शुक्रवार, 24 जून 2011

स्त्री जीवन अपवित्र है !

अभी कुछ समय पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर थी की मलेशिया में एक "obedient wives club" स्थापित किया गया है.  जिस वक्त यह खबर पढ़ी तभी मन में ख्याल आया  की हमारे  धर्म और इस्लाम में कितनी समानता है. हमारे यहाँ भी लड़कियों को शुरू से समझाया जाता है की पति परमेश्वर होता है. हर पतिव्रता नारी का कर्तव्य होता है की वो अपने  पति परमेश्वर के हर आदेश को ईश्वर का आदेश समझ कर पालन  करे. और यही बात इस्लाम में भी कही गयी है.

 इसके बाद स्वाभाविक रूप से मेरे मन उत्सुकता हुई की हमारा तीसरा प्राचीन और लोकप्रिय  धर्म यानि की इसाई धर्म स्त्रियों के लिए क्या निर्देश देता है या फिर ईसाई  धर्म में स्त्रियों की क्या स्थिति है. तो वहा भी स्त्रियों के लिए  कमोबेश वही  निर्देश थे जो हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म में हैं.

अब मैंने नेट पर बौद्ध, जैन और दुसरे धर्मों  में स्त्रियों की स्थिति के बारे में उपलब्ध जानकारी को कुछ दूसरी साइट्स को देखा जहाँ से पता चला  की लगभग हर धर्म एक इन्सान के रूप में स्त्री और पुरुष में भेदभाव रखता है.

इससे पहले मैंने कभी भी इस विषय में गहराई से विचार नहीं किया था. अभी तक तो नारीवादियों द्वारा नारी को दोयम दर्जा दिए जाने की बात मुझे हमेशा मजाक ही लगाती थी क्योंकि समाज में मैंने बहुत से पुरुषों को  अपनी घरवालियों के दिशानिर्देशों के अंतर्गत कार्य करते देखा था. मैंने ऐसे घर भी देखे हैं जहाँ गृहस्वामिनी की अनुमति के बिना घर में पत्ता भी नहीं खड़कता. ऐसे में महिलाओं पर अत्याचार और उनके साथ भेदभाव की बात मुझे अतिशियोंक्ति ही लगाती थी.

स्त्री स्वतंत्रता के समर्थक समाज में जिन बातों का विरोध करते नज़र आते हैं उन सब बातों के पीछे मुझे कहीं न कहीं  महिलाओं की भलाई ही नज़र आती थी पर इस बार मुझे हमारे धर्मों में वर्णित एक तर्क बिलकुल भी समझ नहीं आया.

मैंने देखा की लगभग सभी धर्मों में ये माना  जाता है की स्त्री अपवित्र है . हमारे जैन धर्म में तो ये भी मान्यता है की स्त्री पुरुष योनी में जन्म लिए बिना मुक्ति नहीं पा सकती.

अब स्त्री अपवित्र क्यों है? हमारे धर्मों का तर्क देखिये. स्त्री अपवित्र है  क्योंकि उसे मासिक स्राव होता है. मैंने ये तो देखा है की मासिक धर्म के पांच  दिनों में स्त्रियों को अपवित्र मान कर पूजा पाठ व अन्य घरेलु कार्यों से दूर रखा जाता है जो की मुझे ठीक ही लगाता था  क्योंकि इस दौरान स्त्री को आराम मिलाना चाहिए पर इस वजह से स्त्री के पुरे अस्तित्व को अपवित्र मान लेने की बात मुझे बिलकुल भी हज़म नहीं हुई. मुझे तो इसमे एक बड़ा अजीब सा विरोधाभास लगा. एक तरफ तो स्त्री को  रजस्वला होने तक पूर्ण नहीं मन जाता और दूसरी तरफ इसी वजह से उसे अपवित्र मान  लिया जाता है.  

इस विरोधाभास से तो मुझे यही नज़र आया की कोई भी धर्म स्त्री को इन्सान का दर्जा देता ही नहीं. उसे तो सिर्फ एक मशीन समझा गया है जो तब तक अपूर्ण है जब तक की वो रजस्वला नहीं होती क्योंकि तब तक वो संतान पैदा नहीं कर सकती. यानि की रजस्वला होना उसके इन्सान के रूप में पूर्णता नहीं बल्कि एक मशीन के रूप में पूर्णता है  अन्यथा अपनी इसी विशेषता की वजह से वो अपवित्र है.

