शुक्रवार, 13 मई 2011

मुझे माफ़ करें मैंने कोशिश तो बहुत की पर चुप रह न पाया.

जब से खुशदीप सहगल जी कि देश कि बेटियों को सेल्यूट करती पोस्ट और उसमे दिए लिंक के जरिये असीमा भट्ट जी के पिता कि स्थिति जानी हैं तब से मेरा अव्यवहारिक मन अभी तक शांत नहीं हुआ है. इस पोस्ट में मुझे जो बात सबसे ज्यादा अखरी है वो है सुरेश भट्ट साहब का अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वृद्ध अनाथालय में गुमनामी की  जिंदगी गुजारना. मन में बार बार ये ख्याल आता रहा कि इस दुनिया में ऐसे क्या  कारण हो सकते हैं   जिनके तहत एक व्यक्ति अपने जीवन के संध्याकाळ कि उस बेला में जब वो शारीरिक रूप से अक्षम हो चुका हो  और जिस वक्त उसे परिवार और संतान के सहारे कि सख्त जरुरत  हो , उनके प्यार, सेवा और  संरक्षण से वंचित हो  कहीं दूर अपनी जिंदगी गुजरता  है. माता पिता तो हमेशा ही विकट से विकट परिस्थिति में भी अपनी संतान को अपने साथ बनाये रखने का यत्न करते हैं पर ऐसी क्या परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं जिनमे वक्त आने पर वही संतान उसके साथ नहीं होती . इस प्रश्न का उत्तर जानने कि इच्छा ने मुझे परेशान कर रखा है.

मैं यहाँ के सभी सुसंस्कृत, संभ्रांत और उच्च शिक्षित लोगों कि मानसिकता को भी अभी तक समझ नहीं पाया हूँ. किसी सड़क पर कोई व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में घायल पड़ा है, व्यक्ति का साथी घायल करने वाले को कोस रहा है और आते जाते लोग या तो कोसने वाले कि भाषा कि मार्मिकता पर मुग्ध  हैं या फिर घायल व्यक्ति कि दुर्दशा पर ओह उफ्फ करते हुए जय हिंद बोल  जाते है. क्या हमारी सामाजिकता हमसे सिर्फ इतने कि ही चाह रखती है. अगर हम ज्यादा कुछ नहीं भी कर सकते तो इतना तो कर ही सकते है कि घायल के साथी से कहें कि बच्चे दुनिया को कोसना छोड़ और इस घायल व्यक्ति कि सुध ले, कुछ इसका भला होगा कुछ तेरा हो जायेगा. पर जाने क्यों हम लोग चुप रह जाते हैं. डाक्टर अमर कुमार जैसे स्पष्ट वक्ता भी ऐसी जगहों पर अपनी स्पष्टवादिता को भूल कर जबान से लड़खड़ाते  दिखाई पड़ते हैं. मैंने डाक्टर अमर कुमार जी का ही नाम लिया है क्योंकि जाने क्यों मुझे लगा की उन्होंने अपनी टिपण्णी के पर क़तर दिए, पर मुझे उन सभी लोगों से शिकायत है जिन्होंने इन पोस्टों पर अपने विचार रखे हैं पर सुरेश जी के वृद्ध आश्रम में रहने की वजहों को जानना जरुरी नहीं समझा. क्या हम लोग भी धीरे धीरे उन विकसित पश्चिमी देशों के समकक्ष होते जा रहे है जहाँ बूढ़े लोगों का अंतिम आश्रय परिवार से दूर वृद्ध अनाथालय ही होता है .
यद्यपि  मेरा ये मानना है कि हमें किसी की  निजी जिंदगी में नहीं झांकना  चाहिए पर जब कोई इन्सान खुद ही अपने दुःख और तकलीफों को किसी सार्वजनिक मंच से सबके सामने बयान करता है तो मैं समझता हूँ कि ये हम सभी लोगों का कर्तव्य है कि हम   उसे उसके दुःख और तकलीफ का मूल कारण क्या है ये समझाएं. ये हमारा सामाजिक कर्तव्य है.
अंत में मैं तो एक बार फिर यही कहूँगा कि जिस तरह माता पिता अपनी संतान के पालन पोषण के लिए बड़ी से बड़ी क़ुरबानी या दुनिया का बड़े से बड़ा खतरा उठाने से भी नहीं चूकते व हर हाल में ये कोशिश करते हैं कि उनकी संतान खुद उनके संरक्षण में पाले बढे ठीक उसी तरह संतान का भी ये कर्तव्य बनता है कि वो अंत समय में अपने माता पिता को, जब उन्हें अपने बच्चों के शारीरिक और मानसिक सहारे कि सबसे ज्यादा जरुरत होती है, दूसरों के सहारे ना छोड़ें और अगर छोड़ ही रहे हैं तो कम से कम सारी दुनिया को उसके कर्तव्यों कि याद ना दिलाएं.
मुझे माफ़ करें मैंने  कोशिश तो बहुत की पर अपनी बात कहे बिना रह ना  पाया. अब किसी को कहीं भी मेरी बात का बुरा लगे तो मुझे जरुर बताएं. मैं भविष्य में अपनी गंवई मानसिकता को भूल  खुद को सुधारने की भरपूर कोशिश करूँगा.

