रविवार, 30 मई 2010

बिटिया नादान है.

बिटिया नादान है.



बहु मेरे लिए नेहा और तुम एक जैसे हो. तुम दोनों की उम्र भी बराबर है. मैं तुम दोनों में कोई फर्क नहीं करती इसलिए तुम्हे डाट रही हूँ. अब सुनो..... देखो तुम्हारे परिवार में क्या होता है मुझे पता नहीं पर हमारे परिवार में बहु बेटिया नगें सर घुमती अच्छी नहीं मानी जाती. अब तुम कोई बच्ची तो हो नहीं की ये बात तुम्हे बार बार बतलाई जाएगी इसलिए आगे से ध्यान रखना. मैं अपने घर में संस्कारी माहोल चाहती हूँ. ठीक है... अब जाओ.

अरे नेहा तुम कहाँ चली चुपके चुपके...... और बेटा ये तुम्हारी चुन्नी कहाँ है ..... देखो स्लीवलेस टॉप चुन्नी के बिना थोडा अच्छा नहीं लगता.... अरे तुम मेरी बात सुन रही हो की नहीं.... अरे! सुनो........नेहा !.....ये लड़की भी ना .... चली गयी....


इसका बचपना अभी गया नहीं..... मेरी बेटी .... अभी भी नादान है.





प्रायवेट स्कूल महंगे है.


यार दीपू तू तो एजुकेशन में रहा है ना... यार जरा बता अपने अस पार कोन सा सरकारी स्कुल बढ़िया है..... अरे यार वो छोटी बेटी है ना उसका दाखिला करवाना है. अब तुझे तो पता ही है ये प्रायवेट स्कुल सब एक जैसे है.... सालों ने स्कुल के नाम पर दुकाने खोल रखी हैं हमें लूटने के लिए.. क्या करूँ यार बड़े लड़के को bharti करा दिया था अब भुगत रहे है. अब उसे सरकारी स्कुल में भी नहीं डाल सकते. अब तो बस बिटिया को ही सरकारी स्कुल में पढ़ाएंगे . कुछ खर्चा तो बचेगा. ...... यार तू देखना कोई अच्छा सा सरकारी स्कुल.

 
 
सरकारी स्कुल तो बकवास हैं.

अरे पाण्डेय जी कहाँ रहते हो आप..... आप तो शिक्षा अधिकारी के पास थे ना. यार आपके भतीजे का किसी अच्छे प्रायवेट स्कुल में दाखिला करवाना है. आपको पता है सरकारी स्कुल तो बकवास होते है. पढ़ाई तो होती नहीं है इन स्कूलों में बस नाम के ही होते हैं. बड़ी बिटिया का दाखिला करवाया था सरकारी स्कुल में अब भुगत रहे है. अब कुछ किया भी नहीं जा सकता बस बेटे का दाखिले किसी बढ़िया से प्रायवेट स्कुल में करवाएंगे. पैसे की कोई चिंता नहीं है जितना लगेगा देंगे.... बस आप देखना कोई बढ़िया सा स्कुल.

बुधवार, 26 मई 2010

ब्लॉग जगत में काला बन्दर.

करीब दस वर्ष पहले की बात है हमारी दिल्ली में एक काले बन्दर ने लोगों का जीना हराम कर दिया था. बाद में पता चला की ये mass hysteria यानि की सामूहिक पागलपन का एक उदहारण था. इसके  ज्यादातर मामले भी उन इलाकों में मिले थे जहाँ पर अपेक्षाकृत  काम पढ़े लिखे लोग रहते थे. सामूहिक पागलपन की स्थिति में लोग सामूहिक रूप से किसी भी काल्पनिक विचार या बात  को सच समझ लेते हैं और सही  बात को समझने के लिए अपनी सामान्य बुद्धि का प्रयोग भी नहीं करते. बात चाहे ख़ुशी की हो या गम की पर होती बड़ी मामूली सी है लेकिन  लोग उसे खींच खींच कर बहुत बड़ा बना देते हैं. कोई आदमी एक  बात कहता है, चाहे वो सच हो या झूट, महत्वपूर्ण हो या मामूली सभी उसी पर पिल पड़ते हैं और बात का बतंगड़ बन जाता है.

मैं जब से ब्लॉग जगत से जुड़ा हूँ मैंने अक्सर ही यहाँ पर ब्लोग्गेर्स में ऐसे ही  सामूहिक पागलपन के दौरे  पड़ते देखे हैं. मेरी यादाश्त बहुत गहरी नहीं है अतः पिछले दो तीन हफ्ते से ही उदहारण लूँगा.

करीब दो हफ्ते पहले ज्ञान दत्त पाण्डेय जी के डंके ब़ज रहे थे. उन्होंने समीर जी और शुक्ल जी पर एक चार लाइन की पोस्ट क्या लिखी ,  ब्लॉग जगत में बबाल ही मच गया. चार पांच दिन तक  घमासान होती रही.  जब भी ब्लोग्वानी पर जाओ इसी विषय की पोस्टें दिखती रहीं. मेरी नजर में ज्ञान दत्त जी ने ऐसे कुछ नहीं लिखा था जिस पर इतना बबाल मचना चाहिए था. पर फिर भी बबाल मचा. भाई एक आदमी ने कुछ कहा. आपको ठीक लगा या नहीं उसके ब्लॉग पर ही टिपण्णी कर दो बात ख़त्म.


बड़ी मुश्किल से यह विवाद थमा था की फिर कुमार जलजला जी वाला विवाद उठ खड़ा हुआ. यहाँ भी मुझे राइ का पहाड़ बनता दिखा. फिर चार पांच दिन कुमार जलजला के जलजले में गुजर गए. ब्लोग्वानी पर जहाँ देखो वहीँ कुमार जलजला का जलजला ही दिख रहा था. जलजला ने जिन लोगों के नाम लिए थे उन लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया  दे दी. बात वहीँ शांत हो जानी चाहिए थी पर एसा हुआ नहीं. बेवजह एक बड़ा विवाद पैदा कर दिया गया.

बमुश्किल ये सब थमा तो फिर दिल्ली ब्लोग्गेर्स मीट का तूफान आ गया. दिल्ली में ब्लॉग्गिंग की दुनिया की कुछ जानी मानी हस्तियाँ एक जगह इकठ्ठा हुयी और अपने विचार रखे. बड़ा अच्छा लगा. ऐसी सभाए होती रहनी चाहिए. इस सभा से जुडी तस्वीरें भी देखि . अच्छी लगी. जिन लोगों के ब्लॉग पढ़ते थे उनको सशरीर देखने का मौका मिला. पर इस के बाद एक के बाद एक लगातार इसी विषय पर कई सारी पोस्ट पढने के बाद मुझे अपने बचपन के वो दिन याद आ गए जब दूरदर्शन पर सिर्फ रविवार को फिल्म आती थी और फिर स्कुल में हम सभी बारी बारी से उसी फिल्म की कहानी आपस में अगले रविवार तक एक दुसरे को सुनते रहते थे.

