शुक्रवार, 12 मार्च 2010

प्रगतिशील आधुनिक महिलाओं को मेरा सन्देश.

रोज सुबह जब
छः बजे की बस पकड़कर
काम पर जाती हूँ
तुम्हारा नन्हा सा मुहँ
अपनी छाती से और
बंद मुट्ठी से आँचल छुड़ाती हूँ
तुमसे ज्यादा मैं रोती हूँ
बिटिया ! मैं बिलकुल सच कहती हूँ ।


ये पंक्तियाँ मैंने शेफाली पांडे के ब्लॉग कुमाउनी चेली पर पढ़ी । मैं भावुक हो गया। मेरी भी एक बेटी है। मैं जब आफिस जाता हूँ तो रोती है। वापस जब घर आता हूँ तो मेरे पास दोड़ी चली आती है, मेरे साथ खेलती है, पार्क मैं घुमने जाती है । मुझे लगता है मैं एक बहुत अच्छा पिता हूँ पर जब भी मैं और मेरी पत्नी साथ होते हैं तो वो अपनी माँ की गोदी में ही बैठती है । मेरा सारा प्यार, दुलार व्यर्थ जाता है,कम पड़ जाता है और उसकी माँ की एक नज़र ही उसे अपनी ओर खीच लेती है। तब पता चलता है की एक बच्चे के लिए माँ क्या होती है। पिता चाहे कितना ही प्यार करे माँ की जगह नहीं ले सकता।


प्रकृति ने बच्चे के लिए माँ से बढकर और कोई चीज़ नहीं बनाई है। जो भावनात्मक सुरक्षा माँ दे सकती है वह कोई और नहीं दे सकता । माँ अगर अपने बच्चे को मारती भी है तो अगले ही पल प्यार भी करती है। बच्चे के कोमल ह्रदय पर केवल माँ का प्यार अंकित होता है उसकी प्रताड़ना तो पानी पर लिखे शब्द के समान कोई प्रभाव नहीं छोड़ती। पिता घर पर ही रहे या घर छोड़कर कार्य करने बाहर जाये बच्चे को कोई फर्क नहीं पड़ता। कहीं मैंने पढ़ा था की पिता का प्यार तो एक सुविधा है और माँ का प्यार एक जरुरत। तो फिर स्त्रियाँ आधुनिकता की इस अंधी दौड़ मैं, पुरुषों से बराबरी करने की मुर्खता भरी होड़ में क्यों अपने ही बच्चो को अपने ममता भरे आंचल की छाव से वंचित करती हैं।


ईश्वर या प्रकृति ने स्त्री को कुछ विशेषताएँ दी हैं जो पुरुष के पास नहीं हैं। स्त्री जन्म दे सकती है। यह प्राकृतिक रूप से उसका एकाधिकार है। स्त्री और पुरुष का सृजन अलग अलग कार्यों के लिए हुआ है और वो एक दुसरे से भिन्न हैं। दोनों की शारीरिक संरचना भिन्न है। दोनों अलग अलग कार्यों के लिए बने हैं। पुरुष घर से बाहर निकल कर कार्य करने के लिए ज्यादा अनुकूलित है जबकि स्त्री का घर में रहना ,घर और खुद उसकी अपनी सुरक्षा के लिए अच्छा होता है। जब स्त्री व पुरुष प्राकृतिक रूप से भिन्न हैं तो फिर समानता लाने के लिए औरत को काम पर बाहर भेजना जायज़ कैसे हुआ। स्त्रियाँ क्यों अपना प्राकृतिक स्वभाव छोड़कर पौरुष अपनाना चाहती हैं। सोचो अगर हमारी पृथ्वी माता कहे की मैं सूरज की आग से तपकर परेशान हो चुकी हूँ और मैं भी बराबरी चाहती हूँ, मैं भी उसकी तरह से गर्म होना चाहती हूँ, चमकाना चाहती हूँ तो हम निरीह जीवों का क्या होगा।

कुछ प्रगतिवादी महिलाये कहती हैं की औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती हैं। सब बकवास है। औरतें बनाई नहीं जा सकतीं वे पैदा ही होती हैं। यह एक नैसर्गिक गुण है। मेरी दो साल की बेटी है। मैंने उसे गुडिया लाकर नहीं दी तो वो मेरे बेटे के बल्ले को ही गुडिया बनाकर खेलने लगी। यह ममता का भाव उसमे मैंने पैदा नहीं किया, समाज ने पैदा नहीं किया यह उसका नैसर्गिक गुण है। दो साल की उम्र में उसे अपने लड़की होने का अहसास नहीं पर वो अभी से सजती है, सवरती है जो उसकी उम्र में मेरे पुत्र ने कभी नहीं किया। उसमे अभी से प्यार है, करूणा है, ममता है। अभी वह कन्या है और परिपक्व होने पर स्त्री हो जाएगी । यह सब आपने अपने बच्चों के साथ भी महसूस किया होगा। मैं हमेशा चाहूँगा की मेरी बेटी औरत बने, स्त्री बने । जो उसके प्राकृतिक गुण है उनका विकास करे और कभी भी मर्द बनाने का प्रयास न करे।

