रविवार, 11 जुलाई 2010

नरेंदर सिंह नेगी जी का एक गढ़वाली गीत.

कुछ दिनों के अन्तराल पर लिख रहा हूँ. ब्लॉगजगत के कुछ वो लोग जिन्हें में निरंतर पढता था शायद मेरी तरह से छुट्टी पर चले गए हैं.
आदरणीय गोंदियाल जी अंधड़ वाले......... प्रिय दिलीप दिल की कलम से लिखने वाले....... गौरव, सन्डे के सन्डे का  साथी....

मेरी कुछ व्यक्तिगत व्यस्तताएं थी हो सकता है ये सभी लोग भी ऐसे ही व्यस्त हों. भगवन करे ये लोग बेशक व्यस्त हों पर आपने आप में मस्त हों.

मैं पिछले महीने पहाड़ गया था. वो मेरे पुरखों की  धरती है. वहां से आता हूँ तो बहुत दिनों तक वहा का खुमार उतरता ही नहीं है. जब देखो पहाड़ी बोली , पहाड़ी गीत, पहाड़ी व्यंजन, पहाड़ी विचार.  घर वाले परेशान हो उठते हैं...

अगर इतना ही शौक है तो वहीँ किसी पहाड़ की कन्दरा में समाधिस्त हो जाओ.... ऐसा भी अक्सर सुनने को मिल जाता है.

 कोई बात नहीं चुप चाप सुन लेता हूँ.

अभी कल यूँ ही नेट पर पहाड़ी गीत खोज रहा था तो नरेंदर सिंह नेगी जी का एक गीत देखा और सुना. पहली बार मुझे किसी पहाड़ी गीत का द्रश्यांकन बेहद पसंद आया.  ये गीत उन पहाड़ी स्त्रियों की मनोदसा का चित्रांकन है जिनके पति उन्हें छोड़कर कमाने के लिए पहाड़ से पलायन कर जाते हैं.

पुरुषों का आपने परिवार के पालन पोषण के लिए पहाड़ से पलायन एक आम बात है. करीब ७५ प्रतिशत पहाड़ी पुरुष आपने घर परिवार को छोड़कर दुसरे शहरों में कम करने के लिए आ जाते हैं और वहा उनकी पत्नियाँ उनका इंतजार करती हैं. मैं जब भी गाँव जाता हूँ तो ऐसी अपनी अनेक भाभियों, चाचियों के दर्शन होते हैं जिनके पति परदेश होते हैं. उनकी स्थिति को करीब से देखा है अतः कह सकता हूँ की नरेंदर सिंह नेगी जी के गीत और उसके फिल्मांकन में वास्तविकता की झलक है.

मैं कुमाउनी हूँ और गढ़वाली भाषा पर उतना अधिकार नहीं रखता पर फिर भी संक्षेप में इस गीत का  सार आपको बताता हूँ. गीत में एक पहाड़ी स्त्री आपने दिल्ली से आए देवर से पूछती है की क्या उसे  दिल्ली में आपने भाई जी की कोई खोज खबर है. देवर जवाब देता है की ओ ठोड़ी पर तिल वाली भाभी  अगर मुझे भाई जी का कोई आता पता होता तो मैं जरुर उनकी खबर ले आता. जब भाभी दुबारा यही बात पूछती है तो देवर मजाक में उसे कहता हैं की भाई जी तो रसिक मिजाज हैं कहीं उन्होंने वहीँ तो कोई दूसरी नहीं कर ली. फिर अंत में देवर उस भाभी को पंछी के वापस आपने घोंसले में लोट आने का दिलासा देकर वापस चला जाता है.

ये गीत गढ़वाली भाषा में है लेकिन मैं समझता हूँ की भावनाओं को आसानी से पकड़ा जा सकता है. जाने क्यों मैं इस गीत को देखकर बहुत भावुक हो जाता हूँ और मेरी आंखे भर आती हैं शायद इन दिनों मेरी अश्रुग्रंथी ढीली हो गयी है. कसावट के लिए  अलंकारिक शल्य चिकित्सा  तो नहीं करवानी पड़ेगी....

इस गढ़वाली गीत का यू टयूब का लिंक और विडिओ दोनों देने कि कोशिश कर रहा हूँ आगे भगवन मालिक....



