रविवार, 15 दिसंबर 2013

खजुराहो, कृष्ण, अर्जुन और समलैंगिकता

टी वी पर हो रही बहसों में अक्सर मैंने यह देखा है कि अगर आप मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा बनाये दुर्गा और भारत माता नग्न चित्रों का समर्थन करते हों, या समाज में तेजी से बढ़ रहे बिना विवाह युवक युवतियों के घर बसा लेने वाले  नए चलन के हिमायती हों, या विलायती संत वेलेंटाइन के दिवस पर युवा वर्ग द्वारा खुले आम प्रेम प्रदर्शन को सही ठहराते हों या भारतीय समाज में समलैंगिकता को सम्मानजनक दर्जा दिलाना चाहते हों तो मान लीजिये कि खजुराहों के मंदिर आपके इस जन्म के तारणहार हैं। अगर कोई भारतीय परम्पराओं का समर्थक आपसे बहस करे तो उसके  ऊपर खजुराहो नामक बम फोड़ दीजिये आपकी जीत सुनिश्चित है। और फिर भी कुछ बचा रहे तो कामसूत्र के सूत्र से उसका गला घोट दीजिये।

कल डाक्टर दराल sahab के ब्लॉग par देखा कि समलेंगिकता के समर्थन में कृष्ण, अर्जुन और शिखंडी को भी खीच लाया गया है । मुझे समझ नहीं आया कि समलेंगिकता और कृष्ण या अर्जुन के बीच कहाँ का साम्य है।
मुझे तो इन लोगों कि हाय तौबा भी समझ में नहीं आती। क्या कुछ आकड़े मौजूद हैं कि पुलिस वाले कितने लोगों को समलेंगिकता (धारा ३७७ ) के अपराध में जेल में बंद करते हैं। कल ही मैंने दिल्ली पुलिस के एक सब इस्पेक्टर से पूछा तो उसने बताया कि अपनी सैंतीस साल कि नौकरी में उसने धारा ३७७ में एक भी आदमी या औरत को नहीं पकड़ा। चारों  तरफ सम्लेंगिक और उनके समर्थक इस तरह से व्यव्हार कर रहे हैं मानो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से इन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा और अब सारे समलैंगिकों के शयनकक्षों में पुलिसवाले जाकर पहरा देने लगेंगे।

असल में धारा ३७७ पर सुधार  के बहाने सम्लेंगिक अपने अप्राकृतिक असामान्य व्यव्हार को सामाजिक स्वीकृति दिलवाना चाहते हैं जो होना नहीं चाहिए। इस विषय में तो मैं चाहता हूँ कि यदि  धारा ३७७ में सुधार करके सहमति से बनाये अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों को सजा योग्य अपराध श्रेणी से हटाया जाता है तो साथ में एक बात अवश्य जोड़ी जानी चाहिए कि समलेंगिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन सजा दिए जाने योग्य अपराध होगा। क्योंकि एक बार अगर इन्हे क़ानूनी स्वीकृति मिल गयी तो इन लोगों ने प्यार के इजहार के नाम पर ऐसी गन्दगी फैलानी है कि सम्हालना मुश्किल हो जायेगा। समलेंगिकता एक मनो विकृति है जिसकी सामाजिक स्वीकृति आने वाली पीढ़ियों को विकृत ही करेगी।

शनिवार, 4 मई 2013

समलैंगिकता की चीड़फाड़


लगभग डेढ़ वर्ष से मैं भारत भ्रमण पर हूँ। पूर्व से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण लगभग पूरा भारत नाप चूका हूँ। अपने इस भ्रमण के दौरान पुरे भारत में मुझे जो दो चीजें लगभग सभी जगहे दिखाई पड़ी वो हैं खाने में दक्षिण भारतीय सांभर डोसा और इंसानों में समलैंगिक जोड़े। डोसे का स्वाद मैंने सभी जगहों पर लिया और समलैंगिक जोड़ो को अभी तक सिर्फ निहारा। 

अभी पिछले हफ्ते चंडीगड़ में था। इस बार एक समलैंगिक से मुलाकात/बातचीत हो ही गयी जो अपने पार्टनर के साथ संयोग से गेस्ट हॉउस में मेरे बगल के कमरे में ठहरा हुआ था। समलैंगिकता को लेकर कुछ प्रश्न मेरे मन में हमेशा रहे हैं जो मैंने उस जीव के सामने रखे पर अफ़सोस वो "कच्चा खिलाडी" था। वो इस खेल के क्रियात्मक पक्ष से ही जुड़ा था। सिद्धांत रूप में उसने कभी भी इस "कला" की चीड़फाड़ नहीं की थी।