अब आगे हो सकता है की ऐसा ही कोई नया मुद्दा निकल आए जिस के पीछे सभी लोग नहा धोकर लग लें.


क्या ये ब्लोग्ग जगत में mass hysteria के उदहारण नहीं है?  अगर हैं तो क्या ये सामूहिक पागलपन पढेलिखे लोगों में भी होता है या ब्लॉगजगत के लोग पढेलिखे नहीं है.

क्या चक्कर है कुछ समझ नहीं आया.....

(मेरी इस पोस्ट पर अगर आपको गुस्सा आए तो सारा गुस्सा यहीं नीचे टिपण्णी बॉक्स पर थूक देना. बात का बतंगड़ ना बनाना.  और अगर हो सके तो बतंगड़ किस चीज को कहते हैं ये जरुर बता देना.)

सोमवार, 24 मई 2010

जब हम साथ चले थे वो ८४ की थीं मैं ४८ का आज वो ६५ की हैं मैं ५६ का.

लीजिये मैं फिर आ गया हूँ आपको अपनी बकवास सुनाने एक भड़कीले शीर्षक के साथ।

बात सन २००० की है । यही २४ मई का दिन था। मैं और कृष्णा जोशी, दिल्ली के बंगाली मार्केट के नत्थू हलवाई की दुकान पर इसी दिन पहली बार अपने परिवार वालों की सहमती से बंगाली मार्केट के भीड़ भरे एकांत में मिले थे।

देखिये मानव प्रकृति भी कैसी अजीब है। जब मैं अपने बड़े भाई साहब के साथ कृष्णा जी से मिलने उनके घर गया था तो हम दोनों को एकांत में मिलाने का मौका दिया गया ताकि हम निसंकोच बात कर सकें। मैं तो खैर लड़की देखने में तब तक मझा हुआ खिलाडी बन चूका था अतः मुझे कोई हिचक नहीं थी पर ये कृष्णा जी का पहला अनुभव था अतः वो अपने ही घर में डरी सहमी सी बैठी रहीं और बकवास करने का सारा जिम्मा मेरा ही रहा। उनकी हिचक को देखकर मैंने सुझाव दिया की हम दोनों किसी दूसरी जगह पर मिलते हैं। मेरा सुझाव मान लिया गया और हम बंगाली मार्केट के भीड़ भरे एकांत में मिले। ये मानव मन का विरोधाभास है। कभी कभी हमारे अपनों के द्वारा दी गयी एकांत की सुविधा हमें रास नहीं आती और अपरिचितों की भीड़ में हम लोग एकांत ढूंढते हैं।

तो जनाब हम दोनों ११.०० बजे नत्थू हलवाई की दुकान में मिले। वहां पर थोड़ी देर बैठे पर जैसा की स्वाभाविक हैं हमें वहा का माहोल रास नहीं आया और हमने निर्णय लिया की चलो कहीं और चलते है। बाहर आये और यूँ ही उस मई की दोपहर की कड़ी धुप में अपनी यात्रा शुरू की । धीरे धीरे टहलते हुए हम दोनों आई टीओ से होते हुए राजघाट तक पैदल ही पैदल आ गए। पता नहीं क्यों उस दिन जरा भी गर्मी नहीं महसूस हुयी। बंगाली मार्केट से राजघाट तक का पैदल सफ़र वो भी मई में दिन के बारह बजे..... मेरी समझ से बाहर था... और जो बात मेरी समझ से बाहर होती है मैं उसे जल्दी से स्वीकार लेता हूँ। अतः मैंने तभी निर्णय ले लिया की मैं इन्हीं कृष्णा जोशी जी के साथ अपनी जिंदगी का सफ़र जारी रखूँगा।

ये बात थी २४ मई सन २००० की । अब मैं शीर्षक पर वापस आता हूँ। जिस वक्त हम दोनों ने एक दुसरे को पसंद किया था उस वक्त भाइयो कृष्णा जी का वजन ८० किलो (एकदम ठोस) था और मैं ठीक ४८ किलो(मैं भी एकदम ठोस) का था। आज १० वर्षों के बाद मैं सिर्फ ५६ किलो का हूँ पर उन्होंने खुद को ६५ किलो पर स्थिर कर लिया है।

आपको वो चूहा याद आ रहा होगा जो हथिनी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है। तो भाइयों अब आपको मेरे आत्म विश्वास की प्रशंसा भी करनी चाहिए। इसके साथ ही आपको कृष्णा जी के विश्वास को भी सराहना चाहिए की वो मुझ से विवाह के लिए तैयार हो गयीं।

मैं कृष्णा जी का तहेदिल से आभारी हूँ की उन्होंने मुझ जैसे दुबले पतले आदमी को सहारा दिया। इन दस वर्षो में हमने मिलकर भारत की जनसँख्या में दो बच्चे जोड़े।

आज इस एतिहासिक दिवस पर मैं जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो ...........आज भी मुझे खुद के वो सूखे हुए भेल दिखाई पड़ते हैं जो दस वर्ष पहले थे।

दुनिया बदल गयी पर मैं नहीं बदला।

शुक्रवार, 14 मई 2010

खुद को बड़ा ब्लॉगर समझते हो ....... आइना दिखाऊ.

एक कल्पना कीजिये की किसी आदमी ने हवाई जहाज उड़ना सीखा । आपको पता ही है की विमान चालक बनाने का प्रशिक्षण पाने के लिए कितना पैसा खर्च करना पढता है।

कल्पना की उड़ानको थोडा और आगे ले जाएँ ।

विमान चालक का प्रशिक्षण लेने के बाद अगर उस व्यक्ति को कहीं नौकरी नहीं मिले और वो रिक्शा चलने लगे तो उस बेचारे का क्या हाल होगा।

कोई बात नहीं काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता। हमें सबके लिए समानता का भाव मन में रखना चाहिए।

पर अगर वो व्यक्ति खुद को दुसरे रिक्शा ठेलने वालों से बेहतर या ऊँचा समझे सिर्फ इसलिए की उसने विमान उड़ने का प्रशिक्षण लिया है तो........

अगर वो खुद को रिक्शे का पायलेट कहलवाना पसंद करे तो......

