बुधवार, 31 मार्च 2010

स्त्री की प्रेम अभिव्यक्ति और हमारे सामाजिक नियम.

मनीषा जी सबसे पहले मैं यह कहूँगा की आप एकदम बिंदास लिखती है अपने विचारों में कोई काट छाट नहीं करती इसलिए आपका लेखन मुझे बहुत अच्छा लगता है।

आपने अपने मन की बात कही, आपकी भावनाएं प्राय सभी भारतीय स्त्रियों की होती है जो आज के समाज में पुरुष के साथ हर field में कंधे से कन्धा मिलकर चल रही हैं।

एक मानव के रूप में हम सभी अपने प्यार की अभिव्यक्ति ठीक उसी रूप में करते है जैसे की अपने किया पर सिर्फ स्त्रियों को संदेह की नजर से देखा जाता है और उनकी छोटी से छोटी बात को भी सालों याद रखा जाता है । यह बात विचारनीय है की ऐसा क्यों होता है । आपका दर्द एकदम जायज है क्योंकि अपने सारी घटना को एक स्त्री के नजरिये से देखा। पुरुष का नजरिया क्या होता है यह मैं आपको दिखता हूँ।

जब आप उन लेखक महोदय, जो की ७० वर्ष की उम्र के थे, से मिलीं तो अपने आदर, सम्मान व प्यार से उन्हें गले लगा लिया पर इस बात की याद उन्हें अपनी वृधावस्था में भी वर्षों तक रही यह बात पुरुष की मानसिकता को दिखाती है।

एक पुरुष के लिए रिश्तों के बंधन से मुक्त नारी हमेशा भोग्या होती है। मेरी इस बात का बहुत से लोग पुरजोर विरोध कर सकते है पर मैं अपनी बात से कभी पीछे नहीं हटूंगा। कभी कभी तो रिश्तों की दिवार भी गिरा दी जाती है चाहे वो कितनी भी मजबूत क्यों ना हो।

इस वजह से ही हमारे समाज में स्त्री का किसी भी पर पुरुष के साथ शारीरिक या मानसिक जुडाव कभी भी ठीक नहीं समझा गया।

सभी स्त्रियाँ इसे खुद पर लांछन के रूप में लेती हैं। उन्हें लगता है की उनकी पवित्रता पर शक किया जा रहा है। पर सच्चाई यह है, की यह पुरुष की मानसिकता पर लांछन है। जब दो व्यक्ति व्यव्हार करते हैं तो दोनों की भावनाओं को देखा जाता है। एक तो निर्दोष भावना से व्यव्हार कर रहा है पर दुसरे के मन में खोट हो तो नुकसान किसे होगा? आपको यह बात समझनी होगी।

अपने एक पुरुष में एक पिता को देखा होगा, एक भाई को देखा होगा, एक प्रेमी को देखा होगा पर शायद एक पुरुष में सिर्फ पुरुष को कभी नहीं देखा होगा। जब एक पुरुष एक पिता, भाई , पति या प्रेमी नहीं होता है और विशुद्ध रूप में पुरुष होता है तो उसे कोई लिहाज नहीं होता , ना भावनाओं का ना उम्र का , ना समाज का, ना सामाजिक रिश्तों का । पुरुष की इस मानसिकता से वशीभूत होकर ही तो एक ८१ वर्ष का आदमी १८ साल की युवती से विवाह कर लेता है।

तो मनीषा जी आप जिन सीमाओं को दुष्ट समझकर तोड़ देना चाहती हैं और जो सीमाएं आपकी समझ से आपको कमतर इन्सान बनती है वो आपके भले के लिए ही हैं। समाज या कानून द्वारा तय सीमा के अंतर्गत किया गया व्यव्हार किसी भी इन्सान को कमतर नहीं बनता। शायद यही वो मानसिकता है जिसके तहत आज का युवा रोड पर स्पीड की सीमा को या रेड लाइट पर रुकने को एक बंधन मानता है। उसे भी समाज के बनाये नियम कानून को मानाने से अह्सासे कमतरी होता है। ( अह्सासे कमतरी की वर्तनी मुझे ठीक नहीं लग रही, पर काफी पहले यह शब्द सुना था आज चेपने का मौका मिला है )

अच्छा अब कुछ लोग यह कह सकते हैं की पश्चिम के समाज में तो ऐसा नहीं है। तो इसका जवाब मैं जब मन करेगा तो जरुर दूंगा अभी ३१ मार्च है वक्त की कमी है।

रविवार, 28 मार्च 2010

और एक सेक्युलर मुस्लमान न बन पाया ...........

