बुधवार, 31 मार्च 2010

स्त्री की प्रेम अभिव्यक्ति और हमारे सामाजिक नियम.

मनीषा जी सबसे पहले मैं यह कहूँगा की आप एकदम बिंदास लिखती है अपने विचारों में कोई काट छाट नहीं करती इसलिए आपका लेखन मुझे बहुत अच्छा लगता है।

आपने अपने मन की बात कही, आपकी भावनाएं प्राय सभी भारतीय स्त्रियों की होती है जो आज के समाज में पुरुष के साथ हर field में कंधे से कन्धा मिलकर चल रही हैं।

एक मानव के रूप में हम सभी अपने प्यार की अभिव्यक्ति ठीक उसी रूप में करते है जैसे की अपने किया पर सिर्फ स्त्रियों को संदेह की नजर से देखा जाता है और उनकी छोटी से छोटी बात को भी सालों याद रखा जाता है । यह बात विचारनीय है की ऐसा क्यों होता है । आपका दर्द एकदम जायज है क्योंकि अपने सारी घटना को एक स्त्री के नजरिये से देखा। पुरुष का नजरिया क्या होता है यह मैं आपको दिखता हूँ।

जब आप उन लेखक महोदय, जो की ७० वर्ष की उम्र के थे, से मिलीं तो अपने आदर, सम्मान व प्यार से उन्हें गले लगा लिया पर इस बात की याद उन्हें अपनी वृधावस्था में भी वर्षों तक रही यह बात पुरुष की मानसिकता को दिखाती है।

एक पुरुष के लिए रिश्तों के बंधन से मुक्त नारी हमेशा भोग्या होती है। मेरी इस बात का बहुत से लोग पुरजोर विरोध कर सकते है पर मैं अपनी बात से कभी पीछे नहीं हटूंगा। कभी कभी तो रिश्तों की दिवार भी गिरा दी जाती है चाहे वो कितनी भी मजबूत क्यों ना हो।

इस वजह से ही हमारे समाज में स्त्री का किसी भी पर पुरुष के साथ शारीरिक या मानसिक जुडाव कभी भी ठीक नहीं समझा गया।

सभी स्त्रियाँ इसे खुद पर लांछन के रूप में लेती हैं। उन्हें लगता है की उनकी पवित्रता पर शक किया जा रहा है। पर सच्चाई यह है, की यह पुरुष की मानसिकता पर लांछन है। जब दो व्यक्ति व्यव्हार करते हैं तो दोनों की भावनाओं को देखा जाता है। एक तो निर्दोष भावना से व्यव्हार कर रहा है पर दुसरे के मन में खोट हो तो नुकसान किसे होगा? आपको यह बात समझनी होगी।

अपने एक पुरुष में एक पिता को देखा होगा, एक भाई को देखा होगा, एक प्रेमी को देखा होगा पर शायद एक पुरुष में सिर्फ पुरुष को कभी नहीं देखा होगा। जब एक पुरुष एक पिता, भाई , पति या प्रेमी नहीं होता है और विशुद्ध रूप में पुरुष होता है तो उसे कोई लिहाज नहीं होता , ना भावनाओं का ना उम्र का , ना समाज का, ना सामाजिक रिश्तों का । पुरुष की इस मानसिकता से वशीभूत होकर ही तो एक ८१ वर्ष का आदमी १८ साल की युवती से विवाह कर लेता है।

तो मनीषा जी आप जिन सीमाओं को दुष्ट समझकर तोड़ देना चाहती हैं और जो सीमाएं आपकी समझ से आपको कमतर इन्सान बनती है वो आपके भले के लिए ही हैं। समाज या कानून द्वारा तय सीमा के अंतर्गत किया गया व्यव्हार किसी भी इन्सान को कमतर नहीं बनता। शायद यही वो मानसिकता है जिसके तहत आज का युवा रोड पर स्पीड की सीमा को या रेड लाइट पर रुकने को एक बंधन मानता है। उसे भी समाज के बनाये नियम कानून को मानाने से अह्सासे कमतरी होता है। ( अह्सासे कमतरी की वर्तनी मुझे ठीक नहीं लग रही, पर काफी पहले यह शब्द सुना था आज चेपने का मौका मिला है )

अच्छा अब कुछ लोग यह कह सकते हैं की पश्चिम के समाज में तो ऐसा नहीं है। तो इसका जवाब मैं जब मन करेगा तो जरुर दूंगा अभी ३१ मार्च है वक्त की कमी है।