अगर वो दुसरे रिक्शे वालों को खुद से घटिया समझे और सिर्फ उन रिक्शे वालों से संपर्क रखे जो उसकी तरह से ही पायलेट की डिग्री लिए हुए हैं तो ............

तो मैं उस पायलेट को पगलेट से ज्यादा कुछ नहीं समझूंगा।

कल शाम मैं संजय अनेजा जी से बात कर रहा था। उन्होंने कहा की जो यहाँ के पुराने स्थापित ब्लोग्गेर्स हैं वो दुसरे ब्लोग्गेर्स के लेख नहीं पढ़ते या पढ़ते हों भी तो भी टिपण्णी नहीं करते। कुछ ब्लोग्गेर्स खुद को श्रेष्ठ या ब्लू ब्लड का समझते हैं। मुझे भी कभी कभी एसा ही लगा पर मैं ब्लॉग्गिंग में किसी को छोटा या बड़ा नहीं मानता। मेरी नज़र में सब के sab रिक्शा खीचने वाले ही हैं । सब बराबर हैं चाहे वो किसी पृष्ठभूमि से ही क्यों ना ए हों।

नए ब्लोग्गेर्स से मेरी यही प्रार्थना है की वो किसी भी व्यक्ति को बेवजह महान ना बनायें। और ना ही किसी की जी हजुरी करें। हाँ अगर आपको कोई बहुत अच्छ ही लगता है तो उसकी प्रसंशा करें पर उसको पुदीने के झाड़ पर ना चढ़ाएं । मुह के सामने की गयी प्रशंसा भी कभी कभी व्यक्ति के पतन का कारन बन जाती है। जनाब गोरव मेरी बात समझ रहे है।

अपनी पोस्ट हिट ही करवानी है तो भाइयो मेरी तरह से तिगडमी बनो।

ब्लॉग्गिंग में कौन अच्छा लिखता है या कौन बुरा लिखता है इस बात की कोई परवाह नहीं करता । लोग ये देखते हैं इस इस रिक्शे वाले की डिग्री क्या है। रिक्शा खीचने से पहले इसने पायलेट की डिग्री ली है या फिर ये अनपढ़ है।
अच्छे और बुरे में प्रतियोगिता होती तो "मो सम कौन " की हर पोस्ट हिट होती और मेरी बकवास कोई नहीं पढता।

पर भैया कलजुग है कलजुग।

हंस चुगेगा दाना तिनका और कौवा मोती खायेगा।

बुधवार, 12 मई 2010

पढ़े लिखे, गुणी-लोग विचार शून्यता का अर्थ नहीं समझते.

बहुत पहले की बात है नई दिल्ली में गोल मार्केट के पास योग आसन व अन्य योग क्रियाये सिखाने के लिए एक योग केंद्र खुला था जिसका नाम मुझे ध्यान नहीं पर उसके मुखिया वो स्वामी जी थे जिनकी शायद जम्मू में बंदूकों की फैक्ट्री पकड़ी गयी थी। खेर वो जैसे थे हमें इससे क्या पर उन्होंने हमें स्वामी रामदेव जी के आने से लगभग दो दशक पहले ही योग से परिचित करा दिया था।

मेरे बड़े भाई साहब जो की हिंदुस्तान टाइम्स में कार्यरत हैं, अपनी रात की पाली की नोकरी करने के बाद वहां आसन सिखाने जाया करते थे। उनके साथ मैंने भी वहां जाना शुरू किया। वहां पर हम लोगों ने कुंजल, जल नेति , सूत्र नेति, विभिन्न आसन व अन्य योग क्रियाये सीखी थी। ये सब १९८३-८४ की बातें हैं।

योग जिसे हमारे अंग्रेजी पढ़े लिखे, गुणी-लोग, योगा कहते हैं, का मतलब सामान्य लोगों के लिए सिर्फ आसनो से हैं। पर असल में योग आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिए किये गए सभी उपायों का संकलन हैं। पतंजलि अष्टांग योग में आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिए आठ पायदान बताये गए हैं।

इन आठ पायदानों (स्टेप्स) में सबसे अंतिम पायदान है समाधी यानि की वो स्थिति जब हम उस ईश्वर से एकाकार होने की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। उस अवस्था में हम परम आनंद को प्राप्त होते हैं । परम आनंद का अर्थ है ऐसा आनंद जिसका कभी अंत ना हो।

अब थोडा सा प्रकाश मैं समाधी की अवस्था पर डालना चाहता हूँ। समाधी वो स्थिति है जब हमारे मन में विचार आने ख़त्म हो जाते हैं। मतलब की हमारा मन विचार शून्य हो जाता है।

विचार शून्य होने का मतलब है की आपके मन मस्तिष्क में कोई भी अच्छा या बुरा विचार नहीं है। जब आप विचार शुन्य होते हैं तभी आप समाधी की अवस्था को प्राप्त होते हैं।

विचार शुन्य होने का अर्थ भावना शुन्य या संज्ञा शुन्य या बुद्धि शुन्य होना नहीं है।

आम लोग विचार शुन्यता का अर्थ भाव या संज्ञा शुन्यता से लेते हैं । वो ऐसा समझे तो चलता है पर कोई अपने ज्ञान दत्त जी जैसा ज्ञानवान ऐसी बात करे तो मुझे अजीब सा लगता है। पहले भी मुझे कई लोगों की बातों से ऐसा लगा की विचार शुन्य होना कोई गलत बात है पर मैंने उनकी बातों को पढ़े लिखे गुणियों की बात समझ कर टाल दिया पर जब माननीय ज्ञान दत्त पाण्डेय जी ने भी दुसरे गुणी भाइयों की तरह से लिखा की विचार शुन्य शीर्षक अटपटा लगता हैं तो मुझे ये पोस्ट लिखनी पढ़ी।

उनके ब्लॉग पर जाकर अपनी टिपण्णी देने की हिम्मत अब मुझ में नहीं। कल एक छोटी सी टिपण्णी की थी उसके लिए ही बड़े पापड़ बेलने पड़े थे। इसलिए ये पोस्ट प्रकाशित कर रहा हूँ।

सोचता हूँ की पंडित ज्ञान दत्त जी की तरह से ही अन्य पढ़े लिखे गुणी जन मेरे विचार शुन्य होने को मेरा भावना शुन्य या संज्ञा शुन्य या बुद्धि शुन्य होना नहीं समझेंगे।

और अगर समझते हैं भी तो वो जाये तेल लेने ।

कल ज्ञान दत्त जी की शुक्ल और समीर में कोन श्रेष्ठ वाली पोस्ट पर अपनी राय दी तो पाण्डेय जी को मेरा विचार शुन्य होना अटपटा सा लगा। मुझे पहले भी कई लोगों ने यही कहा है इसलिए मैंने अपने शुन्य विचार, पढ़े लिखे और गुणी जनों के अवलोकनार्थ रखे हैं।
( आप सोच रहे होगे मैं बार बार ये गुणी लोग क्यों लिख रहा हूँ असल में गुणी कुमाउनी भाषा में लंगूर को भी कहते हैं और जो व्यक्ति पढ़ा लिखा होने के बावजूद नासमझदारी की बात करता हैं तो मैं उसे प्यार से पढ़ा लिखा गुणी बच्चा कह कर बुलाता हूँ.)

