शनिवार, 12 मार्च 2011

मांसाहार या शाकाहार.

मैं कुमाउनी ब्रह्मण हूँ. हम लोगों में मांसाहार एक सामान्य सी बात  है अतः मैं बचपन से मांस, मछली इत्यादि का सेवन करतारहा हूँ. मैदानी इलाकों में एक ब्राह्मण द्वारा मांस भक्षण सर्वथा वर्जित  है   इसलिए मेरा ऐसे मैदानी  मित्रों से सामना होता रहा  जो  ब्राह्मण होने के बावजूद मांसाहार करने की मेरी
आदत को लेकर मेरा  मजाक  उड़ाते  या मुझे हेय दृष्टि से देखते.  शाकाहार को प्राकृतिक और मांसाहार को अप्राकृतिक ठहराया जाता. बताया जाता की मांसाहार करने से व्यक्ति में क्रूरता की भावना का विकास होता है. मांसाहारी लोग गुस्सैल होते हैं और आपराधिक प्रवृति के हो जाते हैं. अपने मित्रों के इस व्यवहार के पीछे मुझे शाकाहार को सही नहीं बल्कि श्रेष्ट सिद्ध करना और  मांसाहारियों को नीचा दिखने का प्रयास ज्यादा महसूस होता था.


कोई हमारी आस्था, परंपरा रीती-रिवाज और विश्वास  के विरुद्ध कुछ कहे तो हम स्वाभाविक रूप से तर्क या कुतर्क करके उसका विरोध  करते हैं  अब चाहे हम गलत हो या सही. शायद  ऐसा ही कुछ मेरे साथ होता था. जब मेरे कुछ शाकाहारी मित्र अपने शाकाहारी होने  की बात  को  बड़े  गर्व    के साथ बताते और मांसाहार को अवगुण घोषित करते तो मेरी  तार्किक  बुद्धि  हमेशा उन तर्कों की  तलाश में  रहती जिनसे  मैं मांसाहार को उन लोगों के समक्ष सही ठहरा सकूँ.

मुझे शुरू से लगता था की मानव सर्व भक्षी हैं यानि की वो शाकाहार और मांसाहार दोनों ही तरह के भोजन कर सकता है. मानव के जबड़े में केनाइन दांत के होने से मुझे लगता था की कहीं न कहीं मानव में मांसाहार की क्षमता है  और चिम्पंजियों के द्वारा छोटे बंदरों को मार कर खाना भी इसी बात का साबुत देता था. अपनी दिल्ली में मैंने खुद  रीसस बंदरों को कोए के खोंसले से अंडे चुराकर खाते देखा है. हालाँकि नेट पर  दूसरी जगहों के भी ऐसे सबूत मौजूद  हैं. कभी पढ़ा था की मानव की छोटी आंत की  लम्बाई न तो मांसाहारियों जैसी कम होती हैं और न ही शाकाहारियों की तरह बहुत ज्यादा.

इन सब बातों से मुझे अपने मांसाहार को सही ठहराने का हौसला  मिलता रहा. इसके साथ ही अपने पारिवारिक  और सामाजिक अनुभवों से मैंने पाया  की जो लोग शुद्ध शाकाहारी थे वो ज्यादा गुस्सैल  थे और उनकी अपेक्षा मांसाहार करने वाले ज्यादा शांत और मनमौजी थे.

मेरे पिता सारी उम्र सप्ताहांत मीट या मछली खाते रहे और मेरी माताजी पुर्णतः शुद्ध शाकाहारी महिला थी पर मैंने कभी अपने पिता को किसी पर नाराज होते नहीं देखा जबकि मेरी माताजी को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता था. मैंने बहुत से शुद्ध शाकाहारी परिवारों को अपने पारिवारिक झगड़े सडकों पर मारपीट के साथ सुलझाते देखा. मेरे बहुत से जैनी भाई अपनी दुकानों में और अपने घरों में नौकरों के साथ अमानवीय क्रूर व्यवहार करते दिखे. प्याज और लहुसन से मुक्त शाकाहार मेरे वणिक वर्ग के  भाइयों को भ्रष्टाचार से मुक्त न कर पाया. ऐसे में मैं अपने सप्ताहांत मांसाहार के साथ सुखी था.

