रविवार, 28 नवंबर 2010

स्त्री सिर्फ एक है बाकी सब पुरुष.

मेरी एक आदत है कि मैं अक्सर अपनी परिचित  महिलाओं को इस तरह से संबोधित करता हूँ मानो वो मेरे पुरुष मित्र ही हों.  दोस्त कैसे हो?.... हाल चल ठीक हैं  जनाब के....... दोस्त सुनो, एक बात बताओ  ...  भई सुनो एक बात पूछनी है.......अरे भैय्या काम हो तो रहा है इतनी जल्दी क्या है..... जैसे अनेक जुमले मैं अपने पुरुष साथियों और महिला साथियों के लिए समान रूप से प्रयोग में लाता हूँ. कुछ एक ने मेरी इस आदत पर ध्यान दिया और मुझे बताया पर कभी भी किसी ने कोई शिकायत या विरोध नहीं किया और मेरी इस आदत को सहजता से ही लिया .

कल  पहली बार सार्वजनिक रूप से किसी ने मुझे मेरी इस आदत के लिए टोका और टोका क्या धो के रख दिया. मैं  कुछ आवश्यक कार्यवश  बैंक गया था जहाँ पर एक सुन्दर सी महिला बैंक क्लर्क को मैं  एक क्षण रुकने के लिए कहना चाहता था . गलती से मैं कह बैठा "भैय्या  एक मिनट रुको.....".  मेरे ये शब्द सुनकर उन भद्र महिला ने जो मेरा सार्वजनिक अभिनन्दन किया वो मैं कभी भूल नहीं सकता. उनकी नाराजगी भी जायज थी. मेरे भैय्या के संबोधन ने उनके सजने सवारने को व्यर्थ कर दिया होगा. कभी सोचा ना था कि मेरी एक मासूम सी आदत  मुझे ये दिन भी दिखाएगी. मैंने तुरंत उनसे क्षमा मांगी और अपना कार्य पूरा कर घर वापस आ गया. जब कभी किसी बात पर मिटटी पलीद हो जाती है तो आदमी सोचता ही है कि कहाँ क्या गलत हुआ सो मेरा भी कल का सारा दिन इसी बात पर मनन में बीता कि मुझसे ये गलती क्यों होती है.

पता नहीं क्यों भौतिक रूप से  स्त्री व पुरुष मेरे लिए  एक से ही हैं. कोई स्त्री  मुझे मादा सी तब दिखती है जब उसे देख मेरे मन में कोई रासायनिक क्रिया शुरू हो वर्ना जैसा व्यवहार मैं किसी दुसरे पुरुष के साथ करता हूँ वैसा ही व्यवहार मैं महिला के साथ करता हूँ. 

कभी बस में जा रहा हूँ और भाग्यवश सीट मिल जाय और वो सीट महिलाओं के लिए अरक्षित ना हो तो किसी महिला को अपनी सीट मैं तभी दूंगा जब वो या तो बूढी होगी या फिर बच्चों के साथ होगी पर ऐसा तो मैं किसी बूढ़े के साथ या किसी ऐसे पुरुष के साथ भी करता हूँ जब उसके साथ उसके बच्चे हों. किसी महिला को बैठने के लिए अपनी सीट सिर्फ इसलिए दे देना कि वो महिला है मुझे ठीक नहीं लगता. आप कह सकते हैं कि मेरे अन्दर अंग्रेजी Gentelman वाले गुण नहीं हैं. ऑफिस में भी जब कोई महिला सहकर्मी काफी समय से लंबित पड़ा अपना  कार्य निपटवाने के लिए सहायता कि गुहार लगती हैं तो मैं उनकी सहायता के लिए कभी नहीं जाता. हलाकि बस में भी और ऑफिस में भी इन महिलाओं को सहायता का हाथ बढ़ाने वाले बहुतायत से मिल जाते हैं पर मैं बेशर्म ही बना रहता हूँ.  

जहाँ तक रासायनिक क्रिया द्वारा मादा को पहचानने कि बात है तो विवाह उपरांत तो मैं उस पदार्थ में परिवर्तित हो चुका हूँ जो सिर्फ एक से ही रासायनिक क्रिया कर पाता है और बाकी सभी के लिए  निष्क्रिय होता है .

अध्यात्मिक दृष्टि से विचार करता हूँ तो जैसे कुछ लोग कहते हैं कि इस जगत में पुरुष सिर्फ कृष्ण ही हैं बाकी तो सभी गोपियाँ हैं  उसी तरह से मेरे लिए तो अब इस संसार में स्त्री सिर्फ एक ही है बाकी तो सभी पुरुष हैं क्या नर क्या मादा .

काश ये बात बैंक कि वो महिला कर्मी समझ पातीं  तो वो इस तरह से मेरी सार्वजनिक धुलाई ना करती.... 

शनिवार, 20 नवंबर 2010

लड़कियों के नाक कान छिदवाना जरुरी है क्या ?

मैं ये जानना चाहता हूँ की लड़कियों के नाक और कान छिदवाना जरुरी होता है क्या? अगर उनके नाक और कान छिद्रित ना हों तो क्या फर्क पड़ेगा?