सोमवार, 10 मई 2010

भेल - नॉन कुमाउनी लोगों के लिए एक नया शब्द.

मेरे साथ एक शर्मा जी काम करते है। उत्तरप्रदेश के मुज्जफर नगर के मूल निवासी हैं अतः उनकी भाषा में एक हरियाणवी अक्खडपन हैं। बात करते वक्त गालीयों का बड़ी सहजता और निर्दोष भावना के साथ प्रयोग करते हैं। इसके साथ साथ उनका स्वर भी हमेशा तार सप्तम से शुरू होता है। जब बोलना शुरू करते हैं तो आप उनकी आवाज एक मील दूर से सुन सकते हैं।


मुझसे बड़ा स्नेह करते हैं और मेरी ब्रांच में मुझसे मिलाने आते रहते हैं। मेरी ऑफिसर एक महिला हैं अतः उनके आने और खुल कर बोलने से मुझे थोडा झिझक महसूस होती थी पर मेरी ऑफिसर ने कभी कोई विरोध नहीं किया । अतः शर्मा जी का मेरी ब्रांच में आना जाना निर्बाध रूप से जारी रहा । एक बार वो आये अपने साथ बस में घटी एक घटना सुनाने लगे जिसमे उन्होंने एक लड़के की पिटाई कर दी थी। उन्होंने अपनी विशेष अदा से कहा," पाण्डेय आज मैंने साले के मार मार के चू*ड़ लाल कर दिए। मैंने नोटिस किया की मेरी बॉस जो रोज ही उनकी माँ बहन की गाली को बड़ी ही सहजता के साथ सुनती थी अचानक इस शब्द पर असहज हो गयी। एक सच्चे मातहत की तरह मैं अपनी बॉस की नाराजगी ताड़ गया ।

पर मुझे बड़ा अजीब लगा। जब शर्मा जी अपने हर वाक्य को माँ या बहन की गाली से कीलित करके बोलते हैं तो हमारी मालकिन इसे बड़ी सहजता से लेती हैं पर अचानक एक नया शब्द , जो की हमारे शरीर के ही एक अंग का भद्दा सा नाम है, को सुनकर उनकी त्योरियां क्यों चढ़ गयीं। क्या कोई गलत चीज भी बार बार उपयोग में लाये जाने पर अपना असर छोड़ देती है और वहीँ एक भरी भरकम सा शब्द केवल अपने उच्चारण से ही लोगों की भावनाओं को भड़का सकता है।

मैंने इस दिशा में एक प्रयोग किया।

मैं एक पहाड़ी हूँ। हमारे यहाँ कुमाउनी भाषा बोली जाती है। हमारी भाषा में "चु* ड़" के लिए "भेल" शब्द का उपयोग होता है। अब जरा दोनों ही शब्दों को मन ही मन दोहराएँ।

शर्मायें नहीं कोशिश करें........ अरे कोई नहीं सुन रहा...... और कोई देख भी नहीं रहा.... पढ़ते रहें....

ध्यान दें॥ दोनों ही शब्दों में कितना अंतर है। दोनों ही शब्दों का अर्थ एक ही है हमारा पिछवाडा या हमारी तशरीफ़ पर भेल शब्द कितना मासूम है और वहीँ दूसरा शब्द कितना फूहड़।

मुझे मेरे घर में हमेशा से भेल शब्द का उपयोग प्रचुर मात्र में करने के लिए अम्मा पिताजी से डांट पड़ती रही पर जाने क्यों ये शब्द मुझे इसके ही दुसरे पर्यायवाची शब्दों के मुकाबले बड़ा सीधा- साधा सा लगता रहा। अब मैं अपने ऑफिस में अन्य नॉन कुमाउनी लोगों के समक्ष इस भेल शब्द का खुले रूप में प्रयोग करता हूँ। उन्हें इस मतलब भी बताता हूँ। मेरे सभी दोस्तों ने इसे पसंद किया है सिवाय शर्मा जी के । शर्मा जी कहते हैं की भेल शब्द में वो वजन नहीं है।

अगर आप को भेल शब्द पसंद आया हो तो आज से आप भी अपने पिछवाड़े को भेल कह कर पुकारा करें।

और अगर ना आय हो तो ..................... वही कहें जिसमे आप सहजता महसूस करते हों बिलकुल हमारे शर्मा जी की तरह से।

शनिवार, 8 मई 2010

जी हाँ मैं तैयार हूँ जल्लाद बनाने के लिए.

जी हाँ , मैं दीप पाण्डेय, पुत्र स्वर्गीय श्री अम्बा दत्त पाण्डेय, मूल निवासी पाण्डेय कोटा , रानीखेत वर्तमान पता मंडावली दिल्ली, शपथ लेकर यह घोषणा करता हूँ की मैं जल्लाद का पेशा अपनाने को तैयार हूँ।

आज सुबह दैनिक जागरण में खबर थी की कसाब को फांसी की सजा तो सुनायी जा चुकी है पर उसे फांसी देने के लिए देश में कोई जल्लाद नहीं हैं। सारेके सारे जल्लाद या तो अल्लाह को प्यारे हो गए हैं या फिर दुसरे पेशों को अपना चुके हैं। अब अगर ऐसा है तो मैं, जो की कुमाऊ की ऊँ.....ची धोती वाले ब्राह्मणों के परिवार से ताल्लुक रखता हूँ अपनी धोती उतार कर जल्लाद बनने को तैयार हूँ।