पर फिर आया अपने ब्लॉग जगत में एक  शाकाहारी तूफान जिसकी शुरुवात मेरे मित्र अमित ने अपनी एक पोस्ट से की और  जिसको वत्स जी, सुज्ञ जी, अनुराग शर्माजी, प्रतुलजी और गौरव  अग्रवाल जी  जैसे आदरणीय ब्लोग्गेर्स के विचारों का सहारा  मिला. यहाँ पर मैं मित्र गौरव अग्रवाल जी  की  एक  विचारणीय पोस्ट का  उल्लेख करना चाहूँगा जिसने मुझे इस विषय पर पुनः  विचार करने को बाध्य किया.

गौरव की पोस्ट में शाकाहार के समर्थन में कुछ लेखों के लिंक थे. इनके आलावा भी मैंने नेट खंगाला और पाया की मानव तकनीकी रूप से शाकाहारी प्राणियों की श्रेणी में आता है. पर मेरे मन के कुछ प्रश्नों का उत्तर मुझे नेट पर नहीं मिल पाया.

मुझे ये समझ नहीं आ रहा था की यदि मानव विशुद्ध रूप से शाकाहारी है तो फिर किसी किसी मानव के  मन में मांसभक्षण की इच्छा क्यों उत्पन्न होती है? बहुत से लोग बिना किसी प्रेरणा के मांस खाना पसंद करते हैं और बहुत से लोग तमाम प्रयासों के बाद भी मांस की और देखते तक पसंद नहीं करते. ऐसा क्यों?  यह बात मुझे समझ नहीं आ रही थी की क्यों प्राकृतिक रूप से पुर्णतः शाकाहारी बन्दर क्यों कभी कभार मांसाहार करने को उद्यत होते हैं?

मुझे लगता है की बन्दर  मांसाहार अपनी किसी विशेष शारीरिक  आवश्यकता जैसे प्रोटीन इत्यादि  की पूर्ति के लिए करते हैं  क्योंकि वो किसी दुसरे प्राकृतिक तरीके से अपनी इस जरुरत को पूरा नहीं कर पाते और ये कभी कभार होने वाली घटना ही होती है ना की नित्य  प्रति की  आदत.  ठीक इसी प्रकार कुछ शुद्ध मांसाहारी भी कभी कभार  घास  खाते  हैं .  मैंने बिल्ली और कुत्ते को घास खाते देखा है. 

 मानव जब तक जंगलों में स्वतः  उत्पन्न होने वाले  फल फुल खाकर ही  अपना पेट भरता था  तब शायद वो भी कभी कभार मांसाहार कर प्रोटीन या शायद ऐसी ही किसी और  जरुरत की पूर्ति  करता हो पर जबसे  उसे खेती करने का तरीका समझ आया और वो अपनी जरुरत के हिसाब से अन्न उपजाने लगा तो उसे मांसाहार करने की जरुरत नहीं रही.  लेकिन फिर भी आज तक कुछ लोग  "बेसिक इंस्टिंक्ट"  का अनुसरण  करते हुए  मांसाहार की  और  आकर्षित होते हैं. 

इस विषय में ब्लॉग मित्रों, नेट और दुसरे स्रोतों से प्राप्त ज्ञान और खुद के चिंतन मनन के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ की मानव की शारीरिक संरचना तो शाकाहार के लिए ही बनी है पर  प्रकृति ने उसकी कुछ विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे कभी कभार मांसाहार करने की छुट प्रदान की है. मांसाहार मानव के लिए नित्य प्रति की जरुरत बिलकुल भी नहीं और आज जब मानव खेती कर अपनी आवश्यकता के अनुसार हर प्रकार का अन्न उगा सकता है तो उसे कभी कभार भी मांस खाने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है.   