जब भी मैं स्त्री पुरुष के शारीरिक संबंधों पर विचार करता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है की इन संबंधो में भी एक पक्ष घनात्मक होता है और दूसरा ऋणात्मक। एक यिन होता है तो दूसरा येंग, एक ठंडा होता है तो दूसरा गरम, एक तलवार होता है तो दूसरा उसकी म्यान। ऐसा शारीरिक रूप से हो या मानसिक रूप से पर ऐसा होता जरुर है तभी आनंद की बत्ती जलती है वर्ना नहीं।  ऐसा इसलिए क्योंकि अगर दोनों ही घनात्मक होंगे तो प्यार की बत्ती नहीं जलेगी बल्कि शार्ट सर्किट हो जायेगा । आप ही सोचिये ना अगर दोनों ही तलवार वाले होंगे तो आनंद नहीं होगा सिर्फ युद्ध ही होगा। 

अपनी इसी सोच के साथ जब मैं किसी समलैंगिक जोड़े पर विचार करता हूँ तो मुझे जोड़े के उस व्यक्ति की मानसिकता समझ नहीं आती जो अपने सामान लिंग वाले पार्टनर में विपरीत लिंगी गुण खोज रहा होता है।  

मैं इस बात में पूरी तरह विश्वास रखता हूँ की कभी कभी कुछ मामलों में प्रकृति से भी गलती हो जाती है और वो एक पुरुष के शरीर में स्त्री को और स्त्री के शरीर में पुरुष को भूल से बांध देती है। ऐसे  पुरुष शरीर में फंसी स्त्री तो तो पुरुष की तरफ ही आकर्षित होगी और स्त्री शरीर में फंसा पुरुष स्त्री की ओर ही आकर्षित होगा। 

इसमें मुझे कोई लोच नज़र नहीं आता। मुझे समलैंगिकों के दुसरे वाले साथी की मानसिकता समझने में कठिनाई होती है।जो स्त्री पुरुष शरीर में फंसी है उसे पुरुष साथी पसंद आएंगे पर उसका साथी क्यों एक अधूरी अपूर्ण स्त्री को पसंद कर रहा है ये बात मुझे समझ नहीं आती। ऐसे  ही लेस्बियन जोड़े भी स्त्री शरीर में फंसा पुरुष तो स्त्री की और आकर्षित होगा पर जो मानसिक और शारीरिक रूप से स्त्री ही है वो एक अधूरे अपूर्ण पुरुष की और क्यों आकर्षित हो जाती है ये समझ नहीं आता।

अब अपने मन के इस प्रश्न को हिन्दीब्लोग जगत में इस आशा के साथ उछाल रहा हूँ की शायद कोई "पक्का खिलाडी" इधर भी हो जो इसे सुलझा दे ........... 


   

रविवार, 21 अप्रैल 2013

बकवास बंद ! आइये प्रेम की बात करें।





यूँ तो मन था की बकवास जारी रखी जाय और स्त्री समानता पर अपने घिसे-पिटे विचार प्रस्तुत किये जाय पर अदा जी की टिप्पणी  और अपने ब्लॉग जगत में जर्मनी पुरस्कारों को लेकर चल रही घमासान से मुझे लगा की प्रेम मोहब्बत की बात की बात करना ज्यादा अच्छा होगा। वैसे इस ओर मेरा ध्यान आकर्षित हुआ  "आराधना का ब्लॉग" की एक पोस्ट से जिसमे नारीवादी स्त्री प्यार कर सकती है या नहीं इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला गया था।

प्रेम सभी जानते हैं की भगवान की इन्सान को दी हुयी सबसे बड़ी नेमत है। बड़े बड़े गुणी जनों ने इस पर बहुत बहुत  कुछ लिखा है। पर क्या करू सभी ने प्रेम भावना को इतने भिन्न रूपों में परिभाषित किया है की मैं उलझ जाता हूँ की वास्तव में प्रेम किस चिड़िया का नाम है और ये किस डाल पर बैठती हैं।

किस्से कहानियों में तो सच्चे प्यार की बहुत सी दास्तानें लिखी और सुनायी गयी हैं जैसे राधा-कृष्ण,लैला-मजनू आदि आदि पर जब भी मैंने सच्चे प्रेम के वास्तविक जीवन में उदहारण खोजने की कोशिश की तो मुझे नाकामी ही मिली।

मुझे लगता है की शायद मैंने प्रेम की कोई मुश्किल सी परिभाषा पढ़ ली है या फिर प्रेम को परिभाषित ही नहीं किया जा सकता है।


