यूँ
तो मन था की बकवास जारी रखी जाय और स्त्री समानता पर अपने
घिसे-पिटे विचार प्रस्तुत किये जाय पर अदा जी की टिप्पणी और अपने ब्लॉग जगत में जर्मनी
पुरस्कारों को लेकर चल रही घमासान से मुझे लगा की प्रेम मोहब्बत की
बात की बात करना ज्यादा अच्छा होगा। वैसे इस ओर मेरा ध्यान आकर्षित हुआ "आराधना का ब्लॉग" की एक पोस्ट से जिसमे नारीवादी स्त्री प्यार कर सकती है या नहीं इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला गया था।
प्रेम सभी जानते हैं की भगवान की इन्सान को दी हुयी सबसे बड़ी नेमत है। बड़े बड़े गुणी जनों ने इस पर बहुत बहुत कुछ लिखा है। पर क्या करू सभी
ने प्रेम भावना को इतने भिन्न रूपों में परिभाषित किया है की मैं उलझ जाता
हूँ की वास्तव में प्रेम किस चिड़िया का नाम है और ये किस डाल पर बैठती
हैं। किस्से कहानियों में तो सच्चे प्यार की बहुत सी दास्तानें लिखी और सुनायी गयी हैं जैसे राधा-कृष्ण,लैला-मजनू आदि आदि पर जब भी मैंने सच्चे प्रेम के वास्तविक जीवन में उदहारण खोजने की कोशिश की तो मुझे नाकामी ही मिली।
मुझे लगता है की शायद मैंने प्रेम की कोई मुश्किल सी परिभाषा पढ़ ली है या फिर प्रेम को परिभाषित ही नहीं किया जा सकता है।
यूँ तो प्रेम एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है पर इसकी जो सबसे उत्तम परिभाषा आज तक मुझे मिली उसके अनुसार प्रेम वो भावना है जिसमे हम किसी पर बिना कुछ चाहे अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं या कर देने की इच्छा रखते हैं । (अगर इससे बेहतर कोई और परिभाषा है तो मैं जानना चाहूँगा)
उपरोक्त परिभाषा के आधार पर मुझे तो लगता है की मानव मन की जिस भावना का हम प्यार समझते हैं उसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि किस्से कहानियों को छोड़ वास्तविक जीवन में इसके उदहारण आपको ढूंढे नहीं मिलेंगे। जिस प्रकार से सत्यनारायण की कथा में उस कथा के महात्मय को ही बतलाया गया है वास्तविक कथा का कहीं भी जिक्र नहीं है उसी प्रकार प्रेम एक ऐसी उच्च कोटि की मानवीय भावना है जो मानवों में ढूंढे नहीं मिलती।
सबसे पहले स्त्री
पुरुष के प्रेम को लें। यहाँ में किस्से कहानियों में वर्णित काल्पनिक चरित्रों का उदहारण नहीं लेना चाहता
अपने इर्द गिर्द के वास्तविक प्रेमियों की बात ही करना चाहता हूँ। अपने आस
पास आपको ऐसा एक भी उदहारण नहीं मिलेगा जहा दो प्रेमी एक दुसरे पर बिना कुछ
चाहे न्योछावर हों। दो प्रेमियों के मध्य आपको या तो यौन आकर्षण मिलेगा या
आर्थिक सामाजिक सुरक्षा की चाहत दिखाई देगी। कहा तो बहुत कुछ जायेगा पर ध्यान से देखने पर आप पाएंगे की कहीं न कहीं दोनों को एक दुसरे की जरुरत है इसलिए प्रेम पनपा है।
आप
माता पिता और सन्तानों के मध्य के प्रेम को ले लें। यहाँ भी निस्वार्थ
कुछ नहीं है।एक दुसरे से कोई न कोई चाहत आपको नज़र आ ही जाएगी।
सांसारिक संबंधों की बात छोड़ अध्यात्मिक स्तर पर आयें तो वहां भी हम लोग ईश्वर से प्रेम किसी न किसी लालच के कारण करते हैं। हम जन्म मरण से मुक्ति चाहते हो या जन्नत में हूरों के ख्वाब देखते हों, ईश्वर से प्रेम हम किसी न किसी चाहत के कारण ही करते हैं।
तो प्रेम असल में है कहाँ ? क्या ये वास्तविकता में होता भी है ? मुझे तो लगता है की प्रेम शब्द ही एक छलावा है। प्रेम एक काल्पनिक शब्द है
और असल में प्रेम होता ही नहीं है। मुझे तो लगता है की जिस भावना को हम प्रेम के रूप में परिभाषित करते हैं वो असल में आनंद या सस्ते में कहें तो मज़ा है।
प्रत्येक इन्सान अपने संबंधों में चाहे वो साथी इंसानों के साथ
हों या किसी और चीज के साथ आनंद की तलाश में रहता है। जब उसे वो अननद
मिलता है तो वो कहता है की उसे प्रेम हो गया है। आपसी संबंधों में जब आनंद
नहीं रहता तो प्रेम भी ख़त्म हो जाता है। जब माता पिता अपनी संतान का लालन
पालन करते वक्त आनंदित होते हैं तो उन्हें अपनी संतान से प्रेम होता है पर
बाद में जब उन्हें अपनी संतान से कोई चाहत होती है और वो पूरी नहीं होती तो
उनका आनंद ख़त्म हो जाता है।
स्त्री पुरुष जब पहली नज़र में एक दुसरे को आनंद लेने और देने योग्य पाते हैं तो ये पहली नज़र का प्यार कहलाता है और जब ये आपसी मज़ा खत्म हो जाता है तो प्यार भी कहीं मर जाता है।
कभी
कभी स्त्री पुरुष पहली नज़र में एक दुसरे को मज़ा लेने और देने के योग्य
नहीं पाते पर धीरे धीरे साथ रहते रहते एक दुसरे की उपस्थिति से आनंद लेना सीख जाते हैं तो कहा जाता है की प्यार धीरे धीरे परवान चढ़ा। दो स्वतंत्र व्यक्तित्व जब एक दुसरे में आनंद खोजते हैं तो कुछ को लगता है की यही सच्चा प्यार है पर जब उन्हें अपने संबंधों में आनंद नहीं मिलता तो यह सच्चा प्यार भी कुछ दिनों में लुप्त हो जाता है।
हम
ईश्वर का भजन करते हैं, पूजा पाठ करते हैं हमें आनंद मिलता है हम कहते हैं
की हमें इश्वर से प्रेम हो गया।जिस दिन ईश्वर से हट कर हमें सांसारिक
वस्तुओं में मजा मिलने लगता है तो हमें संसार से प्रेम हो जाता है।
लगता है की अब ज्यादा उदहारण देने की आवश्यकता नहीं। मेरी बात आपकी समझ में आ ही गयी होगी :-))
तो मेरी बात मानिये इस संसार में प्यार, मोहब्बत और प्रेम जैसी कोई चीज है ही नहीं । जो कुछ है आनंद ही आनंद है। अतः जीवन के पुरे मजे लें जो अच्छा लगता है उसके साथ लें और मजे ना मिलें तो लूट लें। लगता है की अब ज्यादा उदहारण देने की आवश्यकता नहीं। मेरी बात आपकी समझ में आ ही गयी होगी :-))