शुक्रवार, 24 जून 2011

स्त्री जीवन अपवित्र है !

अभी कुछ समय पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर थी की मलेशिया में एक "obedient wives club" स्थापित किया गया है.  जिस वक्त यह खबर पढ़ी तभी मन में ख्याल आया  की हमारे  धर्म और इस्लाम में कितनी समानता है. हमारे यहाँ भी लड़कियों को शुरू से समझाया जाता है की पति परमेश्वर होता है. हर पतिव्रता नारी का कर्तव्य होता है की वो अपने  पति परमेश्वर के हर आदेश को ईश्वर का आदेश समझ कर पालन  करे. और यही बात इस्लाम में भी कही गयी है.

 इसके बाद स्वाभाविक रूप से मेरे मन उत्सुकता हुई की हमारा तीसरा प्राचीन और लोकप्रिय  धर्म यानि की इसाई धर्म स्त्रियों के लिए क्या निर्देश देता है या फिर ईसाई  धर्म में स्त्रियों की क्या स्थिति है. तो वहा भी स्त्रियों के लिए  कमोबेश वही  निर्देश थे जो हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म में हैं.

अब मैंने नेट पर बौद्ध, जैन और दुसरे धर्मों  में स्त्रियों की स्थिति के बारे में उपलब्ध जानकारी को कुछ दूसरी साइट्स को देखा जहाँ से पता चला  की लगभग हर धर्म एक इन्सान के रूप में स्त्री और पुरुष में भेदभाव रखता है.

इससे पहले मैंने कभी भी इस विषय में गहराई से विचार नहीं किया था. अभी तक तो नारीवादियों द्वारा नारी को दोयम दर्जा दिए जाने की बात मुझे हमेशा मजाक ही लगाती थी क्योंकि समाज में मैंने बहुत से पुरुषों को  अपनी घरवालियों के दिशानिर्देशों के अंतर्गत कार्य करते देखा था. मैंने ऐसे घर भी देखे हैं जहाँ गृहस्वामिनी की अनुमति के बिना घर में पत्ता भी नहीं खड़कता. ऐसे में महिलाओं पर अत्याचार और उनके साथ भेदभाव की बात मुझे अतिशियोंक्ति ही लगाती थी.

स्त्री स्वतंत्रता के समर्थक समाज में जिन बातों का विरोध करते नज़र आते हैं उन सब बातों के पीछे मुझे कहीं न कहीं  महिलाओं की भलाई ही नज़र आती थी पर इस बार मुझे हमारे धर्मों में वर्णित एक तर्क बिलकुल भी समझ नहीं आया.

मैंने देखा की लगभग सभी धर्मों में ये माना  जाता है की स्त्री अपवित्र है . हमारे जैन धर्म में तो ये भी मान्यता है की स्त्री पुरुष योनी में जन्म लिए बिना मुक्ति नहीं पा सकती.

अब स्त्री अपवित्र क्यों है? हमारे धर्मों का तर्क देखिये. स्त्री अपवित्र है  क्योंकि उसे मासिक स्राव होता है. मैंने ये तो देखा है की मासिक धर्म के पांच  दिनों में स्त्रियों को अपवित्र मान कर पूजा पाठ व अन्य घरेलु कार्यों से दूर रखा जाता है जो की मुझे ठीक ही लगाता था  क्योंकि इस दौरान स्त्री को आराम मिलाना चाहिए पर इस वजह से स्त्री के पुरे अस्तित्व को अपवित्र मान लेने की बात मुझे बिलकुल भी हज़म नहीं हुई. मुझे तो इसमे एक बड़ा अजीब सा विरोधाभास लगा. एक तरफ तो स्त्री को  रजस्वला होने तक पूर्ण नहीं मन जाता और दूसरी तरफ इसी वजह से उसे अपवित्र मान  लिया जाता है.  

इस विरोधाभास से तो मुझे यही नज़र आया की कोई भी धर्म स्त्री को इन्सान का दर्जा देता ही नहीं. उसे तो सिर्फ एक मशीन समझा गया है जो तब तक अपूर्ण है जब तक की वो रजस्वला नहीं होती क्योंकि तब तक वो संतान पैदा नहीं कर सकती. यानि की रजस्वला होना उसके इन्सान के रूप में पूर्णता नहीं बल्कि एक मशीन के रूप में पूर्णता है  अन्यथा अपनी इसी विशेषता की वजह से वो अपवित्र है.

महीने में कुछ समय के लिए होने वाले रक्त स्राव से ज्यादा गन्दा तो स्त्री द्वारा रोजाना त्यागा जाने वाला मल मूत्र है पर उसके कारण स्त्री को अपवित्र नहीं माना जा सकता क्योंकि यही कार्य तो पुरुष भी रोजाना करता है इसलिए उसकी विशेषता उसके अपवित्र होने का कारण बन गयी. जरा सोचिये की अगर भगवान् एक  पुरुष न होकर एक स्त्री होता तो पुरुष को उसकी दाढ़ी की वजह से अपवित्र ठहराया जाता और स्त्रियों को उनके चिकने गालों की वजह से जन्म मरण के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती.

खैर जो भी हो मुझे पहली बार ये महसूस हुआ की पुरुषों ने दुनिया की आधी आबादी को गलत ढंग से काबू करने की कोशिश की है.

मेरी नज़र में जो भी  धर्म ये बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईश्वर के समक्ष वो  पुरुष से कहीं भी कम है, वो एक सच्चा धर्म नहीं हो सकता है.  ऐसे धर्मों को,ऐसे ईश्वर और ऐसी मान्यताओं  को मैं स्वीकार नहीं कर सकता और हो सके तो आप भी स्वीकार ना करें.

 

शनिवार, 11 जून 2011

सपने में देखा एक सपना.

भ्रष्टाचार  के विरुद्ध लड़ना है, एक साफ़ सुथरे चरित्र वाला नेता चाहिए. क्या मिलेगा?

जी नहीं. साफ़ सुथरा चरित्र तो हमारे भगवानों का नहीं रहा है तो हमारा कैसे होगा . आपको जो है, जैसा है के आधार पर ही काम चलाना होगा. यानि की एक दागदार को दुसरे दागदार से बदला जायेगा. एक निकम्मे  का विकल्प दूसरा निकम्मा होगा. वैसे भी आप व्यक्ति नहीं मुद्दा देखिये. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जो कोई नेता बनाना चाहेगा हम उसके पीछे चल देंगे चाहे वो बडबोले कांग्रेसी दिग्विजय सिंह हो या बाबा रामदेव. मुद्दा बड़ा है व्यक्ति नहीं.

अच्छा जी , इसका तो मतलब है की दुनिया वैसे ही चलेगी जैसे वो पहले चलती थी. इन लाठी, डंडा, अनशन जैसी तमाम मुश्किलों से मिले  परिवर्तन का बस इतना सा फायदा होगा की एक स्थापित भ्रष्टाचारी की जगह हमें एक नौसिखिया भ्रष्टाचारी मिलेगा और जब वो पक  जायेगा या जनता उससे पक जाएगी तो हम एक और नया भ्रष्टाचारी खोज लेंगें.

तो क्या करें?

क्या हम अपनी शासन व्यवस्था को कुछ इस तरह से नियोजित नहीं कर सकते की किसी नेता की जरुरत ही ना रहे. व्यवस्था खुद ही हर समस्या का समाधान खोज ले . नेता के रूप में चाहे डाक्टर अब्दुल कलाम हों या अपनी महामहिम प्रतिभा पाटिल जी किसी को भी कुर्सी पर बैठा दो, व्यवस्था चलती रहे. काम होते रहें. अपने इर्द गिर्द प्रकृति  को देखें. सब कुछ व्यवस्थित चलता है. जानवरों के झुण्ड तक एक निश्चित व्यवस्था के तहत अपने नेता का चुनाव आसानी से कर लेते हैं.तो फिर हम इतने समझदार जानवर होते हुए भी अपने लिए एक श्रेष्ठ नेता नहीं चुन पाते.

......ये सब बकवास है, बचकाना है, अपरिपक्व है. कुछ सोलिड सोचो. 

चलो तो सबसे पहले एक ईमानदार व्यक्तित्व की खोज करें. मुझे विश्वास है की वो हमें हमारे ही आस पास मिलेगा. फिर उसे इस आन्दोलन की कमान सौप दें. मुझे याद है की अपने डाक्टर कलाम  की इच्छा थी की वो दुबारा राष्ट्रपति बने मगर उन्हें पूरा समर्थन ही नहीं मिला और समर्थन मिला माननीया महामहिम प्रतिभा पाटिल जी को जो आज राष्ट्रपति के पद पर शोभायमान हैं . 

हमारी जनता जो निस्वार्थ भाव से बाबा रामदेव जी को अपना अंध समर्थन दे रही है क्या वो ऐसा ही समर्थन डाक्टर कलाम  जैसे लोगों को नहीं दे सकती. कहीं हमारी जनता के मन में ही एक साफ़ और स्वच्छ नेतृत्व के प्रति  किसी तरह का डर तो  नहीं समाया है.
....नहीं ये भी फिजियेबल नहीं है.

तो क्यों ना हम लोग खुद में ही बदलाव ले  आयें. खुद को सुधार लें. फिर हम सुधारे हुए लोगों को तो एक सही दिशा मिल ही जाएगी. जापान का उदहारण देखो. भ्रष्टाचारी नेता वहां भी पैदा हुए हैं. नेतृत्व वहां भी गलतियाँ  करता है पर वहां की सदाचारी जनता हमेशा ईमानदार  बनी रहती है. हाल फ़िलहाल में वहां हुयी विपत्तियों में उभर कर आये  उन लोगों के चरित्र से हमें कुछ न कुछ प्रेरणा अवश्य लेनी चाहिए .

..... प्यारे ऐसी भयंकर बातें  छोड़ और  कुछ प्रक्टिकल बात कर.

तो चलो सपने बहुत देख लिए मैं अंत में आपको एक कहानी सुनाता हूँ. आशा है आप मेरी बात को समझ जायेंगे.

एक स्त्री सबसे कामुक पुरुष से विवाह करना चाहती थी. खोज बीन  शुरू हुयी और अंत में एक जंगल में एक  पेड़ के नीचे  लेटे एक ऐसे पुरुष पर जाकर समाप्त हुयी जो बहुत चीख चीख कर दुनिया की सारी चीजो के साथ सेक्स करने की बात कर रहा  था. स्त्री बहुत खुश हुयी की चलो सबसे बड़ा कामुक पुरुष मिला. शादी हुई. सुहागरात का समय आया . पुरुष बडबडाता रहा की पलंग तोड़ दूंगा, ये फाड़ दूंगा वो चीर दूंगा पर जो करना था वो नहीं किया. स्त्री को गुस्सा आया और उसने पुरुष से पूछा अबे इतनी देर से बकवास कर रहा है की ये कर दूंगा वो कर दूंगा जो करना है वो करता क्यों नहीं. पुरुष का जवाब था की मैं तो शुरू से एक बडबोला और बकवासी हूँ और सारी जिंदगी सिर्फ यही कर सकता हूँ.

तो भैया मेरा तो  सभी से यही कहना है की वो सत्ता की सेज पर सोलिड लोगों को लाने  का यत्न करें ना की पैदायशी बडबोले और बकवासी लोगों को.

अंत में जय राम जी की बोलना पड़ेगा.  