महीने में कुछ समय के लिए होने वाले रक्त स्राव से ज्यादा गन्दा तो स्त्री द्वारा रोजाना त्यागा जाने वाला मल मूत्र है पर उसके कारण स्त्री को अपवित्र नहीं माना जा सकता क्योंकि यही कार्य तो पुरुष भी रोजाना करता है इसलिए उसकी विशेषता उसके अपवित्र होने का कारण बन गयी. जरा सोचिये की अगर भगवान् एक  पुरुष न होकर एक स्त्री होता तो पुरुष को उसकी दाढ़ी की वजह से अपवित्र ठहराया जाता और स्त्रियों को उनके चिकने गालों की वजह से जन्म मरण के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती.

खैर जो भी हो मुझे पहली बार ये महसूस हुआ की पुरुषों ने दुनिया की आधी आबादी को गलत ढंग से काबू करने की कोशिश की है.

मेरी नज़र में जो भी  धर्म ये बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईश्वर के समक्ष वो  पुरुष से कहीं भी कम है, वो एक सच्चा धर्म नहीं हो सकता है.  ऐसे धर्मों को,ऐसे ईश्वर और ऐसी मान्यताओं  को मैं स्वीकार नहीं कर सकता और हो सके तो आप भी स्वीकार ना करें.

 

शनिवार, 11 जून 2011

सपने में देखा एक सपना.

भ्रष्टाचार  के विरुद्ध लड़ना है, एक साफ़ सुथरे चरित्र वाला नेता चाहिए. क्या मिलेगा?

जी नहीं. साफ़ सुथरा चरित्र तो हमारे भगवानों का नहीं रहा है तो हमारा कैसे होगा . आपको जो है, जैसा है के आधार पर ही काम चलाना होगा. यानि की एक दागदार को दुसरे दागदार से बदला जायेगा. एक निकम्मे  का विकल्प दूसरा निकम्मा होगा. वैसे भी आप व्यक्ति नहीं मुद्दा देखिये. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जो कोई नेता बनाना चाहेगा हम उसके पीछे चल देंगे चाहे वो बडबोले कांग्रेसी दिग्विजय सिंह हो या बाबा रामदेव. मुद्दा बड़ा है व्यक्ति नहीं.

अच्छा जी , इसका तो मतलब है की दुनिया वैसे ही चलेगी जैसे वो पहले चलती थी. इन लाठी, डंडा, अनशन जैसी तमाम मुश्किलों से मिले  परिवर्तन का बस इतना सा फायदा होगा की एक स्थापित भ्रष्टाचारी की जगह हमें एक नौसिखिया भ्रष्टाचारी मिलेगा और जब वो पक  जायेगा या जनता उससे पक जाएगी तो हम एक और नया भ्रष्टाचारी खोज लेंगें.

तो क्या करें?

क्या हम अपनी शासन व्यवस्था को कुछ इस तरह से नियोजित नहीं कर सकते की किसी नेता की जरुरत ही ना रहे. व्यवस्था खुद ही हर समस्या का समाधान खोज ले . नेता के रूप में चाहे डाक्टर अब्दुल कलाम हों या अपनी महामहिम प्रतिभा पाटिल जी किसी को भी कुर्सी पर बैठा दो, व्यवस्था चलती रहे. काम होते रहें. अपने इर्द गिर्द प्रकृति  को देखें. सब कुछ व्यवस्थित चलता है. जानवरों के झुण्ड तक एक निश्चित व्यवस्था के तहत अपने नेता का चुनाव आसानी से कर लेते हैं.तो फिर हम इतने समझदार जानवर होते हुए भी अपने लिए एक श्रेष्ठ नेता नहीं चुन पाते.

......ये सब बकवास है, बचकाना है, अपरिपक्व है. कुछ सोलिड सोचो. 