यूँ तो प्रेम एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है पर इसकी जो सबसे उत्तम परिभाषा आज तक मुझे मिली  उसके अनुसार प्रेम वो भावना  है जिसमे हम किसी पर बिना कुछ चाहे अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं या कर देने की इच्छा रखते हैं । (अगर इससे बेहतर कोई और परिभाषा है तो मैं जानना चाहूँगा)

उपरोक्त परिभाषा के आधार पर मुझे तो लगता है की मानव मन की जिस भावना का हम प्यार समझते हैं उसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि किस्से कहानियों को छोड़ वास्तविक जीवन में इसके उदहारण आपको ढूंढे नहीं मिलेंगे। जिस प्रकार से सत्यनारायण की कथा में उस कथा के महात्मय को ही बतलाया गया है वास्तविक कथा का कहीं भी जिक्र नहीं है उसी प्रकार प्रेम एक ऐसी उच्च कोटि की मानवीय भावना है जो मानवों में ढूंढे नहीं मिलती। 
सबसे पहले स्त्री पुरुष के प्रेम को लें। यहाँ में किस्से कहानियों में वर्णित  काल्पनिक चरित्रों का उदहारण नहीं लेना चाहता अपने इर्द गिर्द के वास्तविक प्रेमियों की बात ही करना चाहता हूँ। अपने आस पास आपको ऐसा एक भी उदहारण नहीं मिलेगा जहा दो प्रेमी एक दुसरे पर बिना कुछ चाहे न्योछावर हों। दो प्रेमियों के मध्य आपको या तो यौन आकर्षण मिलेगा या आर्थिक सामाजिक सुरक्षा की चाहत दिखाई देगी।  कहा तो बहुत कुछ जायेगा पर ध्यान से देखने पर आप पाएंगे की कहीं न कहीं दोनों को एक दुसरे की जरुरत है इसलिए प्रेम पनपा है।
आप माता पिता और सन्तानों  के मध्य के प्रेम को ले लें। यहाँ भी निस्वार्थ कुछ नहीं है।एक दुसरे से कोई न कोई चाहत आपको नज़र आ ही जाएगी।
सांसारिक संबंधों की बात छोड़ अध्यात्मिक स्तर पर आयें तो वहां भी हम लोग ईश्वर से प्रेम किसी न किसी लालच के कारण  करते हैं।  हम  जन्म मरण से मुक्ति चाहते  हो या जन्नत में हूरों  के ख्वाब देखते हों, ईश्वर  से प्रेम हम किसी न किसी चाहत के कारण ही करते हैं।
तो प्रेम असल में है कहाँ ? क्या ये वास्तविकता में होता भी है ? मुझे तो लगता है की प्रेम शब्द ही एक छलावा है। प्रेम एक काल्पनिक शब्द है और असल में प्रेम होता ही नहीं है। मुझे तो लगता है की  जिस भावना को हम प्रेम के रूप में परिभाषित करते हैं वो असल में आनंद या सस्ते में कहें तो मज़ा है।
प्रत्येक इन्सान अपने संबंधों में चाहे वो साथी इंसानों के साथ हों या किसी और चीज के साथ आनंद की तलाश में रहता है। जब उसे वो अननद मिलता है तो वो कहता है की उसे प्रेम हो गया है। आपसी संबंधों में जब आनंद नहीं रहता तो प्रेम भी ख़त्म हो जाता है। जब माता पिता अपनी संतान का लालन पालन करते वक्त आनंदित होते हैं तो उन्हें अपनी संतान से प्रेम होता है पर बाद में जब उन्हें अपनी संतान से कोई चाहत होती है और वो पूरी नहीं होती तो उनका आनंद ख़त्म हो जाता है।

स्त्री पुरुष जब पहली नज़र में एक दुसरे को आनंद लेने और देने योग्य पाते हैं तो ये पहली नज़र का प्यार कहलाता है और जब ये आपसी मज़ा खत्म हो जाता है तो प्यार भी कहीं मर जाता है।
कभी कभी स्त्री पुरुष पहली नज़र में एक दुसरे को मज़ा लेने और देने के योग्य नहीं पाते पर धीरे धीरे साथ रहते रहते एक दुसरे की उपस्थिति से आनंद लेना सीख जाते हैं तो कहा जाता है की प्यार धीरे धीरे परवान चढ़ा। दो स्वतंत्र व्यक्तित्व जब एक दुसरे में आनंद खोजते हैं तो कुछ को लगता है की यही सच्चा प्यार है पर जब उन्हें अपने संबंधों में आनंद नहीं मिलता तो यह सच्चा प्यार भी कुछ दिनों में लुप्त हो जाता है। 

