शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

अरे देखो मैं तो ससुर बन गया.... और ससुर बन के भी तन गया.

 मेरे परिवार में आजकल शादी का माहौल है.मेरी भतीजी का विवाह तय हो चुका है इन नवरात्रों में हमने लडके वालों के घर जाकर बात पक्की कर दी . वर  पक्ष के  लोग हल्द्वानी में रहते हैं. आने वाली जनवरी में भतीजी का विवाह हो जायेगा. हमारे  होने वाले जंवाई सा दिल्ली में ही एक होटल में कार्यरत हैं या जैसे मैं उन्हें प्यार से कहता हूँ कि वो  भड्डू मैनेजर हैं.

भड्डू मैनेजर होना एक व्यंगात्मक कहावत है .  पहले जब पहाड़ से लोग दिल्ली जैसे आसपास के मैदानी इलाकों में रोजगार के लिए आते थे तो उनमे से ज्यादातर यहाँ किसी ढाबे या घर कि रसोई में बर्तन मजना और खाना पकाने जैसे छोटे मोटे कार्यों में लग जाते थे. जब वे कुछ पैसा कमाकर वापस पहाड़ लौटते तो वहा पर अपनी अमीरी का प्रदशन करते और ऐसे व्यवहार करते जैसे कि वो दिल्ली में कोई बड़ा काम  करते हों.उनकी असलियत जानने वाले लोग उन्हें भड्डू मैनेजर कह उनका मजाक उड़ाते थे. भड्डू एक प्रकार कि पीतल कि हंडिया होती है जिसमे दाल आदी पकाते हैं.

पर आजकल जो लोग उत्तराखंड से कामकाज के लिए बाहर निकलते हैं वो भड्डू मैनेजर नहीं बनते. यहाँ तक कि वो लड़के जो होटल मेनेजमेंट जैसे विषयों को पढ़कर आते है वो भी रसोइया बनना पसंद नहीं करते. ज्यादातर होटल के दुसरे विभागों में कार्य करना चुनते हैं.


हम लोगों में पुत्री के लिए योग्य वर कि तलाश करते वक्त दो शर्तों का पूरा होना जरुरी होता है.पहली है अपनी जाती का ऊँची धोती वाला ब्रह्मण परिवार  और दूसरी  कुंडली मिलन . इन दो अति आवश्यक शर्तों  पर खरा उतरने के उपरांत ही रिश्ते कि कोई बात आगे बढ़ती  हैं. सौभाग्यवश हम लोगों में कोई ऐसी  कुप्रथा नहीं है जिसमे वधु के पिता को विवाह में या उसके बाद कोई भी अनावश्यक परेशानी झेलनी पड़ती हो. अब देखिये मेरी भतीजी सांवली है और हमारे होने वाले जंवाई जी गोरे और सुन्दरता में हमारी बिटिया से इक्कीस पर फिर भी रिश्ता तय हो गया बिना किसी लेन देन कि बात हुए ही. इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है.

ये परंपरागत पहाड़ी समाज की विशेषता है कि हम लोगों में कोई भी ऐसी रस्म नहीं होती जिसमे वधु पक्ष के लोगों को अनावश्यक आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ता हो. मेरे ही परिवार में हमारी एक लड़की का विवाह यहाँ के ही स्थानीय ब्रह्मण परिवार में हुआ है. लड़की के पिता बड़े परेशान हैं. हर बार त्यौहार और मांगलिक कार्य में उन्हें लडके वालों को तरह तरह की सौगातें भेजनी पड़ती हैं जो की उनकी परम्परा में  है और दूसरी बहुओं द्वारा निभायी भी जाती है. अब अपनी पुत्री के मान सम्मान के लिए ही सही मज़बूरी में इन्हें भी बार बार लड़की के सास ससुर और ननदों के लिए कपडे व दुसरे उपहार भेजने पड़ते हैं. वहीँ उनकी दूसरी पुत्री जो कुमाउनी परिवार में ही ब्याही है के ससुराल से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं होती.  यहाँ  एक बात और भी कह  दूँ कि उत्तराखंड में समाज के किसी भी वर्ग में घूँघट प्रथा नहीं है. बहुएँ सिर पर पल्ला जरुर रखती हैं पर मैदानी इलाकों कि तरह से लम्बा घूँघट  नहीं निकलती. 

अब ऊँची धोती वाले ब्राहमण क्या होते हैं ये बात भी मैं स्पष्ट कर ही दूँ.  कुमाउनी ब्राहमण दो वर्गों में विभाजित हैं. एक वो जो अपने खेतों में खुद हल चलते हैं और दुसरे वो जो मुख्यतः धार्मिक कर्मकांड करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं और खुद कि खेती बड़ी होते हुए भी कभी भी हल नहीं चलते. ये लोग खुद को हल चलाने वाले ब्राह्मणों से ऊँचा मानते  हैं और हल चलाने वाले ब्राह्मणों से विवाह सम्बन्ध रखना अपमानजनक समझते हैं. मजाक में ये लोग ही ऊँची धोती वाले ब्राह्मण कहलाते हैं.

