अभी कुछ समय पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर थी की मलेशिया में एक "obedient wives club" स्थापित किया गया है. जिस वक्त यह खबर पढ़ी तभी मन में ख्याल आया की हमारे धर्म और इस्लाम में कितनी समानता है. हमारे यहाँ भी लड़कियों को शुरू से समझाया जाता है की पति परमेश्वर होता है. हर पतिव्रता नारी का कर्तव्य होता है की वो अपने पति परमेश्वर के हर आदेश को ईश्वर का आदेश समझ कर पालन करे. और यही बात इस्लाम में भी कही गयी है.
इसके बाद स्वाभाविक रूप से मेरे मन उत्सुकता हुई की हमारा तीसरा प्राचीन और लोकप्रिय धर्म यानि की इसाई धर्म स्त्रियों के लिए क्या निर्देश देता है या फिर ईसाई धर्म में स्त्रियों की क्या स्थिति है. तो वहा भी स्त्रियों के लिए कमोबेश वही निर्देश थे जो हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म में हैं.
अब मैंने नेट पर बौद्ध, जैन और दुसरे धर्मों में स्त्रियों की स्थिति के बारे में उपलब्ध जानकारी को कुछ दूसरी साइट्स को देखा जहाँ से पता चला की लगभग हर धर्म एक इन्सान के रूप में स्त्री और पुरुष में भेदभाव रखता है.
इससे पहले मैंने कभी भी इस विषय में गहराई से विचार नहीं किया था. अभी तक तो नारीवादियों द्वारा नारी को दोयम दर्जा दिए जाने की बात मुझे हमेशा मजाक ही लगाती थी क्योंकि समाज में मैंने बहुत से पुरुषों को अपनी घरवालियों के दिशानिर्देशों के अंतर्गत कार्य करते देखा था. मैंने ऐसे घर भी देखे हैं जहाँ गृहस्वामिनी की अनुमति के बिना घर में पत्ता भी नहीं खड़कता. ऐसे में महिलाओं पर अत्याचार और उनके साथ भेदभाव की बात मुझे अतिशियोंक्ति ही लगाती थी.
स्त्री स्वतंत्रता के समर्थक समाज में जिन बातों का विरोध करते नज़र आते हैं उन सब बातों के पीछे मुझे कहीं न कहीं महिलाओं की भलाई ही नज़र आती थी पर इस बार मुझे हमारे धर्मों में वर्णित एक तर्क बिलकुल भी समझ नहीं आया.
मैंने देखा की लगभग सभी धर्मों में ये माना जाता है की स्त्री अपवित्र है . हमारे जैन धर्म में तो ये भी मान्यता है की स्त्री पुरुष योनी में जन्म लिए बिना मुक्ति नहीं पा सकती.
अब स्त्री अपवित्र क्यों है? हमारे धर्मों का तर्क देखिये. स्त्री अपवित्र है क्योंकि उसे मासिक स्राव होता है. मैंने ये तो देखा है की मासिक धर्म के पांच दिनों में स्त्रियों को अपवित्र मान कर पूजा पाठ व अन्य घरेलु कार्यों से दूर रखा जाता है जो की मुझे ठीक ही लगाता था क्योंकि इस दौरान स्त्री को आराम मिलाना चाहिए पर इस वजह से स्त्री के पुरे अस्तित्व को अपवित्र मान लेने की बात मुझे बिलकुल भी हज़म नहीं हुई. मुझे तो इसमे एक बड़ा अजीब सा विरोधाभास लगा. एक तरफ तो स्त्री को रजस्वला होने तक पूर्ण नहीं मन जाता और दूसरी तरफ इसी वजह से उसे अपवित्र मान लिया जाता है.
इस विरोधाभास से तो मुझे यही नज़र आया की कोई भी धर्म स्त्री को इन्सान का दर्जा देता ही नहीं. उसे तो सिर्फ एक मशीन समझा गया है जो तब तक अपूर्ण है जब तक की वो रजस्वला नहीं होती क्योंकि तब तक वो संतान पैदा नहीं कर सकती. यानि की रजस्वला होना उसके इन्सान के रूप में पूर्णता नहीं बल्कि एक मशीन के रूप में पूर्णता है अन्यथा अपनी इसी विशेषता की वजह से वो अपवित्र है.
महीने में कुछ समय के लिए होने वाले रक्त स्राव से ज्यादा गन्दा तो स्त्री द्वारा रोजाना त्यागा जाने वाला मल मूत्र है पर उसके कारण स्त्री को अपवित्र नहीं माना जा सकता क्योंकि यही कार्य तो पुरुष भी रोजाना करता है इसलिए उसकी विशेषता उसके अपवित्र होने का कारण बन गयी. जरा सोचिये की अगर भगवान् एक पुरुष न होकर एक स्त्री होता तो पुरुष को उसकी दाढ़ी की वजह से अपवित्र ठहराया जाता और स्त्रियों को उनके चिकने गालों की वजह से जन्म मरण के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती.
खैर जो भी हो मुझे पहली बार ये महसूस हुआ की पुरुषों ने दुनिया की आधी आबादी को गलत ढंग से काबू करने की कोशिश की है.
मेरी नज़र में जो भी धर्म ये बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईश्वर के समक्ष वो पुरुष से कहीं भी कम है, वो एक सच्चा धर्म नहीं हो सकता है. ऐसे धर्मों को,ऐसे ईश्वर और ऐसी मान्यताओं को मैं स्वीकार नहीं कर सकता और हो सके तो आप भी स्वीकार ना करें.
