बुधवार, 29 सितंबर 2010

शहीद भगत सिंह की याद में कुछ मेरे मन की कुछ बातें

शहीद भगत सिंह बचपन से मेरे हीरो रहे हैं. मैं छुटपन से ही किताबें पढने का शौक़ीन रहा हूँ. सभी क्रांतिकारियों के विषय में खूब पढ़ा. चंद्रशेखर आजाद ,भगत सिंह, अशफ़ाक उल्ला खाँ जैसे क्रांतिकारियों के बारे में जानकर मैं हमेशा ही उत्साहित होता रहा.
जाने क्यों मुझे कभी भी महात्मा गाँधी या जवाहर लाल नेहरू ने उतना प्रभावित  नहीं किया जितना इन क्रांतिकारियों ने किया. हो सकता है बाल अवस्था में बच्चे रोमांच कि ओर ज्यादा आकर्षित होते हों. बचपन के ही उस आकर्षण को लेकर बड़ा हुआ. 
दरियागंज के सन्डे बाजार में घूमते हुए एक बार शहीद भगत सिंह के बारे में लिखी किताब मेरे हाथ आयी जो शायद मैं पैसे कम पड़ने कि वजह से खरीद नहीं पाया और जिसका मुझे आज भी बहुत मलाल है. पर मैंने वही पर खड़े खड़े उसे पढ़ा. उसमे भगत सिंह जी के समाजवाद व अन्य विषयों पर लिखे कई निबंध नुमा लेख थे जिन पर एक नजर मारने पर ही मुझे एहसास हो  गया कि  वास्तव में भगत सिंह कितने बड़े विचारक थे. इतनी कम उम्र में भी उनकी सोच कितनी विकसित थी.
वो व्यक्ति  मात्र २३ वर्ष कि अवस्था में फंसी के फंदे पर झूल  गया और ये एक स्वयं  वरण की हुई शहादत थी जिससे वो चाहते तो आसानी से बच सकते थे.   ऐसे महान व्यक्तित्व को इस देश ने कितनी आसानी से भुला दिया. मैंने कल किसी भी राष्ट्रीय स्तर के समाचारपत्र में उनके विषय में कोई भी लेख नहीं देखा. हो सकता है की यहाँ वहां कुछ लिखा भी हो तो वो मेरी नज़र से चूक गया हो लेकिन कुछ विशेष कहीं नहीं था .  

वहीँ मैं जब भी उनके समकक्ष  जवाहर लाल नेहरू को रखता हूँ तो मैं नेहरू जी को बहुत बौना पाता हूँ. ज्यों ज्यों जवाहर लाल जी के विषय में जाना त्यों त्यों गाँधी परिवार के प्रति मेरे मन का सम्मान  जाता रहा. कहते हैं की मोती लाल नेहरू ने वकालत के पैसे से इतना धन कमाया था की उससे उनकी सात पीढियां आराम से खा सकती थी और  उन्होंने वो सब देश पर न्योछावर कर दिया पर मुझे ऐसा कुछ नहीं  लगता. मोती लाल जी ने एक सोचा समझा निवेश किया. उन्होंने अपने जीवन की कुछ वर्षों की कमाई देकर  इस देश पर राज करने का पट्टा  अपनी जाने कितनी  पीढ़ियों के नाम लिखवा लिया. जवाहर लाल, इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस देश पर राज किया और भविष्य में  राहुल गाँधी या प्रियंका गाँधी के राज करने की संभावना है.

जवाहर लाल जब प्रधान मंत्री बने तो उस वक्त उनसे ज्यादा सक्षम और बेहतर  नेता देश में मौजूद थे पर नेहरु जी का भाग्य उनके साथ और इस देश का भाग्य भगवान भरोसे था. जरा सोचो भगत सिंह २३ वर्ष में ही दुनिया छोड़ कर चले गए और अपने जवाहर लाल २४ या २५ वर्षा की आयु में मजे से विद्या अध्ययन कर इंग्लैंड से वापस लौटे. फिर उनका विवाह उनके पिता द्वारा विशेष रूप से चुनी गयी कन्या के साथ कर दिया गया. इसके बाद उन्होंने  असहयोग आन्दोलन के समय यानि की १९२१-२२ से देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जब उनकी आयु लगभग ३२-३३ वर्ष के आस पास रही होगी. यानि की कहा जा सकता है की वो जवानी  के पूरे मजे लेने के बाद स्वतंत्रता संग्राम के युद्ध में कूदे. इसके बाद  नेहरू के ऊपर  गाँधी जी का वरद हस्त रहा जिन्होंने उन्हें प्रधानमंत्री का पद दिलवा दिया. वहीँ हमारे प्यारे महात्मा गाँधी जी ने भगत सिंह जी की फांसी को टालने के लिए कुछ भी नहीं किया.

