रविवार, 21 अप्रैल 2013

बकवास बंद ! आइये प्रेम की बात करें।





यूँ तो मन था की बकवास जारी रखी जाय और स्त्री समानता पर अपने घिसे-पिटे विचार प्रस्तुत किये जाय पर अदा जी की टिप्पणी  और अपने ब्लॉग जगत में जर्मनी पुरस्कारों को लेकर चल रही घमासान से मुझे लगा की प्रेम मोहब्बत की बात की बात करना ज्यादा अच्छा होगा। वैसे इस ओर मेरा ध्यान आकर्षित हुआ  "आराधना का ब्लॉग" की एक पोस्ट से जिसमे नारीवादी स्त्री प्यार कर सकती है या नहीं इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला गया था।

प्रेम सभी जानते हैं की भगवान की इन्सान को दी हुयी सबसे बड़ी नेमत है। बड़े बड़े गुणी जनों ने इस पर बहुत बहुत  कुछ लिखा है। पर क्या करू सभी ने प्रेम भावना को इतने भिन्न रूपों में परिभाषित किया है की मैं उलझ जाता हूँ की वास्तव में प्रेम किस चिड़िया का नाम है और ये किस डाल पर बैठती हैं।

किस्से कहानियों में तो सच्चे प्यार की बहुत सी दास्तानें लिखी और सुनायी गयी हैं जैसे राधा-कृष्ण,लैला-मजनू आदि आदि पर जब भी मैंने सच्चे प्रेम के वास्तविक जीवन में उदहारण खोजने की कोशिश की तो मुझे नाकामी ही मिली।

मुझे लगता है की शायद मैंने प्रेम की कोई मुश्किल सी परिभाषा पढ़ ली है या फिर प्रेम को परिभाषित ही नहीं किया जा सकता है।


यूँ तो प्रेम एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है पर इसकी जो सबसे उत्तम परिभाषा आज तक मुझे मिली  उसके अनुसार प्रेम वो भावना  है जिसमे हम किसी पर बिना कुछ चाहे अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं या कर देने की इच्छा रखते हैं । (अगर इससे बेहतर कोई और परिभाषा है तो मैं जानना चाहूँगा)

उपरोक्त परिभाषा के आधार पर मुझे तो लगता है की मानव मन की जिस भावना का हम प्यार समझते हैं उसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि किस्से कहानियों को छोड़ वास्तविक जीवन में इसके उदहारण आपको ढूंढे नहीं मिलेंगे। जिस प्रकार से सत्यनारायण की कथा में उस कथा के महात्मय को ही बतलाया गया है वास्तविक कथा का कहीं भी जिक्र नहीं है उसी प्रकार प्रेम एक ऐसी उच्च कोटि की मानवीय भावना है जो मानवों में ढूंढे नहीं मिलती। 
सबसे पहले स्त्री पुरुष के प्रेम को लें। यहाँ में किस्से कहानियों में वर्णित  काल्पनिक चरित्रों का उदहारण नहीं लेना चाहता अपने इर्द गिर्द के वास्तविक प्रेमियों की बात ही करना चाहता हूँ। अपने आस पास आपको ऐसा एक भी उदहारण नहीं मिलेगा जहा दो प्रेमी एक दुसरे पर बिना कुछ चाहे न्योछावर हों। दो प्रेमियों के मध्य आपको या तो यौन आकर्षण मिलेगा या आर्थिक सामाजिक सुरक्षा की चाहत दिखाई देगी।  कहा तो बहुत कुछ जायेगा पर ध्यान से देखने पर आप पाएंगे की कहीं न कहीं दोनों को एक दुसरे की जरुरत है इसलिए प्रेम पनपा है।
आप माता पिता और सन्तानों  के मध्य के प्रेम को ले लें। यहाँ भी निस्वार्थ कुछ नहीं है।एक दुसरे से कोई न कोई चाहत आपको नज़र आ ही जाएगी।
सांसारिक संबंधों की बात छोड़ अध्यात्मिक स्तर पर आयें तो वहां भी हम लोग ईश्वर से प्रेम किसी न किसी लालच के कारण  करते हैं।  हम  जन्म मरण से मुक्ति चाहते  हो या जन्नत में हूरों  के ख्वाब देखते हों, ईश्वर  से प्रेम हम किसी न किसी चाहत के कारण ही करते हैं।
तो प्रेम असल में है कहाँ ? क्या ये वास्तविकता में होता भी है ? मुझे तो लगता है की प्रेम शब्द ही एक छलावा है। प्रेम एक काल्पनिक शब्द है और असल में प्रेम होता ही नहीं है। मुझे तो लगता है की  जिस भावना को हम प्रेम के रूप में परिभाषित करते हैं वो असल में आनंद या सस्ते में कहें तो मज़ा है।
प्रत्येक इन्सान अपने संबंधों में चाहे वो साथी इंसानों के साथ हों या किसी और चीज के साथ आनंद की तलाश में रहता है। जब उसे वो अननद मिलता है तो वो कहता है की उसे प्रेम हो गया है। आपसी संबंधों में जब आनंद नहीं रहता तो प्रेम भी ख़त्म हो जाता है। जब माता पिता अपनी संतान का लालन पालन करते वक्त आनंदित होते हैं तो उन्हें अपनी संतान से प्रेम होता है पर बाद में जब उन्हें अपनी संतान से कोई चाहत होती है और वो पूरी नहीं होती तो उनका आनंद ख़त्म हो जाता है।

