आजकल नवरात्रों का जोर है. चारों तरफ देवी कि पूजा हो रही है. आज अष्टमी थी. सुबह सुबह छः बजे पड़ोस कि एक महिला ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया और बिटिया को कंजिका के लिए भेजने को कहा. मेरी बिटिया पिछले एक सप्ताह से वाइरल ज्वर से पीड़ित थी और उसे अभी भी हलकी खांसी है जिसकी वजह से मैंने विनम्रता से उन्हें मना कर दिया और समझाया कि बच्ची बीमार रही है और तला व भारी भोजन वो भी एकदम सुबह सुबह करने से उसका गला या पेट ख़राब हो सकता है पर वे महिला तो बच्ची को साथ ले जाने के लिए जिद पर अड़ गयीं. उन्हें मेरी परेशानी समझ ही नहीं आ रही थी. पुण्य कमाने के फेर में उन्हें मेरी बच्ची के स्वस्थ्य का कुछ भी ख्याल नहीं था अतः मुझे अष्टमी कि सुबह एक देवी को कटु शब्दों के साथ अपने द्वार से वापस भेजना पड़ा.
फिर छत पर अपने पौधों के पानी देने गया तो देखा कि गमले में लगे मेरे गुड़हल पर एक फूल खिला था. कहते हैं कि गुड़हल का फूल भगवती को बेहद प्रिय होता है और अगर ये देवी को अर्पण किया जाय तो वे प्रसन्न होती हैं. मेरा भी मन था कि देवी को प्रसन्न किया जाय पर अपने इस इकलौते गुड़हल के फूल कि बलि मैं देवी को नहीं दे पाया.
मुझे लगा कि अब देवी मुझ से प्रसन्न नहीं होंगी. मुझे वैष्णो देवी कि अपनी यात्रा कि भी याद आ गयी जब मैं भवन के मुख्या द्वार से देवी के दर्शन किये बिना ही वापस लौट आया था. असल में क्या हुआ कि जब हम लोगों कि देवी के दर्शनों कि बारी आयी तो सुबह कि आरती के लिए भवन का मुख्या द्वार बंद कर दिया गया था जिससे वहां पर भक्तों कि भीड़ एकत्रित हो गयी. मैं एक किनारे हो कर देवी के भक्तों कि धक्का मुक्की देखने लगा कि मेरी नज़र कुछ ऐसे भक्तों पर गयी जो उस भीड़ का फायदा लेकर वहां खड़ी स्त्रियों से छेड़छाड़ कर रहे थे. मैंने जब ये द्रश्य अपने साथ खड़े मित्र को दिखाया तो उसने हँसते हुए कहा कि ऐसा तो भीड़ भाड़ में होता ही है तू अपनी नज़रें पवित्र रख और इन बातों पर ध्यान ना दे. पर जनाब मैं अपना ध्यान इन चीजों पर से हटा नहीं पाया और मैंने उस वक्त ही माँ के दर्शन किये बिना ही वापस लौटने का फैसला लिया.
ऐसा अक्सर होता है कि मैं समाज द्वारा स्थापित रीतियों का पालन नहीं करता. ज्योतिषी लोग कहते हैं कि ऐसा मेरी कुंडली के विभिन्न भावों में स्थित पाप ग्रहों के कारण होता है जिनकी मुझे शांति करवानी चाहिए.
सोचता हूँ कि कोई अच्छा सा पंडित मिले तो ग्रह शांति करवा ही लूँ ताकि अब कभी वैष्णो देवी जाने का अवसर मिले तो मुझे पहले जैसे द्रश्य नज़र ही ना आयें और फिर मैं भी अष्टमी को पुड़ियाँ खा खा कर परेशान हो चुकी कन्याओं के मुह में अपनी तरफ से भी दो पुरियां ठूस कर देवी को प्रसन्न करूँ और पुण्य कमाऊ.
और अंत में ये वो पुष्प है जिसे में देवी को अर्पित नहीं कर पाया......
very nice
जवाब देंहटाएंईश्वर आप की मनोकामना पूरी करे
कितन प्यारा फूल है .