भगत सिंह जी ने इस देश के लिए अपनी जान दे दी और नेहरू जी इस देश को दी अपनी वो संताने जो  तमाम अक्षमताओं के बावजूद आज तक इस देश पर राज कर रही हैं.

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

जब आप सोचते हैं तो अपना कौन सा अंग खुजाते हैं?

अजीब सा प्रश्न है मेरा पर इस ओर मेरा ध्यान कैसे आकृष्ट हुआ बताता हूँ. . असल में कुछ दिन पहले मुझे कुछ property dealers के संपर्क में आना पड़ा. उनमे से एक थे मल्होत्रा साहब. मैं जब भी उन से कोई मुश्किल सा प्रश्न करता तो बरबस ही उनका हाथ नीचे उनके अंग विशेष पर चला जाता और वो अपने सारे विचारों को वहां से दुह कर लाते. उनकी इस हरकत ने मुझे इस विषय पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया.

मैंने अक्सर देखा है कि आप किसी से कोई ऐसा प्रश्न करो जिसका जवाब देने के लिए उसे थोडा मेहनत करनी पड़े तो वो अपने शरीर का कोई ना कोई अंग खुजलाने लगेगा. कोई सर खुजलायेगा, कोई अपनी कनपटी पर खुजलायेगा, कोई अपने कान खुजलाना शुरू कर देगा, कोई ठोड़ी खुजलायेगा, कोई अपना पेन लेकर अपनी पीठ खुजलाने लगेगा और कोई कोई भाई अपनी उंगली लेकर वहा तक पहुच जायेगा.


ये क्या हरकत है हम लोगों कि. हम ऐसा क्यों करते हैं. क्या बड़े बड़े पहुचे हुए लोग भी ऐसा करते हैं या ये हम जैसे निम्न वर्गीय लोगों का ही अधिकार है या समाज में ऐसा होता ही नहीं सिर्फ मेरी नजर ही ऐसी है. आपने कभी इस ओर ध्यान दिया है. शायद नहीं दिया होगा. ऐसी बचकानी हरकत करने का लाइसेंस मैने ही लिया है.


चलिए मैंने थोडा आगे सोचा कि ऐसा क्यों होता है. फिर मुझे याद आया कहीं पढ़ा था कि हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं और अलग अलग व्यक्ति कि चेतना अलग अलग चक्र पर स्थित होती है. जो निम्न वर्गीय होते हैं उनकी चेतना उनके मूलाधार चक्र पर अवस्थित होती है और जैसे जैसे उनका लेवल बढ़ता जाता है उनकी चेतना उर्ध्वगामी होती जाती है. तो शायद जब हम चेतन्य होने का प्रयास करते हैं तो हम अपने उस चक्र के आस पास के अंग को खुजलाते हैं जिस चक्र पर हमारी चेतना स्थित होती है.


मैंने तो बस यहीं तक सोचा और उससे आगे सोचने से ज्यादा बेहतर समझा कि समस्या को ब्लॉग जगत के हवाले कर दिया जाय. चलिए आप सोचे और बताये कि इस दौरान आपने अपना कौन सा अंग खुजाया.

वो एक घंटा जब मैं अजीम प्रेमजी के समान था.

