझता हूँ की इससे बड़ी अदाकारी और कुछ नहीं हो सकती.

मैंने टीवी पर आ रही ये खबर अपनी पत्नी को दिखाई और पूछा की अगर मैं भी इन अभिनेत्री की तरह से अपने प्रेम का इतना ही विश्वसनीय प्रदर्शन करूँ पर वह वास्तविकता में एक अभिनय मात्र हो तो क्या फिर भी वो इस नकली अभिनय से संतुष्ट होंगी. उनका जवाब तो कुछ नहीं आया पर मैं समझता हूँ कुछ समय के लिए मुझे अनरोमांटिक होने के लिए कोसा नहीं जायेगा.

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

मिर्च बिना जीवन सूना.

मुझे कभी लौकी कि सब्जी बेहद पसंद थी. ये वो समय था जब माँ खाना बनाया करती थी. ये वो समय भी था जब लौकी इंजेक्शन के बिना ही उपजती थी. आज ना माँ है और ना प्राकृतिक ढंग से उगी लौकी तो वो स्वाद भला कैसे आयेगा. फिर भी मेरी पत्नी अपनी पूरी कोशिश करती हैं  कि मेरी जिव्हा को भाता लौकी का कोई व्यंजन बन सके.
उन्होंने तरह तरह के प्रयोग किये फिर एक दिन जब हमारे घर पर लाल मिर्च ख़त्म थी तो उन्होंने हरी मिर्च डाल के लौकी कि सब्जी बना दी. हरी मिर्च का ये प्रयोग हम दोनों को बहुत भाया. तब से हमने अपने घर में बनाने वाली प्रत्येक सब्जी में हरी मिर्च डालकर देखा. कुछ सब्जियों का जायका तो एकदम ही बदल गया. मैंने एक बार किसी शेफ के इंटरव्यू में पढ़ा था कि आप सिर्फ भारतीय पकवानों के साथ इस प्रकार के प्रयोग कर सकते हैं जहाँ कि आप कभी भी किसी एक मसाले को कम ज्यादा या अदल बदल कर उस पकवान का जायका बदल सकते हैं. उसने बताया था कि दुसरे देशों के पकवानों कि रेसिपी एकदम नपी तुली होती है. जरा सा भी एक आद मसाला कम ज्यादा या इधर उधर किया और पकवान कि वाट लग जाती है.

मैं एक कुक नहीं हूँ अतः इस विषय पर ज्यादा  कुछ नहीं कह सकता पर हाँ मिर्च पर जरुर चार बातें बनाऊंगा.

मेरी समझ से  मिर्च एक ऐसी चीज है जिसे जब हमारा शरीर ग्रहण करता है और जब त्यागता हैं तो दोनों ही वक्त इसका स्वाद हम पहचान लेते हैं. खड़ी भाषा में कहूँ तो मिर्च के स्वाद  को हमारे दोनों मुंह पहचान लेते हैं.

मिर्च को जिव्हा के अतिरिक्त हमारी कम से कम तीन  इन्द्रियां तो स्पष्ट रूप से पहचान ही लेती हैं आइये गिन लें:

१. आंख में मिर्च लगती हैं. आँखों को नमक का स्वाद  महसूस नहीं होता. हमारे आंसू नमकीन होते हैं ये हमें अपनी जीभ से पता चलता है. मीठे पानी से आंखे धोते हैं कभी पता चला आपको?

२. नाक में मिर्च लगती है.  मिर्च के धुंए को सूंघे तब महसूस होगा.

3. कटे पर मिर्च लगती है यानि कि हमारी त्वचा भी मिर्च को पहचान लेती है.

हरी मिर्च हमें नजर से बचाती है. और अगर किसी कि बुरी नजर लग ही गयी हो तो उसे लाल मिर्च से झाड़ दिया जाता है.

अब अगर थोडा दुसरे ढंग से सोचे तो लाल या हरी मिर्च को जरुरत से ज्यादा अपने जीवन में स्थान देंगे तो ये नुकसान करती हैं. इनकी जगह पर काली या सफ़ेद मिर्च का उपयोग ज्यादा बेहतर रहता है.