हम ईश्वर का भजन करते हैं, पूजा पाठ करते हैं हमें आनंद मिलता है हम कहते हैं की हमें इश्वर से प्रेम हो गया।जिस दिन ईश्वर से हट कर हमें सांसारिक वस्तुओं में मजा मिलने लगता है तो हमें संसार से प्रेम हो जाता है।


लगता है की अब ज्यादा उदहारण देने की आवश्यकता नहीं। मेरी बात आपकी समझ में आ ही गयी होगी :-))
तो मेरी बात मानिये इस संसार में प्यार, मोहब्बत और  प्रेम जैसी कोई चीज है ही नहीं । जो कुछ है आनंद ही आनंद है। अतः जीवन के पुरे मजे लें जो अच्छा लगता है उसके साथ लें और मजे ना मिलें तो लूट लें। 

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

स्त्री की प्रेम अभिव्यक्ति और हमारे सामाजिक नियम.

काफी समय पहले की बात है एक ब्लॉग था बेदखल की डायरी जिस पर मनीषा जी की एक पोस्ट के जवाब में मैंने कुछ लिखा था। उस वक्त कुछ महिला ब्लोग्गेर्स ने मेरी बातों पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। कल रचना जी द्वारा नारी ब्लॉग पर उठाये एक काल्पनिक प्रश्न ने मुझे अपनी इस पुरानी पोस्ट की याद दिल दी। पुरानी पोस्ट पर आई टिप्पणियों में आप देख सकते हैं की पुरुषों के प्रति व्यक्त मेरे विचारों को अधिकांश महिलाओं ने कैसे एकदम नकार दिया है और सीधे सीधे मेरी मानसिकता को दोषी ठहराया है. मुझे समझ नहीं आता की आप एक तरफ तो पुरुष का विरोध करते हैं दूसरी तरफ उसकी कमियों को स्वीकारते नहीं। समझ नहीं आता लोग क्या चाहते हैं। खैर फ़िलहाल २०१० में व्यक्त मेरे विचारों पर गौर फरमाइए :  

मनीषा जी सबसे पहले मैं यह कहूँगा की आप एकदम बिंदास लिखती है अपने विचारों में कोई काट छाट नहीं करती इसलिए आपका लेखन मुझे बहुत अच्छा लगता है।

आपने अपने मन की बात कही, आपकी भावनाएं प्राय सभी भारतीय स्त्रियों की होती है जो आज के समाज में पुरुष के साथ हर field में कंधे से कन्धा मिलकर चल रही हैं।

एक मानव के रूप में हम सभी अपने प्यार की अभिव्यक्ति ठीक उसी रूप में करते है जैसे की अपने किया पर सिर्फ स्त्रियों को संदेह की नजर से देखा जाता है और उनकी छोटी से छोटी बात को भी सालों याद रखा जाता है । यह बात विचारनीय है की ऐसा क्यों होता है । आपका दर्द एकदम जायज है क्योंकि अपने सारी घटना को एक स्त्री के नजरिये से देखा। पुरुष का नजरिया क्या होता है यह मैं आपको दिखता हूँ।

जब आप उन लेखक महोदय, जो की ७० वर्ष की उम्र के थे, से मिलीं तो अपने आदर, सम्मान व प्यार से उन्हें गले लगा लिया पर इस बात की याद उन्हें अपनी वृधावस्था में भी वर्षों तक रही यह बात पुरुष की मानसिकता को दिखाती है।

एक पुरुष के लिए रिश्तों के बंधन से मुक्त नारी हमेशा भोग्या होती है। मेरी इस बात का बहुत से लोग पुरजोर विरोध कर सकते है पर मैं अपनी बात से कभी पीछे नहीं हटूंगा। कभी कभी तो रिश्तों की दिवार भी गिरा दी जाती है चाहे वो कितनी भी मजबूत क्यों ना हो।

इस वजह से ही हमारे समाज में स्त्री का किसी भी पर पुरुष के साथ शारीरिक या मानसिक जुडाव कभी भी ठीक नहीं समझा गया।

सभी स्त्रियाँ इसे खुद पर लांछन के रूप में लेती हैं। उन्हें लगता है की उनकी पवित्रता पर शक किया जा रहा है। पर सच्चाई यह है, की यह पुरुष की मानसिकता पर लांछन है। जब दो व्यक्ति व्यव्हार करते हैं तो दोनों की भावनाओं को देखा जाता है। एक तो निर्दोष भावना से व्यव्हार कर रहा है पर दुसरे के मन में खोट हो तो नुकसान किसे होगा? आपको यह बात समझनी होगी।