स्त्री पुरुष जब पहली नज़र में एक दुसरे को आनंद लेने और देने योग्य पाते हैं तो ये पहली नज़र का प्यार कहलाता है और जब ये आपसी मज़ा खत्म हो जाता है तो प्यार भी कहीं मर जाता है।
कभी कभी स्त्री पुरुष पहली नज़र में एक दुसरे को मज़ा लेने और देने के योग्य नहीं पाते पर धीरे धीरे साथ रहते रहते एक दुसरे की उपस्थिति से आनंद लेना सीख जाते हैं तो कहा जाता है की प्यार धीरे धीरे परवान चढ़ा। दो स्वतंत्र व्यक्तित्व जब एक दुसरे में आनंद खोजते हैं तो कुछ को लगता है की यही सच्चा प्यार है पर जब उन्हें अपने संबंधों में आनंद नहीं मिलता तो यह सच्चा प्यार भी कुछ दिनों में लुप्त हो जाता है। 

हम ईश्वर का भजन करते हैं, पूजा पाठ करते हैं हमें आनंद मिलता है हम कहते हैं की हमें इश्वर से प्रेम हो गया।जिस दिन ईश्वर से हट कर हमें सांसारिक वस्तुओं में मजा मिलने लगता है तो हमें संसार से प्रेम हो जाता है।


लगता है की अब ज्यादा उदहारण देने की आवश्यकता नहीं। मेरी बात आपकी समझ में आ ही गयी होगी :-))
तो मेरी बात मानिये इस संसार में प्यार, मोहब्बत और  प्रेम जैसी कोई चीज है ही नहीं । जो कुछ है आनंद ही आनंद है। अतः जीवन के पुरे मजे लें जो अच्छा लगता है उसके साथ लें और मजे ना मिलें तो लूट लें। 

31 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम पर तार्किक चिंतन .......... बहुत पसंद आया।

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  2. आपको कथित प्रेम में छुपे स्वार्थ के दर्शन हो गए है प्रभु!!
    आपका निरीक्षण सही है. वह आनंद और खुशी के स्वार्थहित उपजा,पनपा,परवान चढा स्वार्थ ही है. दर्शन में इसे स्पष्ट 'मोह' कहा है. और यह स्वार्थोपार्जित मोह स्वतंत्र नहीं रहने देता,परवश कर देता है. ऐसे प्रेम में विकृतियोँ का भंडार है, सैडिस्ट मनोविकार भी होते है पीडा मेँ आनंद लेना. विरह के भी मजे लेना, देवदास बनने शौक, जलाना और जलने से भी आनंद की अनुभूति करना. ऐसे प्रेम में आनंद-स्वार्थ के साथ साथ विकार भी होते है. संतान मोह - बच्चे के साथ छुपा-छुपी खेलते है,जानकर छिप जाते है, बच्चा जब ना देखकर "पापा कहाँ गए" कहते रोने लगता है तो आनंद की बाढ आ जाती है. अपने महत्व का अहँकार और उपजता मोह और उससे लिया जाता आनंद!!

    व्यापक प्रेम की परिभाषा है अपने आत्मकल्याण के हेतु (स्वार्थ) जगत के प्रत्येक चेतन का हितचिंतन करना.(मोह नहीँ मोह पक्षपात कराएगा) आज के युग में यह असल प्रेम दुर्लभ है.

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  3. सच्चा प्रेम-बेताल की तरह, जिसका चर्चा सब तरफ, लेकिन देखा किसी ने नहीं.