गुनगुना रहे हैं मसक , जग रही है गली गली,

वाह !वाह ! कितना कर्ण पीडक गीत है। यह सुन कर थोडा मूड बना गुनगुनाने का ।

सर्वप्रथम सभी ब्लॉग लिखने और पढने वाले निठल्ले भाईयों को मेरा नमस्कार । उन भाइयों को, जिनका ध्यान शीर्षक में मुस्लमान शब्द पढ़कर इस लेख की तरफ गया है, मैं यह वैधानिक चेतावनी देना चाहता हूँ की यहाँ आपको कुछ भी भड़काऊ नहीं मिलेगा अतः यहीं से वापस लौट जाये। आगे न बढ़ें।

मैं एक मच्छर हूँ।

मैं आपके घर में ही पैदा हुआ और शायद यहीं मर जाऊंगा और आपको पता भी न चलेगा।

क्या कभी अपने एक मच्छर के विषय में सोचा है? जानते हैं एक मच्छर कितना ताकतवर होता है । नहीं पता तो नानाजी से पूछो। ताकतवर होते हुए भी वो कितनी लाचारी की जिंदगी जीता है। कितने खतरे भरे होते हैं एक मच्छर के जीवन में। जरा सोचो आपका शिकार आपके सामने गहरी नींद में है। आप उसका खून चुसना चाहते हो, वो भी ऐसे की उसको पता न चले और aapka पेट भी भर जाये। वो सोता ही रहे। कितना कठिन कार्य है। विल्कुल एक नेता की तरह से काम करना पड़ता है।

कहीं आप इसलिए तो मुझ से घृणा नहीं करते की मैं खून चूसता हूँ? खून चुसना तो मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। पर जरा अपने भीतर तो झाकों । आपमे से बहुत से ऐसे हैं जिनके पास पेट भरने के लिए दुसरे रास्ते हैं या फिर जिनके पेट पहले से ही भरे पड़े हैं पर फिर भी वो दूसरों का खून चूसते हैं। घृणा करनी ही है तो उनसे करो।

हमारी कौम पर बहुत अत्याचार हुए हैं। आप लोगों ने हमें मिटने के लिए हर संभव उपाय किये हैं पर हमारा जीवट तो देखो हम अभी भी जिन्दा हैं और हमेशा रहेंगे।

कौम पर अत्याचार से मुझे धर्म की याद आ गयी। जब मैं पैदा हुआ तो मुझे नहीं पता था की खून चूसने के अलावा मेरा दूसरा धर्म क्या है? आपको पता है ही की जब हमें अपने धर्म का ज्ञान नहीं होता तो हम सेकुलर कहलाते हैं। वैसे हमारे सेकुलर कहलाने के और भी दुसरे कारण हैं।

मेरे पिता की रगों में एक मुस्लिम का खून था । मेरी माता की रगों में एक इसाई का खून और मेरी रगों में एक हिन्दू का खून बह रहा है। हम मच्छरों में यह संभव है। इसलिए भय्या हुए न हम सेक्युलर। एक दम सो फीसदी सेक्युलर।

इस देश के सभी तथाकथित सेक्युलर मेरे जैसे ही हैं।

ऐसा नहीं है की हम हमेशा ही सेक्युलर बने रहते हैं । कभी कभी हमारे भीतर भी धार्मिक भावनाए उमड़ पड़ती हैं। हम भी राजनैतिक इच्छाएं रखते हैं।

जब बजरंग दल का गठन हुआ तो मेरी रगों के बह रहा हिन्दू रक्त उबल खाने लगा। मुझे लगा की अब मुझे भी इस देश में पूजा जायेगा । मेरे भी मंदिर बनेगें।

मेरे भीतर का मच्छर बहुत खुश हुआ। मैने निर्णय लिया की मैं खुद को हिन्दू घोषित कर दूंगा।

मैं ख़ुशी ख़ुशी कटियार जी के पास गया और उन्हें कहा की वे मेरा चित्र अपनी ध्वजा पर लगायें और मेरा logo इस्तेमाल करें । विनय जी ने मेरी विनती पर कोई ध्यान नहीं दिया और मुझे भगा दिया।

आप ही बताएं क्या मेरा आग्रह वाजिब नहीं था? बजरंग बलि ने एक मच्छर का रूप धरकर ही तो लंका का भ्रमण किया था। तो क्या मैं बजरंग दल वालों के लिए पूजनीय नहीं हुआ? उन्होंने मेरी भावनाओ को ठेस क्यों पहुचाई?