रविवार, 5 जून 2011

समान विचारों का अन्तःप्रजनन खतरनाक है

मैं जब भी कुछ लिखता हूँ या कहता हूँ और सभी लोग आसानी से सहमत हो जाते हैं तो जाने क्यों मैं भीतर ही भीतर डर सा जाता हूँ. अपनी कही बात पर दुबारा विचार करता हूँ और अपने निर्णय पर अडिग नहीं रह पाता क्योंकि जब प्रत्येक व्यक्ति मेरी बात से सहमत दिखता है तो मुझे लगता है की या तो मेरी बात पर पर्याप्त  विचार नहीं हुआ है या फिर मेरी हाँ में हाँ मिलाने वाला आदमी जाने अनजाने में मुझ से अत्यंत प्रभावित होकर मेरा समर्थन कर रहा है.

जाने क्यों लोग अपनी आलोचना को नकारात्मक रूप से ग्रहण करते हैं. मुझे लगता है की हमें अपने आलोचक को अपने समर्थक से ज्यादा सम्मान देना चाहिए क्योंकि वो हमें हमारे विचारों को सटीक बनाने में सहायता करता है. सही मायनों में हमारा  आलोचक ही हमारा  सबसे बड़ा समर्थक है क्योंकि कहीं न कहीं वो हमें उस मुकाम पर पहुचने में सहायता कर रहा है जहाँ से कोई हमें गिरा न सके या  जहाँ जहाँ  विचारों में कमी का प्रतिशत कम से कम रहे. वर्ना आजकल किसके पास इतना समय और उर्जा है की वो आलोचना जैसे श्रमसाध्य  कार्य में लग कर लोगों की  बेवजह की नाराजगी मोल ले.

अपने खुद के बारे में एक बात मैं यहाँ बिलकुल सत्य कह दूँ जिन्हें मैं मन ही मन नापसंद करता हूँ या जिनके भरभरा कर गिराने का मुझे बेसब्री से इंतजार होता है मैं कभी भी उनकी आलोचना नहीं करता. मैं शांत होकर उन्हें गलतियाँ करते देखता जात हूँ और इंतजार करता रहता हूँ की कब गलतियों के फंदे में फंस कर उनकी द्रुत गति पर लगाम लगे.

सबसे स्वस्थ मंच वो है जहाँ विभिन्न प्रकार के विचारों  का स्वस्थ मिलन हो और उनके समागम से श्रेष्ठ गुणों से युक्त विचारधारा का जन्म हो जिसमे कमियों की कम से कम गुन्जायिश हो. परन्तु दुर्भाग्य ये है की हम अपने से विचार रखने वाले लोगों के मध्य ही सहज होते हैं और किसी का जरा सा भी विरोध मिलने पर आक्रामक हो जाते हैं. एक से विचार रखने वाले लोगों के साथ रहने से विचारों का अन्तःप्रजनन शुरू हो जाता है जो भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है.

तो ध्यान दें स्वस्थ व बेहतर भविष्य के लिए विरोधी विचारों से समागम के लिए हमेशा प्रसन्नता पूर्वक प्रस्तुत रहें.

भूल सुधार :

@ अनुराग जी, जब से आपकी टिप्पणी देखी है तब से यही सोचा रहा था की इस शीर्षक में क्या कमी है. बड़ी देर बाद लगा की शायद एक शब्द छुट गया है. "विचारों का अन्तःप्रजनन" को अब "समान  विचारों का अन्तःप्रजनन" कर दिया है. अभी भी कुछ ठीक न लग रहा हो तो बताएं, सुधार  हो जायेगा. अपना ही ब्लॉग है गलतियों में कभी भी सुधार किया जा सकता है :-))

@अंशुमाला जी मैंने कभी इस नज़रिए से सोचा नहीं था. भविष्य में ध्यान रखूँगा की सीधे मुझ से किये गए प्रश्नों के उत्तर मैं जरुर दूँ. साथ ही साथ मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ की मेरी पोस्ट से सम्बंधित दिए गए आपके या किसी और के विचारों से अगर कोई दूसरा व्यक्ति अपनी सहमती या असमति व्यक्त करता है तो मैं उसे रोक दूँ ये बात मुझे ठीक नहीं लगती.
बेशक गूगल बाबा के आशीर्वाद से ये ब्लॉग मेरा हुआ है पर फिर भी सभ्य भाषा में पोस्ट के विषय से सम्बंधित अपनी बात रख रहे व्यक्ति को मैं सिर्फ इसलिए रोक दूँ की इस ब्लॉग पर पोस्ट लिखने की सुविधा मुझे मिली हुयी है मुझे ठीक नहीं लगता. यहाँ पर प्रकट मेरे विचारों से मेरा कोई लगाव नहीं है.यहाँ मैं अपने विचार रखता ही इसलिए हूँ ताकि अगर मेरी कोई बात गलत है तो उसकी ढंग से मरम्मत हो जाये. आप ऐसा करती हैं इसलिए ही मैं आपकी इज्जत करता हूँ. जब कभी भी मुझे मेरे विचारों की कमियां आप जैसे अनुगृही मित्रों की कृपा से नज़र आती हैं तो मैं उन्हें सुधारने की कोशिश अवश्य करता हूँ. बेशक मैं हर उस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करूँ.
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गुरुवार, 2 जून 2011

काश बाबाजी देश को सुपर पावर बनवाने के लिए सत्याग्रह करते.

बाबा रामदेव जी का अनिश्चित कालीन आमरण अनशन शुरू होने में सिर्फ एक दिन बाकि रह गया है. चार जून से बाबाजी अपने करोड़ों भक्तों के साथ आमरण अनशन शुरू करेंगे ताकि उनकी तीन प्रमुख निम्न मांगें मान ली जाएँ.

बाबाजी की राष्ट्रहित में तीन माँगे
  • लगभग चार सौ लाख करोड़ रुपये का काला धन जो की राष्ट्रीय संपत्ति है यह देश को मिलना चाहिए ।
  • सक्षम लोकपाल का कठोर कानून बनाकर भ्रष्टाचार पर पूर्ण अंकुश लगाना ।
  • स्वतंत्र भारत में चल रहा विदेशी तंत्र (ब्रिटिश रूल ) खत्म होना चाहिए जिससे कि सबको आर्थिक व सामाजिक न्याय मिले ।  
(बाबाजी के भक्तों के अनुसार तो बहुत सारे मुद्दे है  पर भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की वेबसाईट इन्हीं तीन प्रमुख मांगों की बात करती है. )


बाबाजी की  मांगों को लेकर मेरे मन में संशय है की क्या बाबाजी के आमरण अनशन के टूटने से पहले उपरोक्त मागों में से कोई भी एक पूरी की जा सकती है?

ऐसा होना मुझे तो बिलकुल भी संभव नहीं दीखता. सरकार अगर अपने  तमाम संसाधनों का उपयोग कर ले तो भी इन मांगों का पूरा होना  संभव नहीं तो क्या स्वामीजी व्यर्थ में अपनी और अपने समर्थकों की  जान जोखिम में डाल रहे हैं और अगर स्वामीजी को सिर्फ सरकार के आश्वासन से ही संतुष्ट होना है तो वो आश्वासन  तो प्रधानमंत्री जी की तरफ से एक हफ्ता पहले ही मिल चूका है तो फिर अनशन पर बैठने की जिद क्यों?

सरकार स्वामी जी के समक्ष हाथ जोड़े खड़ी है की प्रभु आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा तो स्वामीजी आगे बढ़कर सरकार का मार्गदर्शन क्यों नहीं करते? काहे को दो चार रोज के लिए भूखे रहकर खुद की उस शक्ति को जोकि देश की सरकार को सही राह दिखने में खर्च की जानी चाहिए थी राम लीला मैदान में जाया कर रहे हैं? ये कैसी कलजुगी लीला है मेरे राम ?

क्या आमरण अनशन जोकि निश्चित रूप से लक्षित मांगों के पूरा होने से पहले ही ख़त्म हो जाना है, भ्रष्टाचार उन्मूलन से ज्यादा महत्वपूर्ण है? 


कुछ बातें और भी ....

अपनी टिप्पणी में राहुल सिंह जी ने कहा.....

आदर्श या बेहतर स्थितियां के लिए कल्‍पना हो, विचार या प्रयास, स्‍वागतेय होना चाहिए.
पर मुझे लगता है की कल्पनाओं और विचारों का तो स्वागत किया जा सकता है पर प्रयास तो सही दिशा में ही होने चाहिए. उदहारण के लिए एक उत्तम विचार/कल्पना  है...

कौन कहता है की आसमां  में छेद नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.....

अब जरा सोचें की आपका पडोसी इस विचार को सही साबित करने के लिए  प्रयास शुरू कर दे तो क्या होगा.

स्वामी जी का विचार तो उत्तम परन्तु प्रयास भी कुछ ऐसा ही निर्थक है.

@ संजय जी उस ईश्वर या प्रकृति ने भेड़ें बनाई हैं तो उसी ने भेडिये भी बनाये  हैं पर भेड़ की खाल  में छिपे भेडिये नहीं बनाये. मैं  भेडियों तो सहन कर लेता हूँ (प्रकृति की देन हैं)पर भेड़ की खाल में छिपे भेडियों को नहीं.


@ आशीष श्रीवास्तव जी आपने मेरे विचारों को मजबूत सहारा प्रदान किया है. आपका बेहद धन्यवाद.

@ अली सर, धन्यवाद, गलती में सुधार  कर दिया है.

@ संजय जी एवं आशीष जी आप दोनों ने मेरी बात को विस्तार दिया, इसके लिए आपका शुक्रिया.   

@ दीपक जी, रामदेव जी के प्रति आपका झुकाव बनता  है क्योंकि  वो भी बाबा और आप भी बाबा  :))

इसके साथ ही सभी को धन्यवाद और आभार.

बुधवार, 1 जून 2011

अरे बाबा तन्ने बेरा ना के भ्रष्टाचार का साप समाज को भी सर से निगले है.

इस बाबा का मन भाई ठीक ना है. ना जी कतई ना .

इस बाबा  के मन में राजनैतिक चोर है ... हाँ भाई   बिलकुल हाँ.

आज तक तो ये बाबा बोले था की समाज को भ्रष्टाचार का नाग डस रहा  हैं. इब इस ललिता पवार के छोटे भाई ने ये ना बेरा है के डसने के बाद सापं अपने शिकार को खावे कित से हैं.

हैं जी... ना इब आप  ही बताओ. जब भ्रष्टाचार के नाग ने डस ही लिया तो इब वो खायेगा तो ऊपर से ही ना..
तो ऊपर वालों पर ही तो नज़र रखनी चाहिए.  

ये कुछ बातें हैं जो मैंने बाबा रामदेव जी के लिए उन्हीं की खड़ी हरियाणवी  भाषा में कहीं हैं. मैं इससे ज्यादा इस प्रकार की भाषा में बात नहीं कर सकता इस लिए अपनी औकात पर आता हूँ.

मेरे मन में बाबा रामदेव की राजनैतिक आकाँक्षाओं कहीं थोडा सा संदेह था जो अब निसंदेह में बदल गया है. बाबा रामदेव अगर मन से सच्चे होते तो शायद वो कहते की सांच को आंच नहीं और सर्वोच्च पद पर स्थापित लोगों के ऊपर सबसे ज्यादा नज़र रखने की बात करते. पर ऐसा उन्होंने किया नहीं. शायद कहीं ना कहीं उनके मन में ये विशवास हैं की आने वाले समय में वो इस देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं इस लिए प्रधानमंत्री और दुसरे उच्च पदों पर आसीन लोगों को लोकपाल बिल से उन्होंने अलग रखने की बात की है.

