मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

वाद विवाद और अतिवाद

मैंने छटी से लेकर दसवीं कक्षा तक ही सामाजिक ज्ञान विषय का अध्ययन किया और मैं हमेशा इस विषय में कम अंक ही प्राप्त करता रहा  क्योंकि हमारे इस विषय के अध्यापक हमारे उत्तर को पढ़कर नहीं बल्कि गिट से नापकर हमें अंक दिया करते थे.  जिस बच्चे का उत्तर जितना लम्बा होता था उसको उतने ज्यादा नंबर मिला करते थे अतः हमारी कक्षा के समझदार बच्चे अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए सामाजिक ज्ञान की परीक्षा में अपने घर का इतिहास और भूगोल लिख आया  करते थे.

शायद नवीं या दसवीं कक्षा में हमें समाजवाद और पूंजीवाद के विषय में पढाया गया. किसी भी प्रकार के वाद से ये मेरा पहला परिचय था. धीरे धीरे जब समझ विकसित हुयी तो पता चला की इस दुनिया में तमाम तरह के वाद बिखरे पड़े हैं.

भौतिकवाद, आध्यात्मवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, राष्ट्रवाद, अलगाववाद, प्रयोगवाद, शुद्धतावाद, नारीवाद, परिवारवाद, और भी ना जाने कितने ही वाद और वादी हैं हमारी इस दुनिया में. जब मेरी समझ थोड़ी और विकसित हुयी तो मुझे लगा की दुनिया के सारे झगड़ों की जड़ ये तरह तरह के वाद ही हैं.  ये वाद ही विवाद कराते हैं.

कैसे?  क्यों?

मुझे लगता है की जब कोई वादी अतिवादी हो जाता है तो वो विवादों को जन्म देता है.

अब देखिये एक समाजवादी इस संसार से पूंजीवाद का खात्मा  चाहता है तो राष्ट्रवादी अलगावादियों का.  भौतिकतावादी  संसारिकता में उलझे  हैं तो अध्यात्मवादी इस दुनिया  को त्यागे खड़े  हैं. मानवतावादी  राष्ट्रवादियों को पसंद नहीं करते और प्रयोगवादी  शुद्धतावादियों  के खिलाफ रहते हैं.  कहीं माओवादी कमाओवादियों  को मार रहे हैं और  कहीं नारीवादी परम्परावादियों के खिलाफ झंडा  लिए खड़े हैं.

अरे क्या कहीं कोई ऐसा निर्विवाद्वाद है जिसका किसी से कोई झगड़ा न हो?

आप जिससे भी पूछोगे तो वो अपनी विचारधारा को सर्वोत्तम बताएगा. वो कहेगा की हमारी बात  ही अंतिम सत्य हैं, २४ केरेट का एकदम खरा सोना है और  बाकि सब पीतल है. अब इन्हें  कौन  समझाए   कि २४ केरेट का खरा सोना बैंक के लोकरों में बंद  रखने  के लिए होता हैं. आम उपयोग के लिए तो हमें उसमे कुछ मिलावट करनी ही पड़ती  है.

समाजवाद में थोड़ी सी पूंजीवाद की मिलावट करिए तो वो रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज बन जायेगा. माओवादियों के हाथो से हथियार लेकर गाँधीवादी लाठी थमा दी जाय तो शायद वो कानून की हद में रहकर भी दबे कुचले पीड़ितों को न्याय दिलवा पाएंगे.  इस दुनिया के ईश्वरवादी आस्तिकों को ये समझना होगा की वास्तव में ईश्वर कौन है और कहाँ है और इसी तरह ईश्वर का अस्तित्व न स्वीकारने  वाले  नास्तिकों को मानव मन की कमजोरियों को समझ उसके सहारे को छीनने का प्रयास छोड़ना होगा.  

हाँ एक बात और  प्रयोगवादी यदि "कांटा लगा" को  नए रूप में प्रस्तुत करेगा तो  ठीक पर ऐसा ही प्रयोग "कहीं दीप जले कहीं दिल" पर करेगा तो वो किसी को  हज़म नहीं होगा.

तो आईये हम सभी वादों से उत्पन्न विवादों का अंत करें.


 मेरी इस पोस्ट की प्रेरणा वो नहीं जो आप समझ रहे होंगे.

अपनी बात को समझाने के लिए एक शेर अर्ज है ..... ........ ........ .. (लो जी  पट्ठा शेरो शायरी पर उतर आया)

मुझे तो प्रेरित किया अपनों ने गैरों में कहाँ दम था,
यारो  पोस्ट लिखने को  ये वाद- विवाद  क्या कम था.




सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

एक स्पष्टीकरण.

मित्रों नमस्कार,



हिंदी ब्लॉग्गिंग की एक क्रन्तिकारी ब्लॉगर दिव्या जी ने अपनी एक पोस्ट महिला स्वाभिमान पर मेरी एक टिपण्णी के उत्तर में मेरे ऊपर एक नन्हा सा मगर चुभता हुआ आरोप जड़ दिया जो कुछ इस प्रकार है.