मैं कभी मांसाहार का समर्थन किया करता था पर अब मेरी सोच में परिवर्तन आया है. मांसाहार एक प्रकार की आहार वैश्यावृति है जो मानव समाज में अति प्राचीन काल से व्याप्त है. एक विशेष  नजरिये   से  इसे  सही ठहराया जा सकता है और बहुत सी जगहों पर इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है पर इसके प्रचार प्रसार के लिए इसका समर्थन करना किसी भी नजरिये से ठीक नहीं.

मेरी सोच में जो बदलाव आया है उसके लिए मैं  श्रीमान गौरव  अग्रवाल   जी को मुख्यरूप से दोषी मनाता हूँ जिनकी सार्थक  ब्लॉग्गिंग ने मुझे इस विषय में गहराई से सोचने पर मजबूर किया  और  उनके इस कृत्या में   सुज्ञ जी, प्रतुल जी, अनुराग शर्मा जी, और प्यारे अमित भाई  भी सह अभियुक्त हैं. लोगों में शाकाहार के प्रति जागरूकता जगाने के इनके अभियान का मैं भी एक शिकार हूँ और पिछले तीन चार माह से अपने इलाके के सबसे बड़े मांस विक्रेता नज़ीर फूड्स की दुकान पर नहीं गया हूँ.  हो सकता है की कभी जीभ के लालच वश या किसी और कारण से मैं मांसाहार करूँ पर मैं अब जीवन में कभी भी मांसाहार का  समर्थन नहीं कर पाउँगा.  

अंत में मैं शाकाहार के प्रति लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे सभी भाइयों से यह प्रार्थना करूँगा की वो मांसाहारियों को एक अपराधी की दृष्टि से ना देखें. अपने सभी प्रयास ये ध्यान में रख कर करें की मांसाहार कभी प्राकर्तिक रूप से मानव की बेशक मामूली ही सही पर जरुरत जरुर रही है.

26 टिप्‍पणियां:

  1. पाण्डेय साहब, जहां तक हमारी पोंगा-पोथियों की बात है उनमे ब्राह्मण के लिए यह कहा गया है कि दक्षिणे मातुले कन्या, उत्तरे मांस भक्षम.....दक्षिण में मामा की लडकी से शादी और उत्तर में मांस खाना ब्राह्मण के लिए वर्जित नहीं ! मैं खुद भी नहीं जानता कि तथ्यों के खरेपन के लिए यह कितना सही है कि एक सभ्य कहलाने वाला इंसान अपनी ही बहन ( मामा की लडकी से शादी के लिए प्राथमिकता के आधार पर दावा ठोके किन्तु यह बात समझ में आती है कि उत्तरी भारत की सर्दी की वजह से ब्राह्मण को मांस खाना वर्जित न रहा हो ! लेकिन यह शतप्रतिशत सही है कि अत्यधिक मांसभक्षण इंसान की मानसिक सोच को विकृत करता है ! मैं उसका उधाहरण भी यहाँ देता लेकिन कुछ लोग उसे साम्प्रदायिकता के नजरिये से देखने लगेंगे ! हाँ , क्षेत्रीयता के नजरिये से यह जरूर कहूंगा कि बंगाली लोग चिडचिडे स्वभाव के अधिक पाए जाते है, जिसकी एक ख़ास वजह है माछ/मुर्गी-भात का सेवन ! इसलिए हर इंसान से यह जरूर कहूंगा कि मांसभक्षण कोई गैर प्राकृतिक नहीं कितु बहुत ही सीमित मात्रा में कभी-कभी !

