मेरे परिवार में आजकल शादी का माहौल है.मेरी भतीजी का विवाह तय हो चुका है इन नवरात्रों में हमने लडके वालों के घर जाकर बात पक्की कर दी . वर पक्ष के लोग हल्द्वानी में रहते हैं. आने वाली जनवरी में भतीजी का विवाह हो जायेगा. हमारे होने वाले जंवाई सा दिल्ली में ही एक होटल में कार्यरत हैं या जैसे मैं उन्हें प्यार से कहता हूँ कि वो भड्डू मैनेजर हैं.
भड्डू मैनेजर होना एक व्यंगात्मक कहावत है . पहले जब पहाड़ से लोग दिल्ली जैसे आसपास के मैदानी इलाकों में रोजगार के लिए आते थे तो उनमे से ज्यादातर यहाँ किसी ढाबे या घर कि रसोई में बर्तन मजना और खाना पकाने जैसे छोटे मोटे कार्यों में लग जाते थे. जब वे कुछ पैसा कमाकर वापस पहाड़ लौटते तो वहा पर अपनी अमीरी का प्रदशन करते और ऐसे व्यवहार करते जैसे कि वो दिल्ली में कोई बड़ा काम करते हों.उनकी असलियत जानने वाले लोग उन्हें भड्डू मैनेजर कह उनका मजाक उड़ाते थे. भड्डू एक प्रकार कि पीतल कि हंडिया होती है जिसमे दाल आदी पकाते हैं.
पर आजकल जो लोग उत्तराखंड से कामकाज के लिए बाहर निकलते हैं वो भड्डू मैनेजर नहीं बनते. यहाँ तक कि वो लड़के जो होटल मेनेजमेंट जैसे विषयों को पढ़कर आते है वो भी रसोइया बनना पसंद नहीं करते. ज्यादातर होटल के दुसरे विभागों में कार्य करना चुनते हैं.
हम लोगों में पुत्री के लिए योग्य वर कि तलाश करते वक्त दो शर्तों का पूरा होना जरुरी होता है.पहली है अपनी जाती का ऊँची धोती वाला ब्रह्मण परिवार और दूसरी कुंडली मिलन . इन दो अति आवश्यक शर्तों पर खरा उतरने के उपरांत ही रिश्ते कि कोई बात आगे बढ़ती हैं. सौभाग्यवश हम लोगों में कोई ऐसी कुप्रथा नहीं है जिसमे वधु के पिता को विवाह में या उसके बाद कोई भी अनावश्यक परेशानी झेलनी पड़ती हो. अब देखिये मेरी भतीजी सांवली है और हमारे होने वाले जंवाई जी गोरे और सुन्दरता में हमारी बिटिया से इक्कीस पर फिर भी रिश्ता तय हो गया बिना किसी लेन देन कि बात हुए ही. इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है.
ये परंपरागत पहाड़ी समाज की विशेषता है कि हम लोगों में कोई भी ऐसी रस्म नहीं होती जिसमे वधु पक्ष के लोगों को अनावश्यक आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ता हो. मेरे ही परिवार में हमारी एक लड़की का विवाह यहाँ के ही स्थानीय ब्रह्मण परिवार में हुआ है. लड़की के पिता बड़े परेशान हैं. हर बार त्यौहार और मांगलिक कार्य में उन्हें लडके वालों को तरह तरह की सौगातें भेजनी पड़ती हैं जो की उनकी परम्परा में है और दूसरी बहुओं द्वारा निभायी भी जाती है. अब अपनी पुत्री के मान सम्मान के लिए ही सही मज़बूरी में इन्हें भी बार बार लड़की के सास ससुर और ननदों के लिए कपडे व दुसरे उपहार भेजने पड़ते हैं. वहीँ उनकी दूसरी पुत्री जो कुमाउनी परिवार में ही ब्याही है के ससुराल से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं होती. यहाँ एक बात और भी कह दूँ कि उत्तराखंड में समाज के किसी भी वर्ग में घूँघट प्रथा नहीं है. बहुएँ सिर पर पल्ला जरुर रखती हैं पर मैदानी इलाकों कि तरह से लम्बा घूँघट नहीं निकलती.
अब ऊँची धोती वाले ब्राहमण क्या होते हैं ये बात भी मैं स्पष्ट कर ही दूँ. कुमाउनी ब्राहमण दो वर्गों में विभाजित हैं. एक वो जो अपने खेतों में खुद हल चलते हैं और दुसरे वो जो मुख्यतः धार्मिक कर्मकांड करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं और खुद कि खेती बड़ी होते हुए भी कभी भी हल नहीं चलते. ये लोग खुद को हल चलाने वाले ब्राह्मणों से ऊँचा मानते हैं और हल चलाने वाले ब्राह्मणों से विवाह सम्बन्ध रखना अपमानजनक समझते हैं. मजाक में ये लोग ही ऊँची धोती वाले ब्राह्मण कहलाते हैं.
जो भी हो हमें अपनी पसंद का जंवाई मिल गया और हम लोग खुश हैं और होने वाले मांगलिक कार्य कि तैयारियों का मजा ले रहे हैं. बहुत सारी तैयारियां कि जानी हैं. तरह तरह कि खरीदारी होनी हैं. कल यूँ ही मेरी पत्नी ने अलमारी से पहाड़ी स्त्रियों द्वारा मांगलिक कार्यों में ओढ़ी जाने वाली चुन्नी जिसे हम पिछोड़ा कहते हैं निकाली तो उसे देख कर मेरी ढाई वर्षीया पुत्री दुल्हन बनने को मचल गयी और उसने दुल्हन का रूप धर ये तस्वीर खिचवाई.
कहा जाता है कि बेटियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं. मेरी भतीजी का उदहारण मेरे सामने ही है. मेरी स्मृतियों में वो पल अभी भी एकदम स्पष्ट है जब पता चला था कि मेरी एक भतीजी पैदा हुई है. बचपन में उसकी शरारतें उसका चुलबुलापन सब बिलकुल आँखों के सामने ही है. लगता ही नहीं कि कुछ ही दिनों में वो विदा होकर अपनी ससुराल चली जाएगी.
शायद कुछ ही वर्षों बाद अभी खेल खेल में दुल्हन बन रही मेरी बेटी भी ऐसा ही पिछोड़ा पहन विदाई के लिए मेरे सामने खड़ी होगी. तब कैसा महसूस होगा ....
कोई बात नहीं १८ जनवरी २०११कि सुबह इस बात का भी एहसास हो ही जायेगा.