आहत भावना से मैंने निर्णय लिया की अब मैं सेक्युलर से मुस्लमान बन जाऊंगा। सब कुछ तय हो गया। सारी तैयारी पूरी हो गयी थी पर एक technical problem हो गयी जिसकी वजह से मैं इस्लाम न अपना पाया।

कोई मेरा खतना करने को तैयार ही नहीं हुआ। और मैं सेक्युलर का सेक्युलर रह गया।

शनिवार, 27 मार्च 2010

कविता....... मैं तुमसे डरता हूँ भई!

जब मैं छोटा था मुझे मेरी अम्मा एक कविता सुनाती थी:

चंदा मामा दूर के, पुए पकाए पूर के।

अम्मा की इस कविता को सुन कर मैं सो जाया करता था। अब बड़ा हो गया हूँ। अम्मा मेरे साथ नहीं है पर उस वक्त की मेरी आदत आज भी नहीं बदली है। आज भी जब मैं कोई कविता सुनता हूँ तो सो जाता हूँ।


कभी कभी लगता है मेरे लिए तो कविता सुन कर सो जाना ही ठीक है क्योंकि अगर मैं सो नहीं पाता और कविता सुनते हुए जागता रहता हूँ तो मेरे दिमाग मैं उटपटांग से प्रश्न उगने शुरू हो जाते हैं। अब मेरी पहली कविता का उदहारण ही लें। एक बार जब यही कविता मैंने अपनी माँ के मुख से नहीं सुनी तो मैं और मेरा दिमाग दोनों ही जागते रहे। मेरे इस जागे हुए दिमाग में प्रश्न उठा की अगर पहली पंक्ति है चंदा मामा दूर के तो दूसरी पंक्ति में इस बात को आगे बढाया जाना चाहिए था जैसे की


चंदा मामा दूर के पास जाऊ हजूर के।

या

चंदा मामा दूर के मुझे बुला लो टूर पे ।


या ऐसी ही कोई और तुकांत बात पर ये कवि महोदय अचानक पुए कहाँ से तलने लगे? मेरे जागे हुए दिमाग में उठे इस प्रश्न का उत्तर मैं खुद नहीं खोज पाया। इसी तरह से मैं ज्यादातर कविता को समझ नहीं पाता। और भी कई घटनाये सुनाता हूँ।


मैं आठवी या नवी कक्षा में था तब मेरे लिए सबसे कठिन पुस्तक हिंदी पद्य की थी। मुझे समझ ही नहीं आता था की कवि आखिर क्या कहना चाहता है । हमारे कोर्स में कविवर बच्चन की एक कविता थी :

मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़ ।

मैंने इसका सीधा साधा अर्थ निकला की कवि स्त्री रूप में कह रहा है को वो सीधी रीढ़ रखने वालों के साथ खड़ी है। जब हमारी रीढ़ सीधी होती है तो छाती चौड़ी लगती है और चौड़ी छाती वाले पुरुषों के साथ स्त्रियाँ रहना पसंद करती हैं। अब आप अनुमान लगा सकते हैं की इस व्याख्या के मुझे कितने नंबर मिले होंगे।

कविता की व्याख्या करना मुश्किल जरुर हो सकता है पर कविता लिखना मुझे आसन दीखता है। कविता लिखने के लिए बस कवि को मूड में आना होता है। किस तरह से? सुनिए.......