11 टिप्‍पणियां:

  1. aapke vicharon se sahmat hoon - sambandh ya rishton ka chalan samaaj ke surcharoo roop se chalaane ke liye vikasit hua hai - prakrati ne shareeron kee rachna apane niyam ke antargat kee hai

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  2. आपकी बात से मैं सहमत हूँ। लेकिन आज के युग में और युवतियों के विचारों को पढ़कर तथा अपने अनुभव के आधार पर एक बात कहना चाहती हूँ। आपने लिखा कि नुकसान किसे होगा? मैं भी अक्‍सर यही लिखती रही हूँ। मुझे लगता है कि पुरुषों ने यह भ्रम बना रखा है कि हमें तो कुछ नुकसान होगा नहीं, लेकिन ऐसा है नहीं। नुकसान उनके शरीर में प्रत्‍यक्ष रूप से दिखायी नहीं देता हो लेकिन उनका मानस भी आहत होता है। उनके मन में भी गन्‍दगी भरती जाती है और उस सबका दुष्‍परिणाम भी निकलता है। परिवार और समाज दोनों ही उन्‍हें अच्‍छी नजरों से नहीं देखते हैं। इसलिए नुक्‍सान और फायदे की नाप-तौल में थोड़ा ही अन्‍तर है।

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  3. Mai kahungi ki, samaj aur pariwar purushke sare gunah maaf kar sakta hai lekin,streeki ek galati nahi...uski galti na bhi ho, chahe wo balatkarka shikar ho, chunki bhogna use padta hai,to galti uski mani jati hai..
    Hamari filmon mebhi yahi nazariya dikhayi deta hai..galat rahpe gaye patiko patni sweekar kar leti hai, pati nahi..

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  4. भावुकता स्त्री के साथ छल करती है। किसी के प्रति अतिशीघ्र समर्पित भाव आ जाना स्त्री की भावुकता का ही परिणाम है। अच्छा-बुरा बाद की परिस्थितियाँ तय करती हैं।

    स्त्रियों के साथ प्रायः —

    बहक जाना — व्यक्तिगत दोष माना जाएगा कारण चाहे कोई हो

    छला जाना — व्यक्तिगत दोष माना जाएगा कारण चाहे कोई हो

    आकर्षित होना — व्यक्तिगत दोष माना जाएगा कारण चाहे कोई हो

    वश में आना — व्यक्तिगत दोष माना जाएगा कारण चाहे कोई हो

    बलात्कार होना — केवल यही दूसरे का दोष माना जाएगा कारण चाहे स्त्री ने ही पैदा क्यों ना किया हो।

    कभी-कभी लगता है —

    अवचेतन में

    पुरुष अपने पुरुष होने की सार्थकता तब मानता है जब वह शारीरिक बल प्रयोग किसी-ना-किसी रूप में स्त्री पर दिखा पाता है। और स्त्री अपने स्त्री होने की सार्थकता तब मानती है जब उसको स्त्रीत्व महसूस करा दिया जाता है।

    परिणामों पर विचार बाद में होता है ....

    — यदि रहस्य खुल जाता है तो सामाजिक शब्दावली में बलात्कार कहलाता है।

    — यदि रहस्य नहीं खुलता, परिणाम भी नहीं निकलता, तो अवचेतन की सुखद स्मृति में कैद हो जाता है।

    इसे इस तरह भी समझ सकते हैं -- एक ने दूसरे को थप्पड़ मारा। मारने वाले को अच्छा लगा कि मैंने उसे मारा।

    पिटने वाले को बुरा लगा कि मैं अपनी नजरों में कमतर साबित हुआ। झगडा इस बात पर बढता है।

    अब एक दूसरे पहलू पर विचार करते हैं --

    चोट दोनों को लगी। एक के गाल पर, दूसरे की हथेली पर। आवाज दोनों के टकराने से गूंजी। लोगों को केवल कोमल गाल लाल होता दिखाई दिया हाथ की ओर किसी ने ना देखा। सहानभूति भी गाल के साथ थी।