अपने एक पुरुष में एक पिता को देखा होगा, एक भाई को देखा होगा, एक प्रेमी को देखा होगा पर शायद एक पुरुष में सिर्फ पुरुष को कभी नहीं देखा होगा। जब एक पुरुष एक पिता, भाई , पति या प्रेमी नहीं होता है और विशुद्ध रूप में पुरुष होता है तो उसे कोई लिहाज नहीं होता , ना भावनाओं का ना उम्र का , ना समाज का, ना सामाजिक रिश्तों का । पुरुष की इस मानसिकता से वशीभूत होकर ही तो एक ८१ वर्ष का आदमी १८ साल की युवती से विवाह कर लेता है।

तो मनीषा जी आप जिन सीमाओं को दुष्ट समझकर तोड़ देना चाहती हैं और जो सीमाएं आपकी समझ से आपको कमतर इन्सान बनती है वो आपके भले के लिए ही हैं। समाज या कानून द्वारा तय सीमा के अंतर्गत किया गया व्यव्हार किसी भी इन्सान को कमतर नहीं बनता। शायद यही वो मानसिकता है जिसके तहत आज का युवा रोड पर स्पीड की सीमा को या रेड लाइट पर रुकने को एक बंधन मानता है। उसे भी समाज के बनाये नियम कानून को मानाने से अह्सासे कमतरी होता है। ( अह्सासे कमतरी की वर्तनी मुझे ठीक नहीं लग रही, पर काफी पहले यह शब्द सुना था आज चेपने का मौका मिला है )

अच्छा अब कुछ लोग यह कह सकते हैं की पश्चिम के समाज में तो ऐसा नहीं है। तो इसका जवाब मैं जब मन करेगा तो जरुर दूंगा अभी ३१ मार्च है वक्त की कमी है।

 पहले मेरे ब्लॉग पर स्पैम की समस्या नहीं थी पर अब है। मालूम नहीं क्यों?  क्या स्पैम को ख़त्म किया जा सकता है? कृपया मेरी सहायता करें। 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

बकवास जारी है .....

जब भी नारी अधिकारों की बात चलती है या फेमेन जैसे संगठन सनसनी खेज तरीके से इस समस्या को सामने लाते  हैं तो मेरे मन में इस विषय पर अनेक प्रश्न कुलबुलाने लगते हैं। 

नारीवादी संगठन नारी शक्ति, मुक्ति, आजादी , स्वतंत्रता आदि बातें बड़े पुरजोर तरीके से उठाते हैं। मैंने अपने चालीस वर्षीया जीवन में अपने आस पास के माध्यम वर्गीय  हिन्दू समाज में  जो कुछ देखा है और समझा है उस अनुभव के आधार पर नारी स्वतंत्रता मुक्ति आजादी अदि विचारों को मैं समझ नहीं पाता।  हो सकता है कोई पर्दा पड़ा  हो।

मैं ये मनाता हूँ की स्त्रियों को समाज में पुरुषों के समान  अधिकार प्राप्त नहीं हैं और उन्हें कमतर समझा जाता है। मुझे लगता हैं की  इन दोनों में जो शारीरिक भिन्नताए हैं उनका ख्याल रखते हुए दोनों को समान समझा जाना चाहिए पर मैं नारी स्वतंत्रता के विचार को पूरी तरह से समझ नहीं पाता।

कौन, किस से किस बात के लिए कितनी आजादी चाहता है इस बात को जीवन मरण के चक्र से  मुक्ति, आजादी और स्वतंत्रता की चाह रखने वाला मेरा हिन्दू मन आसानी से समझ नहीं पाता।   
 
मुझे दूसरों का नहीं पता पर अपने जीवन में कदम कदम पर मैंने खुद को अनेक बंधनों में बंधा पाया है। अगर इनमे से कुछ एक बंधनों में स्त्री स्वतंत्रता के समर्थक खुद को बंधा पाते  हों तो मेरी  मुक्ति आजादी और स्वतंत्रता के समर्थन में भी फेमेन टाइप चोली उतार जिहाद करें।

मैं छुटपन में नंगा घूमता था। अम्मा पिताजी ने समझाया की बेटा नंगा मत घुमा करो वर्ना कौवा तुम्हारी बहु नौच ले जाएगा। मैं आज भी घर पर कच्छे बनियान में रहना पसंद करता हूँ पर पत्नी को पसंद नहीं। बिना नेकर पायजामा और टी शर्ट  के मुझे अपने ही घर में जीने नहीं दिया जाता। वैसे मैं किसी न्यूड केम्प में कम से कम एक हफ्ता गुजरना चाहता हूँ। विदेश नहीं जा सकता, दिगंबर या नागा साधू नहीं बन सकता अतः इस इन्तजार में हूँ की कब अपने देश में लोग इतने आधुनिक,प्रगतिशील और समझदार हों की यहाँ भी न्यूडिस्ट केम्प स्थापित हों। कुल मिला कर आज की तिथि में मुझे कम से कम अपने घर में पायजामा या नेकर पहनने की घुटन से मुक्ति आजादी और स्वतंत्रता चाहिए।