अब किसी ने कवि को थप्पड़ मारा , कवि तुरंत ही एक भय भरी कविता कर देगा।

किसी कवि को उसकी पत्नी ने सताया तो उसे सारे ज़माने में दुःख ही दुःख नजर आयेगा।

किसी कवि के हाथ अगर झंडू का चाव्न्यप्राश लग लाया तो उसकी कविताओं में वीर रस की अभिव्यक्ति होने लगेगी क्योंकि झंडू का चावान्यप्रास रग रग में ताकत जो भर देता है।

इसी तरह से भाव प्रवण कविताओं की रचना हुआ करती है। अच्छा कविता लिखने के बाद की राह भी बड़ी आसन है। कवि को बस कविता लिखनी होती है उसका अर्थ या अनर्थ करने का जिम्मा तो मेरे जैसे पाठकों के हाथ ही होता है। आप किसी कवि से पूछ लीजिये भाई आपकी फलां पंक्ति का क्या अर्थ हुआ तो आप पाएंगे की अर्थ तो उस बेचारे को भी नहीं मालूम । उसका मकसद तो सिर्फ तुक भिड़ना था सो उसने भिड़ा दिया । आगे आपका काम है। अपने काम का मतलब खुद निकल लो और अगर कुछ भी समझ ना आये तो जोर जोर से वाह वाह चिल्लाकर अपने ज्ञानी होने का परिचय दे दो। अतः कवि के तो दोनों हाथों में लड्डू हैं।

मेरे एक कविवर मित्र हैं जो कहते हैं की कविता करना आसान कार्य नहीं है। आम व्यक्ति कविता नहीं लिख सकता। इसके लिए आपके भीतर भावनाओं का तूफान सा उमड़ रहा होना चाहिए। आपके भीतर थोडा पागलपन होना चाहिए। थोडा जनून होना चाहिए। फिर दम लगाओ तब निकलती है कविता।

मैंने भी दम लगाया पर शायद थोडा ज्यादा जोर से लग गया और आगे क्या हुआ नहीं बताऊंगा।

लोग कहते हैं की भावुक व्यक्ति ही कविता कह पता है। मैं भी भावुक हूँ पर कविता नहीं लिख पता । पता नहीं शायद इसलिए खीज में कवियों की टांग खिचता रहता हूँ। भावुक ह्रदय कविगण ,मुझे छिमा करें।


शुक्रवार, 26 मार्च 2010

क्या अपने श्वेत भँवरा देखा है?

हमारे साहित्य में भँवरे को एक विशेष स्थान हासिल है। वह कलिओं का रसपान करता है और फिर उड़ जाता है। किसी एक पुष्प पर टिकना उसका स्वाभाव नहीं है। वह रंग का काला है अतः मन का भी काला मान लिया जाता है। उसकी प्रकृति चंचल है। बेचारा भँवरा। वो क्या करे बगिया में वह अकेला है और पुष्प ढेर सारे। सभी को विकसित करवाना उसका कर्तव्य है सो वह एक कली , एक पुष्प का होकर नहीं रह सकता । पर क्या करें ये कवि उस की इस मज़बूरी को नहीं समझते और उसे बेवजह खलनायक बना देते हैं।



एक बगीचा ये भी है जहाँ अभी आप हैं। यहाँ भी नाना प्रकार के ब्लॉग रूपी पुष्प खिलते हैं। अलग अलग रंग , रूप, आकार के पुष्प। यहाँ भी कुछ पुष्प दिन में खिलते हैं, कुछ रात में खिलते हैं। कुछ रंग बिरंगे , कुछ रंग हीन; कुछ सुगंध से भरे हैं , कुछ बास हीन और कुछ एक तो दुर्गन्ध भी देते हैं। इन सभी पुष्पों को तलाश रहती है एक अदद भँवरे की जो इन पर आकर इनके रस का पान करे , खुद अपनी तृप्ति करे और अपनी टिपण्णी के द्वारा इनका परागण करें ताकि इन ब्लॉग रूपी पुष्पों से नई सोच के नए नए बीज पैदा होते रहें।