इससे पहले मैंने कभी भी इस विषय में गहराई से विचार नहीं किया था. अभी तक तो नारीवादियों द्वारा नारी को दोयम दर्जा दिए जाने की बात मुझे हमेशा मजाक ही लगाती थी क्योंकि समाज में मैंने बहुत से पुरुषों को अपनी घरवालियों के दिशानिर्देशों के अंतर्गत कार्य करते देखा था. मैंने ऐसे घर भी देखे हैं जहाँ गृहस्वामिनी की अनुमति के बिना घर में पत्ता भी नहीं खड़कता. ऐसे में महिलाओं पर अत्याचार और उनके साथ भेदभाव की बात मुझे अतिशियोंक्ति ही लगाती थी.
स्त्री स्वतंत्रता के समर्थक समाज में जिन बातों का विरोध करते नज़र आते हैं उन सब बातों के पीछे मुझे कहीं न कहीं महिलाओं की भलाई ही नज़र आती थी पर इस बार मुझे हमारे धर्मों में वर्णित एक तर्क बिलकुल भी समझ नहीं आया.
मैंने देखा की लगभग सभी धर्मों में ये माना जाता है की स्त्री अपवित्र है . हमारे जैन धर्म में तो ये भी मान्यता है की स्त्री पुरुष योनी में जन्म लिए बिना मुक्ति नहीं पा सकती.
अब स्त्री अपवित्र क्यों है? हमारे धर्मों का तर्क देखिये. स्त्री अपवित्र है क्योंकि उसे मासिक स्राव होता है. मैंने ये तो देखा है की मासिक धर्म के पांच दिनों में स्त्रियों को अपवित्र मान कर पूजा पाठ व अन्य घरेलु कार्यों से दूर रखा जाता है जो की मुझे ठीक ही लगाता था क्योंकि इस दौरान स्त्री को आराम मिलाना चाहिए पर इस वजह से स्त्री के पुरे अस्तित्व को अपवित्र मान लेने की बात मुझे बिलकुल भी हज़म नहीं हुई. मुझे तो इसमे एक बड़ा अजीब सा विरोधाभास लगा. एक तरफ तो स्त्री को रजस्वला होने तक पूर्ण नहीं मन जाता और दूसरी तरफ इसी वजह से उसे अपवित्र मान लिया जाता है.
इस विरोधाभास से तो मुझे यही नज़र आया की कोई भी धर्म स्त्री को इन्सान का दर्जा देता ही नहीं. उसे तो सिर्फ एक मशीन समझा गया है जो तब तक अपूर्ण है जब तक की वो रजस्वला नहीं होती क्योंकि तब तक वो संतान पैदा नहीं कर सकती. यानि की रजस्वला होना उसके इन्सान के रूप में पूर्णता नहीं बल्कि एक मशीन के रूप में पूर्णता है अन्यथा अपनी इसी विशेषता की वजह से वो अपवित्र है.
महीने में कुछ समय के लिए होने वाले रक्त स्राव से ज्यादा गन्दा तो स्त्री द्वारा रोजाना त्यागा जाने वाला मल मूत्र है पर उसके कारण स्त्री को अपवित्र नहीं माना जा सकता क्योंकि यही कार्य तो पुरुष भी रोजाना करता है इसलिए उसकी विशेषता उसके अपवित्र होने का कारण बन गयी. जरा सोचिये की अगर भगवान् एक पुरुष न होकर एक स्त्री होता तो पुरुष को उसकी दाढ़ी की वजह से अपवित्र ठहराया जाता और स्त्रियों को उनके चिकने गालों की वजह से जन्म मरण के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती.
खैर जो भी हो मुझे पहली बार ये महसूस हुआ की पुरुषों ने दुनिया की आधी आबादी को गलत ढंग से काबू करने की कोशिश की है.
मेरी नज़र में जो भी धर्म ये बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईश्वर के समक्ष वो पुरुष से कहीं भी कम है, वो एक सच्चा धर्म नहीं हो सकता है. ऐसे धर्मों को,ऐसे ईश्वर और ऐसी मान्यताओं को मैं स्वीकार नहीं कर सकता और हो सके तो आप भी स्वीकार ना करें.
ह्म्म्म... अभी तो मैं इसी सवाल से जूझ रहा हूँ कि खुद को आस्तिक मानूं या नास्तिक मानूं!
जवाब देंहटाएंलेकिन यह फिर भी कहूँगा कि धर्मों या धर्मपुस्तकों में लिखी बातों में से यदि आप 80% को फालतू मानकर भी उड़ा देंगे तो फायदे में रहेंगे. यह न भूलिए कि तकरीबन सभी मामलों में पुस्तकें लिखने या कायदे बनानेवाले व्यक्ति पुरुष ही थे और वह भी हजारों वर्ष पहले के पुरुष! ज़रा सोचिये, स्त्रियाँ उनके लिए संपत्ति से अधिक कुछ नहीं थीं, फिर वे क्योंकर उसे अपने समकक्ष या अपने से उन्नीस भी मानने को तैयार रहते?
और मेरे भाई ऐसे पोस्टों में सनसनीखेज टाइटल लगाने की क्या ज़रुरत है!? वाक्य के अंत में एक प्रश्नचिह्न तो बनता है न?