मेरे अन्दर जल्लाद बनाने के सारे गुण मौजूद हैं। मैं बचपन से ही बहुत कठोर ह्रदय रहा हूँ। छुटपन में जब कांच वाले इंजेक्शन हर छोटी छोटी बीमारी में डाक्टर लोग हमारे कोमल शरीरों में घोप दिया करते थे तो मैं रोता नहीं था । तब मुझे पहली बार पता चला की मेरा दिल मजबूत है। स्कुल में अनेक बार जब शरीर से मजबूत लेकिन दिमाग से कमजोर छात्र जब नक़ल करवाने के लिए धमकाते थे और फिर गिडगिडाते थे तब भी मेरा दिल नहीं पसीजता था। ऑफिस में साथी महिलाकर्मी कभी कभी अपना कार्य मुझे चेपती हैं और मैं नहीं करता तो मुझ पर दिल में कोमल भावनाए ना रखने का आरोप लगता है। पत्नी को शादी के १० वर्षों में कभी भी एक लाल गुलाब नहीं दिया अतः वहां से भी कठोर हृदयी होने का तगमा मिलता रहता है।

तो भैया अपने इन सभी दुर्गुणों के साथ मैं अपने जीवन में एक तो पुण्य का कार्य कर जाना चाहता हूँ।

मुझे बना दो जल्लाद मैं कसाब को फांसी देना चाहता हूँ।

यह लेख लिख तो मैंने कल ही दिया था पर पोस्ट नहीं किया । मैं सोच रहा था की कहीं कोई दूसरा व्यक्ति जल्लाद का पेशा अपनाने को तैयार ना हो जाये और मैं दिल से नहीं चाहता की इस पेशे को अपनाने के लिए भी कोई कॉम्पिटिशन हो । अतः कल से लेकर आज तक इन्तजार किया है और अपना दावा ठोक दिया।

गुरुवार, 6 मई 2010

जी हाँ मैं हूँ गेन-फट-राय जो डेली-मे-रेटा है.

गणपत राय जो दिल्ली मे रहता था से एक अंग्रेज, जिसे टूटी फूटी हिंदी आती थी, ने उसका नाम और रहने की जगह के बारे मे पूछा तो गणपत राय ने बता दिया, " साहब मैं हूँ गणपत राय , मैं दिल्ली मे रहता हूँ।

अंग्रेज ने दोहराया," टुम गेन फट राय , टुम डेली-मे-रटा। और गणपतराय अंग्रेज से नाराज हो गया।

ये बहुत पुराना चुटकला है (अगर किसी को ऐसा लगे तो) जो मैंने मंडावली के सरकारी स्कुल मे सीखा था।

आज मैं चुटकले सुनाने के मूड मे नहीं हूँ। और ये चुटकला भी नहीं है। मुझे लगता है की ये मेरी असलियत है।


कल से मैं दुखी हूँ। कल ऑफिस मे सुबह दस बजे से लेकर रात आठ बजे तक गधे की तरह से काम मे लगा रहा। आप सोचेंगे ऑफिस मे ही तो काम कर रहा था इसमे अनोखा क्या है?

मैं एक सरकारी वेतन एवं लेखा कार्यालय मे एक यु डी सी यानि की अपर श्रेणी का कलर्क हूँ। इस ऑफिस मे मेरा काम है पास हुए बिलों की सही अकाउंट मे पोस्टिंग करना। इसके बाद मेरी ऑफिसर का काम शुरू होता है जोकि है पुरे महीने मे पास हुए बिलों का मासिक अकाउंट बना कर हेड ऑफिस भेजना। पर असल मे क्या होता है की मैं ही महिना भर बिलों की पोस्टिंग करता हूँ और फिर महीने के अंत मे खुद ही मंथली अकाउंट बना कर हेड ऑफिस मे जाकर दे कर आता हूँ । मेरी ऑफिसर सुबह ११ बजे ऑफिस आती है और ५ बने अपना बैग उठा कर सबको टाटा करती हुयी घर चली जाती है।

मेरे दोस्त लोग पूछते हैं की मैं क्यों एक गधे की तरह काम करता हूँ । मेर दोस्तों को लगता है की मैं पिस रहा हूँ और वो मौज कर रही है। उन्हें समझ नहीं आता की अकाउंट की इस सुखी सीट पर मैं इतना काम क्यों करता हूँ।

दोस्त लोग पूछते हैं की क्या मैं डरता हूँ। क्या मेरी ऑफिसर के सामने फटती है जो मैं उसका विरोध नहीं कर पाता। हमारे वेतन एवं लेखा कार्यालय मे अकाउन्ट्स विभाग मे महीने के शुरू के पांच दिन बहुत महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि हमें पिछले महीने का सारा हिसाब किताब अपने हेड ऑफिस मे जाकर देना होता है। इन दिनों अकाउन्ट्स मे किसी को छुट्टी नहीं मिलती। पर हमारी ऑफिसर को मिल गयी क्योंकि उनका सारा काम मैं कर देता हूँ। ये दोस्त लोगों को पसंद नहीं। वो पास आकर मुझे चिढ़ा जाते हैं। पाण्डेय यार तूम बड़े सीधे हो। ये शब्द मुझे गाली की तरह से लगते हैं।

क्या करूँ? मैं हूँ ही ऐसा । जाने क्यों मैं दबता हूँ। जाने क्यों मैं औरों की तरह से साफ़ साफ़ मना नहीं कर पाता? कह नहीं पाता की ये मेरा काम नहीं हैं इसे मैं नहीं करूँगा। मुझे हमेशा से ये लगता रहा की ऑफिस गए हो तो कुछ काम ही कर लो। बस यहीं से मेरी दुर्दशा शुरू हो जाती है। लोग बाग़ अपनी टेबल पर फाइलें सजा कर रखते हैं और मैं अपना काम जल्दी ख़त्म करके दुसरे की सहायता करना शुरू कर देता हूँ। फिर होता क्या हैं की वो काम भी मेरे ही सर मढ़ दिया जाता है। आज तक जिस भी ऑफिस मे मेरा ट्रान्सफर हुआ है सभी जगह मेरे साथ यही परेशानी रही है। हर नयी जगह सोचता हूँ की अपने काम से काम रखूँगा और किसी से ये नहीं कहूँगा की हाँ मैं ये कार्य कर सकता हूँ पर नहीं जब भी ऑफिस मे कोई काम फस देखता हूँ तो खुद ही आगे आ कर अपने गले मे घंटी बंधवा लेता हूँ। फिर जब लोग मुह पर सीधा और पीठ पीछे चूतिया की उपाधि देते हैं तो बुरा लगता है.

अपनी आदतों की वजह से मैं वही गेन-फट- राय बन गया हूँ जो डेली-मे-रेटा है।


मंगलवार, 4 मई 2010

उस अँधेरे कोने से आवाज आती है ..... मुस्लमान मर रहा है!