मेरी बिटिया ढाई वर्ष की हो गयी है. पत्नी चाहतीं हैं की उसके कानों में बाली पहना दी जाय जबकि मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ. मैं सोचता हूँ की जब वो बड़ी हो जाएगी और अगर उसकी इच्छा होगी तो वो ये काम खुद कर लेगी. हम अभी से जब उसे खुद इस बात की समझ नहीं है सिर्फ अपनी इच्छा के लिए क्यों ये काम करें. अगर वो कुंडल या नथ पहनना ही चाहेगी तो आजकल तो ये नाक और कान में छिद्र करवाए बिना भी संभव है. कुछ इस तरह के कानों के कुंडल आते हैं जिन्हें बिना छिद्र के भी पहना जा सकता है जैसे की अक्सर नाटकों में पहने जाते हैं.

इस विषय में मेरे एक मित्र ने मुझे बड़ी रोचक बात बताई. उनके अनुसार कान और नाक में छिद्र करवाने से स्त्रियों की कामुकता कम हो जाती है या उनके शब्दों में कहें तो शरीर की गरमी निकल जाती है. नाक कान छिदवाने का ये बहाना मुझे नहीं जंचा. शरीर क्या कोई गुब्बारा है की जिसमे छिद्र करो और गरमी बाहर. अगर ऐसे ही कामुकता ख़त्म होती हो तो सारे बलात्कारियों के नाक और कान छिद्वादो या सजा के तौर पर उनके नाक और कान कटवा ही दो. ना रहेगा बांस और ना रहेगी बांसुरी.

मित्र ने अपनी बात के समर्थन में पश्चिमी देशों का उदहारण भी दिया की वहा स्त्रियों के नाक और कान छिद्रित नहीं होते जिस वजह से वो इतनी हॉट होती हैं. वैसे पडोसी देश में ये रिवाज है की वो कामुक स्त्रियों के नाक कान कटवा देते हैं. कहीं इस रिवाज के पीछे की मानसिकता येही तो नहीं की नाक कान स्त्रियों की कामुकता को नियंत्रित करते हैं.

इस विषय में मेरा अपना एक अनुभव है. हम जनेऊधारी ब्रह्मण लोग शौच जाते वक्त अपने जनेऊ को कान पर लपेट लेते हैं. जब मैंने इसका कारण जानना चाहा तो मुझे बताया गया की हमारे कान में कोई ऐसा पॉइंट होता है जिसे दबाने पर पखाना तुरंत पास हो जाता है. एक बार मैं इसकी जाँच के लिए घंटे भर शौचालय में बैठ कर अपने दोनों कानों को दबाता रहा पर कोई ऐसा बिंदु नहीं मिला जहाँ पर दबाव पड़ते ही मीटर डाउन हो जाय. इस कसरत में कुछ नहीं हुआ बस घंटे भर बाद मैं लाल कानों के साथ टॉयलेट से बाहर आया.

भाई मैं तो अपनी गुडिया को इस उम्र में तंग नहीं करने वाला. बाद में जो होगा देखा जायेगा. वैसे व्यक्तिगत तौर पर मुझे स्त्रियों के छिदे हुए नाक और कान उस वक्त बिलकुल पसंद नहीं जब वे सूने पड़े होते है. बाली और नथ के बिना ये सूने नाक और कान मेरे मन को बहुत दुःख देते हैं और तब मुझे लगता है की स्त्रियों की नाक और कानों में छिद्र होता ही नहीं तो अच्छा होता.


गुरुवार, 11 नवंबर 2010

आइये जरा देखें और बताएं ये कौन सा पक्षी है.


दीपावली से एक दिन पहले मैं सुबह जब अपनी छत पर पौधों को पानी दे रहा था तो सामने वाले मकान की दीवार पर एक  पक्षी को  देख कर चौंक  गया. वो  छत की दीवार पर बैठा एक मांस का टुकड़ा खा रहा था. इस पक्षी का  आकार एक कोए के समान था. मुझे पहली नज़र में ये सिखों के गुरु गोविन्द सिंह जी के चित्रों में दिखाने वाले बाज पक्षी सा लगा. मुझे आश्चर्य हुआ कि दिल्ली में बाज जैसा पक्षी कैसे हो सकता है.

शिकारी जीवों में चाहे वो पक्षी हों या फिर जानवर एक अजब सा आकर्षण होता है. उनके हाव भाव उनके निर्भीक स्वभाव को दर्शाते हैं.  बड़े ही शांत भाव से वो अपने पंजे में दबे मांस के टुकड़े को खा रहा था. मैंने अपने जीवन में पहली बार किसी शिकारी पक्षी को इतने नजदीक से देखा.  मुझे इस शानदार पक्षी ने अपना एक चित्र भी लेने दिया और उसके बाद ये उड़ कर जाने कहाँ चला गया.

सफ़ेदपोश गिद्धों कि  दिल्ली में आए इस शिकारी पक्षी  के आप भी दर्शन करें और अगर जानते हों तो इसका सही नाम भी बता दें.