मिर्च के और भी गुण और उपयोग हो सकते हैं पर फ़िलहाल तो मेरे दिमाग में ये बातें ही आयी हैं और मैने अपने दिमाग से निकल बाहर की हैं.

शनिवार, 7 अगस्त 2010

नक्कटों का गाँव.

दसवीं कक्षा में हमारे इतिहास के एक गुरूजी थे सोहन लाल जी. उनके लिए इतिहास का मतलब कथा कहानियों से होता था. पाठ्यक्रम के इतिहास कि जगह  वो आपने खुद के इतिहास का वर्णन करने में ज्यादा रूचि  लेते थे.

उन्होंने एक बार एक कथा सुनाई थी  "नक्कटों का गाँव".

कथा के अनुसार एक गाँव में एक शरारती लड़का रहता था. एक बार किसी शरारत के समय उसकी नाक कट गयी. अब सारे गाँव के लोग उसे नक्कटा कह कर बार बार चिढाते.
बच्चा शरारती था. थोड़े दिनों के बाद उसने आपने आस पास के लोगों को बरगलाना शुरू किया कि  नाक कटाने के बाद उसे तरह तरह कि शक्तियां प्राप्त हो गयी हैं. उसने लोगों को अपनी बातों के जाल में फंसा  कर धीरे धीरे गाँव के सभी लोगों को आपने जैसा नक्कटा बनवा दिया.

जब गाँव में सभी कि नाक कट गयी तो उसे चिढाने वाला कोई ना रहा. 

कहने का मतलब ये कि नाक वाले लोगों के बीच एक नक्कटे का जीना हराम था तो उसने सभी को नक्कटा बनवा दिया

पर  अगर बात इसकी उलटी हो तो?

यानि कि गाँव ही  नक्कटों का हो और उनमे एक नाक वाला आ जाए तो क्या वो सबकी नाक ठीक करवा पायेगा.

इस स्थिति में क्या होगा?  या तो उस नाक वाले को नक्काटों के बीच से भागना पड़ेगा या फिर खुद कि नाक कटवानी  पड़ेगी .

मेरी इस कहानी का कोई दूसरा  अर्थ ना लें.

मेरे मन में ये सारी बातें हमारे ही मध्य के एक ब्लॉग हथकढ़ को पढ़ते पढ़ते आयी. असल में हथकढ़ ऐसा पहला ब्लॉग था जिसमे मैंने टिप्पणी वाला ऑप्शन हमेशा बंद देखा.

जहाँ सारा ब्लॉग जगत टिप्पणी के लिए मरा जाता हैं इस भाई को टिप्पणी कि कोई तलब लगती ही नहीं.

कमाल है.

हथकढ़ भैया इस गाँव में तुम अकेले हो. क्या करोगे? अरविन्द मिश्रा जी  कि तरह से बच कर भागोगे या टिप्पणी का आप्शन चालू करोगे.

वैसे ये नक्कटा अपना प्रयास नहीं छोड़ेगा.  ध्यान रखना. 

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

अपने बच्चों को राष्ट्रधर्म भी सिखाएं.

आजकल हमारे कुछ मुस्लिम भाई राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं.

इसके पीछे जो मानसिकता कार्य कर रही है वो शरीफ खान जी के अपने ताजा लेख में पूछे गए पहले प्रश्न से स्पष्ट है. शरीफ भाई साहब (ब्लॉग पर लगी फोटो से तो शरीफ खान साहब ६० ७० वर्ष कि उम्र के युवा लगते हैं पर उनकी पुत्री उम्र में मेरे बच्चों के बराबर कि ही है अतः उन्हें भाई साहब पुकार रहा हूँ. आशा है बुरा नहीं मानेंगे) ने जो प्रश्न पूछा है वो इस प्रकार है.