सुख दुःख, हानि लाभ सिर्फ हमारी मानसिक अवस्थाएं हैं. ये बात मुझे सैद्धांतिक  रूप में तो मालुम थी पर इसका वास्तविक अनुभव मुझे अब  हुआ. मैं सप्ताहांत  व्यतीत करने के  लिए अपने  ससुराल गया हुआ था. अचानक रविवार शाम चार बजे  बड़े भाई साहब ने मुझे फोन कर बताया कि मेरे  घर का पिछला दरवाजा खुला पड़ा है और मैं जल्दी से घर वापस लौट आऊं.  शुक्रवार शाम जब हम लोग घर से निकले थे उस वक्त मैंने खुद ही सभी दरवाजे बंद किये थे. मुझे लगा कि हमारे घर में चोरी हो गयी है. जब मैंने ये बात अपनी पत्नी को बताई तो उनके चेहरे कि हवाइयां ही उड़ गयी. वहां का माहौल एक  ही क्षण में बिलकुल बदल गया. मेरे सास ससुर के चेहरे कि भी रंगत बदल गयी. अभी तक जहाँ सब कुछ शांत था वही एक हलचल सी मच गयी.मैंने पत्नी से कहा कि मैं अकेला घर वापस लौट जाता हूँ और वहा पहुच कर हालात कि जानकारी उन्हें दे दूंगा पर पत्नी ने कहा कि वो भी साथ में वापस लौटेंगी. आनन फानन में पत्नी ने घर लौटने  कि तैयारी शुरू की पर साथ साथ उनका मुझे कोसना भी शुरू हो गया कि ये घर कि सुरक्षा का कोई ख्याल नहीं रखते हैं. सारा घर राम भरोसे रहता है. घर के किसी भी  खिड़की या जंगले पर कहीं भी ग्रिल नहीं लगी है.  चोरो को खुला निमंत्रण  दिया हुआ है और अब घर का दरवाजा भी खुला ही छोड़ आए. चोरों ने पूरा घर साफ कर दिया होगा. कहते थे मेरी मेहनत कि कमाई है कहीं नहीं जा सकती. अब सिर पकड़ कर रोना आदी आदी.

असल पत्नी का मुझे कोसना वाजिब भी था क्योंकि मैं वास्तव में लापरवाह किस्म का आदमी हूँ और पैसे यूँ ही खुले में रख देना, घर का दरवाजा बंद किये बिना ही कहीं भी चल देना जैसी लापरवाहियां  अक्सर  करता रहता हूँ और जब पत्नी टोकती है तो कह देता हूँ कि मेरी मेहनत कि कमाई है यूँ ही बर्बाद नहीं जा सकती. इसके अतिरिक्त मेरे घर में चोरों से सुरक्षा के वास्तव में कुछ भी इंतजामात नहीं हैं. असल में मुझे कभी लगा ही नहीं कि मेरे घर में कुछ ऐसा है कि कोई चोर उसे चुराने  कि गलती करेगा. वैसे भी आसपास सभी को पाता है कि सरकारी नौकरी करता है इसके घर पर क्या होगा. ये बात सही भी है सरकारी तन्खाव्ह इतनी कम नहीं होती है कि आपके तन पर कपडे ना हों और इतनी ज्यादा भी नहीं होती कि आपकी अलमारी भी कपड़ों से भरी पड़ी हो.

पत्नी का मुझे कोसना चल रहा था और मैं चुपचाप सुने जा रहा था. मैं भी सोच रहा था  कि मेरे घर में तो कोई था ही नहीं और दरवाजा खुला रह गया तो चोर आराम से घर कि एक एक चीज उठा ले गए होंगे. मेरा नया कंप्यूटर भी चला गया होगा. कंप्यूटर जाने कि बात मन में आते ही  पहली बार मेरे माथे पर चिंता कि लकीरें उभरी कि अब मैं ब्लॉग्गिंग कैसे करूँगा. 
   
मेरे माथे पर चिंता कि लकीरें उभरी ही थी कि दोबारा से भाई साहब का फोन आ गया कि घर पर सब कुछ सुरक्षित है उन्होंने सब अच्छी तरह से जाँच लिया है और कोई चोरी वगेरह नहीं हुई. चिंता कि कोई बात नहीं है, हम आराम से आ सकते हैं. उन्होंने पिछले दरवाजे पर ताला लगा दिया है. 

अब सब ओर शांति ही शांति छा गयी. अंतिम प्रवचन सासु माँ का हुआ कि अपने घर में सुरक्षा व्यवस्था में सुधार  कर लो और निर्णय लिया गया कि अब आराम से चाय पीकर घर वापस लौटेंगे. 

इस एक घंटे में ही मैं  एक छोटे-मोटे निम्न मध्यम वर्गीय भारतीय से बिलकुल लुटा-पिटा भारतीय और फिर वापस वही निम्न मध्यम वर्गीय भारतीय हो गया था.   

कुछ समय पहले अपने   अल्पसंख्यक अरबपति प्रजाति के  भाई अजीम प्रेमजी को भी ऐसा ही एहसास हुआ होगा जब वो भारत के सबसे अमीर आदमी से अचानक विश्व के सबसे अमीर आदमी बने और फिर कुछ ही वक्त में वापस अपनी जगह पर लौट आये. वो उच्च वर्गीय  है इसलिए उन्हें उच्चतम बनने का सपना आया और मैं निम्नवर्गीय हूँ इसलिए मुझे निम्नतम हो जाने  का सपना आया. समानता एक ही है कि हम दोनों को सपने ही आए. 