कुछ समय से मैं भी अलग अलग ब्लोग्स पर जाकर उनका रसपान कर रहा हूँ। अपनी टिप्पणियों के द्वारा कोशिश करता हूँ की उनका विकास हो। यहाँ की दुनिया उसकी बनायीं दुनिया का ही विस्तार है। यहाँ भी अनेक चमत्कार होते रहते हैं। यहाँ मैंने एक पुष्प ऐसा भी देखा जिसकी गंध बार बार बदलती रहती है और अपनी इसी क़ाबलियत की वजह से वह अनेकों भंवरों को अपने मोहपाश में बांधे रहता है। यह पुष्प अपनी गंध ही नहीं अपना आकार भी बदलता रहता है। कभी यह गुलाब सा लगता है तो कभी यह कमल सा दिखने लगता है। उफ़ इसके तो दोनों ही रूपों में भंवरों की शामत है।



कुछ ब्लॉग ऐसे हैं जिन पर अनेक भँवरे आकर अपनी टिपण्णी लिख जाते हैं पर कुछ ऐसे भी है जिनके पास एक भी भँवरा नहीं फटकता। वे पुष्प खिलते हैं , मुरझाते हैं, खिलते हैं, मुरझाते है और फिर परागण न होने के कारण एक दिन समूल नष्ट हो जाते हैं। प्यारे भंवरो उन एकांत में खिल रहे पुष्पों पर भी तो कुछ कृपा करो। उन्हें भी तो विकसित होने का मौका दो। जो पुष्प अच्छी तरह से खिल चुके उनका मोह छोड़ कर दूसरों की सुध भी लो।



इतना लिखने के पश्चात मुझे नहीं लगता की अब यह बताया जाय की श्वेत भँवरा कौन है?

सोमवार, 22 मार्च 2010

ऐसी नारी देख के दिया कबीरा रोय.

कभी सोचा है की अगर कबीर आज के युग में पैदा हुए होते तो उनके दोहों का क्या स्वरुप होता?
शायद वे अपने दोहों की रचना कुछ इस प्रकार से करते:


सामाजिक दोहे

प्रेम ना दिल में उपजे, प्रेम ना मॉल बिकाय।
लड़का लड़की जेहि रुचे , अंग दिखाय ले जाय॥

निंदक नियरे न राखिये, बंटाधार कर जाय।
बिना बात निंदा करे, मन का साहस जाय॥

ऐसी बानी बोलिए हर बात पे गाली होय।
श्रोता का बीपी बढे और अपना आपा खोय।

कबीरा इस संसार में सबसे मिलिए धाय।
न जाने किस रूप में आमिर खान मिल जाय॥

गृहस्थी की चक्की रोक के दिया कबीरा रोय ।
मनमोहन इस महगाई में गुजर बसर ना होय॥

राजनैतिक दोहे

जात ही पूछो नेता की पूछ न लेना ज्ञान।
लोक तंत्र पे रोओगे सबकी असलियत जान ॥

जब तू था तो माया नहीं, अब माया है तू नाय।
मुलायम यह सीट अति साकरी, या में दो न समाय॥

उद्धव बराबर राज नहीं, उद्धव के तुम बाप।
नयी पार्टी बनाय के अपनी माला जाप॥

बिहार जो देखन मैं चला , बिहारी न मिलया कोय।
जो दिल्ली खोजी आपनी सगरे यंही पर रिक्शा ढोयं ॥

हिन्दुओं को उनका सन्देश होता .......

नित्यानंद अरु इच्छाधारी अनुसरे हरी न मिलिए भाय ।
इनसे तो कॉल गर्ल भली , क्या पता समाधी लग जाय ।।

मुस्लिमों को उनका सन्देश होता ......

मुल्ला विमान पर चढ़, दिए टावर दोउ ढ़हाय ।
इनके कर्मन ते तो खुद मुह छिपा लेगा खुदाय ॥


और इस नारी को देख कर तो वो यही कहते:



लम्बी वेणी काट के लाज शर्म सब खोय । ऐसी नारी देख के दिया कबीरा रोय॥







रविवार, 21 मार्च 2010

माया ने मुझे धर्म विमुख किया.