17 टिप्‍पणियां:

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  2. .हाँ यह सच है.. मैंनें अपने शब्दों को कत़र दिया । दिमाग में टिप्पणी का जो ड्राफ़्ट बनाया था अचानक उस ड्राफ़्ट को एक कीड़ा कुतर गया... मेरे दिमागी कीड़े ने प्रश्न किया कि यदि मुंबई में इतनी सँवेदनशील बिटिया उन पर कविता लिखने को जीवित है.. तो पिता चेशॉयर होम में क्यों ? सँभावनायें ..... गौर करें,
    इस नाते वह निराश्रित की परिभाषा में नहीं आते
    सँभवतः भट्ट जी ने किसीसे सहायता न लेने की शपथ दे रखी हो
    और मेरे सूत्रों के अनुसार उपरोक्त चेशायर होम सशुल्क सेवायें देता हैं
    सेवा शुश्रुषा के जँजाल को चेशायर होम वालों को सौंप दिया गया है
    बेटी उन पर गर्व कर रही है, विचलित नहीं है क्योंकि , वह अभिनेत्री तो है ही साथ में उसमें कविताई करने का समय भी है

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  3. क्या हम लोग भी धीरे धीरे उन विकसित पश्चिमी देशों के समकक्ष होते जा रहे है ?

    जी हाँ यही बात है !

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  4. आपके प्रश्‍न जायज हैं। हम बूढें अशक्‍त बाप पर कविता लिखते हैं और बड़े गर्व से प्रकाशित भी करते हैं, अपनी संजीदगी बताते हुए, लेकिन उस अशक्‍त बाप को अपने साथ रख नहीं सकते। बस दूसरों को कोसते हैं कि उन्‍होंने इन लोगों के लिए इतना किया और आज वे गुमनाम जिन्‍दगी जी रहे हैं। किसी भी माता-पिता ने किसी भी संस्‍था या लोगों के लिए इतना नहीं किया होता है जितना बच्‍चों के लिए किया होता है तो बच्‍चे स्‍वयं की ओर नहीं देखते बस दूसरों को पेलने पर लग जाते हैं। भारत में यह समस्‍या नासूर का रूप ले रही है। पहले जहाँ इक्‍का-दुक्‍का उदाहरण थे अब प्रत्‍येक घर की कहानी बन चुके हैं बूढे माँ-बाप। किसी भी घर से बच्‍चों की किलकारी नहीं सुनी जाती, बस दो उदास बूढ़ी आँखे ही दिखायी देती हैं। हमने बच्‍चों को केरियर के नाम पर इतना व्‍यक्तिवादी बना दिया है कि अब वे माता-पिता को भी इंसान नहीं केवल जिस्‍म समझने लगे हैं, जिन्‍हें एक दिन समाप्‍त होना ही है।