जो भी हो हमें अपनी पसंद का जंवाई मिल गया और हम लोग खुश हैं और होने वाले मांगलिक कार्य कि तैयारियों का मजा ले रहे हैं. बहुत सारी तैयारियां कि जानी हैं. तरह तरह कि खरीदारी होनी हैं.  कल यूँ ही मेरी पत्नी  ने अलमारी से पहाड़ी स्त्रियों द्वारा मांगलिक कार्यों में  ओढ़ी जाने वाली चुन्नी जिसे हम पिछोड़ा कहते  हैं निकाली   तो उसे देख कर मेरी ढाई वर्षीया पुत्री दुल्हन बनने को मचल गयी और उसने दुल्हन का रूप धर ये तस्वीर खिचवाई.


कहा जाता है कि बेटियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं. मेरी भतीजी का उदहारण मेरे सामने ही है. मेरी स्मृतियों में वो पल अभी भी एकदम स्पष्ट है जब पता चला था कि मेरी एक भतीजी पैदा हुई है. बचपन में उसकी शरारतें उसका चुलबुलापन सब बिलकुल आँखों के सामने ही है. लगता ही नहीं कि कुछ ही दिनों में वो विदा होकर अपनी ससुराल चली जाएगी.
शायद कुछ ही  वर्षों  बाद अभी खेल खेल में दुल्हन बन रही मेरी बेटी भी ऐसा ही पिछोड़ा पहन विदाई के लिए मेरे सामने खड़ी होगी. तब कैसा महसूस होगा ....
कोई बात नहीं १८ जनवरी २०११कि सुबह इस बात का भी एहसास हो ही जायेगा.










शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

डेंगू क्या सच में एक बीमारी है?

पिछले वर्ष हमारी कालोनी में डेंगू एक महामारी के रूप में फैला. बहुत से लोग इसकी चपेट में आए जिनमे से मैं खुद भी एक था. अब मैं मेरे खुद व अपने मित्रों के अनुभव आपसे बाट रहा हूँ.


पिछले वर्ष मैं बहुत समय बाद बीमार पड़ा. करीब पांच या छः  दिन तक लगातार १०२ डिग्री से ऊपर ही बुखार रहा. सिर में तेज दर्द  भी था.  मैंने डाक्टर साहब कि सलाह ली तो उन्होंने मुझे खून में प्लेटलेट कि जाँच करवाने के लिए कहा. मैंने दिल्ली कि मशहूर प्रयोगशाला लाल पैथ से जाँच करवाई तो  तीन दिन में ही मेरे रक्त में प्लेटलेट्स संख्या  दो लाख से  कम होते होते ८ हजार तक आ गयी .  डाक्टर साहब ने फ़ौरन मुझे अस्पताल जाने कि सलाह दी और मैंने सरकारी आदमी होने कि वजह से  राम मनोहर लोहिया अस्पताल का रुख किया जहा पर मेरी सारी रिपोर्ट्स देखने के बाद आपातकालीन विभाग कि डाक्टर साहिबा ने बताया कि अगर मेरी प्लेटलेट्स सख्या ७००० से कम होती है और शरीर में कही से खून का स्राव होता है तभी  मुझे अस्पताल में भर्ती किया जायेगा. मुझे आराम व कुछ जरुरी सलाहों के साथ घर वापस भेज दिया गया. भाग्यवश अगले दिन से ही मेरी प्लेटलेट्स संख्या में इजाफा होने लगा और मैं स्वस्थ हो गया. इस दौरान मुझे कभी भी जरा सी कमजोरी या अन्य कोई और शिकायत नहीं थी. सिर्फ तेज बुखार और सिर दर्द ही हुआ करता था.


ऐसा ही मेरे मित्रों के साथ हुआ पर  उन्होंने कुछ बड़े प्राइवेट अस्पतालों कि ओर दौड़ लगाई जहाँ उन्हें सात आठ  दिन ICU  जिसे शायद सघन चिकित्सा  कक्ष कहते हैं, में रखा गया. उन बेचारों को जब उनकी  प्लेटलेट्स संख्या  ३५००० के अस पास पहुंची तो प्लेटलेट्स भी चढ़ाये गए . सभी लोग निजी अस्पतालों में  ७०-८० हजार से डेढ़ लाख रुपये अर्पित करने के बाद डेंगू रूपी बीमारी से मुक्त हो पाये. 