धर्म मेरा प्रिय विषय है क्योंकि अभी तक मैं यह नहीं जान पाया हूँ की वास्तव में मेरा सच्चा धर्म क्या है? यह चर्चा तो बाद में भी कर लूँगा , अभी तो माया मुझे मोह रही है । मेरा ध्यान भटका रही है अतः धर्म को त्याग कर माया पर विचार करना जरुरी है।

पिताजी कहते थे की बेटा माया के चक्कर में मत फसना, माया महा ठगिनी। उनकी बातें हर आधुनिक बेटे की तरह यंत्रवत सुनता था कभी गहन विचार नहीं किया।

माया है क्या? किस चिड़िया का नाम है माया ? जब छोटा था तो सुनता था की ये धन, संपत्ति, पैसा, पद ,अहंकार, क्रोध, लोभ और ऐसी ही चीजों को माया कहते हैं। मैंने तो तभी से माया की एक मूरत मन में बना ली थी।

आज भी मेरे लिए माया का मतलब हरे हरे नोट हैं। नोट चाहे एक रुपये का हो या हजार रूपये का उसका अर्थ सामान है। तो माया का मतलब ..... हरे हरे नोट ! नोट चाहे गड्डी में हों या हार में ।

माया मेरे लिए वे देवी हैं जिनके दोनों तरफ दो हाथी सूंड में कलश उठाये खड़े रहते।

माया वो देवी हैं जिनके स्वामी स्वर्ग में रहने वाले एक देव हैं जिनका नाम "क" शब्द से शुरू होता है। कुछ याद आया.............. अरे ........ अरे भाई माया के स्वामी कुबेर।

माया एक जगह नहीं टिकती। माया आज आपके हाथ है कल राह में साईकिल पर जाने वाले के साथ हो सकती है परसों कमल पर विराजमान भी दिख सकती हैं। और कभी कभी सभी को हाथ मलने पर मजबूर भी कर सकती है। इतिहास उठा कर देखें ऐसा ही हुआ है।

माया समाज के वर्षों से सताए हुए दबे कुचले पिछड़े व्यक्ति को सत्ता के रंगीन स्वप्न दिखा सकती है। और साथ में यह सिखा सकती है की जिसने तुम्हे काटा उसे तुम काट खाओ। कभी मानसिक स्तर पर ऊँचे न उठो।

यही तो माया है। माया से मुक्त होने का प्रयास करो प्रजा जनों।

और अंत में ... माया हमें क्या सीख देती है?

माया हमें समझती है की हम अपनी सभी शक्तियों का प्रयोग सही ढंग से करे, सोच समझ कर करें , माया के फेर में न पड़े वर्ना हमारा, देश का, और सब का बेडा गर्क होने में देर नहीं लगेगी.

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

साईं बाबा का चमत्कार - मेरे जीवन की सत्य घटना.

मैं चमत्कार वगैरा में विश्वास नहीं रखता और धार्मिक होते हुए भी मंदिरों के ज्यादा चक्कर नहीं काटता । मेरे बड़े भाई साहब मेरे बिलकुल विपरीत हैं। उनकी साईं बाबा में बेहद श्रद्धा है। वे अक्सर शिरडी आते जाते रहते हैं। कई बार उन्होंने मुझे शिरडी चलने के लिए कहा पर मैं किसी न किसी वजह से उनके साथ नहीं जा पाया।


यह बात सन २००८ की सर्दियों की है। भाई साहब दतात्रेय जयंती के अवसर पर शिरडी जा रहे थे। उन्होंने मुझे इस विषय में बताया । उन्हीं दिनों शिरडी में बाबा के किसी भक्त ने बाबा के लिए सोने का सिंहासन बनवाया था और वहां की दीवारों पर भी सोने के पत्र लगवाये थे। यह करोडो रुपयों का दान था। मैं इस बात से बड़ा प्रभावित था अतः मन में एक सोच आयी की चलो बाबा के पुण्य दर्शनों तो होंगे ही और जीवन में पहली बार एक साथ इतना सोना भी देख लेंगे, तो मैं भी शिरडी जाने के लिए तैयार हो ही गया।

मेरे बड़े भाई इस बात से बहुत खुश हुए। रास्ते भर वे मुझे साईं बाबा के चमत्कारों के विषय में बताते रहे। उन्होंने कहा की बाबा के आशीर्वाद से मेरे जीवन में भी कोई न कोई परिवर्तन अवश्य आयेगा। मैं भी मन ही मन बाबा से अपने जीवन में कोई एसा चमत्कार करने की प्रार्थना करने लगा की बस जीवन सफल हो जाये।