चलो तो सबसे पहले एक ईमानदार व्यक्तित्व की खोज करें. मुझे विश्वास है की वो हमें हमारे ही आस पास मिलेगा. फिर उसे इस आन्दोलन की कमान सौप दें. मुझे याद है की अपने डाक्टर कलाम  की इच्छा थी की वो दुबारा राष्ट्रपति बने मगर उन्हें पूरा समर्थन ही नहीं मिला और समर्थन मिला माननीया महामहिम प्रतिभा पाटिल जी को जो आज राष्ट्रपति के पद पर शोभायमान हैं . 

हमारी जनता जो निस्वार्थ भाव से बाबा रामदेव जी को अपना अंध समर्थन दे रही है क्या वो ऐसा ही समर्थन डाक्टर कलाम  जैसे लोगों को नहीं दे सकती. कहीं हमारी जनता के मन में ही एक साफ़ और स्वच्छ नेतृत्व के प्रति  किसी तरह का डर तो  नहीं समाया है.
....नहीं ये भी फिजियेबल नहीं है.

तो क्यों ना हम लोग खुद में ही बदलाव ले  आयें. खुद को सुधार लें. फिर हम सुधारे हुए लोगों को तो एक सही दिशा मिल ही जाएगी. जापान का उदहारण देखो. भ्रष्टाचारी नेता वहां भी पैदा हुए हैं. नेतृत्व वहां भी गलतियाँ  करता है पर वहां की सदाचारी जनता हमेशा ईमानदार  बनी रहती है. हाल फ़िलहाल में वहां हुयी विपत्तियों में उभर कर आये  उन लोगों के चरित्र से हमें कुछ न कुछ प्रेरणा अवश्य लेनी चाहिए .

..... प्यारे ऐसी भयंकर बातें  छोड़ और  कुछ प्रक्टिकल बात कर.

तो चलो सपने बहुत देख लिए मैं अंत में आपको एक कहानी सुनाता हूँ. आशा है आप मेरी बात को समझ जायेंगे.

एक स्त्री सबसे कामुक पुरुष से विवाह करना चाहती थी. खोज बीन  शुरू हुयी और अंत में एक जंगल में एक  पेड़ के नीचे  लेटे एक ऐसे पुरुष पर जाकर समाप्त हुयी जो बहुत चीख चीख कर दुनिया की सारी चीजो के साथ सेक्स करने की बात कर रहा  था. स्त्री बहुत खुश हुयी की चलो सबसे बड़ा कामुक पुरुष मिला. शादी हुई. सुहागरात का समय आया . पुरुष बडबडाता रहा की पलंग तोड़ दूंगा, ये फाड़ दूंगा वो चीर दूंगा पर जो करना था वो नहीं किया. स्त्री को गुस्सा आया और उसने पुरुष से पूछा अबे इतनी देर से बकवास कर रहा है की ये कर दूंगा वो कर दूंगा जो करना है वो करता क्यों नहीं. पुरुष का जवाब था की मैं तो शुरू से एक बडबोला और बकवासी हूँ और सारी जिंदगी सिर्फ यही कर सकता हूँ.

तो भैया मेरा तो  सभी से यही कहना है की वो सत्ता की सेज पर सोलिड लोगों को लाने  का यत्न करें ना की पैदायशी बडबोले और बकवासी लोगों को.

अंत में जय राम जी की बोलना पड़ेगा.  

रविवार, 5 जून 2011

समान विचारों का अन्तःप्रजनन खतरनाक है

मैं जब भी कुछ लिखता हूँ या कहता हूँ और सभी लोग आसानी से सहमत हो जाते हैं तो जाने क्यों मैं भीतर ही भीतर डर सा जाता हूँ. अपनी कही बात पर दुबारा विचार करता हूँ और अपने निर्णय पर अडिग नहीं रह पाता क्योंकि जब प्रत्येक व्यक्ति मेरी बात से सहमत दिखता है तो मुझे लगता है की या तो मेरी बात पर पर्याप्त  विचार नहीं हुआ है या फिर मेरी हाँ में हाँ मिलाने वाला आदमी जाने अनजाने में मुझ से अत्यंत प्रभावित होकर मेरा समर्थन कर रहा है.