@- विचार शून्य -

आपने सही कहा , लेख बिना पढ़े भी टिप्पणियाँ की जा सकती हैं। लेकिन ताड़ने वाले भी क़यामत की नज़र रखते हैं । उनको मालूम होता है , किसने पढ़ा और किसने मात्र खानापूर्ति की है । उस व्यक्ति की वैसी ही image भी बनती है मेरे दिमाग में। व्यक्ति के शब्द उसकी पहचान होते हैं । जैसे लेखक की पहचान उसके लेख हैं , वैसे ही टिप्पणीकार की पहचान उसकी टिप्पणियां हैं।

आपके द्वारा करी गयी टिपण्णी से मुझे ये तुरंत समझ आ गया की आपने महीनों बाद कोई नई पोस्ट लगाई है , इसीलिए लिए आज आप मेरी पोस्ट पर नज़र आये हैं। आपको लेख से कोई सरोकार नहीं है ।

ब्लॉगजगत में ज्यादातर लोग उसी दिन निकलते हैं टिपण्णी करने के सफ़र पर जिस दिन वो अपने ब्लॉग पर नयी पोस्ट लगाते । क्यूंकि उन्हें सबकी टिपण्णी चाहिए होती है । ऐसे ही लोग बिना पढ़े टिपण्णी करते हैं।

बहुत कम ब्लोगर हैं जो सीरियस ब्लोगिंग करते हैं , और विरले ही हैं जो सीरियस टिपण्णी करते हैं।

और मैं सीरियस लोगों कों बेहद पसंद करती हूँ।

आभार ।

दिव्या जी, टिपण्णी में कही गयी मेरी बात से तो सहमत है पर जाने क्यों उन्होंने मुझे ऐसा आइना दिखाया जिस में मुझे अपनी तस्वीर नज़र नहीं आयी. ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी.

इसके बाद न जाने किस डर से इस लोह महिला ने मेरे उत्तर को अपनी पोस्ट पर भी प्रकाशित नहीं किया. मजबूरन मुझे ये बात अपने ब्लॉग पर विस्तार से लिखनी पड़ रही है ताकि इस आरोप पर मेरे मौन को कोई मेरी स्वीकृति न मान ले.

वैसे भी ब्लॉग पर लिखना तो फ्री फंड का है. बन्दे के पास वक्त होना चाहिए घर बैठे कितनी भी क्रांतियाँ की जा सकती हैं. कोई ये थोड़े ही है की ब्लॉग लिखने के बाद तहरीर स्क्वायर पर सर कटाने जाना है.

हाँ तो सबसे पहले तो मैं दिव्या जी को बता दूँ की टिप्पणिया प्राप्त करने के मामले में घटिया लेखक होते हुए भी मैं आपही की तरह बहुत भाग्यशाली रहा हूँ. इस प्रसाद को प्राप्त करने के लिए मुझे कभी भी किसी को कोई मेल नहीं भेजनी पड़ी है और ना ही इसके लिए न ही मुझे नए ब्लोग्गेर्स को प्रोत्साहित करने की कसरत करनी पड़ी. अपनी ब्लॉग्गिंग के पिछले एक वर्ष के दौरान मैंने कभी भी किसी भी ब्लॉग पर इस आशा के साथ कोई टिपण्णी नहीं दी की बदले में मुझे भी किसी से टिपण्णी की भीख मिलेगी. मेरा इस प्रकार की नेटवर्किंग में कभी विश्वास ही नहीं रहा.यदि मुझे भी टिप्पणियों की इसी ही चाह होती तो मैं भी नए नए ब्लोग्स पर जाकर टिप्पणियां चेप रहा होता. मैंने तो गौरव अग्रवाल जैसे प्रतिभा संपन्न ब्लॉगर को अपने ब्लॉग पर टिपण्णी करने से हतोत्साहित ही किया था.

नए उदित हो रहे ब्लॉगर किसी टिपण्णी का प्रतिउत्तर पहले से ही व्यस्त पुराने स्थापित ब्लॉगर की अपेक्षा ज्यादा जल्दी देते हैं.(ये अपने ब्लॉग पर टिप्पणियों की संख्या बढाने के लिए श्रम कर रहे ब्लॉगर के लिए सुनेहरा सिद्धांत है. पालन करें और टिप्पणियों में इजाफा करें. )

सच कहूँ तो मैं quality में विश्वास रखता हूँ quantity में नहीं. मुझे खुद से कहीं जयादा बेहतर ब्लोग्गेर्स की एक भी टिपण्णी प्रसाद स्वरुप मिल जाती है तो मैं तृप्त हो जाता हूँ.

(दिव्या जी से मेरा संवाद यही ख़त्म अगर आप अपनी पोस्ट पर मेरा उत्तर प्रकाशित कर देतीं तो मुझे इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती )

अब मैं मुझ पर स्नेह वर्षा करने वाले सभी मित्रों के समक्ष विनम्र निवेदन करना चाहता हूँ की किसी भी पोस्ट पर मैं तभी अपनी बात रखता हूँ जब मुझे एसा करना आवश्यक लगता है अन्यथा मैं शांति से पोस्ट पढ़ कर लौट आता हूँ और जहा भी, जब भी मुझे लगा की अपनी बात रखनी चाहिए वहां मैंने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी सहमती या सहमति व्यक्त की है.