1. कक्षा सात में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने जिज्ञासावश मुझसे एक सवाल किया कि क्या कारण है कि इतिहास में जब अकबर, शाहजहां, बहादुर शाह आदि किसी मुस्लिम राजा से सम्बन्धित कोई बात कहनी होती है तो इस प्रकार से कही जाती है कि अमुक राजा ऐसा था, ऐसे काम करता था आदि। और यदि शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि हिन्दू राजाओं से सम्बन्धित कोई बात होती है तो सम्मानित भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार से लिखा जाता है कि वह ऐसे थे, ऐसे कार्य करते थे आदि। मैं बच्ची को जवाब से सन्तुष्ट नहीं कर सका क्योंकि मैं कैसे बतलाता कि लिखने के ढंग से ही जहां पक्षपात की गंध आ रही हो वहां सही तथ्यों पर आधारित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता।



शरीफ खान साहब कि  बच्ची के मन में ऐसे प्रश्न उठाना स्वाभाविक हैं क्योंकि उसे सिखाया गया है कि उसका धर्म उसके राष्ट्र से ऊपर है.

 अगर उसे बताया गया होता कि बाबर एक विदेशी आक्रमणकारी था जिसने अपनी क्रूरता और युद्ध के बेहतर तरीकों लो वजह से इस पवित्र धरा पर राज किया और यहाँ के मूल निवासियों कि श्रद्धा का अपमान किया और उसके वंशज भी ऐसी ही मानसिकता के तहत इस देश के लोगों को तंग करते थे तो शायद वो ऐसा प्रश्न नहीं करती पर उसे सिखाया गया है कि इस्लाम को मानने वाले सभी आक्रमण करी चाहे वो मोहम्मद  गजनी हो चंगेज खान हो बाबर हो औरंगजेब हो या फिर आजकल भोपाल में आने वाले अरब हों सभी अच्छे लोग हैं.

बाबर के वंशजों ने भारत में रहकर यहाँ कि शहजादियों के साथ विवाह किये और बच्चे पैदा किये ये उनका इस देश से प्यार नहीं बल्कि उनकी राजनीती थी. अकबर जिसे उदारवादी मुस्लिम कहा जाता है उसके दरबार में ईरानी , तुर्क और पठानों कि क्या हेसियत थी इसके ऐतिहासिक प्रमाण आसानी से मिल जायेंगे. आज भी दिल्ली कि जामा मस्जिद का इमाम एक ईरानी परिवार है जो भारतीय मूल के मुसलमानों से खुद को उच्च समझते हैं.

ऐसे लोगों को क्या सिर्फ इसलिए सम्मान दिया जाय कि वो मुस्लिम हैं. मैं ऐसा नहीं समझता.

मैं तो अपने बच्चों का सिखाता हूँ कि हमारा  युसूफ पठन श्रीलंका के मुरलीधरन,न्यूजीलैंड के दीपक पटेल  या इंग्लैंड के मोंटी पनेसर से अच्छा स्पिनर है.

अगर आप धर्म को राष्ट्र के ऊपर प्रमुखता देंगे और चाहेंगे कि पाकिस्तान के जिया उल हक, भुट्टो और मुशर्रफ़ को आदर के साथ उल्लेखित किया जाय तो बच्चे तो कन्फ्यूज होंगे ही जनाब.

 नेपाली हिन्दू राजाओं ने हमारे उत्तराखंड पर आक्रमण किया और उसे बहुत दिनों तक कब्जे में रखा हम उनके लिए सम्मान कि बात नहीं करते आप भी ऐसा ही करे और अपने बच्चों को भी यही सिखाएं तभी इस देश का भला होगा.

नेपाल चीन के साथ मिलकर भारत के विरुद्ध अगर षड़यंत्र रचता है तो मैं चाहूँगा कि नेपाल को भी सबक सिखाया जाय जबकि वहां पर हिन्दू बाहुल्य है. पर ऐसा सिर्फ एक हिन्दू ही क्यों सोचे. ये सोच अधिकांश मुस्लिम लोगों कि क्यों नहीं है.  एक मुस्लिम क्यों विदेशी आक्रमण कारियों  को इस देश के लोगों से ज्यादा सम्मान देना चाहता है?

धर्म राष्ट्र से ऊपर नहीं है राष्ट्रवादी भावना धर्म से ऊपर है वर्ना धर्म को ऊपर रखने वाले पाकिस्तान कि क्या हालत है किसी  से छुपी नहीं है. मुस्लिम राष्ट्र होने कि वजह से क्या दिन देख रहा है.

कृपया भारत के बच्चों को राष्ट्रवाद कि प्रेरणा दें तभी हमारा और आने वाली पीढ़ियों का विकास होगा.