ये मेरा अपना अनुभव है की भ्रष्टाचार की शुरुवात उच्च पदों से ही होती है. अगर राजा भ्रष्ट होगा (जो की वो था ही) तो निश्चित है की उसके राज्य की प्रजा भ्रष्टाचारी होगी ही क्योंकि हम हमेशा अपने से ऊपर वाले की नक़ल करते हैं. अगर हमारे देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग खुद ही अपने को लोकपाल के समक्ष निगरानी के लिए प्रस्तुत कर दें तो इस बात का समाज के सभी वर्गों में ये सन्देश जायेगा की इस देश में वी आई पी कोई नहीं. कानून सबके लिए बराबर है.

हमारे देश में  सभी लोग वी आई पी स्टेटस के लिए मरे जाते हैं क्योंकि एक  वी आई पी सामान्य नियम कानूनों के  परे होता है, उनसे ऊपर होता है. उच्च पदों पर आसीन लोगों को लोकपाल बिल में वी आई पी स्टेटस देने का मतलब है आम आदमी को ये सन्देश देना की ये लोग चाहे जो कुछ कर ले इनका कुछ नहीं होगा.

मैं माननीय अन्ना हजारे के इस प्रस्ताव का घोर समर्थन करता हूँ की देश को चलाने वाले सभी लोगों की सारी गतिविधियाँ (उनके हगने और मूतने को छोड़कर) हमेशा आम जनता की कड़ी निगरानी में रहनी चाहिए. क्योंकि अगर इन लोगों को भ्रष्ट कार्य करने का मौका नहीं मिलेगा तो ये लोग  अपने से नीचे के लोगों में भी भ्रष्टाचार को सहन नहीं करेंगे.

रविवार, 29 मई 2011

निहारना या घूरना.


कल शाम अपनी बिटिया के साथ सब्जी मंडी में एक दुकान पर प्याज छाट रहा था की देखा मेरी बिटिया सब्जी वाले को घूरे जा रही है. सब्जी वाला खरबूजा खाने में मगन था. मेरी बिटिया सब्जी वाले के एकदम बगल में ही खड़ी थी और निसंकोच उसे एकटक घूरे जा रही थी. पता नहीं उसका मन इस चीज के लिए ललचा रहा था या फिर वो सब्जी वाले के खरबूजा खाने के स्टाइल पर आश्चर्य चकित थी. प्याज लेने के बाद मैं बिटिया को लेकर पास में ही खरबूजे बेच रहे दुकानदार के पास गया और बिटिया को खरबूजे दिखाए तो उसने खरबूजों में जरा भी रूचि नहीं ली बाकि उसे लाल तरबूज ज्यादा पसंद आए. मैंने थोडा हिचकते हुए (क्योंकि आजकल जब  तरबूजों की चीनी  कम होती है तो  कृत्रिम उपाय अपना कर उसे बढ़ा दिया जाता है )  एक छोटा लाल चीनी तरबूजा लिया  और घर के लिए वापस लौट आया.

घर लौटते हुए मेरा मन हमारे घूरने की आदत पर ही अटका रहा. मुझे लगता है की कहीं न कहीं घूरने की आदत मानव स्वाभाव का ही एक हिस्सा है जो बाल्यकाल से ही हमारे साथ होता है. जैसे जैसे हम सामाजिक तौर तरीके सीखते जाते हैं या दुसरे शब्दों में कहूँ की हम सभ्य होते जाते हैं तो  हम अपनी इस आदत पर लगाम कसते जाते हैं.  

घूरना  का  एक भाई  भी है जिसे हम कहते हैं निहारना. घूरने और निहारने में क्या अंतर है? इन दोनों में वही अन्तर है जो राम लखन फिल्म के राम और लखन में था.  किसी को घूरना  एक सभ्य समाज में एक बुरी बात समझा जाता है पर आप किसी को भी प्यार से निहार सकते हैं. स्त्रियाँ निहारे जाने को तो पसंद करती हैं पर घूरे जाने को बिलकुल भी पसंद नहीं करती. मेरे एक मित्र निर्दोष भाव से सुन्दर स्त्रियों को निहारना पसंद करते हैं. मैंने उन्हें बताया की आप अपने घर की स्त्रियों को निहार सकते हैं पर परायी नारी  को देखेंगे तो इसे  बुरा समझा जायेगा. इस पर उन्होंने जो सफाई दी वो मुझे बहुत पसंद आयी . उन्होंने कहा की उनके निहारने या घूरने की आदत पर उनका कोई बस नहीं है. सारा कसूर निगाहों का है जो सीधी सपाट और समतल जगहों पर से तो फिसल जाती है पर वक्रता और गोलाई लिए हुए हर चीज पर टिकी रहती है.

उसकी बनियान मेरी बनियान से सफ़ेद कैसे.


हम भी क़यामत पर नज़र रखते हैं.

लगभग हर पुरुष सुन्दर स्त्री को निहारना पसंद करता है पर ये उसकी बदकिस्मती है की उसका किसी सुन्दर स्त्री को प्रशंसा की निगाह  से निहारना घूरने में परिवर्तित हो जाता है और उस बेचारे को सभ्य समाज के सामने थोड़ी शमिंदगी उठानी पड़ती है. मैं जब भी किसी सार्वजनिक स्थल पर होता हूँ  तो  मेरा समय आसानी से ये देखने में बीत जाता है की कौन आदमी किस को घूर  या निहार रहा है.  ये बहुत मजेदार खेल है. मुझे सबसे ज्यादा तब मजा आता है जब किसी सुन्दर स्त्री को कोई दूसरी स्त्री निहार रही होती है और वो खुद इस बात से बेखबर होती है की कोई और (मेरे जैसा) उसे भी बड़ी तन्मयता से निहारे जा  रहा है.

घूरने और घूरे जाने का ये चक्र बड़ा मजेदार होता है. मैंने कहीं पढ़ा था की स्त्रियाँ बनाव श्रृंगार करती ही निहारे जाने के लिए हैं. अगर आपके बनाव श्रृंगार को देखने वाला कोई न हो तो उसका फायदा ही क्या परन्तु किसी अजनबी द्वारा  घूरा जाने उन्हें पसंद ही नहीं होता. पर यार अगर आप कहीं मीठा रखो और ये सोचो की सिर्फ आपकी पालतू मधुमक्खियाँ ही आयेंगी तो ये आपकी गलती है. हमेशा ये धयान रखो की मीठे पर मधुमक्खियाँ आयें या न आयें गन्दगी पर मंडराने वाली मक्खियाँ जरुर आयेंगी अतः उनसे बचने का कोई न कोई बंदोबस्त हमेशा ही करके चलो.
हमें किसी को घूरने से मिलता क्या है? मैं जब भी खुद को ऐसी स्थितियों में रंगें हाथो पकड़ लेता हूँ तो हमेशा अपनी गिरेहबान में झांक  के  यही सवाल पूछता हूँ की बेटे तुझे मिला क्या.  किसी को चोरी छिपे कनखियों से निहारना  या घुरना मालूम नहीं जाने कौन सा गूंगे का गुड है जो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. हम बरबस ही इस और खिचे जाते है.

चलो जो भी हो उन सभी लोगों को मेरा प्रणाम जो बेफिक्र हो दूसरों को घूरते हैं और साथ ही साथ एक छोटा सा सन्देश की  

" देखि जां पर छेड़ी ना ".


 इस भाव को अंग्रेज कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं.

गुरुवार, 26 मई 2011

क्या डॉक्टर साहिबा बेईमान हैं.

कुछ पाच छः दिनों पहले हमने ध्यान दिया की शाम को दोस्तों के साथ खेल कर लौटने पर बेटे की आँखों का सफ़ेद हिस्सा  लाल हो जा हो जाता है. मैंने  बालक को अपने जान पहचान के चिकित्सक डाक्टर जोशी को दिखाया जिनकी हमारी मंडावली में बहुत अच्छी प्रक्टिस चल रही है. डाक्टर साहब ने एक आई ड्रॉप लिख दी और बताया  की आँखों ये लाली गरमी और धुल धक्कड़ में खेलने के कारण हो रही  है, जल्दी आराम आ जायेगा, चिंतित न हों. दो तीन दिन आंख में दावा डालने के पश्चात् आंख की लाली चली गयी पर कल  शाम को जब  बिटुवा खेल कर वापस आए तो उनकी आँखों के लाल डोरे फिर नज़र आ रहे थे. मन में थोड़ी शंका सी हुई तो निश्चय किया की इस बार किसी नेत्र विशेषज्ञ को ही दिखाया जाय.

मुझे अपने  घर के आस पास प्राइवेट प्रक्टिस कर रहा कोई भी नेत्र विशेषज्ञ अभी तक दिखाई नहीं दिया  है. सरकारी अस्पताल में मेरा जानें का मन नहीं करता क्योंकि वहां जाने के बाद, तमाम जानपहचान के बावजूद,  मेरा सारा दिन ख़राब हो जाता है.   इसलिए मैं अपने बेटे को मेरे घर के पास के एक तारावती चेरिटेबल मेडिकल सेंटर में ले गया. मैंने बच्चे का  ओ पी डी कार्ड बनवाया जिसमे सिर्फ दस रुपये लगे. मुझे बड़ी ख़ुशी हुई की मात्र दस रुपये में एक नेत्र विशेषज्ञ की सेवाएं मिल जाएँगी. मन ही मन मैं तारावती चरितेबल ट्रस्ट वालों को धन्यवाद करने लगा. यहाँ पर डाक्टर अर्चना परवानी नेत्र विशेषज्ञ के रूप में कार्य करती हैं. उनकी सहायक ने कुछ दो तीन मिनट बाद ही बच्चे का नाम पुकारा तो मैं बड़ी ख़ुशी से बच्चे को अन्दर ले गया. यहाँ मुझे पहला झटका लगा जब डाक्टर साहिबा की एक सहायिका ने बच्चे की नेत्र ज्योति की जाँच के लिए बच्चे से चार्ट पढवाना शुरू कर दिया. मैंने उन्हें बताया की बच्चे की नेत्र ज्योति ठीक है बस इसकी आंख में लाली है जिसकी जाँच के लिए मैं बच्चे को लाया हूँ. मेरी इस हिमाकत पर उन्होंने मुझे मुह पर उंगली रख कर चुप रहने का इशारा किया और कार्ड पर बच्चे का विजन सिक्स बाय सिक्स  लिख कर मुझसे काउंटर पर पचास रुपये जमा करवाने के लिए कहा. बताया गया की आंख की जाँच होगी.  

हमेशा की तरह से मुझे पहली बार में ही बात कुछ समझ में नहीं आई. दुबारा पूछने पर पता चला की ये पैसे आंख की पुतली की जाँच के लिए जमा करवाने हैं. आंख में  दवाई डाली जाएगी उसके बाद आंख की पुतली की जाँच होंगी. पूरी प्रक्रिया में डेढ़ दो घंटे लगेंगे.  मेरे साथ आए सभी दुसरे मरीजों को भी यही सारी बात दोहराई गयी और पैसे जमा करवाने के लिए कहा गया. अब चूँकि मैं अपनी नौकरी के शुरुवाती दौर में जी टी बी हॉस्पिटल में कार्य कर चूका हूँ और पचासों मरीजों को नेत्र विभाग में दिखाया है अतः मुझे मालूम था की आंख की हर छोटी मोटी तकलीफ के लिए  dilation  करवाने को नहीं कहा जाता. मैंने जब डाक्टर साहिबा से बात करनी चाही तो  मुझे जवाब मिला की हमारे चेरिटेबल ट्रस्ट का यही तरीका है आप अपना मरीज दिखाना चाहते हो तो जैसा कहा जा रहा है वैसा करो वर्ना मरीज को कहीं और ले जाओ.