जवाब देंहटाएंइस की शोभा वहीँ है जहाँ पर यह है .
मैं भी एक बार भीड़ भाड़ और पंडों द्वारा 'वीआईपी भक्ति चार्ज' से क्षुब्ध होकर भगवान त्र्यंबकेश्वर के दर्शन बिना किए साथियों संग लौट आया हूं।
जवाब देंहटाएंगुड़हल के फूल की बलि देने से यदि देवी खुश हो जातीं तो अब तक तो गुड़हल लुप्तप्राय प्रजाति का पौधा हो गया होता :)
पाण्डेय जी, तभी तो हम नास्तिक हैं... एक बार एक शेर भी कहा था मैंनेः
जवाब देंहटाएंतीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक़
हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं है.
क्या बात है ऐसा मै भी कर चुकी हु | वैसे तो मै भगवान में विश्वास तो नहीं करती पर घर वालो के साथ मंदिर जाती रहती हु | जब मै पहली बात सिद्धि विनायक मंदिर गई तो भीड़ थी मेरे पति ने कहा की पैसे दे कर पास मिलाता है जिससे हम बिना लाइन के दर्शन कर सकते है ये सुन कर मुझे इतना गुस्सा आया की मै भी बिना दर्शन के वापस आ गई ये कह कर की जिस जगह पर भक्तो के साथ पैसे के कारण भेद भाव हो वहा मुझे नहीं जाना है | अच्छा किया की अपनी बच्ची को नहीं भेजा लोग भक्ति और देवी पूजा के नाम पर सिवाय खाना पूर्ति के कुछ नहीं करते है | दिल्ली और आस पास कन्या खिलने का रिवाज बहुत प्रचलित है और सबसे ज्यादा कन्या भ्रूण हत्या उन्ही इलको में होती है |
जवाब देंहटाएंअच्छा किया...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसुलझी हुई सोच है दीपक आपकी.
जवाब देंहटाएंअज्ञेय की एक कविता है "साम्राज्ञी का नैवेद्य दान" उसमे भी जापान की रानी महात्मा बुद्ध को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहती थी लेकिन वह खाली हाथ चली गयी. वह डाल से कोई फूल तोड़ न सकी. क्योंकि उसे प्रकृति की सुन्दरता बिगाड़ते अच्छा न लगा. तो उसने डाल पर लगे ही लगे वहीं से बुद्ध को अपना सुमन अर्पित कर दिया.
धार्मिक भक्तों, प्रकृति प्रेमियों और bhaavuk-buddhijeeviyon को तो इस प्रसंग से प्रेरणा लेनी ही चाहिए.
वो कहते है न मन चंगा तो कठोती में गंगा और मन में पंगा तो मंदिर में भी रम्भा, कुछ लोग मंदिर में भी रम्भा की तलाश में जातें है, उनके लिए प्राथना के यही मायने होते है ... अपनी अपनी श्रद्धा कह सकतें है आप ....
जवाब देंहटाएंबिटिया और गुडहल पर सौ फीसदी सहमत ! 'जिसे' अन्दर होना कहा गया हो 'उसे' बाहर ढूंढना और बाहरी सामग्री से खुश करना क्या ? हम इंसान आपस में लडते क्यों है ? शायद इसलिये कि हमनें 'उसे'अपनें से बाहर निकाल फेंका है गर वो सब के अन्दर ही रहता तो खुद ही खुद से लडता कैसे ?...
जवाब देंहटाएंऔर जब हम आपस में लड ही रहे हैं तो यकीनन वो हमारे अन्दर मौजूद नहीं है फिर तो उस 'बहिरागत' को फूल ही क्यों और भी बाहरी बातें पसन्द आ रही होंगी यहाँ तक कि धींगा मुश्ती करते हुए लडके भी !
आह...बिटिया और फूल उसके बाहर होनें की वज़ह से खतरे में हैं उनकी हिफाज़त के लिये ईश्वर को अन्दर ले ही जाना होगा !