’ईसप की कहानियों’ में एक कहानी ऐसी सुनी है कि शेर और आदमी के बीच वाद विवाद चल रहा था। एक जगह पर एक मूर्ति बनी थी जिसमें आदमी को युद्ध में शेर को परास्त करते दिखाया गया था। आदमी ने गर्व से मूर्ति की तरफ़ इशारा करते हुये अपनी श्रेष्ठता जाहिर करनी चाही तो शेर ने जवाब दिया, "यकीनन अगर मूर्तिकार कोई शेर रहा होता तो शेर ऊपर और आदमी नीचे होता।’
जवाब देंहटाएंनिशांत जी का कमेंट अपने को सही लगा।
ये अपनी तरफ़ से जोड़ रहा हूँ कि बराबरी तब भी नहीं आयेगी जब स्त्रियों को वाँछित स्थान मिल जायेगा। हम लोग बराबरी के आदी भी नहीं और कायल भी नहीं, या तो हमें दबा लिया जाये या फ़िर हम दूसरे को दबा लेंगे।
होता ये है कि उत्पीड़न होगा, फ़िर उसका प्रतिकार होगा। और जब पीड़ित सशक्त हो जाते हैं तो कल का शोषित आज का शोषक बन जाता है।
काश शोषक और शोषित की इतनी ही पहचान हो, लेकिन पहचान के लिये लिंग, जाति, धर्म, वर्ग, राष्ट्रीयता आदि पैमाने ज्यादा प्रचलित और सुटेबुल बने हुये हैं।
लास्ट पैरा से सहमत, सीरियस वाला।
संजय जी की बात से सहमत हूँ...निशांत जी की बात भी उसमें शामिल है। सच दो ही वर्ग हैं : शोषक और शोषित। शायद आज पासा पलट गया है।
जवाब देंहटाएं@ हमारे जैन धर्म में- मल्लिनाथ और मल्लिदेव.
जवाब देंहटाएंयह सही है कि कथित धर्म और अनुयायियों , पैगम्बरों दिगम्बरों ने नारी की स्थति को समाज में नीचा करने की कोई कोर कसार नहीं छोडी है .....क्या कारण हो सकते हैं इसके?
जवाब देंहटाएंधर्म की बात करे तो स्त्री के प्रति हर धर्म की सोच एक सी ही हैं इस लिये बात संविधान और कानून में दिये हुए अधिकारों की ही होनी चाहिये
जवाब देंहटाएंआप नारीवादी नारीवादी जिन्हें कहते हैं वो इंसान हैं , ये अगर आप समझ ले तो स्त्री पुरुष को व्यक्ति समझने का सफ़र शुरू होजायेगा . मनु स्मृति एक ऐसा ग्रन्थ हैं जिसने भारतीये नारी को दोयम का दर्जा दिया हैं और आज भी समाज का बड़ा तबका इस ग्रन्थ से देश / समाज चलाने का दावा करता हैं
मैने नारी ब्लॉग पर काफी पहले कहा था अगर रोल गलत डिफाइन हुआ हैं तो पहले उसको परिभाषा को बदलो . आज जो हो रहा हैं वो रोले रिवेर्सल नहीं हैं . हमारी लड़ाई अपनी सही जगह को पाने की लड़ाई हैं सही जगह जो कानून और संविधान देता हैं बराबरी .
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2009/12/blog-post_22.html
बाकी जो लोग स्त्री को अपवित्र समझते हैं वो पता नहीं इस दुनिया में कैसे आये हैं . अभी तक कहीं से किसी के बिना स्त्री की कोख में रहे पैदा होने की खबर नहीं आयी हैं .
हमने जिस युग में जन्म लिया है वहाँ शिक्षा है, ज्ञान है विज्ञान है और तर्क करने की शक्ति भी। इसलिए किसने किस पुस्तक में क्या लिख दिया है, जरूरी नहीं कि वे बाते मान्य ही हों। दंश के संविधान में यदि पुरुष और स्त्री में अन्तर है तो अवश्य फर्क पड़ता है। क्योंकि पुरातन काल में इन्हीं धार्मिक पुस्तकों से न्याय और सामाजिक आचरण का निर्धारिण होता था लेकिन भारत में अब ऐसा नहीं है। स्त्री भी पहले से अधिक शक्तिशाली हुई है और उसका आत्मसम्मान भी बढ़ा है इसलिए पवित्र और अपवित्रता की बातें भी देर-सबेर समाप्त हो जाएंगी।
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मेरी नज़र में जो भी धर्म ये बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईश्वर के समक्ष वो पुरुष से कहीं भी कम है, वो एक सच्चा धर्म नहीं हो सकता है. ऐसे धर्मों को,ऐसे ईश्वर और ऐसी मान्यताओं को मैं स्वीकार नहीं कर सकता और हो सके तो आप भी स्वीकार ना करें.
बिल्कुल सही,
सहमत हूँ आपसे, धर्म को भी इंसान की बदलती सोच के साथ-साथ बदलना होगा!
...
यह ज़रूरी नहीं कि जो धर्म कहता है , उसे फोलो ही किया जाए । आजकल की युवा पीढ़ी ऐसा करती भी नहीं । मनुष्य ने अपने स्वार्थ अनुसार कुछ सामाजिक नियम बना रखे हैं । ऐसे नियमों का ख़त्म होना ही सही है ।
जवाब देंहटाएंसभी धर्म मूलतः पुरूषों द्वारा बनाये गये हैं । स्त्री को पुरूष के अधीन रखने के मकसद से ही सभी धर्म स्त्री को पुरूष से दोयम दर्जे का स्थान देते हैं । धर्मों को बनाने वाले ये भूल गये की वे खुद भी नारी के गर्भ से ही उत्पन्न हुए थे ।
जवाब देंहटाएंफिर भी धर्म -सभाओं और किर्तन आदि कृत्यों में महिलाओं का जमावड़ा ही अधिक दिखाई देता है... क्यो?