लो जी गयी  भैस फिर से पानी में. थोड़ी देर पहले मैं जिन तारावती ट्रस्ट वालों को मन ही मन धन्यवाद दे रहा था अब उनकी असलियत जान के दुखी हो रहा था.ये लोग गरीब आदमी की जेब में चोरी छुपे डाका डाल रहे हैं. एक धर्मार्थ संस्था लोगों को ठग रही है. चेरिटेबल ट्रस्ट के नाम पर तारावती संस्था वाले सरकर  से जाने क्या क्या छुट लेते होंगे पर असलियत में आम लोगों को दूसरों की तरह ही चोरी छिपे लुट रहे हैं. घर आकर सबसे पहले मैंने डाक्टर साहिबा के खिलाफ एक शिकायती पत्र दिल्ली  मेडिकल कौंसिल को भेजा. अब सोचता हूँ की कल एक पत्र तारावती चेरिटेबल ट्रस्ट वालों को भी लिख ही दूँ. हो सकता है की डाक्टर साहिबा अपने कर्म को आसानी से सही साबित कर दें पर अगर  मेरी इस लेटर बाज़ी से इन  बेईमान लुटेरों के दिल में खोफ का एक अंश भी पैदा हो पाया तो मैं समझूंगा मेरा प्रयास सफल रहा.

सोमवार, 23 मई 2011

ये स्त्रियों का कौन सा गुण है?

दो सच्ची घटनाएँ बयान कर रहा हूँ जिनके विषय में मेरे पास प्रथम पुरुष जानकारी (फर्स्ट हैण्ड इन्फोर्मशन)  उपलब्ध है. मेरी पूरी कोशिश है की कम से कम शब्दों में अपनी बात कही जाए  ताकि आपका कीमती वक्त बर्बाद न हो. कृपया ध्यान से पढ़ें और बताएं की ये स्त्रियों का कौन सा गुण है.

पहली घटना.

मेरी पहली पोस्टिंग के वक्त मेरी  जानपहचान  एक बहुत ही सुन्दर और सुशील  नर्स से हुई जो अपने कार्य  के प्रति पूरी तरह से समर्पित थीं(अपने कार्य  के प्रति समर्पण सरकारी कर्मचारियों का एक दुर्लभ गुण है)  .  इन्होने एक निखट्टू  से प्रेम विवाह किया था. पति निखट्टू होने के साथ साथ पियक्कड़ भी  था.  धीरे धीरे  उनके प्रेम और विवाह के सारे घटनाक्रम की जानकारी मुझे उन्हीं के मुख से प्राप्त हुई. उन्हें अपने इस प्रेमी से पहली नज़र में प्यार नहीं हुआ था बल्कि शुरू में तो वो आवारा लड़का उन्हें बिलकुल भी पसंद नहीं था और उन्होंने अपने भाइयों से उसकी एक दो बार जबर्दस्त पिटाई भी करवाई पर फिर आहिस्ता अहिस्ता  उस निखट्टू के प्रेम का रंग उन  पर चढ़ ही गया और अंततः इन नर्स महोदया ने अपने परिवार के जबरदस्त विरोध के बावजूद अपने इसी प्रेमी के साथ, जिसकी कभी शुरुवात में इन्होने पिटाई  करवाई थी, विवाह कर घर बसा लिया और अब दो बच्चों के साथ उसका लालन पालन कर रही थी .

दूसरी घटना.

मेरे बचपन के एक सखा हैं जो  अपने माता पिता की ग्यारह  जीवित संतानों  में से सबसे आखिरी पायदान पर हैं. इनके दसवें पायदान वाले भाई साहब ने अपनी मुफ्तखोरी की आदत  की वजह से अपनी माता के नाम का २२५ गज का प्लाट जिसका बाजार मूल्य उस वक्त करीब २५ लाख रुपये  था सिर्फ दस या पंद्रह हज़ार रुपयों में हमारी कालोनी के ही एक नामी  गिरामी गुंडे के पास, जिसका काम ही लोगों की प्रोपर्टी हड़पना था,  गिरवी रखवा दिया. कोई बात नहीं घर के सदस्यों  ने अपने भाई के इस अपराध को क्षमा कर दिया. बड़ी जद्दोजहद के बात मेरे मित्र ने अपने लिए एक ५० गज के प्लाट का जुगाड़  किया और उसमे मकान बनवाया. मित्र के वही बड़े भाई जिनकी कृपा से वो लोग सड़क पर ही आ गए थे उनके साथ बने रहे हालाँकि  उनके रवैये में जरा भी गंभीरता नहीं आई. मेरे मित्र की शादी कर दी गयी और उनके उस बड़े भाई का विवाह नहीं हो पाया क्योंकि वो  मुफ्तखोरी और मटरगस्ती  अपनी आदत को छोड़ नहीं पाए  थे. खैर मेरे मित्र ने विवाह के बाद भी अपने बड़े भाई को अपने घर अपने साथ ही रखा और अपनी पत्नी से बड़े भाई को वही सम्मान दिलवाया जो एक जेठ को मिलना चाहिए . माता जी भी अपने सभी ज्यादा संपन्न और स्थापित पुत्रों को छोड़ अपने सबसे छोटे बेटे के पास ही रही. कहते हैं की माता को अपना सबसे छोटा पुत्र सबसे ज्यादा  प्यारा होता है. एक दिन मुफ्तखोर जेठ ने अपनी बहु यानि मेरे मित्र की पत्नी के साथ कोई शारीरिक छेड़खानी कर दी जो मेरे मित्र को  सहन नहीं हुआ और उन्होंने  अपने बड़े भाई को घर से निकल दिया. इस घटना को लेकर मेरे मित्र की माताजी सारी बातें अच्छी तरह से जानते हुए भी अपने अंतिम वक्त तक मेरे मित्र यानि अपने सबसे छोटे पुत्र और उनकी पत्नी  से नाराज ही रहीं.  


मुझे तो लगता है की ये स्त्रियों का भावुकता  वाला गुण है.(पता नहीं गुण है या कुछ और)

आप  बताएं ये दोनों उपरोक्त घटनाएँ स्त्रियों के किस गुण की और इशारा करती दिखाई पड़ती हैं.

रविवार, 22 मई 2011

प्रेम विवाह - मेरा नजरिया.


मैं प्रेम विवाहों का घोषित  विरोधी हूँ. अपने आस पास जब भी कहीं कोई प्रेम विवाह होता है जिसमे कोई अड़चन  आ रही हो तो ऐसी जगह पर एक पत्थर मैं भी अपनी और से अड़ा  आता हूँ.

अपने  ३८ वर्षीय जीवन काल में मैंने सिर्फ एक बार प्रेम विवाह की चाह रखने वाले जोड़े का समर्थन किया है. सिख धर्म को मानाने वाले मेरे दो सहकर्मी विवाह करना  चाहते थे. . दोनों बच्चे २५ वर्ष की आयु पार कर चुके थे. सिख लड़का लड़की से ज्यादा संपन्न था. लड़की रूप सौंदर्य में लडके के सामने बिलकुल भी नहीं ठहरती थी. दोनों एक ही धर्म के अनुयायी थे. इस तरह मेरी नज़र में ये प्रेम विवाह के लिए एक आदर्श केस था.  इसके अलावा   मुझे कभी भी किसी प्रेम विवाह का समर्थन करने का मौका नहीं मिला. जितने भी मामले  मेरी नज़र में आए उन सभी में, मैं  अपनी तरफ  से एक रोड़ा अटका के ही आया.

मैं प्रेम विवाहों का उन मामलों में सख्त विरोध करता रहा हूँ जहाँ लड़की की उम्र १७-२० के आस पास की रही हो और  वो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हो. अधिकतर प्रेम विवाहों में अड़चन प्रेमियों के अलग अलग समाजों और धर्मों से जुड़े होने के कारण होती है.  एक अलग जातीय और सामाजिक  पृष्ठभूमि में पली बढ़ी युवती अपने ससुराल वालों के रीती रिवाजों और परम्पराओं से जुड़ नहीं पाती और इस वजह से उसे अपने वैवाहिक जीवन में ज्यादा संघर्षों का सामना करना पड़ता है. मेरे परिवार की एक लड़की ने यु पी के स्थानीय ब्राह्मण  परिवार के लडके से प्रेम विवाह किया. शुरू के जाने पहचाने विरोध के बाद लडके और लड़की के माता पिता विवाह के लिए मज़बूरी में रजामंद हो गए. अब लड़की  अपने ससुराल पक्ष में प्रचलित बहु के कठिन "बहु- धर्म" निबाहते निबाहते तरह तरह के मानसिक और शारीरिक विकारों की शिकार हो चुकी है. सपष्ट है लड़की ने आवेश में आकार प्रेम विवाह तो कर लिया पर विवाह के उपरांत अपने ससुराल पक्ष की अपेक्षाकृत बड़ी हुई उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई और विवाह के १२ वर्षों के उपरांत भी अपनी ससुराल में एक अवांछनीय बाहरी सदस्य बनकर बेकार की मुसीबतों  को झेल रही है. तो वो प्रेम जिसके लिए उसने अपने माता पिता और सास ससुर  की इच्छाओं के विरुद्ध जाकर विवाह किया आज उसके जीवन में सुख नहीं बल्कि दुःख का घोल रहा  है.   

कुछ लोग ऑंखें  बंद करके प्रेमी जोड़ों को विवाह करने की आजादी देने की वकालत करते  हैं. मैं सोचता हूँ की प्रेम का क्या है प्रेम तो एक शाश्वत भावना है जो हर इन्सान के अन्दर पैदायशी होती है. हम हर उस चीज से प्रेम कर बैठते हैं जिसे अपने जीवन में एक दो बार देख लेते हैं. इन्सान का जन्म ही प्रेम करने के लिए हुआ है इसलिए  प्रेम करने की गलती को तो माफ़ किया जा सकता है  पर विवाह उन्ही जोड़ों का होना चाहिए जो इसे सही ढंग से निबाहने की काबिलियत रखते हों.

विवाह बंधन में बंधना उन प्रेमी जोड़ों के लिए ठीक है जो अपने घर परिवार और समाज से दूर रहते हैं या जिनका अपने परिवार से संपर्क थोडा बहुत ही रहता है. यहाँ पर भी लड़की का  आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होना बहुत जरुरी  है ताकि  किन्ही परिस्थियों में यदि उनके बीच कोई दरार आती है तो कम से कम लड़की का भविष्य तो सुरक्षित रहे. शायद इसी वजह से उन प्रेम जोड़ों के मध्य का विवाह बंधन जो अपने परिवारों से दूर किसी महानगर में जीवन यापन कर रहे हैं,धीरे धीरे   समाज में मान्यता प्राप्त करता जा रहा है और मेरे जैसे प्रेम विवाह के घोर विरोधियों को भी अपनी जबान पर ताला लगाने  को मजबूर करता  है.

सामान्य परिस्थितियों में , मैं  अरेंज्ड मेरिज का समर्थक हूँ क्योंकि विवाह उपरांत जब प्रेम का भूत उतर जाता है और जमीनी सच्चाई सामने आती है तो सभी को अपने घर परिवार के लोग याद आते हैं. परम्परागत रूप से होने वाली  अरेंज्ड मेरिज में भी पति पत्नी को एक दुसरे से सामंजस्य बैठने में दिक्कते आती है पर वो परिवार और समाज के सहयोग से सुलझ जाती है परन्तु जिस सम्बन्ध के लिए परिवार और समाज ही तैयार न रहा हो उसमे आई  किसी दिक्कत को दूर करने के लिए प्रेमी जोड़े के पास कोई सहायता नहीं होती और इसलिए प्रेम विवाह आसानी से टूट जाते हैं.