रविवार, 1 अगस्त 2010

अगर आपके पार्टनर का पुराना साथी उसे वापस मांगे तो आप क्या करेंगें.. सोच लो.

How would you handle it if your partners ex want him or her back.. soch lo.

मेरे एक ब्लॉगर मित्र ने मुझे बताया कि उन्हें इस विषय पर लेखन के लिए एक e- mail आया  है. मुझे ऐसा कोई मेल   नहीं मिला  पर शीर्षक ही आमंत्रित कर रहा था तो मेरी सोच के घोड़े खुद ही खुद दौड़ने के लिए उछलने लगे. मैंने भी कहा जाओ बेटा थोड़ी मस्ती कर लो. इसी मस्ती में ये पोस्ट निकल आयी.

मैं जो कुछ भी अंग्रेजी में पढता हूँ उसे पहले हिंदी भाषा में परिवर्तित करता हूँ फिर उस  पर अपनी खालिस हिन्दुस्तानी विचारधारा के दायरे में रहकर  ही विचार  करता  हूँ. अब  मैंने इस शीर्षक का  हिंदी अनुवाद  करना  शुरू  किया पर partner शब्द  पर आकार  मेरी गाड़ी   अटक  गयी .  अंग्रेजी के इस partner शब्द  का इस शीर्षक के सन्दर्भ में  हिंदी अर्थ  क्या  होना  चाहिए ? पत्नी, प्रेमिका  या  इन  दोनों  से  जुदा कोई तीसरा व्यक्तित्व जिसे हम सिर्फ भागीदार कहें. फादर कामिल बुल्के का  हिंदी इंग्लिश शब्कोष पार्टनर शब्द का अर्थ बताता है साथी, संगी, साझेदार, जोड़ीदार, खेल का साथी.

तो यहाँ जिस पार्टनर कि बात हो रही है अगर उसे पत्नी या प्रेमिका ना मानकर उसे सिर्फ  साथी, संगी, साझेदार, जोड़ीदार, खेल का साथी में से कोई एक माने तो.  अरे तब तो ये आसान है. अब मेरे साथी का कोई पुराना जोड़ीदार उसे वापस मांगता है तो मैं तो सहर्ष ही तैयार हो जाऊंगा. यारों हम तो सारी दुनिया को एक ही कुटुंब मानने वाली भावना रखते हैं और सरकारी नौकरी में सीखा है कि जो कुछ  मिले उसे मिल बाट कर खाओ इसलिए अगर हमारे पार्टनर का कोई एक्स हमारे पास आए तो हम तो उस एक्स को कहेंगे कि पार्टनर ही क्यों हम खुद भी आपके साथ चलते हैं. दो से भले तीन और यूँ ही कारवां बढ़ता चला जायेगा और हमारी साझेदारी फलती फूलती रहेगी. वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में मल्टी पार्टनर वाला मामला बन जायेगा.

आपका क्या ख्याल है?

पर जनाब अगर पार्टनर से आपका मतलब पत्नी या प्रेमिका है तब तो मुश्किल है. पत्नी और प्रेमिका को ये अंग्रेज पार्टनर कि श्रेणी में रख सकते हों पर हम तो पत्नी या प्रेमिका को partner नहीं sole proprietor या सही अर्थो में soul proprietor मानते हैं. अब किसी कम्पनी का मालिक ही कम्पनी को छोड़ दे तो भला वो कम्पनी अपना अस्तित्व बचा पायेगी. अपनी कंपनी तो बंद हो जाएगी. ये तो अस्तित्व कि लडाई है इसलिए इस मुद्दे पर हम तो कोई सोच विचार नहीं कर सकते, कोई समझोता नहीं कर सकते. जो गोरे अंग्रेज या काले अंग्रेज अपनी पत्नी या प्रेमिका को पार्टनर  मानते हों वो इस मुद्दे पर  विचार कर अपना जवाब दे.

अब फिर पूछूँगा आपका क्या ख्याल है?

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

२९/७/२०१०, गुरुवार

मैं थोडा शांत किस्म का जीव हूँ.