जवाब देंहटाएं'हिन्दू', संभवतः चन्द्रमा (इंदु) से सम्बंधित जिसे शिव के मस्तक पर सांकेतिक रूप से उसे उच्च स्थान दे दर्शाया जाता आ रहा है, पहुंचे हुए खगोलशास्त्री थे यह तो पश्चिमी वैज्ञानिक भी मानते हैं... किन्तु प्राचीन हिन्दू केवल खगोलशास्त्री ही नहीं थे अपितु 'सिद्ध पुरूष' थे, यानि 'ऑल राऊंडर', जिन्होंने मानव जीवन का सार "हरी अनंत / हरी कथा अनंता...आदि",,, यानि 'जितने मुंह / उतनी बातें" जाना... और "सत्यम शिवम् सुन्दरम", और "सत्यमेव जयते" कथन द्वारा परमात्मा को अमृत शिव, 'सत्य'' यानि 'सत्व' अथवा सार यानि निचोड़, पाए जाने पर बल दिया...वर्तमान खगोलशास्त्री भी ब्रह्माण्ड को एक निरंतर फूलते बैलून समान अनंत शून्य पाए हैं, जिसके भीतर अनंत संख्या और आकार की विभिन्न गैलेक्सियों भरी पड़ी हैं, और जिसमें से हमारी 'सुदर्शन-चक्र समान, असंख्य सितारों वाली तस्तरिनुमा 'मिल्की वे गैलेक्सी' भी एक है - जिसके भीतर किनारे की ओर स्थित हमारा सौर-मंडल भी है, जिसकी एक सदस्या हमारी पृथ्वी भी है...और उन्होंने मानव को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब भी दर्शाया...
जवाब देंहटाएंउपरोक्त को ध्यान में रख मैं अपनी एक अन्य स्थान पर नारी की कलियुग की दुर्दशा पर लिखी टिप्पणी फिर से नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ.
'मैं' हिन्दू 'ब्राह्मण परिवार' में जन्म लेने के नाते, किसी उम्र में पहुँच पढ़ कर कि 'ब्राह्मण वो है जो ब्रह्म को जाने', हिन्दू मान्यता के विषय में जानना आवश्यक समझा...
और इस खोज से 'मैंने' पाया कि भारत में कहीं भी 'माया' शब्द का प्रयोग अक्सर सुनने को मिलता था, और 'क्षीर-सागर' / 'सागर' मंथन की कहानी भी बहुत प्रचलित है, जिसमें (सांकेतिक भाषा में) हमारे सौर मंडल की अमरत्व प्राप्ति को चार चरणों में दर्शाया गया है - दोनों 'राक्षशों' (स्वार्थी) और 'देवताओं' (परोपकारी) के मिले जुले प्रयास से, बृहस्पति की देखरेख में जो हमारे सौर मंडल का एक सदस्य ग्रह है (और हिन्दू-मान्यता अथवा 'सनातन धर्म' के अनुसार चार युग भी दर्शाए जाते आ रहे हैं)... किन्तु काल-चक्र को अमरत्व प्राप्ति के चरम स्तर से, यानि सतयुग से उल्टा कलियुग की ओर चलते दर्शाया गया है, वो भी एक बार नहीं अपितु १०८० बार ब्रह्मा के एक दिन में जो चार अरब वर्ष से अधिक माना गया, और आज हमारी पृथ्वी/ सौर-मंडल की आयु साढ़े चार अरब आंकी गयी है ! अर्थात वर्तमान यदि कलियुग अथवा 'घोर कलियुग' माना जाये (जब मानव छोटा हो जाता है, और आज चार वर्षीय शिशु भी वो कर रहे हैं जो 'हमारे समय' में २० वर्षीय करते थे) तो शायद अनुमान लगाया जा सकता है की 'हमें' आज वो दृश्य देखने को मिल रहा है जो सागर-मंथन के आरंभिक काल में था! यानि तब तक स्त्री को उसका उच्चतम स्थान प्राप्त नहीं हुआ था - जो उसने सतयुग के अंत में देवताओं के अमरत्व मिलने के पश्चात पाया... वैसे हिन्दू-मान्यतानुसार कलियुग की एक यही अच्छाई मानी है की यह सतयुग को फिर से सही समय आने पर लौटा लाता है :)
आप की पोस्ट पढ़ कर अच्छा लगा इसलिए की ये बात किसी पुरुष ने कही है शायद आप की बात को ज्यादा गंभीरता और सच के रूप में लिया जायेगा हम लोग या कोई भी नारी कहती तो जैसा की आप ने ही कहा उसे बढ़ा चढ़ा कर बेमतल का रोना धोना कहा गया मान कर नारीवाद के नाम पर गली दी जाती | ये जान कर भी अच्छा लगा की टिप्पनिकारो ने माना है की आज के समय में जो समाज है वहा पुरुष शोषित और नारी पीड़ित वर्ग से है | धर्म को लेकर मेरी जानकारी ब्लॉग जगत में आने से पहले काफी सिमित थी उतनी ही थी जितना समाज में प्रचलन में था किन्तु उससे ही उसके खिलाफ विरोध की भावना जागृत होती रही ब्लॉग पर आ कर उसके असली रूप को जाना और पता चला की मै कितना कम जानती हूँ अपने धर्म के बारे में और दुसरे के धर्म के बारे में भी आज ज्ञान बढ़ने के बाद धर्म के खिलाफ और विरोध मन में आ गया है लगा की जितना मै इसे बेमतलब का समझती थी ये तो उससे भी ज्यादा बेमतलब की सोच और बातो से भरा पड़ा है |
जवाब देंहटाएं@ मेरी नज़र में जो भी धर्म ये बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईश्वर के समक्ष वो पुरुष से कहीं भी कम है, वो एक सच्चा धर्म नहीं हो सकता है. ऐसे धर्मों को,ऐसे ईश्वर और ऐसी मान्यताओं को मैं स्वीकार नहीं कर सकता और हो सके तो आप भी स्वीकार ना करें.