विवाह तो अपने आप में ही एक सामाजिक समझोता है जिसे समाज और परिवार के सहयोग से कायम रखा जाता रहा है इसलिए अपने  प्रेम विवाह पर   परिवार और समाज की अनुमति और सहमती की मुहर जरुर लगवाएं और अपने सुखी विवाहित जीवन की संभावनाओं में बढोतरी करें .  


मंगलवार, 17 मई 2011

खुद को पहचानो.

Gabriella Pasqualotto
इन्डियन प्रीमियर लीग की प्रोत्साहन बाला बहन कुमारी गेब्रिएला को भारतीय आकाओं ने आइ पी एल के कुछ सत्यों को समाज के सामने लाने की वजह  से निष्कासित कर दिया है. जब उनके ब्लॉग में लिखी बातों का मुझे पहली बार पता चला मैंने तभी ये अनुमान लगा लिया था की इसकी भैस तो गयी पानी में. 

सत्यवादी हरीशचन्द्र  की इस धरा में सत्य उद्घाटित करने वालों के साथ क्या होता है ये किसी से छिपा नहीं हैं.उस बेचारी ने जो कुछ कहा उसमे कितना सत्य था और कितना झूट इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. लोगों को चिंता थी तो बस उन स्थापित लोगों के कुकर्मों पर किसी तरह से पर्दा डालने की और ये तभी हो सकता था जब की उसकी आवाज को दबा दिया जाय जो उन्होंने बखूबी कर ही दिया. इस घटना के प्रकाश में आने के तीन दिन के भीतर बहन कुमारी गेब्रिएला का  कोई नाम लेवा नहीं है. हमारे संवेदनशील, भावुक मीडिया जन आइ पी एल में मगन हैं.

मेरे लिए तो इस घटना के बहुत मायने हैं. इस घटना ने मेरे सामने एक बार फिर से ये बात साफ़ कर दी की हम  लोग इस दुनिया के सबसे सच्चे  snobs हैं. हम लोगों के लिए ईमानदारी, सत्चरित्र, सच्चाई  सब आदर्शवादी बातें हैं जो हम बस किताबों में लिखे जाने  के लिए ही करते हैं वास्तविक जीवन में अपनाने के लिए कभी नहीं. भीतर से हम लोग वही हैं जो हम हैं.

हम लोग कहते हैं की देश में भ्रष्टाचार की जड़ ये राजनेता और बड़े नौकर शाह या व्यापारी लोग है. जी नहीं .. मेरी नज़र में तो हमारे देश की सभी समस्याओं का मूल कारण हमारा यही sweep everything under the carpet वाला नजरिया है जिसमे  हम समर्थ की हर  गलत बात को सीधे सीधे नज़र अंदाज कर देते हैं और अगर कोई गेब्रिएला की तरह से कभी कहीं एक छोटा सा प्रयास करता भी है तो उसका समर्थन करते हुए कहीं न शर्मा जाते हैं, हिचक जाते हैं.

आप डुगडुगी बजाकर तमाशा करें, मसखरी करें  बहुत से लोग इक्कट्ठे हो जायेंगे पर कहीं कोई छोटी सी गंभीर बात करें जहाँ पर सत्य को स्वीकारना जरा भी मुश्किल हो तो जनाब आपको आपके साथ हमेशा खड़े रहने वाले लोग भी दूर दूर तक दिखाई नहीं देंगे.

मैं तो इस विषय पर यही विचार रखता हूँ और दूसरों के क्या है जानना चाहता हूँ. वैसे कुछ लोग इस बार भी कुछ कहते हुए हिचक या शर्मा  ही जायेंगे और सिर्फ शुभकामनायें देते हुए ही निकल लेंगे. ... क्यों जी मैं की झुट बोलियाँ ...  
.  

ये भद्र महिला हम लोगों की ही तरह एक ब्लॉगर हैं .वैसे शायद इनका ब्लॉग हटा दिया गया है पर इनके विषय में थोडा बहुत ज्ञान आप निम्न लिंक पर प्राप्त कर सकते हैं.



यहाँ पर मैं डाक्टर साहब को भी धन्यवाद दूंगा की उन्होंने इस बार फिर से मेरी इज्ज़त बचाई. अब आप मेरे लिए डाक्टर कृष्ण कुमार हैं :-))   





रविवार, 15 मई 2011

Toilet musings.

मेरे एक अफसर हैं जिनकी जैविक घडी शायद सामान्य समय से लगभग ४-५ घंटे देरी से चलती है अतः जो कार्य उन्हें सुबह ६-७ बजे घर पर ही निबटा देना चाहिए उसे वो अक्सर ११-१२ बजे ऑफिस में निबटा रहे होते हैं. सुबह ऑफिस पहुचने के उपरांत मैं जब पहली बार मूत्र विसर्जन हेतु जाता हूँ जो उनके मलालय ( नहीं समझे ... अरे यार मूत्रालय का बड़ा भाई) में मिलने  की संभावना का प्रतिशत बहुत उच्च कोटि का  होता है (मुझे कहीं से आवाज आ रही है ..... बेटा माँतृ भाषा को तो बक्श दे.. पर ये आवाज कुछ साफ़ नहीं है इसलिए जारी रहता हूँ...)

अपने अफसर को मैं मौखिक हजारी यहीं दे देता हूँ जिसे वो बेहिचक स्वीकार भी कर लेते हैं..लेकिन सिर्फ अंग्रेजी में.  शुरू में मैं उन्हें राम राम जी कहता था तो वो नाराज हो जाते थे इस लिए अब गुड मोर्निंग सर से ही काम चलाता हूँ.


मेरे ऑफिस में भारतीय तरीके की लेट्रिन नहीं बल्कि विशुद्ध अग्रेजी तरीके की लेट्रिन बनी हुई हैं जिनमे कुर्सी की तरह बैठा जाता है.  मुझे लगता है की मेरे ऑफिस की वो लेट्रिन सीट जहा मेरे भरी भरकम अफसर विराजते हैं अब तक तो उनकी तशरीफ़  के आकार को प्राप्त हो चुकी होगी. भगवान न करे अगर उस टोइलेट में कोई अपराध हो गया तो पुलिस वाले मेरे ऑफिसर को पकड़ लेंगे क्योंकि उनके  पिछवाड़े  के निशान वहां आसानी से मिल जायेंगे.

वैसे क्या आपने  कभी विचार किया है की जैसे बड़े बड़े महापुरुष  अपने कदमों के निशान छोड़ जाते हैं वैसे ही वो अपने  पिछवाड़े के निशान क्यों नहीं छोड़ जाते. मैंने बहुत से तीर्थों में महापुरुषों के चरण चिन्ह देखे हैं. जब चरणों के निशान इतनी आसानी से मिल जाते हैं तो उनके पिछवाड़े के निशान तो और भी आसानी से मिल जाने चाहिए. वो क्यों नहीं मिलते ? जरा सोचो अगर मिलते तो गाइड हमें बताता "फलां महापुरुष ने इस जगह पर बैठ कर वर्षों कठोर तपस्या की थी और इस वजह से यहाँ पर उनके नितम्ब चिन्ह बन गए. इन्हें शीश नवाइए" और लोग बाग़ श्रद्धावश  उन चिन्हों पर अक्षत रोली चढ़ा रहे होते और धुप बत्ती की जा रही होती. 

ओहो मैं थोडा भटक गया..  ऑफिस के अंग्रेजी टोइलेट पर वापस आता हूँ.... हाँ तो मैं कह रहा था की मेरे ऑफिस में यूरोपियन मूल  के मल-पात्र लगे हुए हैं. इन्हें देख कर मुझे बड़ा अजीब सा महसूस होता है. जब हम लोग एक दुसरे का तौलिया तक इस्तेमाल नहीं करते तो उस मल पात्र को सार्वजनिक रूप से कैसे बाट लेते हैं जो हमारे सबसे गुप्त अंग को अंग लगता है. कई बार लोग  इन पात्रों का इस्तेमाल मूत्र त्याग के लिए भी कर लेते  है. अगर कोई कोई मल या मुत्रत्यागी अच्छा निशानेबाज  न हुआ और अपना सर्वस्व वहां पर  बिखेर जाय जहाँ पर व्यक्ति बैठता है तो सोचिये बाद में बैठने वाले की तो हो गयी  न ऐसी की तैसी.  इसलिए साहब  मुझे तो जब भी इन अंग्रेजी मल पत्रों का इस्तेमाल करने की मज़बूरी होती है तो मैं अपना देशी तरीका ही अपनाता हूँ.

मल त्याग का सर्वाधिक सुरक्षित तरीका.



वैसे सुबह के  वक्त मूत्रालय में भी शो हाउस फुल चल रहा होता है क्योंकि सुबह की घर की चाय अब तक त्याग दिए जाने की अवस्था को प्राप्त हो चुकी होती है इसलिए मेरे बहुत से सहकर्मी टोइलेट में नेफ्थालिन की बाल्स के साथ मूत्र पोलो खेलते हुए मिल जाते हैं.बचपन में भी हम लोग खुले में पेशाब करते हुए एक जगह पर खड़े होकर गोल गोल घुमने लगते थे. इससे हमारे चारों तरफ  एक घेरा बन जाता था. हम बच्चे लोग अक्सर ये शर्त लगते थे की किसका घेरा पूरा गोल और सबसे बड़ा बनेगा. ... उफ़ वो भी क्या दिन थे. ये ऐसे खेल हैं जो सिर्फ पुरुष ही खेल सकते हैं.(....अफ़सोस.... यहाँ पर कट्टर नारीवादी समानता के अधिकार की मांग नहीं कर पाएंगे ). हम भारतीय लोग तो यहाँ भी पिछड़े हुए जीव हैं . देखिये अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में कितनी प्रगति कर ली है की मूत्र- पात्र में स्कोर बोर्ड भी लगा दिया हैं.





गूगल पर इन तस्वीरों को खोजते वक्त मुझे अजब गजब तरीकों के मूत्रालय डिजाइनों के दर्शन हुए. इन अंग्रेजों की रचनात्मकता का भी कोई जवाब नहीं. ये लोग जीवन के हर पक्ष को रंगीन बना देते हैं. जरा मुलाहिजा फरमाएं .


एकांत से भयभीत रहने वालों के लिए.

कलात्मक अभिरुचि रखने वालों  के लिए 1

कलात्मक अभिरुचि रखने वालों  के लिए 2

for the mama's boys

जगह की बचत

सब कुछ नाप तोल कर करने वालों के लिए

उत्तर या उत्तर पूर्व  दिशा के लिए वास्तु अनुकूलित  मूत्र पात्र  

शोले के बिना हाथ वाले ठाकुर के लिए रामू काका द्वारा  विशेष रूप से निर्मित मूत्रालय.

एक अनबुझी प्यास


पोस्ट कुछ ज्यादा लम्बी हो गयी. सब कुछ सहेजते सहेजते बहुत वक्त लग गया है इसलिए मैं तो चला... वहीँ जहाँ मेरे जैसे त्यागी महापुरुष सुबह श्याम नियमित रूप से जाते हैं. 


शनिवार, 14 मई 2011

why should boys have all the fun ?


मेरी बिटिया तीन वर्ष की है और पुत्र उससे लगभग छह वर्ष बड़ा. जब भी बेटा अपने मित्रों के साथ खेलने जाता है तो बेटी अपने खेल खिलोने और सहेलियों को छोड़ उसके साथ हो लेती है. बड़ा भाई अपने दोस्तों के साथ कोई भी खेल खेले छोटी बहिन उसमे भागीदारी करना चाहती है जिससे बड़े भाई को बहुत खीज होती है.