ऐसा करो जी अपने ये पाप ग्रह मुझ तक पहुंचा दो। मुझे बहुत जरुरत है ऐसे ग्रहों की।
जवाब देंहटाएंऔर मुझे भी कोई शौक नहीं पुण्य कमाने का
मेरी सोच तो ये है कि ऐसे पुण्य वो कमाते हैं, जिन्होंने पाप किये हों। मैनें तो कभी कोई पाप किया ही नहीं :)
ही-ही-ही
प्रणाम
क्या कहूँ !!!! बस इतना ही कहूँगी की मन के भाव और स्त्री के लिए सम्मान को उजागर करती पोस्ट
जवाब देंहटाएंकलयुग है.......
जवाब देंहटाएंजो हो रहा ठीक है...
जो होगा वो भी ठीक ही होगा...
आपने जो किया ठीक किया........
जो आंटी आयी थी बिटिया को लेने - वो भी अपनी जगह ठीक थी....
गुडहल का पुष्प देवी पर अर्पित कर देते तो अच्छा था ......
नहीं किया तो भी अच्छा है.
भोजन, पुष्प, दिप, धूप सभी प्रतीक है।
जवाब देंहटाएंयदि मन के भाव स्वतः ही शुभ परिणमे तो और समर्पण क्या होगा।
महत्व है। भावों से शुभ-कर्म, यही बस पुण्य है,आपके निर्णयों में पुण्य था। और अपना पुण्य-कर्म आप जानते भी थे।
पुनश्च……।
जवाब देंहटाएंपाप-ग्रह को शान्त करने के उपाय…॥:)
अब यह पुण्य-भाव, अपनी बिटिया के स्वास्थ्य से भी आगे बढ्कर मानवता तक पहुंचे।
और यह पुण्य-भाव, आपके पुष्प-घमले से आगे बढकर समस्त प्रकृति तक पहुचे।
सही किया आपने..ईश्वर मन में व्याप्त है..बाकी तो सब दिखावा...
जवाब देंहटाएंदेखिये, कितना सुन्दर लग रहा है गुड़हल का फूल..देवी भी देख कर खुश ही हो रही होंगी.
दिखावे से सदा बचना ही चाहिए। आपने सही किया....
जवाब देंहटाएंभगवान को कौन सा फर्क पडना है? वैसे पडोस बदलने के बारे में क्या खयाल है?
जवाब देंहटाएं@ विचार शून्य जी
जवाब देंहटाएंआप के नाम की एक पोस्ट लिखी है .आप मेरी पोस्ट पर सादर आमंत्रित है
jayatuhindurastra.blogspot.com/2010/10/blog-post_17.html
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जवाब देंहटाएंमैं आस्तिक हूँ। इश्वर की सत्ता में पूर्ण विश्वास है। और इश्वर के रचे इस दुनियादारी के खेल को भरपूर एन्जॉय करती हूँ। जो नास्तिक हैं, वो भी इश्वर की ही मर्ज़ी से उसकी सत्ता में विश्वास खो बैठे हैं। आस्तिक और नास्तिक , दोनों की उंगलियाँ , इश्वर की मर्ज़ी से ही , की-बोर्ड पर थिरकती हैं।
रही बात इश्वर को फूल समर्पित करने की तो उसका विशेष महत्त्व है। मैं अपने बागीचे का फूल बिलकुल नहीं तोड़ सकती। स्वार्थी हो जाती हूँ। वहां वो टहनियों पर ही शोभा पाते हैं। लेकिन मंदिर के बाहर से जहाँ एक गरीब , जीविकोपार्जन के लिए पुष्प -माला बेच रहा होता है, वहां से ज़रूर खारीद कर इश्वर को अर्पण करती हूँ।
एक पंथ , दो काज हो जाता है।
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आप निश्चिन्त रहे.... आपकी पूजा सफल है !
जवाब देंहटाएंख़ाली-पीली अहंकार क्यों ?