जाने क्यों लोग अपनी आलोचना को नकारात्मक रूप से ग्रहण करते हैं. मुझे लगता है की हमें अपने आलोचक को अपने समर्थक से ज्यादा सम्मान देना चाहिए क्योंकि वो हमें हमारे विचारों को सटीक बनाने में सहायता करता है. सही मायनों में हमारा  आलोचक ही हमारा  सबसे बड़ा समर्थक है क्योंकि कहीं न कहीं वो हमें उस मुकाम पर पहुचने में सहायता कर रहा है जहाँ से कोई हमें गिरा न सके या  जहाँ जहाँ  विचारों में कमी का प्रतिशत कम से कम रहे. वर्ना आजकल किसके पास इतना समय और उर्जा है की वो आलोचना जैसे श्रमसाध्य  कार्य में लग कर लोगों की  बेवजह की नाराजगी मोल ले.

अपने खुद के बारे में एक बात मैं यहाँ बिलकुल सत्य कह दूँ जिन्हें मैं मन ही मन नापसंद करता हूँ या जिनके भरभरा कर गिराने का मुझे बेसब्री से इंतजार होता है मैं कभी भी उनकी आलोचना नहीं करता. मैं शांत होकर उन्हें गलतियाँ करते देखता जात हूँ और इंतजार करता रहता हूँ की कब गलतियों के फंदे में फंस कर उनकी द्रुत गति पर लगाम लगे.

सबसे स्वस्थ मंच वो है जहाँ विभिन्न प्रकार के विचारों  का स्वस्थ मिलन हो और उनके समागम से श्रेष्ठ गुणों से युक्त विचारधारा का जन्म हो जिसमे कमियों की कम से कम गुन्जायिश हो. परन्तु दुर्भाग्य ये है की हम अपने से विचार रखने वाले लोगों के मध्य ही सहज होते हैं और किसी का जरा सा भी विरोध मिलने पर आक्रामक हो जाते हैं. एक से विचार रखने वाले लोगों के साथ रहने से विचारों का अन्तःप्रजनन शुरू हो जाता है जो भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है.

तो ध्यान दें स्वस्थ व बेहतर भविष्य के लिए विरोधी विचारों से समागम के लिए हमेशा प्रसन्नता पूर्वक प्रस्तुत रहें.

भूल सुधार :

@ अनुराग जी, जब से आपकी टिप्पणी देखी है तब से यही सोचा रहा था की इस शीर्षक में क्या कमी है. बड़ी देर बाद लगा की शायद एक शब्द छुट गया है. "विचारों का अन्तःप्रजनन" को अब "समान  विचारों का अन्तःप्रजनन" कर दिया है. अभी भी कुछ ठीक न लग रहा हो तो बताएं, सुधार  हो जायेगा. अपना ही ब्लॉग है गलतियों में कभी भी सुधार किया जा सकता है :-))

@अंशुमाला जी मैंने कभी इस नज़रिए से सोचा नहीं था. भविष्य में ध्यान रखूँगा की सीधे मुझ से किये गए प्रश्नों के उत्तर मैं जरुर दूँ. साथ ही साथ मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ की मेरी पोस्ट से सम्बंधित दिए गए आपके या किसी और के विचारों से अगर कोई दूसरा व्यक्ति अपनी सहमती या असमति व्यक्त करता है तो मैं उसे रोक दूँ ये बात मुझे ठीक नहीं लगती.
बेशक गूगल बाबा के आशीर्वाद से ये ब्लॉग मेरा हुआ है पर फिर भी सभ्य भाषा में पोस्ट के विषय से सम्बंधित अपनी बात रख रहे व्यक्ति को मैं सिर्फ इसलिए रोक दूँ की इस ब्लॉग पर पोस्ट लिखने की सुविधा मुझे मिली हुयी है मुझे ठीक नहीं लगता. यहाँ पर प्रकट मेरे विचारों से मेरा कोई लगाव नहीं है.यहाँ मैं अपने विचार रखता ही इसलिए हूँ ताकि अगर मेरी कोई बात गलत है तो उसकी ढंग से मरम्मत हो जाये. आप ऐसा करती हैं इसलिए ही मैं आपकी इज्जत करता हूँ. जब कभी भी मुझे मेरे विचारों की कमियां आप जैसे अनुगृही मित्रों की कृपा से नज़र आती हैं तो मैं उन्हें सुधारने की कोशिश अवश्य करता हूँ. बेशक मैं हर उस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करूँ.
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गुरुवार, 2 जून 2011

काश बाबाजी देश को सुपर पावर बनवाने के लिए सत्याग्रह करते.