जितना सहज छोटी बहना का अपने बड़े भाई के साथ खेलने की जिद करना है उतना ही सहज बड़े भाई का छोटी बहना की उपस्थिति से खेल में पड़ने वाले व्यवधान पर खीजना भी है अतः मुझे दोनों के बीच में आना पड़ता है. बड़े बच्चों के भागा-दौड़ी वाले खेलों के बीच पुत्री की सुरक्षा की चिंता रहती है इसलिए मैं अक्सर उसे वापस घर ले अत हूँ जिसका मेरी नन्ही बिटिया प्रचंड विरोध करती है.

मुझे लगता है की अगर मेरी बिटिया में जरा भी समझ विकसित हुई होती और उसे पता होता की वो एक लड़की है और उसका भाई एक लड़का तो निश्चय ही उसने मेरे ऊपर नारी विरोधी होने का आरोप जड़ देना था और मुझ से पूछना था की पापा why should boys have all the fun.......

जरा याद करें प्रियंका चोपड़ा का वो विज्ञापन जिसमें वो स्कूटी चलती मासूम शरारतें करते हुए सभी युवा लड़कियों को ये मंत्र दे जाती हैं की केवल लड़के ही मजे क्यों करें......

मैंने महसूस किया है की आज की युवा लड़कियों ने प्रियंका चोपड़ा के इस मंत्र को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ग्रहण किया है. बहुत बार मैंने युवतियों को ये कहते हुए सुना है की अगर लडके ये काम कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं. हमें भी आजादी चाहिए, बराबरी चाहिए या लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं हैं . इस तरह के तर्क मुझे कभी भी हज़म नहीं होते.

समाज के पढ़े लिखे वर्ग में बहुतायत से मिलाने वाले नारीवादियों के विचारों को पढ़ने और सुनाने के बाद मुझे लगता है की स्त्री के सम्बन्ध में आजादी,मुक्ति, समानता, बराबरी जैसे शब्दों को गलत अर्थों में समझा जा रहा है.

शौचालय का प्रयोग न करके सड़क के किनारे मूत्र विसर्जन कर रहे एक आदमी से जब पूछा गया की वो ऐसा क्यों कर रहा है तो उसका जवाब था की देश आजाद है अब हम जो चाहे, जहाँ चाहे कर सकते हैं. आजादी का कुछ ऐसा ही अर्थ ये नारीवादी लगते दीखते हैं. हमें विवाह के बंधन से मुक्त कर लिव इन रिलेशन की आजादी दो. शरीर पर कम से कम वस्त्र धारण करने की आजादी दो. पार्कों में खुल कर प्रेम करने की आजादी दो. बहुत से परुष मित्र बनाने की आजादी दो. एक बार एक महिला को आपत्ति थी की लोगों ने उनके द्वारा किसी उम्रदार पुरुष को गले लगाने की बात को याद रखा. तब मुझे लगा था की उन्हें भी इस बात की आजादी चाहिए थी की वो जब चाहें किसी को भी गले लगा लें.

स्त्री पुरुष के बीच जब भी समानता की बात होती है तो कहा जाता है की आज की आधुनिक नारी पुरुषों का हर क्षेत्र में मुकाबला कर रही है. वो पुरुषों की तरह छोटे बाल कटा पेंट शर्ट पहन रही है. वो बच्चे घर में छोड़ काम पर जा रही है. वो रेल चला रही है, वो हवाई जहाज उड़ा रही है, वो ट्रक चला रही है इत्यादि इत्यादि. मुझे समझ नहीं आता ये कैसी बराबरी है. कभी ऐसा न हो की बराबरी की इस होड़ में कोई दिन ऐसा भी आए जब कोई महिला सार्वजनिक रूप से ये कहे की आज से उसने दाढ़ी बनाना शुरू कर इस क्षेत्र में भी पुरुषों का एकाधिकार ख़त्म कर दिया है.


जाने क्यों मुझे नारी स्वतंत्रता और समानता की हर बात में नारीवादियों की सोच micro से हटकर macro की तरफ झुकती नज़र आती है.


जब से मैं एक बिटिया का पिता बना हूँ तो मैं बहुत गहराई से इस विषय में विचार करता रहता हूँ की एक एक लडके और लड़की में किन किन बातों की समानता होनी चाहिए और दोनों को कितनी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए. मेरा ये मानना है की जो स्वतंत्रता एक लडके को दी जा सकती है ठीक उसी स्तर की स्वतंत्रता और समानता एक बेटी को नहीं दी जा सकती. उदहारण के लिए मैं दिल्ली की सडकों पर रात में अपने बेटे को तो अकेले भेजने की इजाजत दे सकता हूँ पर अपनी बेटी को कभी भी अकेले नहीं जाने देना चाहूँगा. मैं सेना की लड़ाकू टुकड़ी में तैनाती के लिए अपने बेटे को तो भेज सकता हूँ पर अपनी बेटी या देश की किसी भी बेटी को नहीं भेजना चाहूँगा.

इस विषय पर कितना विचार करू और कहाँ तक करूँ समझ ही नहीं आता अतः लगता है की यहाँ मुझे भी दीपक चोपड़ा के सात अध्यात्मिक नियमों में से एक अनिर्णय की स्थिति में रहने के नियम का पालन करना पड़ेगा. चलो इस विषय को यूँ ही छोड़ देते हैं. जो होगा जब होगा देखा जायेगा

शुक्रवार, 13 मई 2011

मुझे माफ़ करें मैंने कोशिश तो बहुत की पर चुप रह न पाया.

जब से खुशदीप सहगल जी कि देश कि बेटियों को सेल्यूट करती पोस्ट और उसमे दिए लिंक के जरिये असीमा भट्ट जी के पिता कि स्थिति जानी हैं तब से मेरा अव्यवहारिक मन अभी तक शांत नहीं हुआ है. इस पोस्ट में मुझे जो बात सबसे ज्यादा अखरी है वो है सुरेश भट्ट साहब का अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वृद्ध अनाथालय में गुमनामी की  जिंदगी गुजारना. मन में बार बार ये ख्याल आता रहा कि इस दुनिया में ऐसे क्या  कारण हो सकते हैं   जिनके तहत एक व्यक्ति अपने जीवन के संध्याकाळ कि उस बेला में जब वो शारीरिक रूप से अक्षम हो चुका हो  और जिस वक्त उसे परिवार और संतान के सहारे कि सख्त जरुरत  हो , उनके प्यार, सेवा और  संरक्षण से वंचित हो  कहीं दूर अपनी जिंदगी गुजरता  है. माता पिता तो हमेशा ही विकट से विकट परिस्थिति में भी अपनी संतान को अपने साथ बनाये रखने का यत्न करते हैं पर ऐसी क्या परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं जिनमे वक्त आने पर वही संतान उसके साथ नहीं होती . इस प्रश्न का उत्तर जानने कि इच्छा ने मुझे परेशान कर रखा है.

मैं यहाँ के सभी सुसंस्कृत, संभ्रांत और उच्च शिक्षित लोगों कि मानसिकता को भी अभी तक समझ नहीं पाया हूँ. किसी सड़क पर कोई व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में घायल पड़ा है, व्यक्ति का साथी घायल करने वाले को कोस रहा है और आते जाते लोग या तो कोसने वाले कि भाषा कि मार्मिकता पर मुग्ध  हैं या फिर घायल व्यक्ति कि दुर्दशा पर ओह उफ्फ करते हुए जय हिंद बोल  जाते है. क्या हमारी सामाजिकता हमसे सिर्फ इतने कि ही चाह रखती है. अगर हम ज्यादा कुछ नहीं भी कर सकते तो इतना तो कर ही सकते है कि घायल के साथी से कहें कि बच्चे दुनिया को कोसना छोड़ और इस घायल व्यक्ति कि सुध ले, कुछ इसका भला होगा कुछ तेरा हो जायेगा. पर जाने क्यों हम लोग चुप रह जाते हैं. डाक्टर अमर कुमार जैसे स्पष्ट वक्ता भी ऐसी जगहों पर अपनी स्पष्टवादिता को भूल कर जबान से लड़खड़ाते  दिखाई पड़ते हैं. मैंने डाक्टर अमर कुमार जी का ही नाम लिया है क्योंकि जाने क्यों मुझे लगा की उन्होंने अपनी टिपण्णी के पर क़तर दिए, पर मुझे उन सभी लोगों से शिकायत है जिन्होंने इन पोस्टों पर अपने विचार रखे हैं पर सुरेश जी के वृद्ध आश्रम में रहने की वजहों को जानना जरुरी नहीं समझा. क्या हम लोग भी धीरे धीरे उन विकसित पश्चिमी देशों के समकक्ष होते जा रहे है जहाँ बूढ़े लोगों का अंतिम आश्रय परिवार से दूर वृद्ध अनाथालय ही होता है .
यद्यपि  मेरा ये मानना है कि हमें किसी की  निजी जिंदगी में नहीं झांकना  चाहिए पर जब कोई इन्सान खुद ही अपने दुःख और तकलीफों को किसी सार्वजनिक मंच से सबके सामने बयान करता है तो मैं समझता हूँ कि ये हम सभी लोगों का कर्तव्य है कि हम   उसे उसके दुःख और तकलीफ का मूल कारण क्या है ये समझाएं. ये हमारा सामाजिक कर्तव्य है.
अंत में मैं तो एक बार फिर यही कहूँगा कि जिस तरह माता पिता अपनी संतान के पालन पोषण के लिए बड़ी से बड़ी क़ुरबानी या दुनिया का बड़े से बड़ा खतरा उठाने से भी नहीं चूकते व हर हाल में ये कोशिश करते हैं कि उनकी संतान खुद उनके संरक्षण में पाले बढे ठीक उसी तरह संतान का भी ये कर्तव्य बनता है कि वो अंत समय में अपने माता पिता को, जब उन्हें अपने बच्चों के शारीरिक और मानसिक सहारे कि सबसे ज्यादा जरुरत होती है, दूसरों के सहारे ना छोड़ें और अगर छोड़ ही रहे हैं तो कम से कम सारी दुनिया को उसके कर्तव्यों कि याद ना दिलाएं.
मुझे माफ़ करें मैंने  कोशिश तो बहुत की पर अपनी बात कहे बिना रह ना  पाया. अब किसी को कहीं भी मेरी बात का बुरा लगे तो मुझे जरुर बताएं. मैं भविष्य में अपनी गंवई मानसिकता को भूल  खुद को सुधारने की भरपूर कोशिश करूँगा.

मंगलवार, 10 मई 2011

क्या साहित्यकार कागज पर अभिनय करते हैं.

एक अभिनेता विभिन्न लोगों की नक़ल उतरने में माहिर होता है. सबसे पहले वो लोगों के भावों को भली भातीं पढ़ता है  फिर  उनकी हु- बहु नक़ल उतर देता है. जिस चरित्र की वो नक़ल उतर रहा होता है जरुरी नहीं की वो चारित्रिक गुण अभिनेता के व्यक्तित्व में भी समाये हों. मानो की एक अभिनेता किसी साहसी व्यक्ति का अभिनय कर रहा है. अगर वो अच्छा अभिनेता है तो उसके प्रदर्शन को देख कर आपको लगेगा की वो एक साहसी व्यक्ति है चाहे अपने निजी जीवन में वो कितना ही डरपोक क्यों न हो. इसी तरह से यदि कोई माहिर अभिनेता एक ईमानदार व्यक्ति का किरदार निभा रहा है तो आम व्यक्ति को लगेगा की वो सच में एक ईमानदार व्यक्ति है जबकि हो सकता है की वास्तविक जीवन में इस अभिनेता का ईमानदारी से दूर दूर का वास्ता न हो.

