मैं बचपन से सुनता आया हूँ आत्मा अजर अमर हैं, न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है। बस अपना चोला बदलती है। हमारे धर्म ग्रंथों में यही बात बार बार दोहराई गयी है।
जब से मेरी तार्किक बुद्धि ने अपना कार्य करना शुरू किया तब से जब भी मैं इस प्रकार की बातें सुनता हूँ तो कुछ प्रश्न मुझे तंग करना शुरू कर देते हैं । मैंने अपने इन प्रश्नों का उत्तर अपने परिचित लोगो से पाने का प्रयास किया पर मुझे संतोषजनक जवाब अभी तक नहीं मिला। मैं अपने प्रश्नों को यहाँ पर दोहराता हूँ अगर किसी के पास कोई जवाब हो तो मेरा दर्द दूर करैं।
जब भारत आजाद हुआ तो भारत की जनसँख्या लगभग ३० करोड़ थी । वही जनसँख्या आज एक अरब के पार है। यह हल सिर्फ भारत का ही नहीं पुरे विश्व का है। पुरे विश्व में जनसँख्या बड़ी है। अब मेरे मन मे सवाल उठता है की ये ७० करोड़ आत्माए कहाँ से भारत मैं आयी ? आत्मा तो न पैदा होती है और न मरती है।
माना कुछ जानवरों की आत्माए मानव बनकर अवतरित हुई तो क्या उन जानवरों की प्रजाति लुप्त हो गई ? ७० करोड़ जानवर इन्सान बन गए।
क्या जो इंसानों में पशुता का भाव बढता जा रहा है इसी वजह से तो नहीं है?
कहते हैं " बड़े जतन मानव तन पायोपर ७० करोड़ जानवरों का इन्सान बनाना तो दिखाता है की इन्सान के रूप में जन्म लेना तो बड़ा आसन हो गया है। कहीं यह कलयुग की महिमा तो नहीं?
प्रश्न तो बहुत हैं पर इनका इलाज हो तो आगे बढें।
गीता मे कहा है की सभी के भीतर आत्मा रूप से मै ही विधमान हूँ इसलिये आत्मा और परमात्मा मे कोई तात्विक
जवाब देंहटाएंभेद नहीं है.जैसे आकाश एक है लेकिन घड़े के भीतर का आकाश घड़े की उपाधि से घटाकाश कहलाता है मठ के भीतर का आकाश
मठाकाश कहलाता है इसी तरह जीव की उपाधि से उसी परमात्मा को आत्मा नाम से जाना जाता है.आत्मा शरीर धारण करता है
इसका अर्थ ये नहीं की आत्मा शरीर के अंदर जा कर रहता है वह तो सर्वव्याप्त है.
मृत्यु के बाद आत्मा नहीं अंतकरण दूसरे शरीर मे ट्रान्सफर होता है और अंतकरण परमात्मा संकल्प से नये नये बन सकते हैं
बढिया चिंतन .. पर लुप्त हो चुकी प्रजाति का स्वभाव क्या इतनी क्रूर था ??
जवाब देंहटाएंकाश! इन्सान इस महिमा को समझ पाता!!
जवाब देंहटाएंaapne khud hee apne sawaalo ke sateek uttar de daale ! bilkul yahee baat hai 100% !
जवाब देंहटाएंआपने मेरा प्रश्न क्यों पूछ लिया? मैं भी यह ही सभी से पूछती हूँ कि भई लोग कहते हैं कि मनुष्य जन्म श्रेष्ठ है और धरती पर पाप बढ़ रहे हैं। तब इस पाप में भी मनुष्यों की संख्या बढ़ रही है और बेचारे अन्य प्राणियों की घट रही है। इसका मतलब तो यह हुआ कि अन्य प्राणी ज्यादा पुण्यवान हैं। मनुष्य पाप अधिक कर रहा है तो जानवरों की संख्या बढ़नी चाहिए थी। लगता है कि आत्मा भी विभक्त हो रही है। एक की दो और दो की चार।
जवाब देंहटाएंमित्र दीप
जवाब देंहटाएंआत्माओं की संख्या निश्चित नहीं और न ही आत्मा कोई उत्पादन जन्य इकाई है। आत्मा एक ऊर्जावान इकाई है और इस तरह की इकाइयां पूरे ब्रहमांड में व्याप्त हैं। जब किसी आत्मा को अपने उपयुक्त शारीरिक ढांचा मिल जाता है वह जिवंत हो उठता है। यह सच है की आत्मा अजर-अमर है, वह न तो जन्म लेती है और न ही उसकी मृत्यु होती है। किन्तु मित्र आप यह तो जानते ही होंगे की ऊर्जा का नाश नहीं होता, वह रूपांतरित होती है। इसी तरह की अनंत उर्जावान इकाइयां न केवल इस पृथ्वी पर गतिवान हैं बल्कि पूरे ब्रहमांड में ही इस तरह का संचार ज़ारी है।
मित्र, हम जो भी खाते हैं उससे हमें ऊर्जा मिलती है, जो अवशिष्ट होता है वह मल के रूप में बाहर आता है। इसी तरह न जाने कितनी ही आत्माओं रुपी उर्जावान इकाइयों का हम भक्षण भी करते रहते हैं, बस वे इसलिए जिवंत नहीं होते क्योंकि हमारे भीतर गर्भ (शारीरिक रचना) नहीं पाते। और अगर पाते हैं तो उपयुक्त-अनुपयुक्त का चुनाव किया जाता है।
जिस तरह कोई भी बेटरी किसी भी मशीन में नहीं लगती, कोई विशेष तरह की ही लगती है। उसी तरह हर शारीरिक रचना के लिए कोई विशेष प्रकार की बेटरी बनी होती है। वर्तमान के संस्कारों ( कर्म और स्वभाव) से हम शारीरिक रचना की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। और पूर्व जन्म के संस्कारों से हमारी उर्जावान इकाई आवेशित रहती है। इस कारण वह अपने लिए किसी विशेष गुणवतायुक्त शारीरिक रचना का चुनाव करती है।
मित्र शेष बातें फिर कभी...
विचारशून्यता तब तक ही रहती है जब तक कोई उसे उत्प्रेरित नहीं करता।
aapka sawaal 'lajawab' hai .... janaab ...kripaya pahali fursat men un bache huye sawalon ko bhi poochh dalen jinka aapki post ke ant men zikr hai... khush aamdeed !
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