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  5. दीप जी,

    इसीलिये बस इसीलिये हम संस्कारों की बात करते है। जीवन-मूल्यों की बात करते है।
    माता-पिता के असीम ॠणों का बखान कर महिमामंडन करना इसीलिये आवश्यक है कि स्वार्थचुक से भी हम उन ॠणों और अवदान को विस्मृत न कर दें। पर दुखद है कि हम अपने सुख-स्वार्थ से उपर सोच भी नहीं पाते। उसे ही अपना आधुनिक स्वतंत्र आनंददायक जीवन मानते है। लेनदारी सदैव याद रहती है। देनदारी भूल जाते है। वैसे भी परंपरा में ॠणमुक्त होना परम कर्तव्यो में माना जाता था। पर आज वह अनावश्यक भार मात्र है। लेनदार को भुलावे में डालने के षड्यंत्र में ही समझ व्यय की जाती है।

    आपकी पिछली पोस्ट से इसका भी तुक मिलाईए 'साहित्य सृष्टा भी अभिनेता होते है'

    जहां स्वहस्त सेवा की जरूरत होती है,कर्तव्य निर्वाह करने होते है। वहां मात्र सम्वेदना प्रकट करना भी जले पर नमक समान है। और लोग है कि सम्वेदनाएँ थोक के भाव प्रकट कर सम्वेदनशीलता का स्वांग रचते है।

    फ़िर भी मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि जो नैतिक नहीं है उन्हें नैतिकता के उपदेश नहीं देने चाहिए। सम्वेदनाहीन भी यदि सम्वेदना जगाकर लोगो में नैतिकता प्रेरित करते है तो उनका भला हो न हो, अन्य लोगों में नैतिक उत्थान का श्रेष्ठ कार्य तो कर गुजरते है। उत्तम विद्या लिजिये यद्पि नीच पै होय।

    नैतिक जीवन मूल्यों का प्रसार होना चाहिए, स्रोत कैसा है सोचना निर्थक है।(पिछली पोस्ट के सन्दर्भ में)

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  6. आदरणीय सतीश सक्सेना जी सुप्रभात,


    आपने अपनी पहली टिप्पणी से मेरे मूढ़ पाषण ह्रदय पर टक्कर मारी और फिर वो टिप्पणी लोगों की नज़रों से गायब कर दी फिर दूसरी टिप्पणी से शुभकामनाओं दे दीं. मुझे वो ट्रक याद आ गया जिसके आगे लिखा होता है "बुरी नज़र वाले तेरा मुह काला और फिर शुभकामनाये देते हुए पीछे लिखा होता है "फ़िक्र न कर बेटे कहीं न कहीं दोबारा मिलेंगे" :))


    खैर आप ही क्या मेरे सभी जानने वाले मुझे घमंडी समझते हैं चाहे आप मेरे बचपन के मित्र प्रतुल से पूछ लें. मैं आक्रामक मानसिकता का भी हूँ. वजन में सिर्फ ४८ किलो का होते हुए भी अभी कुछ दिन पहले ही हत्या के अपराध से ससम्मान बरी हुए एक छः फूटे गूजर पडोसी से भिड गया था क्योंकि उसका कुत्ता मेरे घर के आगे मूत जाता था. (देखिये कितनी गन्दी जुबान है मेरी की मैं मूत्र को मूत पुकारता हूँ.)


    जी हाँ मैं अत्यंत कम अक्ल और नासमझ भी हूँ अगर ऐसा ना होता तो जनाब दिल्ली सरकार की तमाम मलाईदार पोस्टों पर १५ वर्ष कार्य करने के उपरांत भी मंडावली के बिना खिड़की दरवाजे वाले छोटे से मकान न रह रहा होता. कहीं नोयडा में ही मेरा भी एक फ्लैट होता. मेरे साथ कार्यरत और मेरे ही समकक्ष मेरे अनेक मित्रों के नोयडा में बेनामी फ्लैट हैं.


    क्या करूँ साहब मैं ऐसा ही हूँ. कम अक्ल, अव्यवहारिक, और घमंडी परन्तु आप बेफिक्र होकर मेरे ब्लॉग पर पूरी ईमानदारी से अपनी बात कह सकते हैं (बिना अपनी टिप्पणी मिटाए) क्योंकि (शर्म से )डूबता वो है जिसे खुद के (समझदार ) होने का अहसास हो..... (लो जी अब मैं भी थोडा थोडा साहित्यिक हो रहा हूँ.)


    हाँ थोडा अरविन्द मिश्र जी, अजीत गुप्ता जी और सुज्ञ जी जैसे लोगों को भी समझाइये की वो मेरी असंवेदनशील बातों का समर्थन करना बंद करें वर्ना मैं खुद को कैसे सुधार पाउँगा.