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  2. मित्र, मेरे कई साथी मांसाहार करते रहे हैं और वे परस्पर फूहड़ हास-परिहास में भी लिप्त रहे लेकिन इसके बावजूद मैं उनके कई अन्य अच्छे व्यवहारों के कारण जुड़ा रहा. वे कई स्थानों पर जरूरतमंदों की मदद करते नज़र आये. जबकि मेरा जैसा शाकाहारी केवल भावना भरने तक सीमित रहा. मुझे वे स्वयं से कई गुणा बेहतर इंसान नज़र आते. अपने पर ग्लानि भी होती.
    यह ठीक है कि शाकाहार का क्रोध और कुभावों से सीधा लेना-देना नहीं. एक अन्य पहलू पर भी ध्यान दें - हम आहार केवल मुख के ज़रिये ही नहीं करते अपितु अन्य ज्ञान इन्द्रियों [आखों, कान, नाक आदि] से भी करते रहते हैं. क्रोध और विकृत भावों का कारण आहार ही है न केवल मुख के द्वारा किया हुआ अपितु अन्य माध्यमों से किया गया आहार भी जिम्मेदार है.

    माई लोर्ड , मैं मानता हूँ कि विचार शून्य जी के विचार परिवर्तित करने में श्रीमान गौरव अग्रवाल जी ही दोषी हैं. हम तो केवल उनके पीछे खड़े थे.

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  3. आप पूर्णत: शाकाहारी होने के लिये प्रयासरत हैं, शुभकामनायें।
    खान-पान और पहनावा व्यक्तिगत चुनाव ही रहें तो बढिया है।
    समय, स्थिति और स्थान के हिसाब से ठीक और गलत की परिभाषा होती है।
    बर्फिले क्षेत्रों और समुद्र किनारे रहने वालों के लिये शाकाहार को पूर्ण अपनाना मुश्किल है।

    आपकी ये लाईनें बहुत अच्छी लगी कि "मांसाहारियों को एक अपराधी की दृष्टि से ना देखें"

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  4. read the post, the best part of the post is that you dissected your weakness and strengths





















    '

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  5. अब आपको क्या बताऊ कि कितनी ख़ुशी हुयी है ....................... सिर्फ आपके मांसाहार के प्रति बदलते नज़रिए के कारण नहीं बल्कि ज्यादा इसलिए कि यह प्रेरणा उस ऊर्जा पिण्ड के कारण हुयी है जिसे मैं बारबार कहता हूँ कि ..... "गौरव मैं तुम्हे पीस कर पी जाना चाहता हूँ" ......... अर्थात उनकी जैसी ऊर्जा को आत्मसात करना चाहता हूँ .............. शब्द नहीं है आप द्वारा मांसाहार के प्रति नजरिया बदलने से मिली प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए

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  6. आपने इस पोस्ट से एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि निष्पक्ष चिंतन "अहम्" से पूर्णतया मुक्त होता है। अगर धूम्रपान बुरा है तो एक बुद्धिमान व्यक्ति उसके जाल में फन्सा होते हुए भी उसे बुरा ही कहेगा जबकि अह्ंकारी के विचार इस हिसाब से बदलते रहेंगे कि वह स्वयम सिग्रेट पीता है या नहीं। इस अह्ंकारी और स्वार्थी प्रवृत्ति का दर्शन आरक्षण की नीति में अक्सर होता है जहाँ आरक्षण के लाभार्थी इसे अनिवार्य और वंचित रहने वाले इसे सामाजिक बुराई बताते रहते हैं।

    मेरा शाकाहार किसी ऐतिहासिक/शारीरिक संरचना/उपलब्धता/बेसिक इंस्टिंक्ट/वैज्ञानिक तथ्यों/परम्परा पर आधारित न होकर पूर्णतया भूतदया पर आधारित है। कल को यदि यह साबित हो भी गया कि शाकाहार में कई कमियाँ हैं तो भी मैं न मांसाहार/जीव हत्या में खुद पडूंगा और न ही उसे सपोर्ट करूंगा।

    मानव मन बहुत जटिल है। पोषण का असर मानस पर अवश्य पडता है यह बात विदेशों में कई अध्ययनों से सामने आयी है लेकिन क्रोध, स्वार्थ आदि के लिये और भी बहुत से कारक हो सकते हैं।

    सबसे खास बात - परम्परा होने से शाकाहारी होना भर और सोच-विचारकर हिंसक मार्ग का त्याग, दो बिल्कुल अलग बातें हैं (आप दूसरे मार्ग से आये हैं)

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  7. मनुष्य मूलतः मांसाहारी कम शाकाहारी ( ज्यादा ) है -यानि उभय भक्षी !