मैं युवा हुआ तो अपने पिता की ही तरह बीडी और हुक्का पीना चाहता था।बड़े भाई की तरह शराब और बियर पीना चाहता था। इजाजत नहीं मिली। बहुत सी लड़कियों के साथ बिना रोकटोक खुले आम रोमांस करना चाहता था। चहुँ ओर से विरोध हुआ।  मेरे पिता बीडी हुक्का पी सकते थे, दोस्त लोग दो दो तीन तीन लड़कियों से प्रेम कर सकते थे पर मुझे आजादी नहीं मिली। कहा गया चोरी छिपे ये काम कर लो। समाज के इस दोगलेपन पर बहुत गुस्सा आया। बड़ी घुटन सी महसूस हुयी। दिल के अरमान कुचले गए।  आज मैं किसी सुन्दर महिला से बात करता हूँ तो पत्नी को बुरा लगता है। उस सुन्दर महिला के परिजनों को बुरा लगता है।  मुझे आजादी चाहिए, मुक्ति चाहिए।

मैं छोटा था तो देर तक बाहर रहने पर माता पिता की डांट  सुनानी पड़ती थी। जमाना ख़राब है देर रात तक गलियों में दोस्तों के साथ आवारागर्दी मत किया करो के जुमले मैंने कई बार सुने। पहली बार बेंक से पैसे निकलवाने गया तो सुरक्षित रहने के बहुत से तरीकों के साथ मुझे लेस कर भेज गया। दिल्ली के ही कुछ इलाकों में जाने से पहले सावधान रहने की हिदायतें भी बहुत बार मुझे मिली हैं। बहुत बार मेरे मन में आया की मैं अपनी जेब में सौ के नोटों की गड्डी रखकर किसी भीड़ भरे बाज़ार में  कुछ इस तरह से घुमु के गड्डी  का कुछ हिस्सा जेब से बाहर दीखता रहे। ये न पूछे की ऐसा क्यों? भई मेरा सामान है मैं जैसे चाहे रखूं, जब चाहे जहाँ चाहे दिखाऊ। दुसरे के धन को मिटटी समझना चाहिए। पर दोस्तों मैं  रात की बात छोडो मैं कभी दिन में ऐसा नहीं कर पाया। ये सब देखकर मुझे लगा की इस देश, इस समाज  में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज कभी रही ही नहीं है। आप रात तो क्या दिन दहाड़े भी अपने कीमती सामान के साथ खुले घूम नहीं सकते। लोगों की बुरी नज़रों से अपने मूल्यवान सामान को बचा नहीं रख सकते।  इस सब से मुझे बड़ी घुटन महसूस होती है। मुझे अपनी मूल्यवान चीजों को सुरक्षित रखने के डर  से आजादी चाहिए।

तो कदम कदम पर आजादी मुक्ति स्वतंत्रता खोज रहे इस पुरुष को भी समर्थन की चाह है। है कोइ सगठन इधर या उधर जो मुझे बेहद असरदार और प्रभावशाली चोली उतार समर्थन दे सके।   

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

चोली फाड़ जिहाद


 
युक्रेन का एक नारीवादी सगठन है फेमेन ।   इस संगठन की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य था युक्रेन की युवा महिलाओं में नेतृत्व,बौद्धिक तथा नैतिक गुणों का विकास करना और युक्रेन की छवि सुधरने के साथ साथ उसका स्त्रियों के लिए एक अवसर प्रदान करने वाले देश के रूप में विकास करना। अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति और दुसरे स्त्री विरोधी कार्यों के विरोध के लिए इस संगठन के सदस्य राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय मंचों पर चोली उतार कर प्रदर्शन करने में विश्वाश रखते हैं। चोली उतार प्रदर्शन  इसलिए क्योंकि  इस प्रकार के प्रदर्शन से लोंगों का ध्यान आसानी से आकर्षित किया जा सकता है और सहज ही खबरों की सुर्खिया बटोरी जा सकती हैं।आज की तिथि में फेमेन का दायरा युक्रेन से आगे बढ़ कर अंतर्राष्ट्रीय हो गया  है और इसने खुद को नए तरीके से फरिभाषित किया है अब  FEMEN – is a hot boobs, a cool head and clean hands. [ वैसे ये सोचने की बात है की स्त्रियों में चोली उतार कर नेतृत्व बौद्धिक और नैतिक गुणों का विकास किस प्रकार से किया जाना था और  ये बौद्धिक और नैतिक गुण क्या वही  होते  जो आम समाज स्वीकारता है या इनकी परिभाषा भी कुछ और ही होती  और हाँ अब hot boobs को महत्व किस लिए ? सस्ती लोकप्रियता या पुरुषों को अभी भी आकर्षित करने का प्रयास  ] 
 