बिलकुल सहमत
आपके ब्लॉग पर नियमित आना लेकिन टिप्पणी किए बिना जाने की आदत सी हो गई थी लेकिन आज आपके इस लेख की अंतिम पंक्तियों ने इतना प्रभावित किया कि टिप्पणी करने के लोभ को रोक न पाई...ईश्वर पर विश्वास करती हूँ..जीवन में आध्यात्मिकता का महत्त्व भी मानती हूँ लेकिन धर्मों को नकारती हूँ ...सिर्फ इंसानियत के धर्म को छोड़ कर..जब चिकित्सा विज्ञान को ध्यान में रखते हुए औरत की शारीरिक सरंचना में होते बदलाव को देखा जाएगा और धर्मों को नई परिभाषा मिलेगी तब उसकी पवित्रता पर प्रश्न नहीं उठाए जाएँगे...
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ भाई। भेदभाव कहीं भी, किसी भी बहाने से हो ग़लत है।
जवाब देंहटाएंab yae bataa dae ki mujeh ativaadi mannaa band kar diyaa yaa nahin ??
जवाब देंहटाएंnaarivaadi bhi nahin kahegae naa ????
badii ichcha haen jaannae ki agar baat naari kae mulbhut adhikaaro ki hotee haen aur mae uskae liyae ladtee hun to aankh kaa kaanta kyun ban jaatee hun ???
aap kae uttar ki prateeksha mae
स्त्री ? उसे क्या कहूं ? मैं तो खुद ही उस खेत की फसल हूं !
जवाब देंहटाएंरचना जी, गलती तो गलती होती है वो चाहे अपनी हो या फिर परायी और मैं समझता हूँ प्रत्येक गलती को स्वीकार करके ही हम उसे सुधार सकते हैं. मैंने कभी भी उस व्यक्ति का विरोध नहीं किया जो दहेज़ प्रथा, स्त्री भ्रूण हत्या या फिर स्त्रियों के शैक्षणिक पिछड़े पन जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठता हो. मैं तो हमेशा ही उन लोगों का मजाक उडाता रहा हूँ जो स्त्री को उसके स्त्रीत्व को त्याग कर पुरुषों की अंध नक़ल में उसकी भागीदारी को ही स्त्रियों का विकास समझते हों. अब देखिये एक slut walk आन्दोलन चल रहा है या फिर एक और आन्दोलन है go टोपलेस, ऐसे आंदोलनों के जरिये नारी स्वतंत्रता की बातें करने वाले लोगों का समर्थन मैं तो कभी भी नहीं कर सकता.
जवाब देंहटाएंअब देखिये एक slut walk आन्दोलन चल रहा है या फिर एक और आन्दोलन है go टोपलेस, ऐसे आंदोलनों के जरिये नारी स्वतंत्रता की बातें करने वाले लोगों का समर्थन मैं तो कभी भी नहीं कर सकता.
जवाब देंहटाएंslut walk kaa mudda yahaan logo ko pataa hee nahin haen aur go topless bhi yahaan kaa mudda nahin haen
slut walk texas mae hui thee aur yahaan uski tarah ki walk hogii taaki log samjh sakey ki balatkaar kapdo kae karn nahin hotey haen
ab organisar is ko kitni behatar tarah pracharit kartey haen yae pataa nahin
@रचना जी !स्त्री अपने स्त्रीत्व में जितनी आदरणीय है,उतनी वह पुरुषत्व का आवरण ओढ़ने में कभी नहीं हो सकती। आन्दोलनों से वह पुरुष होना चाहती है...तो वह कभी नहीं हो सकती। स्त्री-पुरुष का प्रकृतिगत भेद तो रहने ही वाला है।
जवाब देंहटाएंविचार शून्य जी की टिप्पणी से सहमत हूँ।
जरा सोचिये की अगर भगवान् एक पुरुष न होकर एक स्त्री होता तो पुरुष को उसकी दाढ़ी की वजह से अपवित्र ठहराया जाता
जवाब देंहटाएंक्या आप श्योर हैं कि भगवान (?) पुरुष ही है स्त्री नहीं???
प्रणाम
@रचना जी !स्त्री अपने स्त्रीत्व में जितनी आदरणीय है,उतनी वह पुरुषत्व का आवरण ओढ़ने में कभी नहीं हो सकती। आन्दोलनों से वह पुरुष होना चाहती है..