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  8. निर्णय स्वागत योग्य है। इसलिये नहीं कि मैं शाकाहारी हूँ बल्कि इसलिये कि यह सोच विचार कर लिया गया निर्णय है। मेरी व्यक्तिगत राय में ऐसे निर्णय थोपे न जाकर स्वतंत्र मनन से आयें तो ज्यादा कारगर होते हैं।
    अनुराग शर्मा जी के कमेंट का एक एक शब्द सही है, और सामर्थ्यानुसार अपने विचार भी इसी दिशा में हैं।

    बन्धु, ये उधार चुकता करने की गरज से की गई टिप्पणी नहीं है:))

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  9. मानव मूलतः मांसाहारी था जो विकास के साथ शाकाहारी होता गया. मानव में मांसाहारी और शाकाहारी दोनों के गुण है. शाकाहार मांसाहार से बेहतर है इसमे कोई शक नहीं है लेकिन मांसाहार को गलत ठहराना भी गलत है.
    कुछ दिनों पहले Discovery पर एक वृत्त चित्र देखा था, उसमे एक आश्चर्य जनक तथ्य पता चल था कि कुछ दक्षिणी अमरीकी देशो(अर्जेंटीना, मेक्सिको, ब्राजील) में मांसाहार मजबूरी है क्योंकि वह सस्ता और आसानी से उपलब्ध है, वे शाकाहार नहीं खरीद सकते ! वहां सब्जीया कम उगाई जाती है, अनाज और मांस ही उनका प्रमुख भोजन है, जिसमे मांस मुख्य हिस्सा होता है, अनाज रोटी के जैसे मांस को लपेटने के रूप में प्रयोग होता है.

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  10. सच कहूं तो पोस्ट का शीर्षक पढ़कर यहाँ आने की इच्छा नहीं हुई. इस विषय पर इतनी बहस पढी है कि अब मन उकता गया है. लेकिन आपकी पोस्ट में वाकई बहुत सी बातें तार्किक दृष्टि से उचित कही गयी हैं. मैं मांसाहार से घृणा करता हूँ, मांसाहारियों से नहीं... जिस तरह मैं पाप से घृणा करता हूँ, पापियों से नहीं... अन्यथा न लें, मैं यह नहीं कह रहा हूँ की मांसाहार कोई पाप है या मांसाहारी पापी हैं. मांसाहार मजबूरी भी है और स्वाद लोलुपता भी. यह पारिवारिक परंपरागत आदत भी है और धार्मिक आदि कारणों से भी होता आया है. पर्वतीय अंचल में खेती या साग भाजी कम उगने के कारन भी यह प्रचलन में रहा है.
    लेकिन मांसाहार के समर्थन में दिया जाने वाला यह तर्क कि इससे मनुष्य को शक्ति और दीर्घायु प्राप्त होती है यह सच नहीं है. सैंकड़ों सालों से बहुसंख्यक भारतवासी पूर्णतः शाकाहार पर ही पलते आये हैं और उनके स्वास्थ्य और मांसाहारियों के सवास्थ्य में कोई 19-20 का अंतर भी नहीं दिखता.

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  11. कमेन्ट बौक्स के ऊपर लिखे शब्द पढ़कर हंसी आ गयी. यह तो पता था कि आपका कुछ कमेन्ट पंगा हुआ था लेकिन ये दिशानिर्देश आज ही पढ़े.
    यह टिपण्णी या अन्य ब्लौगों पर की गयी मेरी टिप्पणियां मूल निवेश, सावधि, अल्पावधि, और ब्याज के बहीखाते से पूर्णतः मुक्त होती हैं, यह मैं सभी से इस टिपण्णी के माध्यम से कह रहा हूँ.