अब यह संगठन चार अप्रेल से ट्युनिसिया की  अमीना के समर्थन में  एक जिहाद शुरू करने जा रहा है। अमीना ने अपने देश के इस्लामिक कट्टरपंथियों के विरोध में अपनी नग्न तस्वीरें फेसबुक पर सार्वजनिक कर दी जिसके लिए ट्युनिसिया की सरकार ने उसे मानसिक रोगी समझ  कर मानसिक रोगियों के अस्पताल में भर्ती  कर दिया है।
फेमेन का वेब पेज सभी स्त्रियों से अमीना के समर्थन और इस्लामिक कट्टरपंथियों के विरोध में चार अप्रेल को चोली उतार कर स्तन दिखाऊ विरोध प्रदर्शन करने का आवाहन करता है।
 इन संगठनों के गंभीरता से नारीवादी होने में मुझे शक होता है। मुझे लगता है की इस प्रकार के नारीवादी संगठनों के प्रणेताओं का एकमात्र उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता हासिल करना होता है और नारी अधिकारों के लिए ये लोग सिर्फ अपने स्तनों का प्रदर्शन ही कर सकते हैं। कोई ठोस कार्य करना इन लोगों के बस का होता ही नहीं है 
 
जरा सोचिये  ट्युनिसिया की अमीना के  चोली उतारने पर सभी की चोली फटवाने को तैयार इन नारीवादी संगठनों में से कितनों ने पाकिस्तान या अफगानिस्तान की फाकरा युनुस, आयेशा मोहम्मद या मलाला जैसी मुस्लिम कट्टरपंथियों की बर्बरता की शिकार लड़कियों  के समर्थन में कोई  प्रदर्शन या जिहाद किया। क्या इन लड़कियों के समर्थन में  तेजाब की एक बूंद से खुद को झुलसना या प्रतीक रूप में अपने नाक कान कटाने जैसा कोई सनसनीखेज प्रदर्शन नहीं किया जा सकता था। जी नहीं वो खतरनाक होता। इससे आसान है अपने चोली और ब्लाउज उतार कर
पूरी दुनिया के पुरुषों का ध्यान अपनी और आकर्षित करना। [हो सकता है इसमें भी कुछ लोगों को मजा आता हो। मैंने वसंत विहार जैसे दिल्ली के पोश इलाके में एक लडके को भरे बाज़ार अपना लिंग निकल कर घूमते देखा है। ये भी यौन संतुष्टि का  एक रुग्ण तरीका है। ये और बात है की  उस लडके की जबरदस्त धुलाई हुई। ] 

असल में पश्चिमी सभ्यता में नग्न होकर लोगों का ध्यान आकर्षित करना एक सस्ता आसान उपाय  है। कई बार क्रिकेट मैच के बीच लोग कपडे उतार कर दौड़ लगाने लगते हैं।  कुछ डिपार्टमेंटल स्टोर प्रतियोगिता आयोजित कर नग्न होकर आने वाले अपने स्त्री पुरुष ग्राहकों को मुफ्त खरीदारी करने का अवसर प्रदान करते हैं। गाँव देहात में जिस प्रकार हमारे बच्चे जीभ निकल कर दूसरों को चिढाते हैं उसी प्रकार पश्चिमी गाँव देहात में दूसरों को चिढाने के लिए बच्चे अपना पिछवाडा उघाड़ देते हैं।
 
मैं slut walk या topless jihad जैसे हर विरोध प्रदर्शन के खिलाफ हूँ। ये सामान्य लोगों के काम नहीं हैं बल्कि मानसिक रूप से विचलित असामाजिक लोगों के कार्य हैं।  

बकवास जारी रहेगी ..........