मेरे   एक मित्र हैं जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव. उन्होंने भी पिछले वर्ष इन्हीं दिनों  अपनी पत्नी का इलाज नॉएडा के प्रसिद्द कैलाश हॉस्पिटल में करवाया. जब भाभी जी कि  प्लेटलेट्स संख्या ६०००० के आस पास थी तब उन्हें कैलाश हॉस्पिटल के  ICU में भर्ती कर लिया गया था. बाद में उन्हें भी प्लेटलेट्स का कोम्बो पेक चढ़ाने   कि आवश्यकता पड़ी जिसके लिए स्वस्थ रक्तदान करता ढूंढे गए. जगदम्बा जी कि जानकारी में जो पांच छः स्वस्थ युवक थे उन्हें बुलवाया गया और २०० रुपये के शुल्क के साथ उनका रक्त परीक्षण हुआ तो पता चला कि उन स्वस्थ युवकों के रक्त में भी आवश्यक प्लेटलेट्स संख्या पूरी नहीं थी. एक भाई के रक्त में  प्लेटलेट्स संख्या  तो शायद ६०००० थी जबकि वो एकदम स्वस्थ थे यानि कि उन्हें कोई बुखार सर्दी जुखाम या कोई अन्य प्रत्यक्ष बीमारी नहीं थी. बड़ी मुश्किल  से जगदम्बा प्रसाद जी ने दो ऐसे युवकों का इंतजाम किया जनके रक्त में आवश्यक प्लेटलेट्स संख्या विद्यमान थी.


इस वर्ष भी भाभी जी बीमार हैं पर  जगदम्बा प्रसाद जी उन्हें घर पर ही गिलोह के पत्तों का रस पिला रहे हैं ताकि उनके एक डेढ़ लाख रुपये बच सकें.


अपने खुद के और मित्रों के अनुभव से मेरे मन में डेंगू को लेकर कुछ प्रश्न उठे हैं .


१.  क्या डेंगू सच में एक खतनाक बीमारी है या सिर्फ media hype है ?


२.  क्या रक्त में प्लेटलेट्स संख्या बुखार के बिना भी कम हो सकती हैं ? यानि कि एक स्वस्थ व्यक्ति के रक्त में प्लेटलेट्स संख्या सामान्य से कम होने के बावजूद भी वो बिना किसी परेशानी के रह सकता है. अगर ऐसा है तो प्लेटलेट्स संख्या के लिए इतनी हाय तोबा क्या सिर्फ कुछ लोगों को फायदा पहुचाने के लिए है.


३.  कहते हैं कि डेंगू है या नहीं इसका पता जाँच के एक महीने बाद ही चल पाता है तो सिर्फ एक हफ्ते के बुखार के बाद ही डाक्टर लोग डेंगू है, डेंगू है का राग क्यों अलापने लगाते हैं ? सिर्फ लोगों को डराने के लिए.


४. सरकारी हॉस्पिटल वाले प्लेटलेट्स संख्या जब ७००० से नीचे पहुचती है और रक्त स्राव होता है तभी स्थिति को विकट मानते हैं जबकि निजी अस्पताल प्लेटलेट्स संख्या ६०-६५ हज़ार होने पर ही ICU में भर्ती कर लेते हैं और ३०-३५ हजार पर पहुचाने पर प्लेटलेट्स के कॉम्बो पेक चढ़ाने लगाते हैं. क्या सरकारी और निजी मापदंड अलग अलग है.


मैं नहीं जानता कि मैं सही हूँ या गलत पर मन में आम आदमी कि तहर से अक्सर चिकित्सा जगत कि इन विसंगतियों पर सवाल उठते रहते जिनका जवाब ढूंढ़ रहा हूँ.

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

मेरे पाप ग्रह.

आजकल नवरात्रों का जोर है. चारों तरफ देवी कि पूजा हो रही है. आज अष्टमी थी. सुबह सुबह छः बजे पड़ोस कि एक महिला ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया और बिटिया को कंजिका के लिए भेजने को कहा. मेरी बिटिया पिछले एक सप्ताह से वाइरल ज्वर से पीड़ित थी और उसे अभी भी हलकी खांसी है जिसकी वजह से मैंने विनम्रता से उन्हें मना कर दिया और समझाया कि बच्ची बीमार रही है और तला व भारी भोजन वो भी एकदम सुबह सुबह करने से उसका गला या पेट ख़राब हो सकता है पर वे महिला तो बच्ची को साथ ले जाने के लिए जिद पर अड़ गयीं. उन्हें मेरी परेशानी समझ ही नहीं आ रही थी. पुण्य कमाने के फेर में उन्हें मेरी बच्ची के स्वस्थ्य का कुछ भी ख्याल नहीं था अतः मुझे अष्टमी कि सुबह एक देवी को कटु शब्दों के साथ अपने द्वार से वापस भेजना पड़ा.