मैं जब भी किसी साहित्यकार के लेख पढता हूँ तो यही सोचता हूँ की ये व्यक्ति भी कागज के मंच पर शब्दों के मुखोटे  की सहायता से किसी एक विशेष चरित्र को जी  रहा है. कभी किसी लेख में  साहित्यकार एक ईमानदार व्यक्ति होता है, कहीं माता का भक्त, कहीं मानवता का पुजारी, कहीं धर्मं का रक्षक और कहीं एक बहुत बड़ा देशभक्त. साहित्यकार के भी बहुत से रूप होते हैं. जो कागजी अभिनेता जितनी  बारीकी से अपने किरदार के गुण दोषों को कागज के मंच पर जीवित कर देता  है  वो उतना ही बड़ा साहित्यकार कहलाता है.

एक साहित्यकार कागज पर जो कुछ लिख रहा है जरुरी नहीं की वो अपने वास्तविक जीवन में भी उन गुणों को अपनाता है . वो अपने हर लेख, हर कविता और हर  कहानी  के साथ एक नया किरदार निभा रहा होता है.

इस ब्लॉग जगत में भी ढेरों साहित्यकार भरे पड़े हैं जो बड़ी सजगता से अपनी एक विशेष छवि रचते रहते हैं.

इन सभी साहित्यकारों को मेरा प्रणाम.


शुक्रवार, 6 मई 2011

स्त्री पुरुष मैत्री - वास्तविकता या छलावा.

मैंने बहुत बार लोगों को कहते सुना है " हम लोग तो सिर्फ सच्चे मित्र हैं और हमारे बीच में मित्रता के अलावा कोई दूसरा रिश्ता नहीं है."

मैंने इस तरह की बात लड़कियों  के मुख से भी सुनी  है और लड़कों के मुख से भी सुनी है और ऐसी   बातें सुनकर हमेशा मेरा विश्वास मजबूत हो जाता है की जरुर इन लोगों की काली  दाल हंडिया  पे चढ़ी हुई है.

जाने क्यों मुझे विश्वास नहीं होता की एक स्त्री और पुरुष के मध्य शुद्ध रूप से सिर्फ मित्रता का रिश्ता कायम रह सकता है. अगर एक स्त्री व पुरुष के मध्य मित्रता होती भी है तो वो स्वतंत्र मित्रता नहीं हो सकती. उसे तरह तरह के सामाजिक प्रतिबंधों को मानना ही होगा और अगर आप समलिंगी मित्रों के सामान ही विपरीत लिंग के मित्रों से स्वतंत्र मैत्रिक सम्बन्ध  रखते हैं तो मेरा मानना है की १०० में से ९८ मामलों में यह मित्रता निश्चय  ही शारीरिक संबंधों में परिवर्तित  हो जाएगी.   स्त्रियों के विषय में तो मैं कुछ नहीं कह सकता पर मैंने देखा है की स्त्रियों से मित्रता करते वक्त अधिकांश पुरुषों के मन में यही भाव होता है की कभी तो मौका मिलेगा.

मैं अपनी बात को थोडा विस्तर से समझाने के लिए आपको कल्पना लोक में लिए चलता हूँ.

कल्पना कीजिये की एक जॉन  अब्राहिम टाइप स्वस्थ पुरुष और प्रियंका चोपड़ा जैसी स्त्री के मध्य मित्रता वाला भाव है. एक गर्मियों की शाम  वे दोनों घूमने के लिए नेहरू पार्क जाते हैं. लड़का लो जींस और शोर्ट शर्ट में है और लड़की ने देसी गर्ल वाली साड़ी पहनी है. दोनों विशुद्ध मित्र भाव से पार्क में विचरण करते हैं. दोनों में बहुत सी बातें होती हैं फिर अचानक कहीं से काले काले मेघा उमड़ आते हैं. लोगों को गरमी से राहत मिलती हैं. शाम खुशनुमा हो जाती है. दोनों मित्र उस बारिश में भीगते हैं की अचानक लड़की का पांव फिसलता है और उसके पैर में चोट आ जाती है. भइय्या ऐसी मुसीबत  में तो मित्र ही काम आते हैं अतः पुरुष मित्र अपनी महिला मित्र को सहारा देकर उठता है. पुरुष अपनी मित्र का एक हाथ अपने कंधे पर रखता है और दुसरे हाथ से उसकी कमर को सहारा देता है. दिल्ली के तिपहिया चालक इस बार भी धोखा देते हैं तो बड़ी मुश्किलात का सामना कर पुरुष स्त्री को अपने घर ले आता है जो की महिला के घर से ज्यादा नजदीक है .  घर पर आकार दोनों कपडे बदलते हैं. बारिश से पुरुष को थोडा सर्दी जुखाम हो गया है तो वो दो पैग ब्रांडी के लगा लेता है. पुरुष के घर में एक ही पलंग है अतः दोनों मित्र साथ साथ सो जाते हैं. 

अब कल्पना लोग से बाहर आकर जरा  विचार कीजिये की ऐसी स्थिति में क्या एक पुरुष व स्त्री की मित्रता कायम रह पायेगी परन्तु यदि दोनों मित्र सामान लिंग के होते तो इनकी मित्रता इन सभी परिस्थितियों से गुजर कर भी कायम रहती.
 ये तो एक उदहारण मात्र है. ऐसी अनेक स्थितिया गिनवाई जा सकती हैं जो यह दर्शाती हैं की एक स्त्री व पुरुष अपनी मित्रता को निर्बाध रूप से लम्बे समय तक कायम नहीं रख सकते और अगर कहीं किसी ने रखी भी है तो उन्होंने अपनी मित्रता  पर ऐसे अनेकानेक प्रतिबन्ध  लगाये होंगे जो उस सम्बन्ध को सच्ची दोस्ती के रूप से बहुत दूर कर एक समान्य सामाजिक सम्बन्ध में तब्दील कर देते होंगे.    


मेरी समझ तो यही कहती है  की स्त्री पुरुष नैसर्गिक मित्र नहीं होते. ये मित्र भाव रख सकते हैं परन्तु इसके लिए इन्हें  किसी न किसी रिश्ते का सहारा जरुर ढूँढना  पड़ता है.


इस पोस्ट पर मिली प्रतिक्रियाओं के बाद मुझे लगा की पहले कही अपनी बात को और ज्यादा स्पष्ट करने की आवश्यकता है. इस विषय पर कुछ कहने से पहले  मुझे मित्रता क्या है इस पर  भी कुछ  न कुछ  अवश्य  कहना चाहिए था  अतः अब कुछ पंक्तियाँ और जोड़ रहा हूँ और आशा करता हूँ की इनसे मेरे विचार और स्पष्ट होंगे .


मेरा मूल विचार यही था की विपरीत लिंगी लोग अपने सेम सेक्स के मित्रों सी निर्बाध मित्रता नहीं कर सकते और इसे सामान लिंगी मित्रता के समकक्ष नहीं रखा जा सकता. इस विचार को स्पष्ट करने के लिए बहुत कुछ तैय्यारी के साथ अपनी बात कही जानी चाहिए थी ताकि लोग इसे स्त्री पुरुष के बीच के सामान्य सामाजिक संबंधों से जोड़ कर ना देखें परन्तु मैं ऐसा कर न पाया .


ऑफिस में या समाज के अन्य क्षेत्रों में हम बहुत से स्त्री पुरुषों से मिलते हैं और व्यावसायिक या सामाजिक सम्बन्ध रखते हैं परन्तु मित्र का दर्जा हर किसी को नहीं देते. मित्रता का सम्बन्ध सामान्य संबंधों से हटकर होता है. अपने मित्र के साथ हम अपनी जिंदगी का हर अनुभव बाटते हैं.दो मित्रों के बीच एक विशवास का संबध होता है, एक निर्बाध सहजता और स्वतंत्रता होती है जो दैहिक प्रतिबंधों की मोहताज नहीं होती. दो दोस्तों के बीच मानसिक निकटता ही नहीं बल्कि शारीरिक निकटता भी होती है. शारीरिक निकटता से मेरा मतलब शारीरिक सम्बन्ध नहीं बल्कि मैं कहूँगा की सेक्स लेस शारीरिक निकटता जो की स्त्री पुरुष की दोस्ती में कभी भी नहीं हो सकती. बस इसी वजह से मैंने कहा था की स्त्री पुरुष नैसर्गिक मित्र नहीं होते. अब कहीं कोई स्त्री पुरुष अपने शरीरों को भूल कर अपनी मित्रता को कायम रख पाते हैं तो उनको मेरा दंडवत प्रणाम.











रविवार, 1 मई 2011

सीधी बात नो बकवास.


कल से मैंने अपने ब्लॉग पर लोगों की आवाजाही जानने के लिए feed jit की मुफ्त  सेवा ली है. जब से इस सुविधा को  अपने ब्लॉग पर लगाया है तब से मैं लगातार देख रहा हूँ की आने वाले अधिकांश लोगों का ध्यान मेरी दो पुरानी पोस्टों पर ही है. एक है " साईं बाबा के चमत्कार " और दूसरी है " कुछ अश्लील (नॉन वेज  ) चुटकले".  

अपने ब्लॉग पर आने वाले लोगों की रूचि को देख कर मुझे लग रहा है की यहाँ की दुनिया मोटे तौर पर दो समूहों में विभाजित है. एक समूह अध्यात्म में रूचि रखने वाले लोगों का है और दूसरा  अश्लीलता या सेक्स में रूचि रखता है.  (इन समूहों से छिटके हुए लोग या तो ब्लोग्गेर्स हैं या फिर शायद खुद को ठीक से पहचान नहीं पाए हैं) .


मोटे तौर पर देखा जाय तो अध्यात्मिक व्यक्ति  इस दुनिया की उत्पत्ति कहाँ से हुई या कैसे हुई इस बात में रूचि रखता है और सेक्स पर ध्यान केन्द्रित करने वाला उसकी खुद की उत्पत्ति कहाँ से हुई या कैसे  हुई इस बात में रूचि रखता हैं. कहीं न कहीं दोनों का ध्यान  उस  पैदा  करने वाले  पर ही है.


मुझे बेहद दुख है की मैं दोनों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता हूँ. जो लोग साई के चमत्कारों की तलाश में हैं उन्हें मेरी सोच  पर  हँसी   आती होगी और ऐसा ही हाल मेरे ब्लॉग पर अश्लीलता तलाशने   वालों   का भी होता होगा.


मैं तहे दिल से इन लोगों से क्षमा प्रार्थना करता  हूँ और प्रण लेता हूँ की अपनी आने वाली किसी भी पोस्ट का शीर्षक कभी भी बरगलाने  वाला  नहीं रखूँगा. अब से हमेशा "सीधी बात नो बकवास".

वो पगली नहीं है !


वैसे तो मैं आस पास के लोगों की घरेलु बातों पर ज्यादा मगज़मारी  नहीं करता  पर इस खबर पर से मेरा ध्यान हट न सका. मेरी पत्नी को पड़ोस के बब्बल  की  मम्मी जी ने बताया  की हमारे  दुसरे पडोसी चेला राम की बीबी पगली होने का सिर्फ  ढोंग करती है पर  असल में वो पागल नहीं है

"अच्छा !  उन्हें कैसे पता चला की वो पागल नहीं है."


"अरे वो बब्बल की मम्मी से कह रही थी की अगर उसकी एक बिटिया और हो जाये तो उसका परिवार भी पूरा हो जायेगा. एक बेटा और एक बेटी.  देखो उसको इतनी अक्ल  है. पागल होने का तो वो सिर्फ ढोंग ही करती है."