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  12. इस विषय पर रिसर्च जारी रखिये. लेकिन मांसाहारियों को आपराधिक दृष्टी से कौन देखता है?

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  13. एक स्पष्ट विचारों से युक्त अच्छा लेख. शायद अब तक शाकाहार और मांसाहार को लेकर काफी चीजें स्पष्ट हो चुकी हैं. कुल मिलाकर एक अच्छा लेख.

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  14. दीप पाण्डेय जी,

    गौरव जी प्रेरित विचार-मंथन षड्यंत्र में हम भी रहे है दोषी तो है,आप चाहें तो सजा सुना सकते है किन्तु सफाई में हमें भी कुछ कहने का अधिकार दिजिये……
    1-मान,माया, लोभ और क्रोध मानव स्वभाव के कषाय है, ये किसी भी आहारी में कम या ज्यादा हो सकते है। क्रोध और क्रूरता में अन्तर है। क्रूरता का सम्बंध मानसिक भावनाओं से है। शाकाहारी रहते हुए भी कोई जब ‘मार डालू’ ‘काट डालू’ ‘खा जाऊँ’ जैसा चिंतन-मनन बार बार करता है, उसके क्रूर बनने की सम्भावनाएं प्रबल हो जाती है। उसी तरह माँसाहार से कुछ नहीं होता किन्तु उसकी उत्पत्ति का हिंसक भाव, प्रभाव डालता है।
    2-मानव प्राकृतिक उभय आहारी नहीं, किन्तु वह क्षेत्र काल और परिवेश के अनुसार किसी भी तरह के आहार के अनुकूल स्वयं को बना सकता है, और प्रारंभिक काल से वह ऐसा करता आया है। वह उपलब्ध आहार पर ही निर्भर रहता आया है। कोई आश्चर्य नहीं यदि वह क्षेत्रानुसार उभय आहारी रहा हो। शास्त्रों में ब्राह्मण आदि को मांसाहार त्याग करवाने के उल्लेख स्वयं प्रमाण है कि तब मानव मांसाहार कर लेता था। तभी तो छुडवानें के व्रत दिये जाते होंगे। मानव तकनिकि रूप से शाकाहारी ही है अप्राकृतिक रूप से वह सर्वभक्षी है यहां तक कि हम उसे जहर खाते,पचाते व अभ्यस्त होते देख सकते है इसका यह अर्थ नहीं कि जहर मानव का आहार है।

    जारी………

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  15. दीप पाण्डेय जी,

    3- विशेष इच्छा होना तो मानव के विचित्र स्वभाव की उपज है। शरीर में प्रोटीन की कमी होने पर शरीर प्रोटीन की मांग, मन की इच्छा के माध्यम से नहीं करता। वर्ना शरीर में किसी भी तत्व की कमी होने पर उस तत्व की पूर्ति करने वाले पदार्थ के खाने की इच्छा जगती। पर ऐसा होता नहीं है। शाकाहारी बच्चा झगडे में दूसरे बच्चे का मांस नोच लेता है, अकारण। कोई शाकाहारी मंसाहारी के साथ बैठ कर अपना भोजन कर सकता है तो किसी को मांस देखकर ही मित्तली आती है। कोई मांसाहारी मांस के व्यंजन खा लेता है पर बोटी कटते नहीं देख सकता। तो किसी को खाना पसंद है पर उसके पकने की गंध बरदास्त नहीं कर सकता। सारी चीजें स्वभावानुसार धटती चली जाती है।
    4-कोई भी शाकाहारी अगर मन से सात्विक है तो वह दूसरे मनुष्य से घृणा नहीं कर सकता। पर अक्सर होता यह है कि मांसाहार के साथ मात्र आहार का प्रश्न नहीं होता। मांसाहार के पिछे उसकी उत्पत्ति में हिंसा सलग्न होती है। चर्चा के दौरान शाकाहारियों के वचनो में उस हिंसा से घृणा प्रतिध्वनित होती है जिसे मांसाहारियों से नफरत के रूप में समझ लिया जाता है।
    तीन सह अभियुक्तो नें अपना प्रतिवेदन दे दिया। जो हिंसाजन्य होने से मांसाहार प्रचार का प्रतिकार सिद्ध है। और यह मेरा प्रतिवेदन भी वही है। देखते है गौरवजी का बचाव-पक्ष क्या कहता है।