फिर छत पर अपने पौधों के पानी देने गया तो देखा कि गमले में लगे मेरे गुड़हल पर एक फूल खिला था. कहते हैं कि गुड़हल का फूल भगवती को बेहद प्रिय होता है और अगर ये देवी को अर्पण किया जाय तो वे प्रसन्न होती हैं. मेरा भी मन था कि देवी को प्रसन्न किया जाय पर अपने इस इकलौते गुड़हल के फूल कि बलि मैं देवी को नहीं दे पाया.


मुझे लगा कि अब देवी मुझ से प्रसन्न नहीं होंगी. मुझे वैष्णो देवी कि अपनी यात्रा कि भी याद आ गयी जब मैं भवन के मुख्या द्वार से  देवी के दर्शन किये बिना ही वापस लौट आया था. असल में क्या हुआ कि जब हम लोगों कि देवी के दर्शनों कि बारी आयी तो सुबह कि आरती के लिए भवन का मुख्या द्वार बंद कर दिया गया था जिससे वहां पर भक्तों कि भीड़ एकत्रित हो गयी. मैं एक किनारे हो कर देवी के भक्तों कि धक्का मुक्की देखने लगा कि मेरी नज़र कुछ ऐसे भक्तों पर गयी जो उस भीड़ का फायदा लेकर वहां खड़ी स्त्रियों से छेड़छाड़ कर रहे थे. मैंने जब ये द्रश्य अपने साथ खड़े मित्र को दिखाया तो उसने हँसते हुए कहा कि ऐसा तो भीड़ भाड़ में होता ही है तू अपनी नज़रें पवित्र रख और इन बातों पर ध्यान ना दे. पर जनाब मैं अपना ध्यान इन चीजों पर से हटा नहीं पाया और मैंने उस वक्त ही माँ के दर्शन किये बिना ही वापस लौटने का फैसला लिया.

ऐसा अक्सर होता है कि मैं समाज द्वारा स्थापित रीतियों का पालन नहीं करता. ज्योतिषी लोग कहते हैं कि ऐसा मेरी कुंडली के विभिन्न भावों में स्थित पाप ग्रहों के कारण होता है जिनकी मुझे शांति करवानी चाहिए.

सोचता हूँ कि कोई अच्छा सा पंडित मिले तो ग्रह शांति करवा ही लूँ ताकि अब कभी वैष्णो देवी जाने का अवसर मिले तो मुझे पहले जैसे द्रश्य नज़र ही ना आयें और फिर मैं भी अष्टमी को पुड़ियाँ खा खा कर परेशान हो चुकी कन्याओं के मुह में अपनी तरफ से भी दो पुरियां ठूस कर देवी को प्रसन्न करूँ और पुण्य कमाऊ.



और अंत में ये वो पुष्प है जिसे में देवी को अर्पित  नहीं कर पाया......


गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

अपराध की रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी क्या है ?

 
कल प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड में माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जिसमे माननीय जज साहब ने स्वीकार किया की संतोष सिंह ने ही प्रियदर्शिनी मट्टू की बलात्कार के बाद हत्या की लेकिन ये अपराध रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी में नहीं आता इसलिए उसकी मौत की सजा आजीवन कारावास में तब्दील कर दी गयी. जिसका अर्थ ये हुआ की वो अपराधी कुछ वर्षो के कारावास के बाद आम माफ़ी पा सकता है (जहाँ तक मुझे ज्ञात है एक आजीवन कारावास के अपराधी को अच्छे चाल चलन के आधार पर राज्य की तरफ से माफ़ी भी दी जा सकती है ).

क्या कोई बताएगा ये रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी का अपराध  क्या होता है?  

आप एक लड़की को तंग करें. उसका जीना दूभर कर दें. फिर मौका मिले तो उसे अपनी हवस का शिकार बनायें और फिर उसकी हत्या कर दें. अब इसके बाद एक व्यक्ति किसी के साथ और क्या कर सकता है जिसे अपराध की रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी  में रखा जायेगा. 

कुछ वर्षो पहले फ्रंट लाइन पत्रिका में एक महिला के शव की तस्वीरें छपी थीं. उस आठ माह की गर्भवती महिला की हत्या करके उसके पति ने उसके शव को छोटे छोटे टुकड़ों में कटा और उन्हें बोरे में भर कर रेल के डिब्बे में रख दिया. जब उस पति को सजा देने की बात आयी तो भी माननीय कोर्ट ने यही कहा की ये अपराध अपराधों  की रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी  में नहीं आता है.

क्या हमारे किसी माननीय जज साहब ने कभी उदाहण देकर  बताया है की  रेयरेस्ट ऑफ रेयर श्रेणी  का अपराध ऐसा होता है ?

मुझे ये फैसला  हजम नहीं हुआ . हाजमोला मिलेगा.