मेरी इस बार की यात्रा मेरे लिए यादगार है क्योंकि इस जीवन में ३७ गर्मियां देखने की बाद ये पहली बार था की मैंने अपने पैतृक गाँव में कुछ दिन गुजरे हों. इससे पहले मैं पहाड़ जाता था पर अपने गाँव में कभी नहीं रुका. असल में मेरे पिता ने कभी भी गाँव की अपनी पुश्तेनी जमीन में हिस्सा नहीं लिया. वो एक बार दिल्ली आए तो वापस लौट के ही नहीं गए. फलस्वरुप हमारा अपने गाँव में खुद का कोई मकान या जमीन नहीं है. हमारे दुसरे बिरादर लोग भी या तो दिल्ली या फिर रामनगर में ही रहते है. गाँव में मेरे ताऊ जी का मकान है जो की जीर्ण अवस्था में है. उसमे ताउजी के एक पुत्र अकेले रहते हैं. तो इस बार हम लोग उनके साथ ही गाँव में ताऊ जी के मकान में ही रहे.
गाँव जाकर पता लगा की मैं किस नरक में रहता हूँ. शास्त्रों में वर्णन है की नरक में भीषण गर्मी होती है. दिल्ली में क्या था भीषण गर्मी. उस गर्मी से निजात मुझे पहाड़ आकार ही मिली. अतः ये यात्रा मेरे लिए नरक से स्वर्ग की यात्रा बन गयी.
अपने उन बिरादरों से मुलाकात हुई जिनसे मैं पहले कभी नहीं मिला था. यहाँ पर मैं एक बात बता दूँ की पहाड़ियों में बिरादर गाँव के अपने सम्बन्धियों को कहते हैं और रिश्तेदार वो होते हैं जिनसे हम विवाह के बाद सम्बन्ध जोड़ते हैं. ये फर्क भी मुझे गाँव जाकर ही पता चला.
गाँव जाकर मुझे पहली बार पता चला की मेरी पत्नी चूल्हे पर भी रोटी बिना किसी परेशानी के बना सकती है.
इस यात्रा में मैंने अल्मोड़ा के चितेई ग्वेल देवता के मंदिर की सपरिवार यात्रा भी की. वो भी एक यादगार यात्रा रही.
अपने इस प्रवास के कुछ चित्र यहाँ दे रहा हूँ..
ये है मेरा छोटा सा एकल परिवार.
भतीजे की हल्दी रस्म करती मेरी पत्नी और मेरी भाभी
रामनगर में मेरे बेटे ने पहली बार डाल का आम देखा.
गाँव में ताउजी जी का मकान.
गाँव में हमारे खेत पर सेब का पेड़.
दो भाइयों की पहली पीढ़ी
दो भाइयों की दूसरी पीढ़ी.
पहाड़ों पर उड़ने की कोशिश.
मेरे कुल देवता चितेई के ग्वेल.
चितेई ग्वेल मंदिर में मेरा परिवार
गाँव की और दो शहरी
चूल्हे पर पकती रोटी.
हमारा उजड़ा चमन (पैतृक मकान)
वो रहा दूर रानीखेत का पहाड़. (मेरे गाँव के सामने का द्रश्य)
ये देखो जून के महीने में सेब ही सेब