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  16. आपके अहंकार रहित इस निर्मल चिंतन को प्रणाम करता हूँ।

    आपने हर दृष्टिकोण से तलस्पर्शी अनुशीलन किया और वस्तुपरक निष्कर्ष प्रस्तुत किया है।

    इस विचार-मंथन और निष्कर्ष को 'निरामिष' पर प्रकाशनार्थ भेज सकें तो कईं विचारकों का विचार-श्रम बच जाएगा। और हम सदैव आपके आभारी रहेंगे।

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  17. मैं तो माँसाहारियों के बीच शाकाहारी हूँ.मॉस से घिन होने पर भी पकाती खिलाती हूँ.भाग्य से बेटियां भी समझदार होने पर शाकाहारी बन गई.
    मेरे लिए यह बात नई है कि कुमांऊनी ब्राह्मण माँसाहारी होते हैं.ऐसा तो कभी सुना भी नहीं था. कहीं इसमें बाहर से आए बसे ब्राह्मण व मूलनिवासी ब्राह्मण का अंतर तो नहीं है? मैं जानना चाहूंगी.हाँ, माँ से सुना है कि नानी माँसाहार पसंद करती थीं.वह भी बचपन में दूसरों के घर में खाकर सीखा था.अपने घर में उन्होंने भी कभी नहीं पकाया.
    घुघूती बासूती

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  18. घुघूती जी रानीखेत के पास पाण्डेय कोटा मेरा मूल ग्राम है . शायद आपको पता हो की कुमाउनी ब्राह्मणों के दो वर्ग हैं. एक जो खेतों में हल चलते हैं और दुसरे जो हल को छूना भी पाप समझते हैं. मैं दुसरे वर्ग से हूँ. मैंने अपने परिवार, गाँव, इलाके सम्बन्धियों तथा सभी परिचित ब्राह्मणों जो की शायद पुरे कुमाऊ में फैले हैं मांसाहार को प्रचलित पाया है. मुझे मालूम नहीं इसलिए जानना चाहता हूँ की आप कुमाऊ के कौन से हिस्से से हैं. पहाड़ और पहाड़ियों से अपने संपर्कों को पुनर्जीवित करें. शायद आपकी कुछ भूली बिसरी यादें ताजा हो जाएँ .

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  19. पोस्ट पर कमेन्ट

    http://niraamish.blogspot.com/2011/03/blog-post_15.html?showComment=1300202274510#c4426302558691101126

    के बाद .....
    अब आगे .....
    ~~~~~और मांसाहार छोड़ दिया~~~~~~~~~~~~~~


    प्रार्थना के दौरान ऐसा लगा कि बिहारीजी अशुद्ध चीजों का भक्षण कर मंदिर में आने पर डांट रहे हों। इसके बाद मांसाहार नहीं करने का जो संकल्प लिया वो आज तक जारी है। मांसाहार करने के दौरान बहुत क्रोधी और जिद्दी थे। मन भी भटकता रहता था। शाकाहार अपनाने के बाद मन को शांति मिली। मां दुर्गा देवी के चरणों में दृढ़ता और एकांत सुख मिलने लगा।
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    श्री सिंह इस उम्र में भी चुस्त-दुरुस्त हैं। स्मरण शक्ति भी गज़ब की है। आज भी एकांत में बैठकर ढाई से तीन घंटे प्रतिदिन लिखते हैं। उनकी इतनी ऊर्जा का राज है शाकाहार, नियमित दिनचर्या, योग आसन और प्राणायाम। बचपन से ही उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में उठने की आदत है।

    http://www.bhaskar.com/article/chh-rai-morning-at-daybreak-as-the-creation-of-life-1919392.html