बाबा रामदेव जी का अनिश्चित कालीन आमरण अनशन शुरू होने में सिर्फ एक दिन बाकि रह गया है. चार जून से बाबाजी अपने करोड़ों भक्तों के साथ आमरण अनशन शुरू करेंगे ताकि उनकी तीन प्रमुख निम्न मांगें मान ली जाएँ.

बाबाजी की राष्ट्रहित में तीन माँगे
  • लगभग चार सौ लाख करोड़ रुपये का काला धन जो की राष्ट्रीय संपत्ति है यह देश को मिलना चाहिए ।
  • सक्षम लोकपाल का कठोर कानून बनाकर भ्रष्टाचार पर पूर्ण अंकुश लगाना ।
  • स्वतंत्र भारत में चल रहा विदेशी तंत्र (ब्रिटिश रूल ) खत्म होना चाहिए जिससे कि सबको आर्थिक व सामाजिक न्याय मिले ।  
(बाबाजी के भक्तों के अनुसार तो बहुत सारे मुद्दे है  पर भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की वेबसाईट इन्हीं तीन प्रमुख मांगों की बात करती है. )


बाबाजी की  मांगों को लेकर मेरे मन में संशय है की क्या बाबाजी के आमरण अनशन के टूटने से पहले उपरोक्त मागों में से कोई भी एक पूरी की जा सकती है?

ऐसा होना मुझे तो बिलकुल भी संभव नहीं दीखता. सरकार अगर अपने  तमाम संसाधनों का उपयोग कर ले तो भी इन मांगों का पूरा होना  संभव नहीं तो क्या स्वामीजी व्यर्थ में अपनी और अपने समर्थकों की  जान जोखिम में डाल रहे हैं और अगर स्वामीजी को सिर्फ सरकार के आश्वासन से ही संतुष्ट होना है तो वो आश्वासन  तो प्रधानमंत्री जी की तरफ से एक हफ्ता पहले ही मिल चूका है तो फिर अनशन पर बैठने की जिद क्यों?

सरकार स्वामी जी के समक्ष हाथ जोड़े खड़ी है की प्रभु आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा तो स्वामीजी आगे बढ़कर सरकार का मार्गदर्शन क्यों नहीं करते? काहे को दो चार रोज के लिए भूखे रहकर खुद की उस शक्ति को जोकि देश की सरकार को सही राह दिखने में खर्च की जानी चाहिए थी राम लीला मैदान में जाया कर रहे हैं? ये कैसी कलजुगी लीला है मेरे राम ?

क्या आमरण अनशन जोकि निश्चित रूप से लक्षित मांगों के पूरा होने से पहले ही ख़त्म हो जाना है, भ्रष्टाचार उन्मूलन से ज्यादा महत्वपूर्ण है? 


कुछ बातें और भी ....

अपनी टिप्पणी में राहुल सिंह जी ने कहा.....

आदर्श या बेहतर स्थितियां के लिए कल्‍पना हो, विचार या प्रयास, स्‍वागतेय होना चाहिए.
पर मुझे लगता है की कल्पनाओं और विचारों का तो स्वागत किया जा सकता है पर प्रयास तो सही दिशा में ही होने चाहिए. उदहारण के लिए एक उत्तम विचार/कल्पना  है...

कौन कहता है की आसमां  में छेद नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.....

अब जरा सोचें की आपका पडोसी इस विचार को सही साबित करने के लिए  प्रयास शुरू कर दे तो क्या होगा.

स्वामी जी का विचार तो उत्तम परन्तु प्रयास भी कुछ ऐसा ही निर्थक है.

@ संजय जी उस ईश्वर या प्रकृति ने भेड़ें बनाई हैं तो उसी ने भेडिये भी बनाये  हैं पर भेड़ की खाल  में छिपे भेडिये नहीं बनाये. मैं  भेडियों तो सहन कर लेता हूँ (प्रकृति की देन हैं)पर भेड़ की खाल में छिपे भेडियों को नहीं.