शिरडी पहुच कर हमने होटल में एक कमरा किराये पर लिया , अपना सामान रखा और जल्दी से नहा कर बाबा के दर्शन करने निकल पड़े। दतात्रेय जयंती की वजह से मंदिर में गर्दी बहुत थी। ( वहां की लोकल भाषा में भीड़ को गर्दी बोलते हैं) बाबा के दर्शनों के लिए लम्बी लाइन लगी थी। करीब तीन चार घंटों में हमारा नम्बर आया। मन की सारी इच्छाए मैंने बाबा के सामने रख दीं। मैंने बाबा से कहा बाबा कोई चमत्कार कर दो। बस कुछ ऐसा कर दो की लगे की मैं भी कोई बड़ा आदमी हूँ।


दर्शन के पश्चात् जब हम मंदिर से बाहर आये तो मेरे बड़े भाई को तो बड़ी तेज भूख लग रही थी और जैसा की मैं पहले बता ही चूका हूँ की मेरा स्वाभाव मेरे बड़े भाई के बिलकुल विपरीत है, तो स्वाभाव वश मुझे भी जोर की ही लगी थी। चूँकि भाई साहब बार बार शिरडी आते जाते रहते हैं अतः उन्हें मालूम था की पास में ही सड़क पार एक सुलभ शौचालय है। वे मुझे वहां ले गए । जैसा की आमतोर पर सार्वजनिक शौचालयों में होता है यहाँ भी दरवाजों पर कुण्डी नहीं थी पर मैं इसकी परवाह न करके अपने कार्य में लग गया । अपना पेट हलका करके जब मैंने शौचालय का नल खोला तो वहां पानी की एक बूंद भी नहीं थी। मैं बड़ा परेशान हो गया । मैंने दरवाजे से बाहर झाँका तो सामने एक छोटा लड़का था मैंने उससे पानी लाने की प्रार्थना की तो उसने बताया की उस समय वहां पानी कहीं नहीं मिलता । यह बात सुनकर तो मुझे पसीना ही आ गया। इस अवस्था में तो मैं बाहर भी नहीं आ सकता था। मैंने वहां करीब एक घंटे इंतजार किया तब मेरे बड़े भाई मुझे तलाशते हुए आये । पानी की व्यवस्था वो भी नहीं कर पाए। फिर अंत में वो बिजलरी की दो बोतलें खरीद कर लाये और मैं अपनी सामान्य अवस्था में आ पाया ।



यह मेरे जीवन की एक बहुत बड़ी घटना थी। जिस बिजलरी के पानी को एक आम आदमी पीने के लिए नहीं खरीद पता है उससे मैंने क्या धोया । एक मिनट में बाबा ने मेरे जीवन में कितना बड़ा परिवर्तन ला दिया । मुझे लगा की ये भी बाबा के अनेकों चमत्कारों में से एक है अतः आपसे मैंने अपने जीवन का यह अनुभव शेयर किया है। आशा है आप मेरी भावनाओ को समझेंगे और इस चमत्कार की कथा बाबा के अन्य करोडपति भक्तों तक पहुचाएंगे।

विचारों के दस्त.


क्या बात है जनाब कई दिनों से दिखाई नहीं पड़े। कहाँ रहते हो? बड़े सुस्त नज़र आ रहे हो।



नहीं कोई बड़ी बात नहीं ..... बस पिछले कुछ दिनों से थोडा दिमाग ख़राब चल रहा है। विचारों के दस्त लगें है।



हैं ?????? विचारों के दस्त ! ये कोन सी नईबीमारी है दोस्त , आजतक नहीं सुनी ?



है , एक बीमारी ये भी है... जो लोग हर समय अनाप-सनाप सोचते रहते हैं...... दिमाग को आराम ही नहीं देते उनको कभी कभी ऐसी बीमारी भी हो जाती है।


अच्छा इसके लक्षण क्या है?


लक्षण क्या बताऊँ ? .... अपने कोई घटना देखि या सुनी तो आपकी खोपड़ी में गुढ़ गुढ़ सी होने लगेगी। दिमाग ऐठने लगेगा और विचार रोके नहीं रुकेंगे, बस सर पकड़ो और भागो टेबल की तरफ और लगा दो अपने विचारों का ढेर।

च च च ....... यह बीमारी लगी कैसे तुम्हें?