    @ डाक्टर अमर कुमार जी, सर, आपका बेहद धन्यवाद की आपने बचा लिया वर्ना मैं तो न होते हुए भी डूब जाता :))

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  7. पोस्ट की मूल भावना से पूर्ण सहमति
    समस्याए जहां विमर्श मांगती हैं वहाँ समाधान भी मांगती हैं .
    समाधान से पहले आते हैं वो कारण जो इन समस्या की जड़ हैं
    पॉइंट १
    आप का ये कहना क्या हम लोग भी धीरे धीरे उन विकसित पश्चिमी देशों के समकक्ष होते जा रहे है जहाँ बूढ़े लोगों का अंतिम आश्रय परिवार से दूर वृद्ध अनाथालय ही होता है .सही नहीं हैं .
    पश्चिमी देश की बात करना गलत हैं क्युकी वहाँ ये सब काम "सरकार " का हैं . वहाँ ना केवल वृद्ध , अपितु असहाय बच्चे , बिना नौकरी के युवा इत्यादि के लिये सरकार ने सोशल सिक्यूरिटी बनायी हैं
    हम हमेशा अपनी गलतियों के लिये पश्चिमी देशो को क्यूँ दोष देते हैं
    पॉइंट २
    हम हमेशा लडकिया अगर अपने माँ पिता के लिये कुछ करे तो उसको इतना महत्व क्यूँ देते हैं , ये कर्त्तव्य हैं जो करते हैं वो इंसान हैं जो नहीं करते वो इंसान नहीं हैं . इसमे लड़का या लड़की क्यों ?? कानून अगर हक़ बराबर हैं तो कर्त्तव्य भी लेकिन बात हमेशा सामजिक व्यवस्था पर आकर अटक जाती हैं . कोई भी माँ पिता अपनी ख़ुशी से अपनी बेटी घर अपना बुढ़ापा नहीं जीना चाहते ये उनके लिये एक बहुत ही कष्ट प्रद स्थिति हैं . क्यूँ ??? फिर वही व्यवस्था और संस्कार .
    पॉइंट ३
    कितने माता पिता अपने बेटो का विवाह तो कर देते हैं पर बहु को कभी घर के सदस्य का दर्जा नहीं देते यानी जब तक वो अशक्त नहीं होते बहु को उनगे झुकना ही होता हैं फिर वही हमारी व्यवस्था .
    पॉइंट ४
    अगर भारतीये परम्परा को देखे तो गृहस्थ आश्रम के बाद वान प्रस्थ भी होता था यानी सब कुछ छोड़ कर जिन्दगी के आखरी पढाव में सब लाग लाव से दूर . वो व्यवस्था क्या हुई ??
    पॉइंट ४
    अगर वृद्ध होने से पहले हम अपने जीवन के विषय में सोच ले और खुद अपने बुढ़ापे के लिये व्यवस्था कर ले फिर चाहे वो ओल्ड एज होम ही क्यूँ ना हो तो शायाद इन समस्या से निदान हो सकता हैं .
    जो लोग शादी करते हैं वो किस लिये करते हैं ?? बच्चे को लिये जिंदगी लगा दी , ये कह कर हम अपने कर्तव्य को क़ुरबानी का नाम देते हैं . हम बच्चो को कभी बड़ा होने ही नहीं देते जब तक हम इतने अशक्त नहीं हो जाते की हमारे हाथ पैर हमारा साथ छोड़ दे .

    बहुत कुछ हैं और भी लेकिन फिर कभी कहीं और या शायाद अपने ब्लॉग पर
    चलते चलते
    पोस्ट अच्छी हैं कम से कम कुछ सोचने के लिये बाध्य करती हैं पिछली दो तीन पोस्ट से ये सिलसिला चल रहा हैं आप का . प्रयास जारी रहे .