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  4. ऐसा ही होता है मित्रता का प्रेम. हम उस मित्रता को सर्वोत्कृष्ट मानते है जिसमें हमारी एक तरफा शर्तें पूर्ण हो. हमारा मित्र हमारी ही आचारसंहिता का पालन करे....हमारी असम्मान योग्य खामियों को उजागर ना करे और हमें न भरपूर सम्मान देता रहे बल्कि दूसरों की नजर में भी हमें सम्मानित बनाता रहे.हम ढूंढते हैं उसमें अपनी प्रशंसा का प्रचारक. यही स्वार्थ होता है.या मेरे पर मेरे लट्टू है,मेरे अच्छे स्वभाव से प्रभावित है वाली सोच, कैसे निस्वार्थ हो सकती है. अतः प्रेम में निस्वार्थता शून्य होती है मात्र भ्रमित करने के लिए लेबल में यह शब्द बोल्ड प्रकाशित किया जाता है. कौन एलिमेंट एनालिसिस करवाता है कि कंटेंट में स्वार्थपरता मिक्स्ड है.

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  5. मेरे ख़याल से प्रेम भी इश्वर की तरह तर्कों या ओबजर्वेशन से नहीं समझा जा सकता .. ये तो अनुभव करने वाली बात है ....जब अनुभव होगा तो बयान करने के लिए शब्द-कोष नहीं होगा

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    1. जिस प्रेम की बात है वह भौतिक प्रेम है, कथित प्रेम को तर्कों व ओबजर्वेशन से समझा जा सकता है. निश्चित ही व्यापक प्रेम जो आध्यात्मिक होता है,ईश्वर सम अनुभव की बात है.

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    2. वाह वाह !!! क्या बात है गौरव जी कितनी सही बात कही आप ने

      वैसे अनुभव से कहा है की बस सुनी सुनाई ;)
      दीप जी
      इसी बात को सस्ते में कहु तो कहा जायेगा की बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद :)

      ( नहीं मै आप को बन्दर नहीं कह रही ये बस एक कहावत है , कहना पड़ता है पता नहीं कब लोग किस बात पर बुरा मान जाये )

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  6. मैंने एक पोस्ट लिखी है सोचा उसके कुछ अंश यहाँ डाल दूँ :

    दोस्ती के कुछ अलिखित नियम होते हैं, जिनको अगर आप समझ जाते हैं तो आप एक सच्चे मित्र बन सकते हैं और आप एक सच्चा मित्र पा सकते हैं। कोई भी दो व्यक्ति एक जैसा नहीं सोचते, न ही उनकी भावनाएं एक सामान हो सकतीं हैं। लेकिन यदि उन्हीं दो व्यक्तियों के बीच मित्रता का सम्बन्ध होता है, तो ये अपेक्षित है कि दोनों मित्र एक दूसरे को इतनी शिद्दत से समझे, इतनी गहराई से महसूस करें, कि विचारों में भिन्नता होने के बावजूद भी, एकदूसरे के विचारों और भावनाओं का वो सम्मान करें। उनके अपने-अपने विचारों और भावनाओं का असर दोस्ती पर न पड़े।

    दो मित्रों के बीच बहुत ज्यादा स्पष्टवादिता हो, बातों में खुलापन होना बहुत ज़रूरी है। घुमा-फिर कर बात करना, बातों को छुपाना मित्रता की नींव को कमज़ोर करता है।

    संदेह, पूर्वाग्रह और आजमाईश दोस्ती के लिए दीमक का काम करते हैं।

    मित्रों की सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहना, उनका सुख अपना हो कि न हो, उनका दुःख तो अपनाना ही चाहिए।

    एक सच्चे मित्र का प्यार भरा हाथ अगर आपके सर पर है तो वो हाथ दुनिया की हर मुसीबत से लड़ने की ताक़त देता है। प्यार से भरा ये रिश्ता आपको ऊर्जावान बनाता है। दोस्त वही है, जो जरुरत के वक्त काम आए, जिसके आने से आपकी खुशी दोगुनी हो जाएँ और दुःख आधे।