औरतें हवाई जहाज़ चला रही हैं ट्रक चला रही हैं रेल चला रही हैं। लोग वाहवाही कर रहे हैं की औरत मर्द की बराबरी कर रही है। अरे ये सब काम औरतें करेंगी तो बच्चो को कौन सम्हालेगा। उनकी परवरिश कौन करेगा। क्या वो अपनी माँ को छोड़कर बाई के सहारे पलेंगे। माँ की ममता पैसे से खरीदी जाएगी तो बच्चों का प्यार भी पैसे से ही खरीदना पड़ेगा। मुझे एक घटना याद आती है की किसी चिड़िया घर में एक बंदरिया को जू के लोगों ने पाल पोस कर बड़ा किया बाद में जब उसके खुद के बच्चे हुए तो उसने उन्हें नहीं पाला क्योंकि उसे पता ही नहीं था की बच्चे को माँ पालती है।

इसलिए मेरा सभी कामकाजी महिलाओं से अनुरोध है की वो नौकरी करैं। मर्दों की बराबरी करें । और जी में आये तो शादी भी करें पर बच्चे तभी पैदा करें जब वे खुद उनकी परवरिश कर सकें। बच्चो की परवरिश पार्ट टाइम जॉब बिलकुल भी ना समझें । यह एक फुल टाइम जॉब है। आपने पतियों से कहें की जाओ तुम जो भी कमा कर लाओगे मैं उस में गुजरा कर लुंगी पर बच्चो को छोड़कर सुबह छ बजे की बस नहीं लुंगी ।

मैं फिर से सभी स्त्रियों से विनती करता हूँ की वो पुरुषो के साथ बराबरी की इस अंधी दौड़ में अपनी माँ की पदवी को न त्यागें क्योंकि माँ का स्थान ईश्वर ने केवल औरत के लिए अरक्षित कर रखा है और यह आरक्षण सौ प्रतिशत है।

और अंत में मेरी प्यारी बेटी टुपुर जिसने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया।

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बेटी को आशीर्वाद....आपकी पोस्ट बहुत अच्छी और विचारणीय लगी....कम से कम आपने ये तो महसूस किया कि बच्चों कि परवरिश करना कितना महत्तवपूर्ण कार्य है....इस लेख के लिए आपको बधाई

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  2. कभी कभी कुछ परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि ना चाहते हुए भी घर परिवार को छोड़ कर नौकरी पर जाना ज़रूरी हो जाता है ...वो लोग इस बात को नहीं समझ सकते जिन्होंने कभी विपरीत परिस्थितियाँ या दबाव ना झेलें हों. कोई भी औरत अपने बच्चों को छोड़कर नहीं जाना चाहती

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  3. 'कुछ प्रगतिवादी महिलाये कहती हैं की औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती हैं। सब बकवास है। औरतें बनाई नहीं जा सकतीं वे पैदा ही होती हैं। यह एक नैसर्गिक गुण है। मेरी दो साल की बेटी है। मैंने उसे गुडिया लाकर नहीं दी तो वो मेरे बेटे के बल्ले को ही गुडिया बनाकर खेलने लगी। यह ममता का भाव उसमे मैंने पैदा नहीं किया, समाज ने पैदा नहीं किया यह उसका नैसर्गिक गुण है।'
    आपकी बातों में अन्तर्विरोध है. आप यह भी कहते हैं और बंदरिया का उदहारण देकर यह भी सिद्ध करते हैं की मातृत्व की भावना सीखनी पड़ती है.
    घुघूती बासूती

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  4. घुघूती जी ठीक है मान लिया कि मेरा बंदरिया वाला उदहारण गलत है. वैसे मैं जानवरों कि ममता के विरोधाभासों को खुद ढंग से समझ नहीं पाया हूँ . छुटपन में देखा था कि भैंस के सामने उसके मृत बच्चे कि खाल ले जाने पर वो तुरंत दूध दे देती थी और वहीँ चिड़िया के बच्चों को हाथ से छू दो तो वो अपने जिन्दा बच्चों को घोंसले से नीचे फैंक देती थी. मैंने एक जंगली बंदरिया को अपने मृत बच्चे कि देह को छाती से चिपटाए इधर उधर घुमाते भी देखा है.
    चलिए उदहारण गलत है पर क्या बाकी बातें भी आपको गलत ही लगी और अगर ये उदहारण नहीं होता तब आप क्या टिप्पणी करती. क्या फिर चुप रहती और मेरे लेख का विरोध नहीं करतीं. इस उदहारण को हटा कर मेरी बाकी के लेख पर भी गलतिया निकालें. इससे मुझे अपनी विचारधारा को सुधारने में सहायता मिलेगी. वैसे पोस्ट लिखने के लगभग एक वर्ष बाद टिप्पणी मिलाना सुखद लगा.

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