भीड़ भाड़ से  चाहे वो लोगों कि हो या विचारों कि, दूर ही रहना पसंद करता हूँ. लोगों कि भीड़ में मैं असहज महसूस करता हूँ और विचारों कि भीड़ में असामान्य हो जाता हूँ.

लोगों कि भीड़ से मेरा मतलब है उन लोगों कि भीड़ जिन्हें मैं जानता हूँ. अजनबी लोगों कि भीड़ में मैं जरा भी परेशान नहीं होता. बल्कि वहां तो अच्छा लगता है. चुपचाप एक कोने मैं बैठ कर उनकी हरकतें देखो और मजा लो.

ऐसा ही विचारों में भी होता है. जाने पहचाने विचार जो अक्सर दिमाग में आते जाते रहते हैं वो बहुत तंग करते हैं.एकदम नए विचार जरा भी तंग नहीं करते बल्कि उनसे तो खेलने में मजा ही आता है.

ऐसे में जब लोगों कि या विचारों कि भीड़ सताती है तो  मैं क्या करता हूँ? बड़ा सीधा साधा सा तरीका है. अपन तो जाने पहचाने  विचारों से बचने के लिए लिखना शुरू करते हैं और जाने पहचाने लोगों से बचने के लिए दिखना बंद करते हैं.

जाने पहचाने लोगों कि भीड़ में कौन से लोग हैं. सच बताऊँ तो इस भीड़ में वो लोग हैं जिन्हें मैं दिल से चाहता हूँ, जिनसे मैं रोज मिलता हूँ.

क्या करूँ मैं ऐसा ही हूँ. जिन्हें मैं पसंद करता हूँ, जिन्हें मैं प्यार करता हूँ और फलते फूलते विकास करते हुए देखना चाहता हूँ उनसे ही दूर रहने कि मन में चाहत होती है, उनसे ही बचाना चाहता हूँ.  मैं पैदायशी ऐसा ही हूँ. पहले जब मैं छोटा था और कभी घर में मेहमान आते थे तो उनकी आवभगत के बाद जैसे ही सब शांत होता मैं अपनी  छत पर चला जाता था और वहां से अम्मा पिताजी और बड़े भाई आगुन्तक के साथ बतियाते देखता रहता था. मुझे ऐसे बड़ा अच्छा लगता था. दूर से उन्हें देखना. जब भी मेरी कहीं जरुरत होती तो मैं पहुच जाता था हाथ बताने पर अपना काम ख़त्म होने के बाद मुझे सभी लोगों को एक फासले से देखना अच्छा लगता था. आज भी जब मेरे बच्चे अपने खेलों में मगन होते हैं और पत्नी अपने daily soaps में तब मैं दुसरे  कमरे में चला आता  हूँ और अपनी कुर्सी शांत बैठ उनकी दुसरे कमरे से आती शोर गुल कि आवाजें सुनता रहता हूँ. ऐसे ही  घर में जब पत्नी और बच्चे गहरी नींद में सो जाते हैं तो मैं उठता हूँ और अपनी पसंदीदा जगह यानि कि वो कमरा जहाँ कोई नहीं होता वहां आकार बैठ जाता हूँ और फिर कल्पनाओं कि उड़ान शुरू हो जाती है. ये मेरे जीवन के सबसे सुखद क्षण होते हैं जब वो जिन्हें मैं प्यार करता हूँ सुखी होते हैं और मैं उन्हें दूर से देख रहा होता हूँ. (अजीब सी इच्छा है)



 मेरी सबसे प्यारी कल्पना है कि मुझे मिस्टर इंडिया वाली घड़ी मिल जाये जिससे मैं  अदृश्य होकर अपने पसंदीदा लोगों के मध्य ही रहूँ और उनको हँसते खेलते देखता रहूँ और जब उन्हें जरुरत हो तो  उनकी सहायता कर दूँ और  जब बहुत ही जरुरी हो तभी दिखाई दूँ.

पर ऐसा होता नहीं हैं. बच्चे जब सक्रिय रूप से मेरे साथ नहीं खेल रहे होते हैं और  खुद में मस्त होते हैं तब भी वो मुझे  अपने आस पास ही चाहते हैं. पत्नी भी चाहती है कि उनके  सभी कार्यों का निष्पादन मेरे सानिध्य में ही हो. अजीब समस्या है. जब उन्हें मेरी जरुरत हो तब तो उनके साथ रहना ठीक है पर जब उन्हें मेरी जरुरत ना हो तो भी उनके प्यार का बंधन मुझे बांधे रखता है.

