एक ब्रह्मण कुल में पैदा हुआ. शुरू से ही अपने व रिश्ते नातेदारों के घरों पर हिन्दू धर्मं के तरह तरह के धार्मिक अनुष्ठानों को देखता चला आ रहा हूँ. तर्पण और श्राद्ध भी ऐसे ही धार्मिक अनुष्ठान हैं जो अक्सर हमरे घरों में किये जाते हैं. मेरी तर्क बुद्धि ने इन्हें कभी नहीं स्वीकारा. मुझे कभी भी नहीं लगा की अगर हम किसी पंडित को भोजन कराएँगे तो उसका कोई अंश हमारे पूर्वजों तक पहुचेगा. जलांजलि कैसे हमारे स्वर्गवासी पितरों की आत्मा की जलन को शांति देगी मुझे कभी समझ नहीं आया.
१९९८ में पिता और सन २००० में माताजी के स्वर्गवास के पश्चात् मेरा सभी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों से नाता टूट गया. मैं सिर्फ पूजा किया करता था वो भी बिना किसी नियम कानून के पूरी स्वच्छंदता के साथ. कभी नहा धोकर निराहार रह कर पूजा कर रहे हैं तो कभी सुबह उठे दो अंडे का आमलेट खाया फिर बैठ गए पूजा करने. कभी सुबह सवेरे ठीक संध्या के समय पूजा कर रहे हैं तो कभी दस बजे घंटी बजा रहे हैं. मतलब यह की मेरी कोशिश ईश्वर से निरंकुशता के साथ सम्बन्ध जोड़ने की थी .
इस बीच कुछ पारिवारिक उलझाने पैदा हुयी जिनकी वजह से मेरा मन कुछ अशांत रहता था. परिवार में आसानी से उपलब्ध ज्योतिषियों ने सलाह दी की ये सब मेरी कुंडली में विद्यमान पितृ दोष की वजह से है. हालाँकि मेरा तार्किक मान कहता था की दोष अगर कुंडली में था तो इसका असर शुरू से क्यों नहीं हुआ पर फिर भी चूँकि मेरी इस अविश्वाशी प्रकृति को देखते हुए मुझे सबसे आसान उपाय बताया गया था की महीने में एक बार अमावस्या को पितरों को जलांजलि दो तो मैंने पितरों को जलांजलि देना शुरू किया.
मैं पिछले एक डेढ़ साल से लगातार तो नहीं पर जब भी याद रहता है तो अमावस को अपने पितरों को कृष्ण तिल मिश्रित जलांजलि देता आया हूँ.
अभी पिछले कुछ समय से मेरा वक्त शांति से गुजर रहा है. कई पारिवारिक समस्याओं का निदान हो चूका है. मैं भविष्य की ओर आशापूर्ण निगाहों से देखता हूँ.
मालूम नहीं ऐसा पितरों को जलांजलि देने से हुआ या फिर कुछ समय ने और कुछ मेरे प्रयासों ने मेरी परेशानियों को दूर किया है. ( या फिर मेरी परेशानिया ब्लॉग की दुनिया से जुड़ने के कारण ख़त्म हुई हैं). पर इस अनुष्ठान से मैंने अपने घर में तिल के पौधों को फलता फूलता जरुर देखा है. असल में मैं जलांजलि के सारे जल को बाद में अपने गमलों में डाल देता हूँ. जल में पड़े तिल गमलों में ही उग जाते है.
इस तर्पण कार्य में मुझे यही सबसे अच्छी बात लगती है. हर बार पितरों को जल अर्पित करने के बाद मैं इंतजार करता हूँ की कितने तिल के पौधे पैदा होंगे. इस बार विकसित हुए एक तिल के पौधे के कुछ चित्र यहाँ दे रहा हूँ आप भी देखे.
एक बड़ी पुरानी अंगरेज़ी कहावत है कि आस्थाएँ तर्कों से परे होती हैं और अनास्थाओं को कोई तर्क मान्य नहीं होता. आप स्वयम् निर्णय कर लीजिए. वैसे आपकी तिलांजलि आपके पूर्वजों तक पहुँच गई है, जिसकी पावतीआपने अपनी पोस्ट पर लगा रखी है, हरी पत्तियों के रूप में.