जवाब देंहटाएंआदरणीय भाई पी.सी.गोदियाल जीने हकनामा ब्लॉग पर दूसरे ब्लोगर्स के कमेंट्स को उलटी दस्त की उपमा दी है जोकि सरासर अनुचित है और अहंकार का प्रतीक भी । अहंकार से और अशिष्ट व्यवहार से दोनों से ही रोकती है भारतीय संस्कृति जिसका झंडा लेकर चलने का दावा करते है, मुझे लगता है कि दावा सच नहीं है ।
अंधविश्वास और धार्मिक आडंबर का विरोध करती एक उम्दा पोस्ट के लिए ढेरों बधाई।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल ठीक किया, अगर भगवान दान और दक्षिणा से प्रसन्न होते तो ऋषियों को सिर्फ घोर तपस्या का फल नहीं मिलता. ऊपर एक मित्र ने कहा है -
जवाब देंहटाएंमन चंगा तो कठौती में गंगा..
अक्षरशः सच है
मनोज
पांडेय जी,
जवाब देंहटाएंफ़ोन किया था आपको, उठाया नहीं आपने। शायद डर गये होंगे कि फ़िर से कोई बेगार बता देंगे। हर बार ऐसा थोड़े ही होता है यार, बिटिया का हालचाल पूछना था। खैर, आशा है अब सकुशल होगी।
पोस्ट बिल्कुल अपने मिजाज की है, लोग दिखावा ज्यादा करते हैं। अपने साथ भी अकाध बार ऐसा हो चुका है कि पहाड़ पर चढ़कर मंदिर तक गये, लेकिन वहाँ किसी बात से ऐसी खिन्नता हुई कि बाहर से ही हाथ जोड़कर लौट आये।
एकबार फ़िर से बच्ची के स्वास्थ्यलाभ की कामना करता हूँ।
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जवाब देंहटाएंसंजय जी,
जैसी शिकायत आपको है दीप जी से, वैसा ही शिकायती-अनुभव मेरा भी है उनसे. लेकिन करें क्या प्रेम में क्रोध करना भुला बैठे हैं.
उन्हें नहीं मालूम उनके परिवार के सदस्य बढ़ चुके हैं. हम और आप जैसे कई और.
देखते हैं दीप-अवली तक...... शायद वे हमारे घर आकर आशा के दीप जला सकें.
मुझे तो उनकी समीपता मिलते हुए भी शिकायत है, फोन वे कम ही रिसीव करते हैं.
एक उपाय है : यदि आप टेलीफोन बूथ से फोन करेंगे तो शायद रिसीव हो जाए.
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अरे नहीं संजय जी डर आपसे नहीं मोबाईल से लगता है. मैंने कहीं पढ़ा था कि ज्यादा मोबाइल इस्तेमाल करने वाले अपना पुरुषत्व गवां देते हैं. ये बात कहीं ना कहीं मेरे दिमाग में बैठ गयी है और इसी बजह से ऑफिस से आने के बाद अक्सर ही मोबाईल मेरे बेग या जेब में पड़ा रह जाता है और मैं आने वाले काल्स को नहीं ले पाता. ये शिकायत मेरे सभी मित्रों को है और इसके लिए मैं हमेशा से सभी का क्षमा प्रार्थी रहा हूँ और आगे भी रहूँगा .
जवाब देंहटाएंऔर हाँ मित्रवर, आप सभी मित्रों और बंधुओं के आशीर्वाद से मेरी बिटिया स्वस्थ व प्रसन्न है.
ऐसा लग रहा है की मैं अपनी हरकतों को पढ़ रहा हूँ ...आप भी मेरे जैसे पापी निकले मैं तो कुछ और ही सोंचता था आपके बारे में !
जवाब देंहटाएंब्लाग जगत में किसी की पहचान होने में बड़ा समय लगता है भाई जी :-)))
सादर
बिटिया के अच्छे स्वास्थय के बारे में जान कर राहत हुई।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं।
@"ज्यादा मोबाइल इस्तेमाल करने वाले……"
आप भी फ़ंस गये ना नये अंधविश्वास में…:):-)