ओशो से मैंने सीखा कि प्यार तीन तरीकों का होता है. निम्न श्रेणी का प्यार जिसमे हम लोगों वास्तु समझ कर प्यार करते हैं. दूसरी श्रेणी में हम लोगों को मानव समझते हैं और सबसे श्रेष्ठ प्यार वो है जिसमे हम व्यक्ति को  ईश्वर समझ कर उससे प्यार करते हैं.  अब ये दार्शनिकता अपनी दो वर्षीया बेटी, आठ वर्षीया पुत्र और इन दोनों कि उम्र के योग से तिगुनी उम्र कि पत्नी को कैसे समझाऊ.

रविवार, 25 जुलाई 2010

शिक्षा के नाम पर मासूम बच्चों को प्रताड़ित करना सही है क्या?

कल मेरे पुत्र कि PTM थी. इसका हिंदी में अनुवाद करूँ तो शायद होगा शिक्षक अभिवावक मिलन.

मुझे तो ना चाहते हुए भी ये मिलन करना ही पड़ता है. मेरा पुत्र तीसरी कक्षा में पढता है. मुझे तीन वर्ष हो गए हैं इस तरीके का मिलन करते हुए. शुरु में जब जाता था तो बड़ा उत्साह होता था. लगता था कि कोई महत्वपूर्ण कार्य करने जा रहा हूँ. मुझे मेरे बेटे कि प्रगति के विषय में पता चलेगा. मैं उसके शिक्षक से स्कूल में अपने  बेटे के  व्यव्हार कि  कुछ जानकारी लूँगा और उन्हें घर में इसके व्यव्हार के विषय में बताऊंगा ताकि हम लोग बच्चे कि मानसिकता को ढंग से समझ सकें और मेरा बेटा स्कूल में ज्यादा सहजता के साथ शिक्षा ग्रहण कर सके . ये सब किताबी बातें हैं. असलियत में ऐसा नहीं होता.

असलियत में क्या होता है. आपकी बारी आयी  और शिक्षिका का रटा रटाया संवाद शुरू. (उनकी तरफ से सारा संवाद अंग्रेजी में होता है ज्यादातर अभिवावक तो  बस मूक भाषा का प्रयोग करते हैं ) सुप्रभात ! कार्तिक कैसे हो?  आपने मुझे सुप्रभात नहीं कहा. देखिये आपका बच्चा बहुत बोलता है/बिलकुल चुप रहता है. मैं बहुत परेशान हूँ. मैंने बहुत कोशिश कि इसे चुप करवाने/बोलना शुरू करवाने कि पर इस पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता. आप इस ओर ध्यान दीजिये. अभी तो चल रहा है पर भविष्य में बहुत परेशानी होगी. आपका बच्चा  बहुत धीमा /तेज लिखता है. इससे गलती होने कि संभावना रहती है. इस ओर भी ध्यान दीजिये. आपके बच्चे  का इस बार प्रोजेक्ट सुन्दर नहीं था. आप इस ओर ध्यान क्यों नहीं देते. आपके बच्चे के इस बार हिंदी में अंक अच्छे नहीं आए आपको इसे बहुत मेहनत करवानी पड़ेगी. आपके बच्चे  के इस बार इंग्लिश में अच्छे अंक आए हैं पर थोडा ज्यादा मेहनत करवाए तो पूरे अंक आएंगे. गणित में इसके पूरे अंक हैं मेहनत करवाते रहे ये नहीं कि  अगली बार कम अंक आ जाएँ. इस प्रकार  ये जबानी शिकायतें  चलती रहती है जिसमे सारा दोष आपका और आपके बच्चे  का होता.  इस दौरान अभिवावक जी जी करके जिजीयाते रहते हैं