जवाब देंहटाएंitna bhrm naa paale
aur purush ko itna badaa naa banaye ki stri kae aandolan karnae ko bhi purushtav sae jod dae
yae purusho kaa bhrm haen ki stri purush bannaa chahtee haen
stri insaan haen aur barabar haen purush kae
स्त्री-पुरुष का प्रकृतिगत भेद तो रहने ही वाला है।
vichaar shunya ki puri post padh laetey to shyaad yae naa likhtey
@रचना जी,स्त्री को हर वो अधिकार है जो पुरुष को । इसमें मुझे जरा भी संदेह नहीं है।
जवाब देंहटाएंलेकिन जब स्त्री कहती है कि उसे भी पुरुषों की तरह छाती खोल कर चलने की स्वतंत्रता है...तब लगता है कि वह पुरुष होना चाहती है
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मैंने विचार शून्य की पूरी पोस्ट पढ़ी है और उससे मैं पूरी तरह सहमत हूं कि कोई भी धर्म जो कहे कि स्त्री पुरुष से कहीं भी कमतर ,ऐसे धर्म की मान्यताओं को मैं भी स्वीकार नहीं करता।
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इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंपुनश्च: मैंने ऊपर जो टिप्पणी की थी वह विचार शून्य जी की टिप्पणी के संबंध में की थी, न कि उनकी पोस्ट के संबंध में ।
जवाब देंहटाएंएक बढ़िया लेख और मज़बूत टिप्पणियां ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
पुनश्च: मैंने ऊपर जो टिप्पणी की थी वह विचार शून्य जी की टिप्पणी के संबंध में की थी, न कि उनकी पोस्ट के संबंध में ।
जवाब देंहटाएंagar post laekhak ki post aur usii par aayee uski tippani mae vichaaro ki bhintaa haen to yae kewal itna daeshataa haen ki
sochna abhi jaari haen
बीती ताहि बिसार दे, अब आगे की सोच............जी हाँ ! तर्क-वितर्क या फिर कुतर्कों से किसी भी मुद्दे को सिर्फ हवा ही दी जा रही है, ठीक वैसे ही जैसे की एक माँ अपनी कर्कश एवं बेसुरी आवाज में अपने नन्हे शिशु को लोरी सुनाकर उसकी निंद्रा में व्यधान उत्पन्न करती है, बेशक अपने उनींदे शिशु को मीठी नींद सुलाना ही उसका मकसद होता है, अर्थात जाति प्रमाणपत्र साथ लेकर आप जाति प्रथा का उन्मूलन करने चले हो ? या फिर महिलाओं को आरक्षण देकर स्त्री-पुरुष का भेद-भाव ख़त्म करना चाहते हो?...........
जवाब देंहटाएंबहरहाल ! आपका नियमित पाठक हूँ ,जी में आया टिपण्णी कर दी नहीं तो चलते बने, उपरोक्त पोस्ट जो आपने लगाई हैउसके सम्बन्ध में यही कहूँगा की जिस धर्म में किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में पत्नी की अनुपस्थिति में उसकी स्वर्णाकृति तक को मान्यता प्रदान की गई हो कम से कम उस धर्म पर तो आप ऐसे दोषारोपण नहीं कर सकते की ........... मुझे यही नज़र आया की कोई भी धर्म स्त्री को इन्सान का दर्जा देता ही नहीं. उसे तो सिर्फ एक मशीन समझा गया है......
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जवाब देंहटाएंhttp://np-girl.blogspot.com/
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bhed-bhav karne ke, sahne ke aur dekhne-dikhane ke kai taapoo hain. har jagah khade logon ko ek sa to nahin dikhta n .fir bhed-bhav kitna hi ho, ek akela ang shaastra kabhi nahin rach payega. uske liye donon hi chahiyen.
जवाब देंहटाएंमैं आपकी बातों से काफी हद तक सहमत हूँ पर जहाँ तक स्त्री के दोयम दर्जे मिलने का सवाल है, तो इस पर मैं अपने विचार जरूर रखना चाहूंगी| ये सच है की हिंदू धर्म में स्त्रियों को पूज्य माना गया है, और वचन से ही नहीं, कर्म से भी| वेदिक काल में मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुशी, और कालांतर में कैकई, रुक्मणि व सुलोचना जैसी युध्कुशल क्षत्रिय नारियों का वर्णन है, जिससे यह तो पता चलता है की उस समय भी स्त्रियों को पूर्ण प्रशिक्षण व प्रोत्साहन दिया जाता था| यहाँ यह याद दिलाना उचित होगा की कैकई ने युद्धक्षेत्र में राजा दशरथ के कुशल सारथी के रूप में दो बार उनके प्राणों की रक्षा की थी, तो ज़ाहिर है की युद्धभूमि में राजा की सहगामिनी बनने का अधिकार क्षत्रिय नारी को प्राप्त था...
जवाब देंहटाएंमैं नहीं कहती की स्त्रियों के साथ दोयम बर्ताव नहीं होता... मैं बस कहना चाहती हूँ, की धर्म स्त्रियों को अपवित्र नहीं कहता| जहाँ तक मैं जानती हूँ, स्त्रियों को इस्लाम में भी अल्लाह के बाद दर्जा दिया गया है| धर्म को गलत ढंग से समझाने वाले हमारे धर्म के ठेकेदारों ने धर्म को जिस तरह चाह, परोसा,, और उसका नतीजा ये है, की आज समाज में हर तरीके से पुरुष प्रधान अराजकता है...शायद इसलिए, की उस समय कोमल हृदया नारी ने खुद ही प्रधान स्थान न लेकर गृह संचालन की नेपथ्य के पीछे से होने वाली, परन्तु अतिमहत्वपूर्ण बागडोर संभाली| मेरा अपना मानना यह है की यदि स्त्री भी अपनी महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार न कर ये भार न संभालती, तो समाज जैसी कोई इकाई कभी बन ही नहीं पाती|