मुझे बहुतों ने कहा ..... उधर उस अँधेरे कोने की तरफ न जाना वहां खतरा है। पर जाने क्यों, शायद मैं आदम का जाया हूँ, इसलिए उन लोगों के कहने की परवाह न करके मैं उस अँधेरे कोने की तरफ खीचा चला गया.........

पास पंहुचा तो एक चीख सुनाई दी और एक आवाज आयी मुस्लमान मर रहा है.... मुसलमान मर रहा है......

और नजदीक पंहुचा तो आवाजें स्पष्ट सुनायी देने लगी। कोई मुझे पुकार रहा था....


अरे , ओ ! इधर आओ। रौशनी में क्यों खड़े हो? इधर अँधेरे में आओ। सुनो ! क्या तुम्हे पता नहीं मुसलमान मर रहा है। चारों तरफ कत्ले आम मचा है। कोहराम मचा है। चुन चुन कर मुसलमान मारे जा रहे हैं। हर ओर आग लगी है। मुसलमान मर रहा है। क्या तुम्हे ये आवाजे सुनाई नहीं दे रही! ध्यान से सुनो।

हँस मत, परिहास न कर
मुसलमान मर रहा है
जेहाद कर जेहाद कर।

न चेन ले, न चेन लेने दे
मुसलमान मर रहा है
जेहाद कर जेहाद कर।

शोर बढता गया, आवाजें बड़ी भयानक और जनूनी थी। मैं हिन्दू हूँ जुनून मेरी फितरत में नहीं, अतः मैं डर गया, पसीने पसीने हो गया और मेरी नींद खुल गयी।


सपने को हकीकत समझ और आँखों देखि असलियत को नज़रंदाज़ कर मैंने अपने आस पड़ोस और परिचित मुस्लिम भाइयों के हाल चाल पूछने का सिलसिला शुरू किया।

अनीस मियां को फोन मिलाया। अनीस अहमद मेरे साथ मेरे ऑफिस में काम किया करते थे और पिछले वर्ष उन्होंने ३० बहुत की नोकरी के बाद स्वेच्छिक अवकाश ले लिया। उनकी दिल्ली की जामा मस्जिद के मीना बाज़ार में अपनी दुकान है , अब उसकी देख रेख करते हैं। मैंने अनीस मियां से पूछा सब ठीक है। उन्होंने बताया पाण्डेय जी सब ठीक ठाक चल रहा है। जब से MCD ने इस ईलाके की साफ सफाई की है तब से तो दुकानदारी चमक गयी है।

मैंने सोचा अनीस मियां तो पुरानी दिल्ली के बाशिंदे हैं वहां उन्हें क्या तकलीफ होगी । मेरा बचपन का दोस्त मुजाहिद खान तो मयूर विहार के इलाके में रहता है जहाँ हिन्दू ही हिन्दू हैं। अकेला मुस्लमान चारों तरफ हिन्दुओं से घिरा हुआ। उसका हाल जरुर ख़राब होगा।

मैं मुजाहिद के घर पंहुचा। वो अब बदल गया है। उसकी तोंद निकल आयी है। उसके बच्चे स्कुल जाने के लिए तैयार हो रहे थे। मुझे देख कर वो चौक गया । अबे पाण्डेय तू कहाँ से प्रकट हो गया सुबह सुबह। मुलाकात हुई। हाल चल पूछे गए। मैंने अपनी शंका उसके सामने भी रख दी । सब ठीक है क्या ?

हाँ सब बढ़िया है। धंधा अच्छे से चल रहा है। जिंदगी की परेशानिया तो चलती रहती है पर वैसे सब ठीक है।

हमारी कालोनी में एक के बाद एक प्लाट खरीद कर फ्लैट बना रहे शब्बीर से भी मैंने उसके हाल चाल पूछे । "पाण्डेय जी मैं तो अब आनंद विहार की पॉश कालोनी में फ्लैट बनवा रहा हूँ । यहाँ से बहुत कमाई कर ली, अब बड़ा काम करेंगे। बस ऊपर वाले का साथ मिलता रहे।" मैंने पूछा उपरवाला मतलब पुलिस वाले और कोर्पोरेशन वाले तो वो हंस दिया।

अब मैंने बड़ी हस्तियों पर ध्यान देना शुरू किया । आमिर खान की नयी फिल्म थ्री इडियट आयी, मैंने सोचा ये फिल्म पिट जाएगी क्योकि हिंदुस्तान में तो हिन्दू रहते है और आमिर खान एक मुस्लमान है। जाहिर है उसकी फिल्म नहीं चलेगी पर थ्री इडियट हिट हो गयी। फिर शाहरुख़ खान की फिल्म आयी , मैंने सोचा ये जरुर पिट जाएगी पर ये फिल्म भी हिट हो गयी ।

ईद आयी मैंने सोचा की लोगों का उत्साह शायद इस बार कुछ कम होगा क्योकि मुस्लमान मर रहा है । पर कोई फर्क नज़र नहीं आया। पुरानी दिल्ली में वही भीड़ । पड़ोस की अल्लाह कालोनी में वही चहल पहल।

मैं समझ नहीं पाया मैं कहाँ जाऊ ? कैसे पता करूँ की मुस्लमान कहाँ मर रहा है? कहाँ सताया जा रहा है? जिसके कारण कुछ बुद्धिजीवी अपनी हसीं भूल कर रोये जा रहे हैं।


मैंने टेलिविज़न खोला । उस पर चर्चा थी की गुजरात में मुस्लमान मारे गए, मोदी गुनाहगार है। उसे अभी तक सजा नहीं दी गयी। यह मुसलमानों के साथ भेद भाव की निति है। मेरे मन में प्रश्न आया की जिस देश में सरे आम हजारो लोगों को गोली चला कर मारने वाले आतंकवादी अजमल कसब को जिसकी करतूत को लाखो लोगों ने अपनी आखों से लाइव देखा था , अभी तक सजा नहीं मिल पाई वहां मोदी जिसकी भूमिका स्पष्ट भी नहीं है, उसे सजा मिलने में तो एक जन्म का इंतजार करना ही पड़ेगा।


जैसे दिल्ली व मुंबई के बम धमाके बाबरी मस्जिद को गिराने के विरोध में हुए थे वैसे ही गुजरात की घटना के पीछे भी गोधरा कांड को जायज ठहराया जा सकता है।


हाँ तो मैं थोडा भटक गया था । मैं खोज रहा था वो जगह जहा निर्दोष मुस्लिमों का कत्लेआम हो रहा है।
कश्मीर वो जगह हो सकती है। पर कश्मीर में तो कश्मीरी पंडित भी रहते है। वे भी बेचारे निर्दोष है। अतः कश्मीर में अकेले मुस्लमान नहीं मर रहे । पहले तो हिन्दू भी मारे जा चुके में। में को छोड़ो कहीं और चलो।


पंजाब। नहीं वहां तो सिर्फ हिन्दू मारे गए थे। किस की शाह पर ? वो याद नहीं आ रहा।


तो चलो अपना नजरिया थोडा बदल कर देखे । थोडा उल्टा सोचे। ये देखता हूँ की अगर हिंदुस्तान में मुस्लमान मारे जा रहे हैं तो वो सुरक्षित कहाँ पर है ?