इस तरह जीवन में पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सुख दुःख हानि लाभ सिर्फ हमारी मानसिक अवस्थाएं हैं.

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

एक भीगी सी शाम और शर्मशार कर देने वाले विचार.

कल शाम  मुझे अचानक अपनी ईस्ट दिल्ली से साऊथ दिल्ली जाना पड़ा. अब जो लोग और लुगाई दिल्ली के इन हिस्सों से अपरिचित हैं तो उन्हें बता दू की पूर्वी दिल्ली अधिकांशतः निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की दिल्ली है. ये सादी पेंट कमीज, कुरता पायजामा, सलवार कमीज और दुप्पट्टा पहनने वालों की दिल्ली है जबकि साऊथ दिल्ली इसकी एकदम उलट है.

साऊथ दिल्ली में खुलापन है. ऐसा लगता है की आप किसी यंगिस्तान में घूम रहे हैं. कोई बूढ़ा नजर ही नहीं आता. अब भला नजर आए भी तो कैसे जवानों की रंगीनियों से नजरें भटकती ही नहीं. यहाँ तरह तरह के हेयर स्टाइल ओढ़े और अलग अलग किस्मों के कपड़ों में ढके लोग चरों तरफ घूम रहे होते हैं. राम कसम  मैंने खुद के पैरों पर इधर उधर घूमते हुए  इन नजारों को नगीं बेशर्म आखों से कैच करते  कई शामें रंगीन की हैं. कोई कह सकता है की ऐसे भी क्या  शामें रंगीन होती हैं तो जनाब  हाँ कुछ लोग किनारे रहकर भी पानी को छू कर आ रही हवाओं से भीग जाते हैं. मैं उनमे से ही हूँ.  

ये सब बकवास छोड़ मैं मुद्दे की बात पर वापस आता हूँ.....तो क्या हुआ की मैं साऊथ एक्स से दिल्ली की प्रसिद्द ब्लू लाइन बस में अपनी पूर्वी दिल्ली वापस लौट रहा था.... जैसा दिल्ली में आजकल का मौसम है हलकी बारिश हो रही थी.....एक बस स्टेंड पर रुकने के बाद जैसे ही बस चली ही थी की अचानक पिछले दवाजे पर एक २०-२१ वर्ष का  लड़का प्रकट हुआ  जिसकी जींस की मियानी उसके घुटनों तक थी और कमीज उसके कूल्हों की हड्डी के उभार से डर कर  ऊपर चढ़ी जा रही थी और  शायद कमीज और जींस का मेल कराने के लिए उसने मिस इंडिया की तरह से एक लम्बी तनी वाला  बैग अपने जीरो साइज शरीर पर तिरछा टांग रखा था.  कलम को ज्यादा तकलीफ ना देते हुई यही कहूँगा की वो डांस इंडिया डांस के प्रिंस की ही कॉपी था. तो जब वो बस की एक सीढ़ी चढ़ गया तो ऊपर आने की बजाये वो वापस घुमा और अपना हाथ बाहर निकल कर चिल्लाने लगा... आजा आजा... जल्दी कर ना ....हाथ दे ...हाथ दे...

मैं समझ गया..... बेटे इसके  साथ कोई ना कोई लड़की जरुर है......और जो भी कोई लड़की है वो इसकी बहन नहीं है क्योंकि बहन होती तो पहले बहन को बस में चढ़ाता फिर खुद चढ़ता. अब जाहिर सी बात है की अपनी नजरे "वो कौन है" का इंतजार करने लगी  पर ये क्या इससे पहले की लड़की आती एक बाबाजी ने बस का डंडा पकड़ लिया और ऊपर चढ़ने की कोशिश  करने लगे. इधर लड़का अपनी संगिनी को बस में चढ़ाने  की फ़िराक में था उधर  बाबाजी ऊपर चढ़ने  की कोशिश कर रहे थे. दो पीढ़ियों के बीच के बीच की लड़ाई एक बार फिर सामने आ गयी. बूढ़े बाबाजी किसी तरह से खुद को बस में खीच लेना चाहते थे पर  जवान लड़का  बीच  में खड़ा था जो उनके पीछे की अपनी मित्र को पहले चढ़ाना  चाहता था.  खैर कन्डक्टर ने तेज होती बस रुकवाई तीनों बस में चढ़े और फिर दुबारा बस चली.