इसके बाद बारी आती है अभिवावकों की.  अभिवावक भी आपने मन की भड़ास निकालते हैं हा ये बात अलग है कि उनकी सारी शिकायते मातृभाषा में ही होती हैं. मेडम मेरे बच्चे को आपने  आधा अंक उस वाले पेपर में नहीं दिया था.  मेरा बच्चा उनके बच्चे से पीछे क्यों चल रहा है.  हमारे बच्चे को कक्षा के सबसे होशियार बच्चे के साथ बैठाये.  हमारे बच्चे को सबसे आगे बैठाएं.   आजकल पढ़ाई कम हो रही है स्कूल में. होमवर्क ज्यादा नहीं मिलता. हमारा बच्चा तो हमारी सुनता ही नहीं थोडा इस टाईट करो. हम तो सारा दिन इसके पीछे पड़े रहते हैं. सभी विषयों कि ट्यूशन भी लगवाई हुई है पर क्या करें सब चौपट है

अब बारी आती है बेचारे बच्चे कि जो कुछ बोलता नहीं बस मूक सुनता रहता है.  शिक्षक बच्चे से पूछता है. हाँ बेटे बताओ ऐसा क्यों करते हो? देखो आपके माता पिता आपके लिए कितना कुछ कर रहे हैं. आप इतने बड़े हो गए हो अभी भी आपको समझ नहीं है. आगे जाकर क्या करोगे . अब  तीसरी कक्षा में पढने वाला सात आठ साल का बच्चा क्या जवाब देगा?  अंततः सारा दोष मासूम बच्चे के  सर मढ़ दिया जाता है. 

ये वो वक्त होता है जब मेरे जैसा पचास किलो का आदमी भी यही सोचता है कि अभिवावक और शिक्षक दोनों को कान पकड़ मैदान  में ले जाऊ जहाँ शिक्षक को तो  मुर्गा/मुर्गी  बना दूँ और बच्चे के माँ बाप को हाथों  में कम से कम दस दस डंडे लगाऊ. पर यार दिन में ग्यारह बजे देखे सपने सच थोड़े ना हो सकते हैं.

अपनी खुद कि बताऊँ तो मैं हर सत्र  के शुरू में ही शिक्षक को बता देता हूँ कि मुझे आपने बच्चे को अभी से आइन्स्टाइन नहीं बनाना. अगर वो पढ़ाई में औसत प्रदर्शन भी करता है तो मैं संतुष्ट हूँ. इसके बाद मुझे कोई तंग नहीं करता. मैं PTM में जाता हूँ. कोशिश करता हूँ कि सबसे पहले पहुचुं ताकि मुझे ऊपर लिखे दृश्य झेलने ना पड़ें. शिक्षक मुझे मुस्कुराकर बताती है कि आपका बच्चा औसत चल रहा है. कक्षा में ज्यादा बोलता नहीं. अनुशासित  है. बस मैं ख़ुशी ख़ुशी बच्चे को लेकर बापस लौटता हूँ. हाँ रास्ते में एक आद आइसक्रीम भी खिला देता हूँ.

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बातचीत बंद पर बातें चालू.

बच्चे बड़े हो रहे हैं.... बड़ा महत्वपूर्ण समय है उनके लिए भी और हमारे लिए भी.

हमारे से मेरा मतलब हम मिया बीबी से ही है. बच्चे नहीं थे हम दोनों स्वतंत्र थे. सारा वक्त हमारा निजी वक्त था. जब चाहते जितना चाहते एक दुसरे के लिए समय होता था. साथ बैठते, बतियाते, और जी हाँ.. जी भर के बातचीत किया करते.....

अब सुबह उठते हैं बच्चों को उठते हैं.... जिंदगी कि भागमभाग शुरू.... दूध लाओ.. कपडे प्रेस करो...स्कुल छोडो..खुद तैयार हो कर ऑफिस जाओ.... शाम को आप थके पर बच्चे तरो ताजा... चलो खेलो.... फिर होम वर्क.. फिर रात्रि भोजन... फिर कहानी....बज गए दस. दस का मतलब बस. अब सोने कि तैयारी.

जब बच्चे सोते हैं तब शुरू होता है हमारा सुनहरी एकांत जो कभी हमें २४ गुना ३६५ दिन उपलब्ध था पर अब सिर्फ उस वक्त तक मिलता है जब बच्चे सो जाते हैं और जब तक हम में जगाने कि इच्छा और ताकत होती  है.