12 टिप्‍पणियां:

  1. बन्धु,
    "कोई बात नहीं चुप चाप सुन लेता हूँ", चुपचाप सुनने वाले हो तो नहीं:)

    जड़ों से दूर आदमी जब कभी कभार अपनी जड़ों तक पहुंचता है तो मन बहुत बदल जाता है। समझ सकता हूं तुम्हारे मन की हालत। इन लोकगीतों के माध्यम से कितनी वेदनायें, कितने संदेश और कितनी भावनायें जाहिर होती हैं, गिनती करना मुश्किल है।
    पेट की आग क्या-क्या नहीं करवाती?
    पोस्ट हमेशा की तरह शानदार। यार, कोई टिप्स हमें भी बता दो कम शब्दों में अपनी बात कहने की, मैं बहुत मिस करता हूं ये स्टाईल।
    आभारी रहूंगा।

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  2. मुज़फ्फर अली की फिल्म गमन यही व्यथा बयान करती है...और विश्वास करें, हर उस प्रांत में,जहाँ रोज़गार के साधनों का अभाव है,यह हर घर की कहानी है...इस गीत की भाषा भले ही गढवाली हो, विरह की व्यथा भारतीय है...ऐसे ही गीत भोजपुरी भाषा में भी हैं...पुनरागमन पर स्वागत.

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  3. नरेन्द्र सिंह नेगी के इस मधुर गीत के बहाने आपने पहाड़ों की याद ताजा कर दी.

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  4. लौट के आ गए मेरे मीत.
    सुन लूँगा गडवाली गीत.
    मुझे भी इस बारिश में
    पसंद आयी अश्रु-ग्रंथि साफ़ करने की रीत.

    अब करते रहना बातचीत.
    सो मत जाना खोलकर मोटर
    नहीं तो बहेगा पानी
    बिजली-बिल जाएगा इस महीने जीत.

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  5. नौकरी की तलाश में पर्देस गमन एक बडी आर्थिक सामाजिक समस्या है. मगर "जाके कभी न पडी बिवाई, सो का जाने..."
    सुन्दर गीत.
    अगर इतना ही शौक है तो वहीँ किसी पहाड़ की कन्दरा में समाधिस्त हो जाओ....
    डाय्लोग पसन्द आया. एक तो सलाह वह भी मुफ्त, क्या कहने!

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  6. @पाण्डेय जी
    मैं तो आजकल समय मिलते ही पाठक बनने का पूरा सुख ले रहा हूँ और आज तो किस्मत से पढने के साथ साथ देखने और सुनने को भी मिल गया , ये नया प्रयोग भी अच्छा लगा ....
    अगर गीत की बात करें तो पहले कुछ पलों में लगा की समझ में नहीं आएगा पर बीच में आते आते मन भाषाओं की दीवारें लांघ कर भाव को समझने लग गया था ( आंख और कान दोनों ट्रांसलेटर जो बने थे ) .....
    गीत तो अच्छा और भावुक कर देने वाला है ही पर यहाँ दोनों कलाकारों के अभिनय को भी इसका पूरा श्रेय दूंगा
    ये देख कर राजस्थानी जीवन शैली पर बनी फिल्म " पहेली " के एक गीत की याद ताजा हो गयी ( इसके एक गीत में पुरुष की विरह वेदना को दिखाया है )
    बोल हैं "खाली है तेरे बिना दोनों अंखिया "

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  7. बहुत खूब व्यक्त किया है आपने कमाने के लिए पलायन ( दिसावर ) करने वालों ओर उनके परिजनों के दर्द को.......................... गीत का चयन भी अच्छा रहा................नरेश सिह राठौड़ जी का ब्लॉग है मेरी शेखावटी उसमें उन्होंने इसी दर्द को व्यक्त करती काव्य श्रंखला "दरद दिसावर" पोस्ट की थी, एक बार पढियेगा जरूर >>>>>>>>>>>>>
    http://myshekhawati.blogspot.com/2009/06/sekhawatis-famous-poet-shri-bhagirath.html
    http://myshekhawati.blogspot.com/2009/07/2-dard-disawar-part-2wrote-by-shri.html
    http://myshekhawati.blogspot.com/2009/07/3-dard-disawar-part-3-wrote-by-shri.html
    http://myshekhawati.blogspot.com/2009/08/4-dard-disawar-part-4-last-wrote-by.html

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  8. bahut accha likha hai...hum bhi pahaad ghum liye.

    garhwali gana bahut acchha laga..Thanks.

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