आह तेज चलती सांसें  और उनके प्रभाव से हरकत कर रहे उस मादा के अंगों को फिर से अपनी नंगी और बेशर्म आँखों से अच्छी तरह से नाप कर मैंने उस युवा जोड़े को सहज होने देने के लिए  अपनी तरफ की खिड़की से बाहर के अँधेरे में अपनी नजरों में कैद डाटा को प्रोसेस करना शुरू किया. लड़की छोटे कद की पर भरे-पूरे बदन की मालकिन  थी. चेहरा भी गोल मटोल और मासूम था. उसके चेहरे पर से बालपन की मासूमियत को निर्मम मर्दों से भरे  समाज ने अभी तक लुटा ना था(ओए होए......).  आवाज का टोन वही अपने धोनी जैसे क्रिकेटरों  वाला यंग  यंग सा. मुझे आजकल के लडके लड़कियों का ये क्रिकेटरों की तरह से बोलने का अंदाज बहुत पसंद है. वे  दोनों मेरे पड़ोस की बस के दरवाजे से लगाती सीट पर ही बैठ गए. कंडक्टर आकर उन्हें टिकट दे गया.लडके ने लक्ष्मी नगर का टिकट लिया और लड़की ने शाहदरा का टिकट. मेरा पहला अनुमान सही था की दोनों भाई बहन नहीं है. टिकट लेते वक्त भी दोनों ने दस रुपये का ही टिकट लिया. कंडक्टर उनकी इस हरकत से खफा था....लक्ष्मीनगर के १५ लगते हैं  पर बेचारे को लड़की ने उसे चुप करवा दिया... भैया पीछे आ रही डी टी सी बस में बैठ जाते तो तुम्हे ये भी नहीं मिलते. जो दे रहे हैं ले लो हम तो ब्लू लाइन में फ्री में चलते हैं...

वो दोनों साऊथ एक्स किसी व्यावसायिक पाठ्यक्रम के छात्र थे और अपनी कक्षा के उपरांत वापस लौट रहे थे. दोनों एकदम ताजा ताजा स्कूल से निकले बच्चे से लगाते थे. लड़का  कोई ज्यादा तेज तर्रार सा नहीं था. मुझे इस उम्र के लड़कों की अक्सर लड़कियों के सामने नजर आने वाली मर्दानगी उसमे अभी विकसित हुई सी नहीं दिख रही थी.  वो थोडा निढाल सा होकर अपनी सीट पर बैठ गया था. लड़की ने पूछा तुझे क्या हुआ... यार लगता है बारिश में भीगने से बुखार तो नहीं आ गया...

मुझे थोडा  अजीब लगा... अबे इतनी जल्दी बुखार...

लड़की ने लडके के माथे को छुआ... नहीं तो .. गर्म तो नहीं लगता. फिर उसने लडके के  गले पर इस कान से उस कान तक हथेली के पिछले  हिस्से से  ताप को महसूस किया... नहीं तो यहाँ भी गर्म नहीं है. अब लड़की का हाथ लडके की बाँहों पर फिसलता चला गया .... ना तू तो जरा भी गर्म नहीं है. अंत में लड़की ने अपनी हथेलिया लडके की हथेलियों पर रख दी ...ना कोई बुखार नहीं...तू जरा भी गर्म नहीं है.

मैं हक्का बक्का रह गया...लड़की ने लडके को छुआ और छूती चली गयी. मैं  दूर बैठा पूरा गर्म हो गया पर वो ठंडा ही रहा..कैसे?  ये उसकी मजबूती थी या मेरी कमजोरी?

क्या कहूँ ये छूने छुआने वाला मामला मुझे कभी रास नहीं आया.  

वो मीठी सी छुअन वो हलकी सी चुभन...ऐसे  शायराना शब्द मेरे लिए हमेशा से शब्द ही बने रहे मैं कभी इनका लुत्फ़  ना ले पाया.
अब इनमे लुत्फ़ वाली क्या बात है ?
है जनाब है...कहीं ना कहीं  तो है ही तभी तो शायरी भी हुई है.
अपन इसका लुत्फ़  क्यों नहीं ले पाते? असल में मेरा पिकअप लेमरेटा स्कूटर के ज़माने से ही आजकल की मोटर साइकिलों वाला रहा है..मैं कुछ ही सेकेण्ड में फुल स्पीड पकड़ लेता हूँ.
 मोटर गाड़ियों में इसे गुण और पुरुषों में अवगुण समझा जाता है. इसे कमजोरी की निशानी समझा जाता है. एक तरीके से सही भी है. मैं अपने इसी अवगुण की वजह से हमेशा लड़कियों से दूर दूर ही रहा. क्या करता कंट्रोल ही नहीं होता था. बिलकुल सच बोल रहा हूँ की मेरी पत्नी वो पहली लड़की थी जिसे मैंने छुआ था. और विवाह के १० वर्षों के उपरांत आज भी पत्नी को हिदायत देता रहता हूँ की बेवजह और बिना तैयारी के मुझे ना छूना. धीरे धीरे रे सजन हम प्रेम नगर के वासी..... वाली अपनी अदा नहीं है. अपनी मोटर तो रेस लगाने को तुरंत तैयार हो जाती है.