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  8. क्योंकि (शर्म से )डूबता वो है जिसे खुद के (समझदार ) होने का अहसास हो..... (लो जी अब मैं भी थोडा थोडा साहित्यिक हो रहा हूँ.)

    taaliyaan

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  9. maere kament aseema ki post aur unkae pita tak hi simit nahin haen yae kament aap ki post kae sandarbh mae hi haen

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  10. एक बार पुनः यह भी स्पष्ठ कर दूँ…………
    माननीय सुरेश जी के जीवन की विसंगतियाँ देखकर इस सोच को बल मिलता है कि समाजवाद और साम्यवाद की विचारधारा में भी गजब की विसंगतियां है।
    सभी को समान लाभ पहुँचाने में जिन्होंने जीवन अर्पण कर दिया, उन्हें भी उनकी खोज खबर लेने की फुर्सत नहीं। क्यों कि इस विचारधारा में बस अधिकार लूटे छीने जाते है। कर्तव्य निभाने का इनका दूर दूर तक नाता नहीं है।

    अब सुरेश जी के साथ भला कौन कर्तव्य निभायेगा?
    हाँ उनके व्यक्तित्व से कीर्ती जो मिल रही है, क्यों न सम्वेदनशील कविता रचकर गौरव भी पाएगा?

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  11. समस्याए जहां विमर्श मांगती हैं वहाँ समाधान भी मांगती हैं|

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  12. विचार शून्य जी,
    आपकी इस पोस्ट के पीछे भावना अच्छी है और आदर्शमूलक समाज और राज्य की कामना करती है...आदर्श स्थिति यही कहती है कि बच्चों को मां-बाप की भगवान राम की तरह सेवा करनी चाहिए...

    लेकिन व्यावहारिकता का धरातल बताता है कि हम सतयुग में नहीं कलयुग में जी रहे हैं...कुछ बातें कहने में अच्छी लगती है...लेकिन जो व्यक्ति इस स्थिति का सामना करता है वही अच्छी तरह जान सकता है कि उसे किस व्यथा से गुज़रना पड़ रहा है...

    डॉ अमर कुमार जी के अनुभव का कैनवास जितना बड़ा है, उसके सामने हम रंग की सिर्फ एक बूंद के सिवा कुछ नहीं है...वो जानते है कि कम से कम शब्दों में क्या संदेश देना है...वो जो साफ़ लिखते है, उससे कहीं ज़्यादा बड़े मायने उनकी बिटवीन द लाइंस में छिपे होते हैं...

    डॉक्टर साहब जानते हैं कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती...सुरेश भट्ट जी का जो व्यक्तित्व रहा है, उससे पता चलता है कि उन्होंने समाज की भलाई की धुन में अपने चार छोटे बच्चों और पत्नी की भी परवाह नहीं की...जो आदमी बड़ों-बड़ों के आगे नहीं झुका वो बच्चों के सामने खुद को दीनहीन, अशक्त, असहाय बोझ के रूप में खुद को देखना पसंद करता, मुझे इस पर संदेह है...

    सवाल उठ सकता है कि भट्ट जी अब तो सोचने-समझने की स्थिति में ही नहीं है...फिर क्यों वो बच्चों के साथ नहीं रह रहे...खास कर उस बेटी के साथ जिसने अपनी व्यथा को सार्वजनिक किया...सवाल जायज़ है...लेकिन क्या ये ज़रूरी है कि जिस तरह का उपचार और दिन-रात की देखभाल उन्हें ओल्ड एज होम में मिल रही होगी, वैसा ही सब
    उन्हें बेटी के घर भी मिलेगा...बेटी विवाह के बाद सब कुछ अपने स्तर पर सोच सके दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसी परिस्थितियां नहीं हैं...मैं नहीं जानता कि भट्ट जी की बेटी के पास मुंबई में कितना बड़ा मकान है...और उसमें पहले से ही कौन-कौन रहता है...लेकिन ये जानता हूं कि भट्ट जी जिस ओल्ड एज होम में हैं वहां से शिफ्ट करने से कई तरह की नई समस्याएं और खड़ी हो सकती हैं...

    ऐसे में एक बेटी जो पिता के लिए बहुत कुछ करना चाह कर भी न कर सके, उसकी मानसिक स्थिति और व्यथा को भी समझना चाहिए...
    बाकी इस तरह के मुद्दों पर बहस को आगे बढ़ाने का आपका प्रयास प्रशंसनीय है....सही और सार्थक ब्लॉगिंग यही है, बाकी तो सब...छोड़ो जाने दो...आजकल मेरी हर हरकत और रह बात पर क्लोस्ड सर्किट कैमरे लगे हुए हैं...