पाकिस्तान में सभी मुस्लमान सुरक्षित हो सकते हैं। वहां तो शरियत का कानून चलता है। अफगानिस्तान में भी मुस्लमान सुरक्षित हो सकते है। या फिर इरान में , इराक में, या दुबई में।


क्या करूँ मुझे नज़र नहीं आता की निर्दोष मुस्लमान कहा मारे जा रहे हैं? मेरी दृष्टी तो आस पास तक ही जाती है। ज्यादा दूर तक नहीं पहुच पाती है। शायद मेरी इंसानी नजर है। इतनी दूर तो सिर्फ गिद्ध ही देख पते हैं। क्या मुझे भी गिद्ध बनान पड़ेगा ताकि दूर हो रही घटनाओ को देख कर अपने इलाके के शांत माहोल को गरम कर सकूँ। यहाँ की प्रगति में कोई रोड़ा अटका सकूँ ताकि जो मुझे दूर होता दिख रहा है वो सब यहीं हो जाय और मुझे अपने पसंदीदा गिद्ध भोज के लिए दूर न जाना पड़े।


कुछ समय पहले मैंने एक मुस्लमान, (इन्सान शब्द का प्रयोग करना चाह रहा था पर एक स्वच्छ सन्देश में पढ़ा की अगर आप इन्सान हैं तो मुस्लमान नहीं हो सकते और जिससे मैंने संवाद किया था वो तो एक घोषित मुस्लमान है अतः उसे मुस्लमान ही कह रहा हूँ.) को थोडा शांत और सहज होने के लिए कहा तो उसने जवाब दिया था की चारो तरफ मुस्लमान मारे जा रहे हैं इस लिए वो शांत व सहज नहीं हो सकता। उस वक्त मैंने ये लेख लिखा था पर जाने क्यों पोस्ट नहीं किया था। अभी थोड़ी देर पहले वही पुराना राग फिर से सुन रहा हूँ की निर्दोष मुस्लमान मारे जा रहे हैं इसलिए ये पुराणी पोस्ट याद आ गयी और प्रकाशित कर रहा हूँ।

कुछ नये "नॉन वेज "(अश्लील) चुटकले.

आज जाने क्यों मेरा मन अश्लीलता फ़ैलाने का है। अतः संभ्रांत, सुशील, पढ़े-लिखे, और दूसरों को सही राह दिखने वाले लोगों से मेरा निवेदन है की इससे नीचे ना जाएँ क्योंकि नीचे मैं कुछ ऐसा प्रस्तुत करने जा रहा हूँ जिससे आप लोगों की बुद्धि ख़राब होने का डर है। अगर खुद पर विश्वाश है, तभी आगे बढे क्योंकि कोई भावनात्मक नुकसान हुआ तो भैया मैं भी मायावती जी की तरह से मुआवजा देने के नाम पर हाथ खड़े कर लूँगा।
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चुटकला .१ (१८ से ५० की उम्र की लोगों के लिए)

एक ठरकी आदमी था हमारी तरह से ही। यों ही नॉन वेज की तलाश में इधर उधर भटकता रहता था। उनके लिए मेरा सन्देश:

देख परायी चिकनी मत ललचाये जी।

घर की सूखी खाय के ठंडा पानी पी॥

चुटकला .२ (५० से ऊपर वालों के लिए)

अरे बढ़ाऊ तनिक कुछ तो शर्म करो। ई वियाग्रा हमका दे दो और सुनो।

बुड्ढा ऐसा पाय के बुढ़िया खूब शर्माय।

रोज वियाग्रा खाय के तंग करने आ जाय॥

जनाब आप नॉन वेज की तलाश में काफी नीचे गिर चुके हैं। अब आपको असलियत बताता हूँ। आज मंगल वार है। आज के दिन मैं नॉन वेज को हाथ नहीं लगता।

अगर आपकी आशाओं पर खरा ना उतरा हूँ तो छमा प्रार्थी हूँ.

सोमवार, 3 मई 2010

पुरुष शरीर में तड़पती औरत.

कल के टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुख्या पृष्ट पर " Rose finally blooms into a woman" शीर्षक के अंतर्गत एक खबर छपी थी। रोज वेंकटेशन नामक युवक ने अपना लिंग परिवर्तन करवाया और वो अब पुर्णतः एक पुरुष से स्त्री हो चूका है।

आजकल के ज़माने के हिसाब से देखा जाय तो इसमे कुछ भी अजीब नहीं है पर मेरे दिमाग में यह खबर सारे दिन भर छाई रही।

असल में रोज वेंकटेसन जैसा एक युवक मेरी कालोनी में रहता है। मैंने अपने बचपन से उसे देखा है।

यह युवक सात बहनों का एकलोता भाई है। कालोनी के लोग उसके स्त्रियोचित व्यव्हार को देखकर उसे हिजड़ा समझते थे पर मैं यह सोचता था की यह इतनी बहनों के बीच पला बड़ा है अतः उनकी नक़ल करता होगा। अच्छा, काम भी वो "लेडिज टेलर" का करता था इसलिए मुझे लगता था की वो लड़कियों की तरह से व्यव्हार करता है। पर फिर भी मुझे उसका व्यव्हार बड़ा अजीब लगता था।

बाद में उसके परिवार वालों ने उसकी शादी कर दी। उसकी पत्नी के दो पुत्र और एक पुत्री भी हो गयी। लोगों के हिसाब से ये बच्चे उसके नहीं बल्कि किसी और के थे। जो भी हो शुरू शुरू में तो उसका औरतों जैसा व्यव्हार सिर्फ उसके बोलने , चलने या कभी कभार शाल ओढ़ने के तरीके तक ही सीमित था मतलब की वो कपडे तो लड़कों जैसे ही पहनता था बस शारीरिक हाव भाव से ही स्त्रियों के लक्षण प्रकट करता था । वो जो भी था और जैसा भी था अपने घर तक सिमित था पर एक बार उसके घर की कलह सार्वजनिक हो गयी और सारी कालोनी को पता चल गया की उसके अपने जीजा से ही सम्बन्ध है जो उसके घर पर ही रहता था। कुछ दिनों बड़ा हंगामा रहा , फिर जैसा की आमतोर पर होता है सब शांत हो गया ।