दोस्त लोग कहते हैं की ये कमी  है. मैं कहता हूँ की कमी या  कमजोरी तो तब हो यार जब गाड़ी की माइलेज कम हो और वो सवारी को बीच रास्ते में कहीं का ना छोड़ टें बोल जाय  पर अपनी गाड़ी तो जोरदार  पिकअप के साथ शानदार माइलेज भी देती है. अपनी माइलेज का स्तर बेशक अंतर्राष्ट्रीय ना हो  पर भारतीय परिस्थितियों में यहाँ के मानक स्तर को तो अवश्य ही छूता  है.   

अब अगर मन करे  तो इस विषय में अपने विचार दें ..........ना भी दे पाये तो कोई बात नहीं मुझे बुरा नहीं लगेगा.
शुभ रात्रि.......



रविवार, 5 सितंबर 2010

कश्मीर हमारा है

मैं छोटा था तब आपने परम मित्र प्रतुल के साथ संघ की शाखा में जाया करता था. वहां हम सभी बच्चे मिल कर एक खेल खेला करते थे "कश्मीर हमारा है". ये संघ का प्रयास था बच्चों के भीतर देश के महत्वपूर्ण हिस्से के प्रति प्रेम पैदा करने का और सच कहूँ तो इस प्रयास से मेरे जैसे अनेक भारतीयों के दिल में संघ ने अपने देश के उस अनदेखे हिस्से के प्रति प्रेम तो पैदा किया ही होगा.


आप कह सकते हैं की क्या सिर्फ कश्मीर ही हमारे देश का एक महत्व पूर्ण हिस्सा है. क्या बाकि हिस्से महतवपूर्ण नहीं तो इसका जवाब ये हैं की आजादी के बाद से कश्मीर हमारे देश का वो हिस्सा है जिस को देश से अलग करने का षड़यंत्र पडोसी देश पाकिस्तान अरसे से कर रहा है और कामयाबी की तरफ बढ़ता जा रहा है. यूँ तो चीन भी हमारे देश के एक हिस्से यानि की अरुणाचल प्रदेश पर अपना अधिकार जताता रहा है पर वहां पर हमारी चिंता बाहरी आक्रमण की है वहां भीतरघात की चिंता नहीं है. कश्मीर में तो मुस्लिम आबादी ज्यादा होने की वजह से भीतरघात सबसे बड़ी चिंता है.


कश्मीर समस्या सिर्फ इतनी सी है की मुस्लिम बहुल कश्मीर के हिन्दू राजा ने कश्मीर का भारत में विलय करवा दिया जो की पाकिस्तानी हुक्मरानों और कुछ तत्कालीन कश्मीरी मुस्लिम नेताओं को हजम नहीं हुआ. तब से आज तक पाकिस्तान के लिए ये सिर्फ नाक का सवाल बन गया है. एक आम कश्मीरी चाहे वो मुस्लमान हो या किसी दुसरे धर्म का (वैसे दुसरे धर्म के लोग कश्मीर में इस्लामिक आतंकवादियों ने छोड़े ही नहीं है और जो थोड़े बहुत हैं उन्हें भी घाटी छोड़ देने का नोटिस दिया जा चुका है ) कभी भी पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहेगा. ये बात १९४७ के बाद से अस्सी के दशक के अंत तक कश्मीर में व्याप्त शांति से स्पष्ट होती है. हालाँकि इस दौरान पाकिस्तान ने भारत के साथ कश्मीर को लेकर तीन युद्ध लड़े और सभी में मुह की खाई. अस्सी के दशक के अंत में जब अफगानिस्तान का मुद्दा ख़त्म हुआ और पाकिस्तान को भी तब तक समझ आ चुका था की प्रत्यक्ष युद्ध से कश्मीर को जीता नहीं जा सकता तो उसने अपने असली और ताकतवर हथियार का इस्तेमाल किया और वो हथियार था "कश्मीर में इस्लाम खतरे में है" अफगानिस्तान में लड़ रहे आतंकी कश्मीर आ गए और उन्होंने कश्मीर में इस्लामी आतंक की शुरुवात की. मासूम कश्मीरी पंडितों का कत्ले आम कर उन्हें घाटी से भगा दिया गया. आज कोई उनकी सुध लेने वाला और उन पर कविता लिखने वाला नहीं है. सभी लोग कश्मीर की पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित पत्थरमार भीड़ की क़ुरबानी पर कवितायेँ लिख रहे हैं.