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  5. विचार शून्य जी, शायद आपकी कई बातों से सहमत हो जाती। किन्तु मैंने पुरुष भी ठीक ठाक हम जैसा मनुष्य हो सकता है तब जाना जब अपनी बेटियों की पीढ़ी में उनके कई दोस्तों में, अपने कुछ विद्यार्थियों में, स्वाभाविक मानवीय संवेदनाएँ देखीं, यह भोग्या वाला फंडा नहीं देखा। फिर सौभाग्य से अपनी बेटियों के पतियों में भी यह देखा। हाँ, उन्हें निश्चिन्त हो गले लगाया जा सकता है और जानती हूँ कि पुरुष यदि चाहे तो यह नर वाला स्विच औफ़ भी कर सकता है। प्रश्न केवल यह है कि क्या वह ऐसा करना चाहता है? यदि यह स्विच औफ़ करने में उसे लाभ होगा तो वह औफ़ करेगा किन्तु समाज ने उसे सिखाया है कि उसे औन रखे और मैं नर हूँ, मैं नर हूँ का राग अलापे तो उसका ही लाभ है और मादा भयभीत रहेगी।
    खैर, अन्तिम सच कौन जानता है? हम केवल यही कह सकते हैं कि यह वह सच है जैसा कि मैंने देखा है।
    घुघूती बासूती

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  6. इंतजार कर रहे हैं, भाई। वैसे हमें भी ये तारीख बहुत हांट करती हैं। लौटकर विषय पर बहस बढ़ाना, अच्छा लगा।
    आभार।

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  7. जब एक पुरुष एक पिता, भाई , पति या प्रेमी नहीं होता है और विशुद्ध रूप में पुरुष होता है तो उसे कोई लिहाज नहीं होता , ना भावनाओं का ना उम्र का , ना समाज का, ना सामाजिक रिश्तों का । पुरुष की इस मानसिकता से वशीभूत होकर ही तो एक ८१ वर्ष का आदमी १८ साल की युवती से विवाह कर लेता है

    सबसे पहली बात ये बड़ा ही general statement है..
    सबसे ज्यादा आश्चर्य कि बात यह है कि सभी पुरुष इस बात को स्वीकारते हैं कि वो एक नंबर के पशु हैं लेकिन वाह रे ढिठाई बदलने में सबको परेशानी है...बदलने का काम सिर्फ स्त्री ही करे...हद है कितनी आसानी से अपने विशुद्ध पशुत्व का ढिंढोरा पीट दिया और तमगा भी लगा लिया कि हम नहीं सुधरेंगे कर लो जो करना है....क्या दुनिया के सारे पुरुष इतने ही घटिया हैं जैसा आपने लिखा है...तो सही मायने में ये न बाप कहलाने योग्य हैं न, पुत्र, न पति न चाचा न ससुर या कुछ और...सिर्फ और सिर्फ घृणा के पात्र हैं...अगर इतने अवगुणी हैं तो किस बिसात पर हम स्त्रियों को चरित्रवान रहने कि सीख देते हैं....चलनी बोले सूप से तोर में हज़ार गो छेद ... !!!
    इनको बिलकुल भी हक़ नहीं है किसी को कोई भी उपदेश देने की...पहले अपना घर ठीक कर लेवें फिर दूसरों की बात करें...अब स्त्रियाँ इनकी मोहताज़ नहीं हैं....
    ये मेरे विचार हैं....

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  8. हद है कितनी आसानी से अपने विशुद्ध पशुत्व का ढिंढोरा पीट दिया और तमगा भी लगा लिया कि हम नहीं सुधरेंगे कर लो जो करना है....क्या दुनिया के सारे पुरुष इतने ही घटिया हैं जैसा आपने लिखा है...तो सही मायने में ये न बाप कहलाने योग्य हैं न, पुत्र, न पति न चाचा न ससुर या कुछ और...सिर्फ और सिर्फ घृणा के पात्र हैं....
    यदि सचमुच कोई पुरुष प्रत्येक भावनात्मक या वैधानिक रिश्तों में सिर्फ अपना पुरुषत्व ही कायम रखना चाहता है तो वह सचुमच घृणा के योग्य है ...कम से कम ऐसे व्यक्ति को तो स्त्रियों को चरित्रवान होने की सीख नहीं देनी चाहिए ...मगर मैं बहुत जोर देकर यह कहूँगी कि सभी पुरुष इसी तरह नहीं सोचते ...छले वे भी जाते हैं ...और आदर्शों के मापदंड पर खरे उतरने वाले पुरुष भी इस समाज में मौजूद हैं , संख्या उनकी चाहे बहुत कम हो ....!!

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