अतः लोह महिला दिव्या जी की तरह ही यदि आप लोगों के मन के किसी कौने में ये विचार दुबका पड़ा हो की भइय्या विचार शून्य ने हमारे ब्लॉग पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी है अब उसके ब्लॉग पर भी जाकर हाजिरी बजानी पड़ेगी तो आप अपने मन से ऐसे विचार निकाल कर किसी दुसरे के ब्लॉग पर पेस्ट कर दें मुझे कोई दुःख नहीं होगा.

मैं अपनी ख़ुशी के लिए टिप्पणिया करता हूँ. आप अपनी ख़ुशी के लिए टिप्पणियां करें.

(ये पोस्ट मात्र सूचनार्थ है अतः इस बार टिप्पणियों की कोई आवश्यकता नहीं.)










बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

और वो कुत्ता मुझे सीरियस कर गया......

नमस्कार जी,

ब्लॉगजगत के सभी सदस्यों को ईद-ए-मिलाद कि शुभकामनाएं. बहुत दिनों बाद पोस्ट प्रकाशित कर रहा हूँ. पिछली पोस्ट थी कि मैं गंभीर ब्लोगिंग नहीं करूँगा पर कुछ बातें ऐसी हुई कि ब्लॉग्गिंग ही बंद हो गयी. वो हुआ कुछ ऐसा कि गत वर्ष २३ दिसंबर की शाम जब मैं ऑफिस से वापस घर लौट रहा था तो रास्ते में पास से गुजार रहे एक पगले से कुत्ते ने अचानक ही मेरे टखने पर अपने दांत गढ़ा दिए. मैंने झटक कर पैर छुड़ाने की काफी कोशिश की पर सफल नहीं हो पाया तो मैंने हाथों से ही उसके मुह को खोल अपने पांव को छुड़ाया  पर तब मेरा बांया हाथ ही उसके भरे-पूरे मुंह में फंस गया. भैय्या किसी तरह से मैंने अपने आप को बचाया.


इस कार्यक्रम में मेरे हाथ और पैर बुरी तरह से जख्मी हो गए. कुत्ते के दांत हाथ के अंगूठे में और पैर के टखने पर ठीक नस के ऊपर ही लगे थे अतः दोनों जगहों से रक्त का प्रवाह कुछ इस तरह का था कि मुझे डर लगा कहीं मेरी टंकी वक्त से पहले खाली ना हो जाए. मैं तुरंत हॉस्पिटल दौड़ा (भई रिक्शे कि सहायता से..). अस्पताल में डाक्टर साहब ने समझाया कि हालात सीरियस है. एक टीका यहीं लगेगा और दुसरे टीके के लिए जो कि घाव में ही लगेगा बड़े हॉस्पिटल जाना होगा. अब हालात सीरियस थे तो वहां भी गए. जो जो किया जा सकता था वो सब किया और घर वापस आ गए.


घर आकार जब वक्त मिला तो सारे घटनाक्रम पर विचार किया कि आखिर ऐसा क्यों हुआ. कहीं उस पगले कुकुर ने मेरी पिछली पोस्ट तो नहीं पढ़ ली थी जिसमे मैंने लिखा था कि मैं सीरियस ब्लॉग्गिंग नहीं करूँगा. उसने मेरा लेख पढ़ कर सोचा होगा कि साले कि हालत ही सीरियस कर दो तब जो कुछ भी करेगा सीरियस ही होगा और मुझे इस तरह से घायल किया कि मेरे घाव तो भर गए पर उनमे दर्द अभी भी होता है.


बहुत सी साहित्यिक रचनाओं में अनेक बार पढ़ा था कि शरीर के जख्म तो भर गए पर मन के घाव अभी भी दुखते हैं. इस साहित्यिक बात को मैंने अब प्रत्यक्ष में अनुभव किया है जब डौगी भाई के दिए जख्म तो भर गए हैं पर उनका दर्द रह-रह कर अभी भी परेशान करता है.


चलिए हो सकता है कि अब आपको मेरे लेखों में कुछ दुःख और दर्द भी दिखलाई पड़े तो फ़ौरन समझ लीजियेगा कि अगले को कुत्ते ने काटा है तभी इसकी लेखनी में इतना दर्द समां गया है. जो भी हो अब नियमित रूप से आपके साथ अपना दर्द बाटता  रहूँगा. ( बस मन में ये डर भी है कि लोग ये ना सोचें कि हमें कोई कुत्ते ने थोड़े ही काटा है जो इसका ब्लॉग पढ़ें. वैसे कुत्ता काटे तो लोगों कि सहानभूति बटोरना मुश्किल होता है. अपना दर्द बताने पर लोग कहते हैं कि आपको कुत्ते ने अब काटा है पर आपकी हरकतें तो पहले से ही वैसी रही हैं. )