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

सरकारी अस्पताल में पुरुष नर्स।

नर्सिंग एक महिला प्रधान पेशा है। पुरुष भी नर्स बन सकते हैं ये बात मुझे पता थी पर अभी तक मैंने किसी पुरुष को नर्स का कार्य करते हुए देखा नहीं था। पिछले कुछ  दिन मेरे बच्चे डेंगू की वजह से दिल्ली के एक सरकारी बाल चिकित्सालय में भर्ती  थे। वहां मैंने पहली बार किसी पुरुष को नर्स के रूप में कार्य करते हुए देखा। दो युवक मेडीसिन वार्ड में नर्स के तौर पर  कार्यरत थे। मैं दोनों के ही कार्य से बहुत प्रभावित हुआ। उनका संयम, धेर्य और बाल मरीजों से बात करने का तरीका  काबिले तारीफ था। आम तौर पर सरकारी अस्पतालों में कार्यरत नर्सें अपने कार्य के प्रति बेहद असंवेदनशील होती हैं।इसके विपरीत ये दोने युवक अपने कार्य को बेहद संजीदगी से कर रहे थे।
 
आम धारणा यह है की मरीजों की सेवा का कार्य स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा अच्छे ढंग से कर सकती हैं पर सरकारी अस्पतालों में अभी तक मैंने जितनी भी महिला नर्स देखी हैं उनमे से 99 प्रतिशत नर्सों को मैंने अशिष्ट, कामचोर व चिडचिडा पाया। नर्सिंग स्कुल से निकलते वक्त मरीजों की सेवा का जो व्रत वो लेती हैं सरकारी सेवा में आने के उपरांत उसे वो सबसे पहले भुला देती हैं। अपने कार्य के प्रति उनका रवैया बेहद मशीनी रहता है और मरीजों के प्रति उनका व्यवहा
र बहुत ही गैरजिम्मेदाराना होता  है। दिल्ली के जी टी बी हॉस्पिटल में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने एक नर्स से इस बारे में सवाल किया तो उन्होंने कहा था की अगर पुरुष ये कार्य करें तो उनका व्यव्हार और भी ख़राब होगा। पुरुष नर्सों के साथ मेरा पहला अनुभव तो अच्छा रहा है और मैं तो चाहूँगा की ज्यादा से ज्यादा पुरुष नर्सिंग की कार्य को अपनाएं ताकि आम लोगों की ये भ्रान्ति दूर हो की मरीजों  की देखभाल करने जैसे संवेदनशील और भावनात्मक कार्यों पर स्त्रियों का एकाधिकार  है। हालाकिं ये कहा जा सकता है की सिर्फ दो पुरुष नर्सों के साथ हुए अपने अनुभव के आधार पर यह कहना की पुरुष स्त्रियों से बेहतर नर्स हो सकते हैं एक जल्दबाजी होगी पर फिर भी महिलओं से भरे एक सेक्शन की  पुरे एक वर्ष तक अगुवाई करने के अनुभव से पैदा हुयी समझ से मैं पुरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ की पुरुष नर्सिंग के कार्य में स्त्रियों से कभी  भी कमतर नहीं होंगे।

पिछले वर्ष अगस्त में मैंने भारत सरकार के एक मंत्रालय के प्रधान लेखा कार्यालय के लेखा विभाग की कमान सम्हाली। मेरे विभाग में एक पुरुष व चार महिलाएं कार्यरत थी। सांकेतिक रूप से आप उन्हें मिसेज मल्होत्रा,मिसेज खन्ना, मिसेज टुटेजा और मिसेज तनेजा पुकार सकते हैं। कहने को तो मैं विभागीय अधिकारी था पर सभी महिलाएं उम्र व तनख्वाह में मुझ से कहीं आगे थी। वर्ष भर मैं इन चारों  महिलाओं  की आपसी प्रतिस्प्रधा का मूक गवाह बना रहा। प्रतिस्पर्धा अपने कार्य को बेहतरी से करने की नहीं थी। प्रतिस्पर्धा थी ज्यादा से ज्यादा छुटियाँ लेने, काम पर देरी से आने और जल्दी जाने तथा अपना कार्य दूसरों पर थोपने की।  पुरे वर्ष अपने विभागीय कार्यों को समय पर पूरा करवाने  के दबाव व तनाव ने मुझे किसी दूसरी चीज पर ध्यान देने का मौका ही नहीं दिया। अंततः एक सच्चे निडर पुरुष की तरह मैंने रण छोड़ने का निर्णय लिया और अपने विभाग की कमान एक दूसरी महिला अधिकारी को सौप कर ऑडिट विभाग में भाग खड़ा हुआ। अब चूँकि ऑडिट विभाग में बार बार देश के विभिन्न हिस्सों में ऑडिट ले लिए जाना पड़ता है इसलिए कोई भी महिला इस विभाग में नहीं है। यहाँ आने के बाद मैं तनाव मुक्त हूँ।

अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ की सरकारी महिला कर्मचारी आफिस चाहे वो नर्सें हो या फिर कुछ और पुरुष कर्मचारियों के मुकाबले कुछ भी कार्य नहीं करती। वैसे सरकारी कर्मचारी कार्य कितना करते हैं यह सब को पता है।