@ आशीष श्रीवास्तव जी आपने मेरे विचारों को मजबूत सहारा प्रदान किया है. आपका बेहद धन्यवाद.

@ अली सर, धन्यवाद, गलती में सुधार  कर दिया है.

@ संजय जी एवं आशीष जी आप दोनों ने मेरी बात को विस्तार दिया, इसके लिए आपका शुक्रिया.   

@ दीपक जी, रामदेव जी के प्रति आपका झुकाव बनता  है क्योंकि  वो भी बाबा और आप भी बाबा  :))

इसके साथ ही सभी को धन्यवाद और आभार.

बुधवार, 1 जून 2011

अरे बाबा तन्ने बेरा ना के भ्रष्टाचार का साप समाज को भी सर से निगले है.

इस बाबा का मन भाई ठीक ना है. ना जी कतई ना .

इस बाबा  के मन में राजनैतिक चोर है ... हाँ भाई   बिलकुल हाँ.

आज तक तो ये बाबा बोले था की समाज को भ्रष्टाचार का नाग डस रहा  हैं. इब इस ललिता पवार के छोटे भाई ने ये ना बेरा है के डसने के बाद सापं अपने शिकार को खावे कित से हैं.

हैं जी... ना इब आप  ही बताओ. जब भ्रष्टाचार के नाग ने डस ही लिया तो इब वो खायेगा तो ऊपर से ही ना..
तो ऊपर वालों पर ही तो नज़र रखनी चाहिए.  

ये कुछ बातें हैं जो मैंने बाबा रामदेव जी के लिए उन्हीं की खड़ी हरियाणवी  भाषा में कहीं हैं. मैं इससे ज्यादा इस प्रकार की भाषा में बात नहीं कर सकता इस लिए अपनी औकात पर आता हूँ.

मेरे मन में बाबा रामदेव की राजनैतिक आकाँक्षाओं कहीं थोडा सा संदेह था जो अब निसंदेह में बदल गया है. बाबा रामदेव अगर मन से सच्चे होते तो शायद वो कहते की सांच को आंच नहीं और सर्वोच्च पद पर स्थापित लोगों के ऊपर सबसे ज्यादा नज़र रखने की बात करते. पर ऐसा उन्होंने किया नहीं. शायद कहीं ना कहीं उनके मन में ये विशवास हैं की आने वाले समय में वो इस देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं इस लिए प्रधानमंत्री और दुसरे उच्च पदों पर आसीन लोगों को लोकपाल बिल से उन्होंने अलग रखने की बात की है.

ये मेरा अपना अनुभव है की भ्रष्टाचार की शुरुवात उच्च पदों से ही होती है. अगर राजा भ्रष्ट होगा (जो की वो था ही) तो निश्चित है की उसके राज्य की प्रजा भ्रष्टाचारी होगी ही क्योंकि हम हमेशा अपने से ऊपर वाले की नक़ल करते हैं. अगर हमारे देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग खुद ही अपने को लोकपाल के समक्ष निगरानी के लिए प्रस्तुत कर दें तो इस बात का समाज के सभी वर्गों में ये सन्देश जायेगा की इस देश में वी आई पी कोई नहीं. कानून सबके लिए बराबर है.

हमारे देश में  सभी लोग वी आई पी स्टेटस के लिए मरे जाते हैं क्योंकि एक  वी आई पी सामान्य नियम कानूनों के  परे होता है, उनसे ऊपर होता है. उच्च पदों पर आसीन लोगों को लोकपाल बिल में वी आई पी स्टेटस देने का मतलब है आम आदमी को ये सन्देश देना की ये लोग चाहे जो कुछ कर ले इनका कुछ नहीं होगा.

मैं माननीय अन्ना हजारे के इस प्रस्ताव का घोर समर्थन करता हूँ की देश को चलाने वाले सभी लोगों की सारी गतिविधियाँ (उनके हगने और मूतने को छोड़कर) हमेशा आम जनता की कड़ी निगरानी में रहनी चाहिए. क्योंकि अगर इन लोगों को भ्रष्ट कार्य करने का मौका नहीं मिलेगा तो ये लोग  अपने से नीचे के लोगों में भी भ्रष्टाचार को सहन नहीं करेंगे.