    कहते हैं, दोस्ती जिंदादिली का नाम है। जब आपका सच्चा दोस्त आपके सामने आये तो आप खुद को और सबल महसूस करें। यह एक ऐसा रिश्ता है जिसे सिर्फ दिल से ही जिया जाता है। इसमें औपचारिकता, अहंकार व प्रदर्शन नहीं बल्कि सामंजस्य व आपसी समझ काम आती है। सामंजस्य, समर्पण, समझ और सहनशीलता एक अच्छे दोस्त और दोस्ती की पहचान होती है। दोस्ती में कोई अमीरी-गरीबी या ऊँच-नीच नहीं होती। इसमें केवल भावनाएँ होती हैं, जो दो अनजान लोगों को जोड़ती हैं। अगर आपको एक सच्चा दोस्त मिल गया है, तो आपका सच्चा दोस्त आपकी जिंदगी बदल सकता है। वह आपको बुराईयों के कीचड़ से निकालकर अच्छाइयों की ओर ले जाएगा। हमेशा आपकी झूठी तारीफ करने वाला और चापलूसी करने वाला आपका सच्चा दोस्त नहीं है।

    सच्चा दोस्त वही है जो आपकी गलतियों पर पर्दा डालने के बजाय निष्पक्ष रूप से अपना पक्ष, आपके सामने प्रस्तुत करे। आपको आपकी बुराईयों से अवगत कराए, लेकिन दूसरों के सामने आपका सम्मान बचा कर रखे। वो आपको सही और सच्ची बात बताये, इसके लिए बेशक़ वो कुछ कडवे बोल, बोल जाए। उसके कुछ कड़वे वचन यदि आपकी जिंदगी को बदल देते हैं तो समझिए कि वही आपका सच्चा दोस्त है फिर ऐसे दोस्त को छोड़ना सबसे बड़ी मूर्खता होगी।

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  7. दीप जी,
    आपके आलेख की अंतिम पंक्तियाँ मुझे समझ नहीं आयीं है "जो कुछ है आनंद ही आनंद है। अतः जीवन के पुरे मजे लें जो अच्छा लगता है उसके साथ लें और मजे ना मिलें तो लूट लें। "

    कृपया बताइयेगा क्या अर्थ है इसका ?

    खैर बात आपने यहाँ प्रेम की की है, जिस तरह के प्रेम की बात आप कर रहे हैं और आप कहते हैं ऐसा प्रेम नहीं है, तो आप गलत हैं, ऐसा प्रेम है और इसी दुनिया में है। कम से कम मेरे लिए तो है ऐसा ही प्रेम। आप मुझे इस मामले में बहुत ख़ुशकिस्मत कह सकते हैं। कोई अपेक्षा नहीं, कोई उम्मीद नहीं, लेकिन सबकुछ गँवाने को तैयार। हैरानी होगी आपको लेकिन ऐसा ही है।

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  8. वोटिंग विज़ेट लगा देते तो मुझे कमेंट करने में आसानी होती :)

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    1. वोटिंग विजेट लगा ही दीजिये दीप जी या फिर वो गाना ...
      ये बेकार बेदाम की चीज़ है :)

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  9. प्रेम के जिस तर्तिक अर्थ की आपने बात की है वो किसी के स्त्री या पुरुष होने के ऊपर है ..... मुझे तो लगता है हर इन्सान प्रेम में भी अपना सुख, अपना स्वार्थ ही खोजता है, कुछ अपवाद हो सकते हैं ....

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  10. तो मतलब अब प्रेमी लोग प्रेक्टिकल हो गए हैं।अब वो लैला मजनू की तरह रूमानी ख्यालों वाली किसी और ही दुनिया में नहीं रहते बल्कि अपना अच्छा बुरा समझते हैं।चलिये खुश हो जाइए ।उम्मीद है अब आपको प्रेमियों को लेकर चिंता नहीं हुआ करेगी जैसे भगवान और भक्त के संबंधों को लेकर नहीं होती।

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  11. माँ को दूध पिलाते देखा है..चिड़ियों को अंडे सेते देखा है..कैसे कह दूँ कि धरती में प्रेम नहीं होता!

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    1. अगर भावनाओं से अलिप्त रहकर कहा जाय तो वंश वृद्धि का प्राकृतिक मोहबंधन.