विचार शून्य, आपका यह लेख पढ़कर अच्छा लगा। ऐसी ही बातें मैं व बहुत सी अन्य स्त्रियाँ महसूस करती रही हैं, अपने शब्दों में कहती भी रही हैं। अच्छा इसलिए लगा कि अब तक हम अकेली उबलती थीं, यह जान अच्छा लगा कि कोई पुरुष भी साथ में खौल रहा है। यह शुभ संकेत है। जैसे जाति प्रथा का अंत पीड़ित जातियों के जागने से तो होगा ही किन्तु उसमें सवर्णों का जागना और साथ देना एक कैटेलिस्ट की तरह काम करेगा, ठीक वैसे ही पुरुषों का सहयोग हमारे इस युद्ध को विजय की तरफ और तेजी से ले जाएगा।
जवाब देंहटाएंआप कहते हैं कि आपको लगता था कि हमारी बातें व तर्क अतिशयोक्ति हैं। यह स्वाभाविक है। उच्च जाति की होने के कारण मुझे जाति शोषण जल्दी नजर नहीं आता। कारण, मेरा मस्तिष्क उसे रजिस्टर करने को तत्पर नहीं रहता किन्तु स्त्री शोषण मुझे झट नजर आ जाता है। आपको भी स्त्री शोषण, असमानता आदि उतनी जल्दी नहीं दिखेंगे जितनी जल्दी मुझे।
आपको स्त्रियों के लिए बनाए नियम कानूनों में स्त्रियों की भलाई ही दिखती थी़। सोचा जाए तो आपात काल में बहुत से लोगों को लोगों की भलाई ही दिखती थी़। भला हुआ भी। गाड़ियाँ समय से चलीं, रिश्वत आदि नहीं देनी पड़ती थी। आपका हर काम फटाफट हो जाता था। आप खुश, बहुत खुश रह सकते थे बशर्ते आप राजनैतिक स्वतन्त्रता न माँगते, अपने अधिकार न माँगते। यदि नियम बना दिया जाए कि युवा बाईक नहीं चलाएँगे, या सड़क पर खड़े हो गप्पें नहीं मारेंगे या बिना नागा दूध पीयेंगे या अंडे खाएँगे तो क्या यह उनके भले के लिए नहीं होगा? आपात काल सही नहीं था, युवाओं के लिए ऐसे नियम सही नहीं होंगे। हम वनस्पति नहीं हैं कि कोई अन्य हमारे लिए निर्णय ले।
खैर लेख पढ़ मन खुश हुआ, टिप्पणियाँ पढ़कर भी।
वैसे, क्या आपने सिख धर्म को भी खंगाला? उसमें न स्त्री अपवित्र है, न उसके लिए अलग नियम हैं। बाल नहीं काटने तो सबने, सिर ढककर गुरुद्वारे जाना है तो सबने, शराब, तम्बाकू निषेध सबके लिए। शायद इस धर्म से आप निराश न हों या कम निराश हों।
घुघूती बासूती
जिस रास्ते से चलकर हमनें इस धरती पर क़दम रखा है उस रास्ते को पलट का आँखे दिखाने की औक़ात मुझमें तो नहीं है...औरत को पाक़ और नापाक़ के तराज़ु में तौलने की हिमाक़त करने वालों के लिये मन में सिर्फ ग़ुबार ही आयेगा....
जवाब देंहटाएंआपकी बात की "हिन्दू धर्म में नारियों को अपवित्र माना जाता है...या माना गया है.....गले नहीं उतरती. शायद आपकी जानकारी हिन्दू धर्म के बारे में सतही है... थोडा और अध्यन करें......विशेष रूप से गीता और वेदों का जो धर्म के प्रधान निर्देशक है....स्थिती स्पष्ट हो होजायेगी. .".....धर्मो के रचियता अधिकांश पुरुष" है से भी सहमत नहीं हुआ जा सकता शायद आप मैत्रेयी गार्गी, अपाला घोषi जैसी वैदिक नारी रत्नों की अनदेखी कर रहे है जिनके लिखे सूक्त भी उतने हे आदरणीय है और नीतिनिर्देशक भी..
जवाब देंहटाएं... बाकी धर्मों में क्या है मुझे जानकारी नहीं अतः कोई टिप्पणी नहीं.
दूसरी और सबसे महत्व पूर्ण बात, की बराबरी, सामान अधिकार और सम्मान जैसे नैतिक प्रश्न नितांत व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर निर्भर करते है न की धर्म में कही गयी अक्छ्र्सः बातों पर.....कितने लोग होंगे आज कल जो धर्म में कही अनन्त अच्छी बातों का भी उतनी हे लगन से पालन करते है....और अगर नहीं करते तो दोष किसका है? बहुत बार हम अत्यंत नैतिक समझे जाने वालों से भी अनैतिक आचरण देखते है...उसे क्या कहेगें ??? धर्म का पतन या उसे ग्रहण करने वाले ? कई बार औसधियों की गलत मात्र भी बिष का कार्य करती है.......अस्तु..
आप में निम्न कथन से शत प्रतिशत सहमत हूँ किस किस का मुह पकड़ा जाए कोई कुछ भी .........
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५
मेरी नज़र में जो भी धर्म ये बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईश्वर के समक्ष वो पुरुष से कहीं भी कम है, वो एक सच्चा धर्म नहीं हो सकता है. ऐसे धर्मों को,ऐसे ईश्वर और ऐसी मान्यताओं को मैं स्वीकार नहीं कर सकता
विज्ञान के अनुसार स्त्री पुरुष से अधिक विकसित है. पुरुष की यह सोच "स्त्री जीवन अपवित्र है" यह सिर्फ जलन का प्रतीक है.
जवाब देंहटाएंआपके लेख समाज की भावना की अभिव्यक्ति है. हम आपको आपने National News Portal पर लिखने के लिये आमंत्रित करते हैं.
जवाब देंहटाएंEmail us : editor@spiritofjournalism.com,
Website : www.spiritofjournalism.com
सही लिखा आपने | समाज आज भी पुरुष प्रधान है जैसा बाबा आदम के ज़माने में रहा होगा | पुरुष की शारीरिक क्षमता स्त्री से अधिक होना भी इसका एक मूल कारन है | अगर स्त्री शारीरिक रूप से पुरुष से ताकतवर होती तो क्या मजाल कोई पुरुष सर उठा सके | हमारे मारवाड़ी में कहावत ही की "ठाडो मारे भी और रोवण बी कोनी दे" यानी ताकतवर मरेगा भी और रोने भी नहीं देगा |
जवाब देंहटाएंvery interesting post!