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  20. 106 साल के सर्वानंद बिना चश्मे के पढ़ते हैं अखबार


    रायपुर.उम्र 106 साल, चेहरे पर झुर्रियां फिर भी ऊर्जा युवाओं के समान। याद रखने की जबरदस्त शक्ति, बिना चश्मे के पढ़ते हैं अख़बार और बिना सहारे के चढ़ते हैं सीढ़ियां। यह सारी खूबियां हैं योग ऋषि स्वामी सर्वानंद सरस्वती में। वाराणसी में जन्मे सर्वानंद ने 16 वर्ष की आयु में सन्यास ग्रहण कर लिया। आज वे देश विदेश में योग आसन, प्राणायाम और शुद्ध शाकाहार के लिए लोगों को जागरूक कर रहे हैं।

    http://www.bhaskar.com/article/chh-rai-106-years-sarwanand-read-the-newspaper-without-glasses-1829594.html

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  21. अब बात युवाओं की ......

    First Kareena Kapoor gave up meat and now, it is Mangalorian beauty Sameera Reddy who has given up meat and fish.

    http://articles.timesofindia.indiatimes.com


    for Mugdha, health was always a priority, so she decided to give up meat for good, said a source


    http://naarijagat.blogspot.com/2011/03/mughda-godse-turns-vegetarian.html


    Kim Sharma

    So why has she turned vegetarian now?

    To support a cause, that’s why! Kim feels that modern methods of factory farming are exceptionally cruel and distressing to the animals, and so does not wish to support it.

    Kim says, “I decided to give up meat and fish for ethical reasons. And a vegetarian diet is very healthy for all ages.” Well said Kim!

    www.bollywood.ac

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  22. बहुत सारे कमेन्ट एक साथ करने की आदत से मजबूर हूँ :)
    वैसे मेरा पहला कमेन्ट स्पेशली पोस्ट पर है और इस पोस्ट पर वैसे भी इतने सार्थक विचार आ गए हैं की और कुछ कहने को बचा नहीं है


    शुभकामनाएँ :)

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  23. मांसाहार पर इतनी सात्विक पोस्ट पहली बार पढ़ रहा हूँ। ब्लॉग जगत में छि़ड़े जंग से घबड़ाकर ऐसी पोस्टों से दूर ही भागता फिरा था। आज आपकी 19 मार्च की पोस्ट पढ़ी तो यहाँ तक सब पढ़ता चला गया।
    इस पोस्ट के विचार और मांसाहार के संबंध में आपकी कथनी करनी बिलकुल मुझसे मैच करती है।
    मेरा जो मन करता है वह खाता हूँ। मेरा मानना है कि जो भोजन एक आदमी के लिए अच्छा वह दूसरे के लिए ( रूचि होने पर ) बुरा नहीं हो सकता। हाँ अधिक शाकाहारी ही हूँ। आगे उम्र के हिसाब से डाक्टरों ने कहा तो हर गंगे से भी कोई परहेज नहीं। किसी भी प्रकार के पुर्वाग्रह से मुक्त हो कर जीना चाहता हूँ।
    विचार शून्यता की स्थिति प्रज्ञावान होने की दिशा में उठा पहला कदम है। हालांकि लिखने मात्र से कोई खुद को विचार शून्य की अवस्था में नहीं ला पाता। शुरू में मेरे मन में अंहकार जन्य धरा गया नाम होगा..जैसा भाव था। आज पढ़ा तो शंका निर्मूल सिद्ध हुई। दरअसल किसी को समझने के लिए पहले खुद को साफ करना होता है और हम वही नहीं कर पाते। देर से पढ़ने, समझने का अफसोस है।
    ...आभार।

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