जवाब देंहटाएंआपकी पिछली पोस्टों पर टिप्पणी का ऑप्शन उपलब्ध न होने के कारण टिप्पणी नहीं कर पाया..
are waah paudhe to bade sundar hain...sahi hai ek anusthaan ke bahane ek naya jeevan panap raha hai...
जवाब देंहटाएंदेर आयद हृष्ट आयद. इस बहाने तिल के ताड़ (i mean पेड़) भी देखने को मिल गए. पितृ तर्पण में विद्वान् ब्राह्मण को खिलाने के बहाने अपने पितरों की मधुर यादें एक सहृदय बुज़ुर्ग से बांटने और अच्छा महसूस करना आसान हो जाता है. उसकी जगह आप पक्षियों को दाना दाल सकते हैं या किसी अनाथालय या विद्यालय में कुछ श्रमदान कर सकते हैं.
जवाब देंहटाएंबुद्धि और तर्क से हटी आस्था कभी ईश्वरीय नही हो सकती
जवाब देंहटाएंTark sangat shradha achhee hi hoti hai,kewal andh shraddha na ho!
जवाब देंहटाएंTilka paudha pahi baar dekha..ab maibhi gamleme til dalke dekhungi!
हमारे बहुत से धार्मिक क्रिया कलाप ऐसे हैं जिनका वैज्ञानिक महत्व स्वास्थ्य, समाज व पर्यावरण के लिये था, लेकिन ये साधारण जनता को सम्झाना इतना आसान नहीं था। धर्म का नाम लेकर इन्हें जीवनशैली का हिस्सा बनाना, शायद यही वजह रही होगी। मैं खुद भी कोई नियमित कर्मकांडी नहीं हूं, लेकिन फ़िर भी खुद को धार्मिक मानता हूं।
जवाब देंहटाएंआप मन से कर रहे थे या नहीं, लेकिन लाभ मिला न? और कुछ न भी हो तो ये खूबसूरत चित्र वातावरण पर पड़े छोटे ही सही लेकिन सुखद प्रभाव की कहानी कह रहे हैं।
तिल का पैधा मैंने भी नहीं देखा, वैसे तो बहुत कुछ नहीं देखा, बहरहाल बढ़िया पोस्ट लगी।
आभार।
राजस्थानी में एक कहावत है की "जीता जी न पूछी बात मर्या पाछे कर्या सराध" मतलब की संतान ने माता पिता के जीवित रहते तो उनका कुछ ख्याल नहीं रखा और मरने के बाद बड़े धूम-धाम से उनका श्राद्ध करता है.
जवाब देंहटाएंजैसा की मो सम जी ने बताया-
@हमारे बहुत से धार्मिक क्रिया कलाप ऐसे हैं जिनका वैज्ञानिक महत्व स्वास्थ्य, समाज व पर्यावरण के लिये था, लेकिन ये साधारण जनता को सम्झाना इतना आसान नहीं था। धर्म का नाम लेकर इन्हें जीवनशैली का हिस्सा बनाना, शायद यही वजह रही होगी।
उसी तरह श्राद्ध का भी अपना एक सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण है . सामाजिक इन अर्थों में की श्राद्ध का अर्थ ही श्रद्धा से जुड़ा है, और जब आदमी अपने नित्य कर्म में ही मृतक पूर्वजों के निमित्त कुछ कर्म करेगा जो की श्रद्धा से अनुगुन्ठिथ होती है तो अपने जीवित बुजुर्गों की सेवा तृप्ति की भावना भी सहज विकसित होती है . सारी परम्पराए है तो व्यापक दृष्टिकोण से प्रेरित, पर अपनी ही गति इतनी व्यापक नहीं है इसलिए हम इन्हें संदेह की नज़रों से देखते है.