अब  सारी बात साफ़ साफ़ बता ही दूँ. मेरे मन में कल से एक तूफान सा मचा है. एक ब्लॉग है जनपक्ष. उसमे कश्मीर पर एक कविता पोस्ट हुई. साथ में एक चित्र भी था. चित्र में एक वर्दीधारी एक महिला पर बन्दुक तन रहा है और कविता की एक पंक्ति कहती है "सिर पर निशाना साधे इतने जवान". बस क्या बताऊँ चित्र देख कर और कविता की इस पंक्ति को पढ़कर बहुत गुस्सा आया. अपना उस वक्त का सारा गुस्सा वही पर टिप्पणी के रूप में थूक आया पर दिल में शांति अभी भी नहीं हुई.


मुझे समझ नहीं आता की इस प्रकार की कविता लिखने वाले लोग क्या कश्मीर की समस्या को नहीं समझते? कश्मीर में जो कुछ भी इस वक्त हो रहा है वो सब इस प्रकार के भड़काऊ वक्तव्यों की वजह से ही हो रहा है. पाकिस्तानी एजेंट सुरक्षा बलों पर भीड़ भरे इलाकों में आक्रमण करते हैं और जवाबी कार्यवाही में जब आम कश्मीरी मुसलमानों हताहत होता है तो लोगों को बरगलाते हैं की भारतीय सेना कश्मीरी मुसलमानों का क़त्ल कर रही है. अभी कुछ वक्त पहले ही मैंने एक ब्लॉग पर भी एक कश्मीरी बच्चे के भारतीय सेना के जवानों द्वारा की गयी हत्या का बहुत ही विस्तृत वृतांत पढ़ा.शायद उस पोस्ट का शीर्षक था "क्या आपके आपके घर में भी सात साल का बच्चा है". उसे पढ़कर भी मुझे बहुत निराशा हुई थी की सब कुछ जानते और समझते हुए भी लोग किस तरह से झूट के जाल में फंस जाते हैं और इसे आगे फैलाते हैं . ये लोग वास्तव में इतने निर्दोष ह्रदय हैं जो पाकिस्तान के इतने साफ़ सुथरे षड़यंत्र को भी नहीं समझ पा रहे हैं या इनकी असलियत कुछ और ही है. जब पढ़े लिखे लोग भी इस तरह की बातों को बढ़ावा देते हैं तो आम जनता जब काले बन्दर पर या गणेश जी के दूध पीने की बात पर विश्वाश करती है तो उसे मुर्ख या अन्धविश्वाशी क्यों बताया जाता है.


मैं अपने सभी भाइयों से कहना चाहता हूँ की कश्मीर भारत का हिस्सा है. कश्मीर में आम जनता सडकों पर उतार कर जो भी विरोध कर रही है वो पाकिस्तानी एजेंटों के भड़काने पर कर रही है. हिंसक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए कभी कभी बल प्रयोग करना भी पड़ता है और इसमे कुछ जान माल की हानि भी होती है. ऐसे में सभी को मिलकर कुछ ऐसा करना चाहिए की आम लोगों का गुस्सा शांत हो ना की उनका गुस्सा और भड़क जाए.


जरा याद करें की उत्तराखंड की शांतिप्रिय जनता जब अलग राज्य की मांग कर रही थी तो उस वक्त भी अनेक लोग पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे. रामपुर तिराहा कांड में किस प्रकार से पुलिस कर्मियों ने औरतों के साथ बलात्कार किया था. वो उत्तराखंड के राष्ट्रभक्त लोगों के साथ किया गया क्रूरतम व्यव्हार था पर कभी भी उत्तराखंड के लोगों ने इस बात को लेकर देश से अलग होने के मांग नहीं की. ऐसी बात तो सुरक्षा बलों ने कश्मीर में कहीं भी नहीं की बल्कि कश्मीर में तो सुरक्षा बलों पर ही हत्या के मामले दर्ज किये जा रहे हैं. ये बात मैंने सिर्फ इसलिए याद दिलाई है ताकि वे लोग जो कश्मीर के हालात पर अपनी उलटी सीधी हरकतों से आम जन को भड़काने के लिए इस प्रकार के कार्य कर रहे हैं अपने बचाव में कोई कुतर्क ना पेश कर सकें.