    जय हिंद...

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  13. मैं भट्ट जी और असीमा जी की परिस्थितियों के बारे में कुछ नहीं कह सकता...
    लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि सच्चाई यही है कि मां-बाप जितना बच्चे के साथ करते हैं, उतना बच्चे नहीं कर सकते, अपवादों को छोड़कर... फिर भी जो बच्चे मां-बाप का ध्यान नहीं रख सकते, उन्हें हम औलाद मान सकते हैं क्या? (फिर कहना चाहूंगा कि असीमा जी और भट्ट जी से इस का कोई लेना-देना नहीं)..
    बच्चे उतना कर ही नहीं सकते, लेकिन फिर भी जो चलन बढ़ा है यह अच्छा नहीं है.

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  14. खुशदीप का कमेन्ट पढ़ कर लगा की यहाँ डॉ अमर कुमार के कमेन्ट को सब को ब्रह्म वाक्य मान लेना चाहिये . क्युकी
    "डॉ अमर कुमार जी के अनुभव का कैनवास जितना बड़ा है, उसके सामने हम रंग की सिर्फ एक बूंद के सिवा कुछ नहीं है...वो जानते है कि कम से कम शब्दों में क्या संदेश देना है...वो जो साफ़ लिखते है, उससे कहीं ज़्यादा बड़े मायने उनकी बिटवीन द लाइंस में छिपे होते हैं..."

    ये क्या बात हुई , मैने तो डॉ अमर का कहीं कोई ऐसा वक्तव्य नहीं पढ़ा हैं की उनके लिखे वाक्य ब्रह्म वाक्य हैं और उन पर कोई विमर्श की गुंजाइश नहीं हैं . और उन्होने कहीं ये भी नहीं कहा हैं की उनको फ़ील्डर की जरुरत हैं . यहाँ वो खुद अपनी बात कह ही चुके हैं .

    रही बात अनुभव के कैनवास की सो वो सब का अपना होता ही हैं और सब दुनिया को अपनी नज़र और अनुभव से देखते हैं और समस्याओं पर विमर्श करते हैं .

    अब समझ आया की दीप ने सतीश की डिलीट की हुई टिपण्णी पर इतना लम्बा क्यूँ लिखा .

    मेरे अभिभावक अगर किसी के लिये कुछ करते हैं और मै बिना आज्ञा उनके इस कृत्य को सार्वजनिक करती हूँ तो ये उनके प्रति ना इंसाफी हैं क्युकी अगर उन्हे करना होता तो वो कर चुके होते . ब्लॉग एक डायरी हैं लेकिन अपने अभिभावक या अपने बच्चो के विषय मै लिखने से पहले सोचना जरुरी हैं और उनकी आज्ञा भी .

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  15. बन्धु, आज सप्ताह भर के बाद आया हूँ तो पिछला बैकलाग पूरा कर रहा हूँ। ये मत सोचना कि हिसाब किताब के नजरिये से कमेंट कर रहा हूँ।
    माथा देखकर तिलक लगाने का रिवाज सिर्फ़ बाहर की दुनिया में ही नहीं है, यहाँ भी है।
    पोस्ट पढ़कर बिना कुछ कहे जाने का ही मन था(बिट्वीन द लाईंस वाली डोज़ मैं पहले ही ले चुका हूँ:) ) लेकिन कमेंट्स पढ़कर रुका नहीं गया। खुद के घमंडी, आक्रामक, कम अक्ल, नासमझ वगैरा वगैरा होने के जो लक्षण बताये हैं - अपने को यही पसंद आते हैं। अपनी भी बिरादरी(आम स्तर वाली, निम्न या मध्यमवर्गीय मानसिकता, छोटी सोच वगैरह वगैरह) यही है और ये मानने में कोई शर्म संकोच भी नहीं है।
    और बधाई हो यारा, सही और सार्थक का सर्टिफ़िकेट मिल गया:)

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  16. :)समय के साथ हम समझदार होते जाते हैं। अपनी परिस्थितियों और सोच को सार्थक ठहराने वाले तर्क खोजकर मस्त हो लेते हैं। गर्व कर लेते हैं। खुश हो जाते हैं।

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