और देखिये किसने कहा की ये सब पितरों तक नहीं पहुँचता है, श्राद्ध का नियम है की आप अपने पितरों को श्रद्धा से जो भी अर्पण करते है, पितर उससे तृप्त होकर आपको कई गुना अपने आशीर्वाद स्वरुप प्रदान करतें है. प्रत्यक्ष देखिये एक दाने तिल से पैदा हुए एक पौधे में कितने दाने तिल की होंगे. और जब आपकी संतान आपको अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान देते देखति है और अपने माता-पिता की सेवा करते देखति है तो उसमें भी वही भाव उत्पन्न होंगे और वे भी आपके प्रति सच्ची श्रद्धा से लगाव रखेंगे. ना की मरने के बाद दुनिया को दिखाने के लिए श्राद्ध करेंगे.
यही है पित्र तर्पण, श्राद्ध का असली उद्देश्य .
बढ़िया आत्म कथा , मगर विचार शून्य जी , जहाँ तक आस्था का सवाल है , मैं तो यही कहूंगा कि भाग्य इत्यादि कुछ है मगर ये बातें जैसे लालान्जली इत्यादि प्रमाणिक नहीं ! मन को तस्सली देने वाले बात है ! भगवान् और उन पितरों से यही प्रार्थना करूँगा कि आपके गृहस्थ जीवन को हमेशा सुखमय बनाए रखे !
जवाब देंहटाएंश्राद्ध करना या नहीं करना इस पर मुझे भी कुछ समझ नहीं आता था लेकिन जब माता-पिता की मृत्यु हुई तब लगा कि उन्हें स्मरण करने का एकमात्र आधार श्राद्ध ही हैं नहीं तो उनकी पुण्यतिथि तक कोई याद नहीं रखता। जब हम अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं तो उनके संस्कार भी उस स्मरण में स्वत: चले आते हैं और हमारे अन्तर्मन में कुछ न कुछ तो अंकित हो जी जाता है। जब हम किसी के कड़े संघर्ष को सुनते हैं या स्मरण करते हैं तब अपने संघर्ष छोटे लगने लगते हैं और स्वत: ही हम सुखी हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंiss post ko padhkar...jane kyun...mann mein bahut sukoon hai.
जवाब देंहटाएंमैं बहुत देर से सोच रहा हूँ क्या लिखूं इस पोस्ट के बारे में.....
जवाब देंहटाएंआखिकार दिव्या जी की बात ही सही लगी
पोस्ट पढ़ के मन को सूकून मिला है ......
लीक पर चलना ..आस्थावान होना..जीवन जीने का एक सरल तरीका है. संदेह करना ..नए पथ तलाशना ..जीवन जीने का दुर्गम व् कष्टकारी मार्ग है.
जवाब देंहटाएंनए सिद्धांत, नए सूत्र, नई जगह, नव दर्शन ..इन सब की खोज दूसरे प्रकार के लोगों ने ही की है.
हमारे धार्मिक कर्मकांड के पीछे भले ही सीधा बताये जाने वाला उद्देश्य न सफल होता हो लेकिन सिवाय लाभ के नुक्सान होता नहीं दिखता. आखिर यह आस्था ही है कि जिसके कारण लाखों परिवारों का जीवन यापन हो रहा है. हाँ कोई भी कार्य बिना श्रद्धा के नहीं करना चाहिए.
आपकी पोस्ट कई प्रकार के वैचारिक बहस का निमंत्रण देती सी लग रही है.
Aapne "simte lamhen" blog pe poochha,ki yah panchhee kisne kaadhe hain...to maine hee. Comment ke liye bahut,bahut shukriya!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमैं अपने भोगे कष्टों को लेकर शायद पूजा अनुष्ठानों में भरोसा नहीं रखता मगर स्वर्गीय माता पिता से जुडा होने के कारण, श्राद्ध अवश्य करता हूँ लगता है कि जीते जागते न सही इस बहाने मन के किसी कोने में उनके प्रति कुछ अर्पण करने का मौका मिल रहा है ! शायद वे कहीं बहुत दूर से मुझे देख रहे हों ! इसे आप मेरी कमजोरी अथवा कुछ भी कहें ...मुझे बहुत सुख मिलता है !
जवाब देंहटाएंतर्पण हिन्दू संस्कृति का एक उजाला पक्ष है.देखिये-
जवाब देंहटाएंhttp://shakunaakhar.blogspot.com/2009/09/blog-post.html