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा/बताया है
जवाब देंहटाएंस्त्री और पुरुष में अंतर तो प्राकृतिक है. धर्म (Religions) तो केवल इस अंतर को amplify करते हैं.
जवाब देंहटाएंटिपण्णी करने से पहले ही टिपण्णी के प्रति आपके विचार पढ कर डर गया लेकिन फिर भी कहूँगा की धर्मग्रन्थ मार्ग दिखाते हैं रास्ता आपको चुनना है जैसे की आपके विचारों से लगता है की आपने उनमें स्त्रियों के लिए लिखी बात को न मानने का रास्ता चुना है वैसे आपकी सोच और लेखन को नमस्कार !
जवाब देंहटाएंAap Abhi Bharatiy Granthon mae Stri sambandhi Nazariye ko shayad Samajh Hi Nahin Paye.. In Baton Ko Sathi Nazriye Se Sochane Walon Maen Hi Aap Ko Bhi Gina Ja Sakta Hae.. Maf Karen..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...मेरी रचना भी देखे .......
जवाब देंहटाएंI’m sitting here planning out my weekly menu and searching through my favorite blogs for ideas and I just wanted to take a moment and say thank you for your blog and your wonderful dishes. This black-eyed peas dish looks so amazing. It’s quick with just a few ingredients. I love it.
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख..
जवाब देंहटाएंIshwar bhala stree kaise ho sakta tha? yadi samaj matri sattatmak hota to shayad yh sambhav hota. Ishwar purushon ne hi banaya hai.
जवाब देंहटाएंVirodhbhas kya? Jise gulam rakhna ho, use nahak hi heen aur apmanit rakhna jaroori tha. Kochi men ek mandir ke bahar stree pravesh varjit ka board dekhkar gussa aaya to ek yuva ne stree ke shareer se ganda khoon aane ka hi tark diya. maine thodi bahas kee to wo marpeet par utaru ho gaya tha.
As we move towards a brand NEW START in 2012.
जवाब देंहटाएंWishing you all a very Happy & Prosperous New Year.
May the year ahead be filled Good Health, Happiness and Peace !!!
आपको बहुत ही याद किया गया है निरामिष पर्…॥
जवाब देंहटाएंनिरामिष शाकाहार प्रहेलिका 2012
bahut sundar aur sahi baat... aik taraf devi kee pooja karte hain doosri taraf devi ko stri haath nahi laga sakti.. kaise andhe niyam
जवाब देंहटाएंप्रभु, हमारे पाप का घड़ा भरने का इंतज़ार हो रहा है क्या? प्रगटो यार..
जवाब देंहटाएंनमस्कार !..मन खुश हुआ.
जवाब देंहटाएंWith Microsoft office 2010, you can get things done more easily, from more locations and more devices.Track and highlight important trends with data analysis and visualization features in office 2010 Excel
जवाब देंहटाएंApvatra word is highly misunderstood word. When those sages wrote this word they never meant it to be used in the way it is used today. There are thousands of words which have lost their original meaning and are carrying an entirely different meaning today. Please do not judge old scriptures with new understanding.
जवाब देंहटाएंIt has happened in every language. the Computer generation has entirely different understanding of the word icons, memory, web etc. Even in the days when samskrit was the language of learned one, they found that so many word have lost or changed their meaning. Thats why so many vyakarans were written one after the another, so that people may understand the meaning of those words. Today many of our scriptures have words which have lost their meaning or carrying entirely different meanings.
For example look at the word 'mrig'. Anyone who studied little samskrit of hindi will tell you that it means deer. But the original meaning was animal.
Hasti mrig - The animal with a hand -Elephant
shakha mrig - the animal who live on branches - monkey
mrig raaj - king of animals - Lion or Tiger
mrigya - hunting animals
Long back Mandir meant home. Today it means temple.
May be apavitra was associated with women during their periods because at that time they were not allowed to take part in religious activities or enter a temple. dont forget those were the days when there were no tempoons or ST napkins to keep women clean during these periods.
If women were considered unclean then tell me, Why it was necessary to have one's wife to complete the yajna. Remember Ram had to build a golden statue of Sita to complet ashvamedha yajna. (By the way we call it yagya but the correct pronounciation is yajna in old samskrit). Almost all our religious activities requires the presence of lady of the house. there were many learned ladies in the old days. I agree the number was pitiful small but then please remember the only way to learn was going to guru ka aashram.
still look at our past. The first Ram stuti available is from 1st centure written by a women.
King Dasharatha sent his beloved son to vanvas but did not broke his promise to his wife.
Keep searching and you will find many instances when ladies had upper hand. When you consider that almost all writing in old days were done by men, its remarkable that these instances were written and survived.
Have faith. In all religion women are given very high place. If they were put under the protection of men, it was because the time demanded so. Today people cannot imagine their life without their mobile and INTERNET. How can they understand the life without roads, electricity, transport, TV, newspaper, films, books or paper for that matter.
All old scriptures are heavily modified. Let us not forget that not everyone had the privilege of having books. Only aashrams and some sages had them. Rest of the learned one just mugged up whatever they could during their Brahmacharya Aashram and then kept on reciting whole life so as not to forget. Some of them later wrote down what they could remember. Thats how we have so many ramayanas, all telling slightly different story then another. The original Mahabharata had only 22000 shlokas but now it has almost 100000. So to consider that whatever is written is written my Maharshi Ved Vyasa will be wrong. Similar is the case with other scriptures.
My humble point is that our scriptures were written long time ago and that time they were suitable for that society. Now the society have changed, civilization has moved on. There are still very many good things in these old books, which can benefit our lives. If there is something objectionable for today's society then we are free not to follow it. Remember the concept of FREE WILL.