वैसे तो मैं जानता हूँ की जिन लोगों के दिल में खोट है वो ठीक वैसा व्यव्हार करेंगे जैसा पाकिस्तानी अपने खिलाडियों के रंगे हाथों पकडे जाने पर भी उन्हें निर्दोष करार देकर कर रहे हैं.


मेरा पूरा विश्वाश है की जैसे पंजाब में पाक समर्थित आतंकवाद का सफाया हो चुका है और वहा अमन चैन व्याप्त है वैसा ही कुछ कश्मीर में भी अवश्य होगा क्योंकि कश्मीर हमारा है और हमारा ही रहेगा.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

नालायक का बस्ता भारी.

बचपन में कहावत सुनी थी नालायक का बस्ता भारी.....इसका मतलब हुआ की कम काबिलियत वाले दुसरे तामझाम से अपनी कमी को  छिपाते हैं जैसे की आपको अक्सर डरपोक आदमी ही अपनी  बहादुरी के किस्से बढ़ा चढ़ा कर सुनाता मिलेगा..... एक भ्रष्ट अधिकारी ज्यादा सख्त होगा....एक हिजड़ा कुछ ज्यादा  ही मटक मटक के चलेगा इत्यादी इत्यादि.

अब बचपन की ये कहावत क्यों याद आ रही है. असल में मेरे एक मित्र चाहते थे  की मैं अपने ब्लॉग पर कुछ सुधार करूँ ताकि ये सुन्दर दिखे. उन्होंने सुझाव दिया की मैं ब्लॉग पर कुछ सजावट करूँ... कुछ नए गैजट लगाऊ, एक आद घड़ी टांग दूँ, कुछ लिंक  डाल दूँ और  कुछ इसका थोबड़ा सुधार दूँ ताकि ब्लॉग पर आने वाले पाठक की रूचि में इजाफा हो.

मैंने इस विषय विचार किया. मुझे लगा की मित्र का सुझाव ठीक है पर तभी मुझे एक ब्लॉग दिखा जिसने मेरे मन से ब्लॉग को सजाने सवारने की मेरी इच्छा को बिलकुल ख़त्म ही कर दिया. जब मैंने पहली बार इस  ब्लॉग को  देखा तो मुझे लगा कि मेरे कंप्यूटर में कोई गड़बड़ी हो गयी है. कंप्यूटर में कोई खराबी है इसका ख्याल ही मुझे सदमा दे देता है तो जब मैं सदमे से उबरा मुझे बड़ा अच्छा लगा कि कोई अपने ब्लॉग को इस तरह से एकदम सादा भी रख सकता है.

अभी तक लेखन के अलावा दूसरी वजहों से मैं जिन ब्लोग्स कि तरफ आकर्षित हुआ वो हैं हथकढ़ और उम्मतें. हथकढ़ में टिप्पणी का आप्शन नहीं है पर लेखन और अपनी बात को कहने का अंदाज शानदार है और उम्मतें के बारे में लिख ही दिया है. 

अली साहब का ब्लॉग देख कर एक प्रश्न मन में अक्सर उठता है कि   पता नहीं अली साहब व्यक्तिगत जीवन में कैसे हैं. ब्लॉग देखकर लगता है कि सफ़ेद कुरते पायजामे में रहते होंगे पर क्या पता असलियत में नेल्सन मंडेला कि तरह से रंग बिरंगी कमीजे पहनते हों. चलो जो भी हो मुझे ये सादगी एकदम पसंद आयी और मैंने इस ब्लॉग का तुरंत अनुसरण करना आरंभ किया. अली साहब कि लेखनी शानदार है पढ़कर आनंद मिलता है.

तो साहब वापस अपनी बात पर आता हूँ कि मैंने अपने ब्लॉग का थोबड़ा सुधारने का विचार मैंने मन से निकल दिया है. डरता हूँ कि 'नालायक का बस्ता भारी' वाली कहावत का जीवंत उदहारण मैं ना बन जाऊं और लायक बनना  अपने बस में है नहीं. 

अब किसी भाई को मेरा ब्लॉग सादा और साधारण सा लगे तो अली साहब को नोटिस भेजें.