जीवन कि इस भागदोड़ में हम पति पत्नी बातें तो खूब करते हैं पर बातचीत करने का मौका कम ही मिलता है इसलिए बच्चों के सोने और हमारे ना सोने के बीच का यह वक्त मेरे लिए सोने से भी ज्यादा कीमती होता है.

भाइयों मैं क्या बताऊँ आपको मेरे लिए दुनिया के सारे सुख एक तरफ हैं और पत्नी के साथ खुल कर बिना किसी रोक टोक के बातचीत करने का सुख एक तरफ.

तुलसी दास जी ने ये दोहा  मेरे लिए ही तो लिखा था....

सात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिये तुला इक अंग.
तूल ना ताहि सकल मिली जो सुख पत्नी संग.

अभी कुछ दिन पहले कि ही बात है. ऊपर वाला अभी बरस कर थका ही था और वर्षा से भीगी हवा मंद मंद हमें हमारी ख्वाबगाह में भी भिगो  रही थी, बच्चे सो चुके थे  और हमारा सुनहरी एकांत पूरे कमरे में फैला था.  हम दोनों एक दुसरे में मगन  थे कि रंग में भंग हो गया. पत्नी ने कुछ ऐसी बात कही जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं तो मेरी प्रतिक्रिया  भी कठोर रही . उपरवाला रुका था नीचेवाली शुरू हो गयी...

क्या सोच रहे हैं अब बातचीत क्या खाक होती, दोनों करवट बदल कर सो गए.  ऐसी घटनाओं के बाद एक दो दिन तक तो मेरा जोश  कायम रहता है. मैं अपनी तरफ से सुलह या साफ़ साफ़ कहूँ तो बातचीत कि कोई पहल नहीं करता. पर फिर मेरी कमजोरी. अपनी प्यारी के साथ ज्यादा दिन तक बातचीत किये बिना मैं रह ही नहीं पाता.

मेरे कुछ दोस्त मेरी इस कमजोरी पर हंसते हैं. कहते हैं पत्नी के अलावा भी कोई ऐसा होना चाहिए जिसके साथ आप बातचीत कर अपना सुख दुःख बाट सकें. पत्नी पर से निर्भरता हटती है. मेरे एक मित्र तो बताते हैं कि जब भी उनकी बातचीत बंद होती है और अगर उनकी गलती ना हो तो वो कभी पहल नहीं करते. उन्हें जरुरत ही नहीं होती बातचीत करने के लिए पहल करने कि. असल में उनकी एक और मित्र हैं. अरे वही सिर्फ मित्रता रखने  वाली मित्र जिनके साथ वो बातचीत कर हलके हो लेते हैं. मैं उनसे ईर्ष्या करता हूँ . विशुद्ध ईर्ष्या. पर कभी उनका अनुसरण नहीं कर पाता.   

मैं तो अपनी घरवाली के पास ही लौट आता हूँ. यार जब छप्पन भोग घर पर ही हों तो होटल का मुंह तो कोई गधा ही देखेगा. मैं बातचीत शुरू करने का प्रयास दिन से ही शुरू कर देता हूँ. दिन में बार बार उनसे बात करता हूँ. बच्चे सोते हैं. सुनहरी एकांत मिलता है और मैं बातचीत शुरू करने का अंतिम प्रयास करता हूँ.... उनके पास जाता हूँ और सीधे सीधे उनके पाँव पकड़ लेता हूँ..... प्यारी मान जाओ ना.... pleeesssse.....

और हमारी बातचीत शुरू हो जाती है..... एक दुगने जोश के साथ.....

( कुछ समय पहले कि बात है मेरी बच्ची बीमार थी तो हम उसे एक पास कि एक प्रसिद्ध महिला बाल चिकित्सक के  पास ले  गए. वो एक कुछ कम पढ़ी लिखी सी गंवाई महिला को समझा रही थी..... अपने मरद से बातचीत बिलकुल बंद कर दो. उसे पहले दो महीने आस पास नहीं फटकने देना, समझ गयीं.... मैं थोडा देर से समझा पर समझ गया कि पति पत्नी के बीच बातचीत का क्या मतलब होता है. अब आप भी जाएँ और अपनी पत्नी से खुलकर बातचीत करें. )