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  12. विचार शून्यता में उपजे इस ख़याल और मजमून की मैं भी ताकीद करता हूँ :-)

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  13. जहा तक मुझे याद है की प्रेम पर एक लम्बा चौड़ा भाषण मै पहले ही आप की एक पोस्ट पर दे चूँकि हूँ जब आप ने वेलंटाइन डे को चोचला कहा था और मैंने कहा था की जरा पत्नी को एक गुलाब तो दीजिये फिर देखिये की कि आप के लिए उसके अन्दर कितना प्रेम भरा पड़ा है , जो आप के अपना प्रेम न दिखाने के कारन संकोच में वो भी पत्नी के दिल में पड़ा पड़ा बेकार हो रहा है , क्योकि पत्निया संकोची होती है एक कदम आप के पढ़ाने पर ही बढेंगी । प्रेम सिर्फ एहसास है इसे रुह से महसूस करे ........... इसे हम आप को बता नहीं सकते है , पर अफसोस की आप का ये जीवन बिन प्रेम ही गुजरने वाला है , क्योकि एक माध्यम वर्गीय टिपिकल भारतीय पति को पत्नी से प्रेम तो होने से रहा , और पत्नी के रहते किसी और से आप को प्रेम हो ऐसा हम कभी नहीं चाहेंगे , सो अगले जनम तक इंतजार कीजिये इसके अनुभव के लिए :)

    वैसे बता दू की एक स्त्री और पुरुष के लिए प्रेम की परिभाषा भी अलग अलग होती है और प्रेम भी और उसे दर्शाने का तरीका भी सो जिस प्रेम की बात आप कर रहे है उसके लिए आप को अगले जनम में स्त्री रूप में जन्म लेना होगा , तब आप प्रेम की बिलकुल सही वाला रूप देख सकेंगे और समझ सकेंगे :)

    अगले जनम के लिए शुभकामनाये !!!!

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  14. बाकि पिछली बकवास समयाभाव के कारण बाद में नहीं पढ़ पाई अगली फुरसत में उसे भी पढ़ती हूँ उम्मीद है चोखेरबाली पोस्ट पर जवाब दिया होगा , उसमे बहस की जगह ज्यादा है प्रेम के बजाये , वहा ज्यादा टाइम खोटी कर सकते है :)

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  15. प्रेम एक शाश्‍वत भाव है जो प्रत्‍येक प्राणी में कमोबेश रहता है। इस प्रेम की अनुभूति हम अपने रक्‍त सम्‍बंधों में कर पाते हैं जब दूर बैठा हमारा भाई या बहन कभी आहत होते हैं तो हम भी आहत होते हैं। लेकिन स्‍त्री और पुरुष के बीच जो आकर्षण है उसे प्रेम नाम देकर भ्रमित किया गया है। कई मनुष्‍य सभी से प्रेमभाव रखते हैं जबकि कई मनुष्‍य केवल उन्‍हीं से प्रेमभाव रखते हैं जिनसे उनका स्‍वार्थ सिद्ध होता है जिसे आप आनन्‍द का नाम दे रहे हैं।

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  16. "प्रेम एक ऐसी उच्च कोटि की मानवीय भावना है जो मानवों में ढूंढे नहीं मिलती"

    ---तो फिर यह शब्द व भावना आई कहाँ से ? यदि मानव में नहीं तो उसे मानवीय भावना क्यों कहा गया ...यदि सिर्फ किस्से कहानियों में तो ..साहित्य समाज का दर्पण होता है ..उसके अनुसार समाज से ही आई अर्थात होती अवश्य है ... हम ढूंढ नहीं पा रहे क्योंकि विचार शून्यता में हैं....

    ---प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो ...तभी वह निर्मल आनंद होगा जिसकी खोज में मानव युगों से टहल रहा है ...
    "प्रेम सभी से कीजिये, सकल शास्त्र का सार |
    प्रेम करे दोनों मिलें, ज्ञान और संसार || .... बस यही वह आनंद है जिसका आपने जिक्र किया है....शर्त है कि सभी से कीजिये....

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  17. प्रेम का मूल अर्थ भाव व रूप एक ही है ..जो वैदिक साहित्य में एक वाक्य में कह दिया गया है....."मा विदिष्वावहै "...किसी से भी विद्वेष न करें ....

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  18. "जीवन के पुरे मजे लें जो अच्छा लगता है उसके साथ लें और मजे ना मिलें तो लूट लें। "

    ---- यही तो प्रेम हीनता है ....दुष्कर्म का प्रेरक है ...बलात्कार का भी....

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    1. दुष्कर्म ...बलात्कार ....
      डाक्टर साहब किसी मरीज को खांसते देखकर क्या आप सीधे सीधे उसे टी बी का मरीज घोषित कर देते हैं .........

      प्रभु रहम करें !

      यह अंतिम वाक्य मैंने एक सस्ती कहावत "जिंदगी में मौज लें, रोज लें और ना मिले तो खोज लें से प्रेरित होकर लिखा है। इसके अलावा इस वाक्य का और कोई अर्थ नहीं है।

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