मेरी नज़रों के सामने चेला राम की इस दूसरी पत्नी का पूरा इतिहास घूम गया.
पहले पति द्वारा त्याग दी गयी क्योंकि वो पगली थी.
विधवा माँ और भाइयों ने ६२ वर्ष के नाती पोतों वाले बूढ़े से ब्याह दिया क्यूंकि वो पगली थी.
सौतेली बेटे बेटियों ने हमेशा नौकरानी समझ कर व्यवहार किया क्योंकि वो  पगली थी
सौतेली पुत्रवधू ने इसकी नसबंदी करवाने की  पूरी कोशिश की के कहीं इसके कोई बच्चा न हो जाये और ये चुपचाप सहती रही क्योंकि ये पगली थी.


अब आज अचानक बब्बल की मम्मी कहती हैं की वो पगली नहीं बहुत सायानी है.


मुझे लोगों का ऐसा व्यवहार कतई  समझ नहीं आता. किसी भी आदमी के वर्तमान के एक छोटे से कार्य से उसके पुरे व्यक्तित्व का निर्धारण कर देते हैं. उसका पूरा इतिहास जानते बुझाते  हुए भी नकार देते हैं.  कोई साला सारी जिंदगी अपनी मुर्खता और पागलपन को व्यक्त करता रहा और अचानक गलती से ही एक सही काम क्या कर दिया पिछला सब ख़त्म.

क्या है यार ये सब........

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

बच्चों का यौन शोषण - मेरा नजरिया.

अभी कुछ दिनों पहले  रचना जी के नारी ब्लॉग पर उनका लेख " एक कहानी ख़त्म हो जाती है" पढ़ा जिसमे उन्होंने लड़कियों के यौन शोषण पर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी और फिर रविवार के टाइम्स  ऑफ़  इंडिया में इस विषय पर " No Kidding"  शीर्षक से एक  लेख  भी  आ गया  जिसमे इस विषय पर हुए एक सर्वेक्षण के हवाले से  बताया  गया  की भारत में ५३  प्रतिशत  से  ज्यादा  बच्चों  का  किसी  न  किसी  रूप में यौन शोषण होता है  जिसमे ५०  प्रतिशत  मामलों में यौन  अपराधी  पीड़ित  के  करीबी जान पहचान वाले या परिवार के निकट  सम्बन्धी ही होते हैं. इस सर्वेक्षण के अनुसार  लड़कों को भी लड़कियों के ही सामान ही यौन शोषण का  खतरा होता है यानि की यौन शोषण  सिर्फ  लड़कियों का ही होता है  ऐसी  भ्रान्ति कोई भी अपने मन में ना पाले.  एक और महत्वपूर्ण बात जो इस लेख से मुझे पता चली वो ये हैं की इस विषय में हमारी सरकार शीघ्र ही कोई सख्त कानून बनाने जा रही है जो "बाल यौन शोषण" को परिभाषित करेगा और साथ ही साथ penetrative suxual assault, sexual harassment, pornography जैसे अपराधों  से  बच्चों के बचाव और संरक्षण पर ध्यान देगा. ये खबर मुझे बहुत अच्छी लगी और मैं सोचता हूँ की इस विषय में वास्तव में कुछ ठोस और प्रभावी कानून बनेगा.

कुछ व्यक्तिगत कारण रहे हैं जिनकी वजह से बाल यौन शोषण के विषय पर बचपन  से ही   मेरी  सभी  इंद्रियां जागरूक रही और मैंने इस विषय में अच्छा खासा सामाजिक अध्ययन किया. मेरा  इस सर्वेक्षण के आकड़ों पर पूरा विश्वास है बल्कि मैं तो इन सभी आकड़ों को करीब दस पंद्रह प्रतिशत तक और बढ़ाना  चाहूँगा.  

बाल यौन शोषण को रोकने में सरकार का बनाया कानून कितना प्रभावी होगा इस बारे में मुझे थोडा संशय  है क्योंकि ज्यादातर मामलों में अपराधी कोई निकटवर्ती ही होता है. जब अपराधी आस पड़ोस का या फिर कोई अपने ही घर का व्यक्ति हो तो अक्सर लोग  मामला यूँ ही रफा दफा कर चुप्पी साध लेते है और अपराधी को सजा नहीं मिल पाती.

 वैसे भी अगर अपराधी को सजा मिल भी जाय तो क्या होगा , शोषित बच्चों का जो नुकसान हो चूका होता है उसकी भरपाई कोई भी  नहीं कर सकता इसलिए मेरा मानना है की कम से कम पाच वर्ष की उम्र तक बच्चों की देखभाल बहुत सावधानी और सतर्कता से की जाय ताकि कोई आपके बच्चे का किसी भी तरह से शोषण न कर पाए.  बच्चों के यौन शोषण को ख़त्म करने का सबसे प्रभावी और कारगर उपाय है, माता पिता की अति  सतर्कता और जागरूकता. अगर माता पिता इस विषय में खुद बेहद जागरूक रहने के साथ साथ  अपने बच्चों को भी इस बारे  में शिक्षित  करें तो वो स्थिति ही नहीं आयेगी की किसी को सजा दी जाय.


बच्चों को यौन शोषण का खतरा  सबसे ज्यादा   पंद्रह से पचीस वर्ष की आयु के व्यक्तियों द्वारा होता है अतः इस वर्ग के लडके लड़कियों  के भरोसे पर अपने छोटे बच्चों को बार बार या  ज्यादा समय के लिए  कभी न छोड़ें. मैंने पाया की  बाल यौन शोषण अक्सर पंद्रह से बीस की उम्र के वो युवा करते हैं जो अपनी यौन उर्जा को सार्थक दिशा में मोड़ नहीं पाते. ऐसे युवा अपराधी नहीं होते बल्कि अपनी खुद की अति यौन सक्रियता  के शिकार होते हैं. ये लोग penetrative sex  नहीं कर पाते  बल्कि  बच्चे के साथ शारीरिक निकटता और घर्षण आदि छोटी मोटी क्रियाओं से ही स्खलित हो कर अपना मनोरथ सिद्ध कर लेते हैं.

 मैंने लड़कियों को भी शक के घेरे में लेने की बात की है जो शायद कुछ लोगों को अजीब लगे पर युवा लड़कियों के साथ भी छोटे बच्चों को अकेले नहीं छोड़ा जाना चाहिए. मेरे एक मित्र को बचपन में उनके पड़ोस की एक लड़की खेल खेल में स्तनपान कराने की कोशिश करती थी पर चूँकि उसके स्तनों से दूध नहीं आता था इसलिए उस उम्र में मेरे मित्र  को  ये  व्यर्थ की  कसरत  नापसंद थी  था अतः उन्होंने  अपनी माताजी से पड़ोस की दीदी की शिकायत कर दी.  बाद में क्या  हुआ ये  तो  उन्हें  भी  याद नहीं  पर  फिर उन्हें पड़ोस की दीदी ने कभी परेशान नहीं किया. 
  
तो साहब अपनी बात को फिर से दोहराना चाहूँगा. जब भी किसी बच्चे के साथ यौन शोषण का मामला प्रकाश में आए तो देश की कानून व्यवस्था को जम कर लताड़ लगाइए. समाज के गिरते  नैतिक  स्तर पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त कीजिये. अपराधी को फांसी पर  लटकाने की जोरदार मांग कीजिये  परन्तु  जब बात अपने बच्चों की सुरक्षा की हो  तो   पुर्णतः रक्षात्मक या निषेधात्मक रवैया अपना लीजिये और उनकी रक्षा  के उपाय बहुत ज्यादा गंभीरता से खुद ही कीजिये क्योंकि ये काम आपसे बेहतर कोई नहीं कर सकता.




रविवार, 24 अप्रैल 2011

मेरी बिटिया.


अजित गुप्ता जी का बेटियों को समर्पित लेख पढ़ा. मुझे यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी. 

हमारे समाज में बेटियों को एक दायित्व समझा जाता है. पुत्री का लालन पालन हम लोग पराया धन समझ कर करते हैं जो भविष्य में किसी दुसरे घर को आबाद करेगी . काश लोग इस बात को समझ  पाते  की एक बेटी पैदा होने के साथ ही अपने पिता के घर को आबाद कर देती  है जो पुत्र कभी नहीं कर पाते. बेटियां ही  घर को घर बनती है वर्ना ये तो एक सराय ही बना रहता है. 

मैं भावुकता को स्त्रिओं की सबसे बड़ी कमी मानता था पर मेरी बिटिया ने मुझे सिखाया है की परिवार को जोड़ने के लिए भावुकता और संवेदनशीलता एक स्त्री का सबसे बड़ा गुण हैं.  बेटियां और  बहनें  अपनी  भावुकता और संवेदनशीलता से हमारे दिलों  में तरलता पैदा करती हैं. जिन परिवारों में सिर्फ लडके ही होते हैं उन परिवारों के सदस्यों  का आपसी जुडाव बहुत जल्दी टूट जाता है जबकि  बेटियां  उम्र  भर  अपने  परिवार के सदस्यों को जोड़ने वाली कड़ी या  फेविकोल का कार्य करती रहती है. 

  
अभी इस होली की ही एक छोटी सी घटना मुझे याद आ रही है. मेरी पत्नी गुजिया बना रही थी और मैं उनकी सेवा में उपस्थित था. हमारा यह कार्यक्रम शाम ८ बजे से शुरू हुआ और रात के ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे तक चलता रहा. इस सारे वक्त में मेरी बिटिया हमारे साथ गुजिया बनाने में ही व्यस्त रही जबकि हमारा बेटा टी वी पर कार्टून देखता रहा.


मैं और मेरी पत्नी जब भी  साथ बैठ कर बातें कर रहे होते हैं  तो  हमारी  बिटिया रानी हमेशा  अपने सारे काम छोड़ कर हमारा साथ देती है परन्तु बेटा  अपने खेलों और दोस्तों में ही व्यस्त रहता है.  वो  तभी  हमारे पास आता है जब उसे मेरे साथ खेलना होता है या किसी चीज  की आवश्यकता होती है. एक परिवार के रूप में माता पिता के साथ  बैठ कर गप शाप कर दिल बहलाने  वाली  बात उसमे मुझे अभी नहीं दिखी है जबकि मेरी तीन वर्ष की बिटिया में ये भावना शुरू से है.  


बेटियां एक घर को घर बनती है. ये परिवार में संतुलन पैदा करती है. इस वर्ष होली पर ली   गयी मेरी बिटिया की दो  तस्वीरें.


मेरे साथ.





अपनी माँ और भाई के साथ.



और अब जरा मेरी नन्ही बिटिया की इस तस्वीर को देखे. ये छलकती हुई ऑंखें और बहती हुई  नाक  किस वजह से?   क्या जुकाम हुआ या किसी ने उसे मारा. 








जी नहीं उसका ये हाल एक लोकप्रिय राजस्थानी गीत को देख कर हुआ. पहले पहल मुझे  विश्वाश  नहीं हुआ जब मैंने अपनी बिटिया को  इस  गीत को सुन कर रोते हुए देखा. इस गीत में बेटी की विदाई के द्रश्यों को  देख मेरी तीन वर्ष की बिटिया बहुत ही भावुक हो जाती है.






ठीक ऐसा ही गीत प्रसिद्द गायिका शोभा गुर्टू ने भी गया है जो मुझे बहुत पसंद है और जिसे सुन कर मैं खुद भी बहुत ही भावुक हो जाता हूँ. शोभा जी का मेरा यह पसंदीदा  गीत भी आपकी सेवा में प्रस्तुत है

अगर आप एक नन्ही सी बिटिया के भावुक माता पिता  हैं तो आइये थोड़ी  आंखे गीली कर लें.









अंशुमाला  जी के निर्देशानुसार बिटिया की दो एकदम ताजातरीन मुस्कुराती और खिलखिलाती तस्वीरें.