बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

सरकारी अस्पताल में पुरुष नर्स।

नर्सिंग एक महिला प्रधान पेशा है। पुरुष भी नर्स बन सकते हैं ये बात मुझे पता थी पर अभी तक मैंने किसी पुरुष को नर्स का कार्य करते हुए देखा नहीं था। पिछले कुछ  दिन मेरे बच्चे डेंगू की वजह से दिल्ली के एक सरकारी बाल चिकित्सालय में भर्ती  थे। वहां मैंने पहली बार किसी पुरुष को नर्स के रूप में कार्य करते हुए देखा। दो युवक मेडीसिन वार्ड में नर्स के तौर पर  कार्यरत थे। मैं दोनों के ही कार्य से बहुत प्रभावित हुआ। उनका संयम, धेर्य और बाल मरीजों से बात करने का तरीका  काबिले तारीफ था। आम तौर पर सरकारी अस्पतालों में कार्यरत नर्सें अपने कार्य के प्रति बेहद असंवेदनशील होती हैं।इसके विपरीत ये दोने युवक अपने कार्य को बेहद संजीदगी से कर रहे थे।
 
आम धारणा यह है की मरीजों की सेवा का कार्य स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा अच्छे ढंग से कर सकती हैं पर सरकारी अस्पतालों में अभी तक मैंने जितनी भी महिला नर्स देखी हैं उनमे से 99 प्रतिशत नर्सों को मैंने अशिष्ट, कामचोर व चिडचिडा पाया। नर्सिंग स्कुल से निकलते वक्त मरीजों की सेवा का जो व्रत वो लेती हैं सरकारी सेवा में आने के उपरांत उसे वो सबसे पहले भुला देती हैं। अपने कार्य के प्रति उनका रवैया बेहद मशीनी रहता है और मरीजों के प्रति उनका व्यवहा
र बहुत ही गैरजिम्मेदाराना होता  है। दिल्ली के जी टी बी हॉस्पिटल में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने एक नर्स से इस बारे में सवाल किया तो उन्होंने कहा था की अगर पुरुष ये कार्य करें तो उनका व्यव्हार और भी ख़राब होगा। पुरुष नर्सों के साथ मेरा पहला अनुभव तो अच्छा रहा है और मैं तो चाहूँगा की ज्यादा से ज्यादा पुरुष नर्सिंग की कार्य को अपनाएं ताकि आम लोगों की ये भ्रान्ति दूर हो की मरीजों  की देखभाल करने जैसे संवेदनशील और भावनात्मक कार्यों पर स्त्रियों का एकाधिकार  है। हालाकिं ये कहा जा सकता है की सिर्फ दो पुरुष नर्सों के साथ हुए अपने अनुभव के आधार पर यह कहना की पुरुष स्त्रियों से बेहतर नर्स हो सकते हैं एक जल्दबाजी होगी पर फिर भी महिलओं से भरे एक सेक्शन की  पुरे एक वर्ष तक अगुवाई करने के अनुभव से पैदा हुयी समझ से मैं पुरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ की पुरुष नर्सिंग के कार्य में स्त्रियों से कभी  भी कमतर नहीं होंगे।

पिछले वर्ष अगस्त में मैंने भारत सरकार के एक मंत्रालय के प्रधान लेखा कार्यालय के लेखा विभाग की कमान सम्हाली। मेरे विभाग में एक पुरुष व चार महिलाएं कार्यरत थी। सांकेतिक रूप से आप उन्हें मिसेज मल्होत्रा,मिसेज खन्ना, मिसेज टुटेजा और मिसेज तनेजा पुकार सकते हैं। कहने को तो मैं विभागीय अधिकारी था पर सभी महिलाएं उम्र व तनख्वाह में मुझ से कहीं आगे थी। वर्ष भर मैं इन चारों  महिलाओं  की आपसी प्रतिस्प्रधा का मूक गवाह बना रहा। प्रतिस्पर्धा अपने कार्य को बेहतरी से करने की नहीं थी। प्रतिस्पर्धा थी ज्यादा से ज्यादा छुटियाँ लेने, काम पर देरी से आने और जल्दी जाने तथा अपना कार्य दूसरों पर थोपने की।  पुरे वर्ष अपने विभागीय कार्यों को समय पर पूरा करवाने  के दबाव व तनाव ने मुझे किसी दूसरी चीज पर ध्यान देने का मौका ही नहीं दिया। अंततः एक सच्चे निडर पुरुष की तरह मैंने रण छोड़ने का निर्णय लिया और अपने विभाग की कमान एक दूसरी महिला अधिकारी को सौप कर ऑडिट विभाग में भाग खड़ा हुआ। अब चूँकि ऑडिट विभाग में बार बार देश के विभिन्न हिस्सों में ऑडिट ले लिए जाना पड़ता है इसलिए कोई भी महिला इस विभाग में नहीं है। यहाँ आने के बाद मैं तनाव मुक्त हूँ।

अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ की सरकारी महिला कर्मचारी आफिस चाहे वो नर्सें हो या फिर कुछ और पुरुष कर्मचारियों के मुकाबले कुछ भी कार्य नहीं करती। वैसे सरकारी कर्मचारी कार्य कितना करते हैं यह सब को पता है।