पर इसके बाद से उस युवक में एक परिवर्तन आया . धीरे धीरे उसने अपने बाल बड़ा लिए और अब वो अक्सर सूट सलवार में, हाथो में नेल पोलिश लगाये इधर उधर आता जाता दिख जाता है। इतना भी ठीक था पर अब अक्सर उसके पास कुछ निम्न तबके के लफंगे टाइप लोग आते है जिनका किसी शरीफ आदमी के घर में मौजूद रहना किसी को गवारा नहीं होगा । कहने का मतलब है की उसके मन से समाज क्या कहेगा वाला भय निकल चूका है और वो क्या है ये समाज को बता देना चाहता है।

जब उसके घर में उसके अपने जीजा के साथ संबंधो को लेकर कलह चल रही थी तब उन्ही दिनों मैंने उससे एक बार खुल कर पूछ लिया था की क्या वो एक हिजड़ा है । तब उसने मुझे बताया था की उसका शरीर पुर्णतः एक मर्द का शरीर है और वो बच्चे उसके खुद के हैं जो की शरीर को एक यन्त्र की तरह से इस्तेमाल करने से पैदा हो गए हैं पर वो अन्दर से एक औरत है। उसे औरतों के तरह से रहना , सजाना सवारना पसंद है। उसे मर्दों का साथ भी पसंद है। उसने बताया की असल में दिल से वो एक औरत है।

इन सब बातों से मैं थोडा उलझन में पड़ जाता हूँ। क्या एसा हो सकता है की किसी का शरीर एक आदमी का हो और मन एक औरत का।

क्या ईश्वर या दुसरे शब्दों में कहें की प्रकृति ऐसी भूल कर सकती है की शरीर एक आदमी का बनाये और दिमाग औरत का।

टी वी सीरियल या कहानियों में तो मजेदार लगता है की एक पुरुष की आत्मा औरत के अन्दर और औरत की आत्मा पुरुष के शरीर में घुस गयी पर जब असल जिंदगी में ऐसा होता है तो ये बड़ा दर्दनाक होता है।

जरा सोचे की उस युवक की पत्नी पर क्या बीतती होगी जिसे ब्याहा तो एक पुरुष से गया था पर जो अन्दर से एक औरत निकला। मैंने देखा है उसकी पत्नी को करवा चौथ पर व्रत रखते हुए और उसकी असहज स्थिति पर विचार करके बड़ा दुःख होता है। जब उस युवक के किशोर होते हुए बच्चो को देखता हूँ तो बड़ा बुरा लगता है की उन्हें अपने खुद के पिता की वजह से कितना अपमान सहना पड़ता होगा।

हमारा समाज तो आपको पता ही है की इन विषयों पर क्या सोच रखता है।

दूसरों का तो पता नहीं पर मैं खुद इस प्रकार के लोगों से बड़ी सहानभूति रखता हूँ।

शनिवार, 1 मई 2010

जमूरे ब्लॉग हिट करना सीखेगा ? हाँ उस्ताद! ..सीखेगा! तो आजा मैदान में.

हाँ तो जनाब, ........मेहरबान ......कदरदान ...... ये मदारी आया है कलम के गरीब मजूरों की हेल्प करने .....

उस्ताद ...कलम के गरीब मजूर कोन से ?.....

जमूरे कलम के वो गरीब मजूर जो अपनी कलम घिस घिस के हार गए पर आज तक कभी भी हॉट... हॉट.... हॉट.... ब्लोगों की लिस्ट में उनका नाम नहीं आया....

उस्ताद ये तो पुण्य का काम है.... बहुत दुआएं मिलेंगी उस्ताद....

ऐसा है तो जमूरे अभी शुरू करते हैं अपना तंतर मंतर...........

तो जमूरे शुरू हो जा और पहला कमेन्ट लिख मार मेरे ब्लॉग पर, फिर में कमेन्ट मरूँगा.... फिर तू कमेन्ट लिखना॥ बस हो जाएगी अपनी पोस्ट हिट.... अबे हिटो हिट ....

अरे वह उस्ताद ये तो बड़ा सीधा सा मंतर है ...... तो शुरू करता हूँ अभी से... ले झेल मेरा पहला कमेन्ट....

अरे (धर्मनिरपेक्ष) हिन्दुओ अब तो जाग जाओ.

आज सुबह परम पूजनीय नित्यानंद जी के विषय में एक खबर सुनी की उन्होंने खुद को नपुंसक घोषित किया है और सी बीआई से उनके पौरुष को जांचने की गुहार की है।

भैया इससे तो मेरे भावुक ह्रदय को तो बड़ी ठेस पहुची।

अभी कथोलिक चर्च का मामला ठंडा नहीं हुआ है। देखो उन लोगों ने किस तरह से अपन धर्म गुरुओ का साथ दिया था। चर्च इतने वर्षो तक अपने सम्माननीय पादरियों के अवैध बच्चों के लालन पालन का खर्च देता रहा। छोटे छोटे मासूम बच्चो के यौन शोषण के मामलों को दबाये बैठा रहा।

इस्लामिक धर्म को मानाने वाले मासूम, निर्दोष और अत्यंत कोमल ह्रदय रखने वाले हमारे देश में रहने वाले अतिथि भी अपने गुमराह, पथ से भटके हुए बच्चों का बड़ी बहादुरी से बचाव करते हैं। मुझे तो उनमे से कुछ लोग इतिहास को बदलने की कोशिश भी करते दिख रहें है । अभी एक जनाब लिख रहे थे की मुसलमानों ने सैकड़ों वर्ष तक भारत पर राज्य किया और फिर भी यहाँ ८०% हिन्दू बचे रह गए यह मुसलमानों की सहृदयता है।

क्या मिसाल है मुस्लिम शासकों के उदार शासन की। सोचने की बात है की ८०% प्रतिशत हिन्दू बचे कैसे रह गए।

चलिए में ऊपर लिखी बातों के परिपेक्ष में अपने हिन्दू भाइयों से सिर्फ यह कहना चाहता हूँ दुसरे धर्मों के लोगों तो अपने घर की गन्दगी को छुपा के, सम्हाल के रख रहे हैं और आप लोग हमेशा की तरह से अपने घर की सफाई में लगे हो।

अरे (धर्मनिरपेक्ष) हिन्दुओ अब तो जाग जाओ।