क्या बताऊँ यार .... कुछ कच्चे पक्के ब्लॉग देखे तब से ही दिमाग ख़राब हुआ है और बस.......... पता नहीं कब के जमे हुए बासी विचार निकले जा रहे हैं, एक के बाद एक ...... धडा धड....... कुछ तो बाहर ही फैल जाते , जगह पर ही नहीं होते। ये मेरे दोस्त का लगाया हुआ रोग है। पहले सिर्फ एक बार जाता था डायरी लिखने अब तो बार बार जाना पड़ रहा है।

इसकी कोई दवा दारू है के नहीं?

दवा का पता नहीं पर लगता है की दारू ही इस रोग से पीछा छुड़ाएगी। रात को पियो, कम्बल ओढ कर सो जाओ । सुबह दिमाग में हेंग ओवर का दर्द होगा विचारों का नहीं। बस यही रास्ता दीखता है।

हा भैया इलाज तो जल्दी करो तुम्हारे छोटे छोटे बच्चे हैं उनका ख्याल कौन रखेगा अगर तुम ऐसे ही टेबल पर बैठे रहे तो ....

हाँ कुछ तो करूँगा ही!

अच्छा भाई राम राम।

राम राम भाई राम राम।


बुधवार, 17 मार्च 2010

वेस्पा, एक्टिवा और हमारे धर्म.

मैं पिछले १५ वर्षों से वेस्पा स्कूटर चला रहा हूँ। आखें बंद करके चला सकता हूँ। कभी चलाया तो नहीं पर ऐसा विश्वास है। अभी कुछ दिनों पहले होंडा का एक्टिवा स्कूटर चलाने का मौका मिला। मैंने पहले कभी इस तरह का स्कूटर नहीं चलाया था। मेरे लिए ये एकदम नया अनुभव रहा। शुरू में तो बड़ा अजीब सा लगा। कई गियर नहीं, पैरों पर ब्रेक नहीं, किक मारने की जरुरत नहीं। स्कूटर पर बैठो , बटन दबाओ, रेस दो और आपका स्कूटर चल दिया। कितना आराम , कितनी सुविधा।

वेस्पा में क्या होता था? सबसे पहले किक मारो। किक भी ढंग से मारो, वर्ना बैक किक लगी तो लंगड़े हो जाओगे। न्यूटल पर स्टार्ट करके पहले गियर में स्पीड शुन्य से पंद्रह की फिर दुसरे गियर में स्पीड पंद्रह से तीस और फिर तीसरे चौथे गियर जाकर फुल स्पीड। और इसके बाद रफ़्तार कम करनी हो तो फिर से वही कसरत। वैसे इतने वर्षो एक गियर से दुसरे गियर बदलते हुए आदत हो गयी थी और पता नहीं चलता था की कब हमारा शारीर थक कर चूर हो गया। अब इस नयी तकनीक ने तो सब कितना आसान कर दिया है। गियर मुक्त स्कूटर हमें भी थकानसे मुक्त कर देता है।

देखो इन्सान अपने शरीर को आराम देने के लिए, सुख पहुचने के लिए, कितना कुछ करता रहता है। नयी तकनीक लाता है की चीजे आसान हो जाएँ, मुश्किलें मिटें। पर यह सब कुछ शरीर के लिए आत्मा के लिए कुछ भी नहीं। आत्मा को सुख पहुचने के लिए हमने ये जो धर्म बनाये है ( मेरा मत है की धर्मो को इन्सान ने अपनी सुविधा के लिए ही गढ़ा है , इन्हें भगवान ने नहीं बनाया) वो इतने जटिल हैं की बेचारी आत्मा थक जाती है और उसे पता ही नहीं चलता की वो सपनों की दुनिया में क्यों जाना चाहती है।

आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिए ये जो धर्म रूपी स्कूटर हैं ये सभी बहुत पुराने मॉडल के हो चुके हैं। इस स्कूटर के कई ब्रांड है... वैदिक , इस्लामिक , यहूदी, ... अरे बहुत है, पर हैं सभी पुराने मॉडल के। और जो नए ब्रांड बाज़ार में आये हैं उनके इंजन तो पुराने ही है। सबसे पहले तो स्कूटर स्टार्ट करना ही मुश्किल होता है . धर्म अपनाने के लिए कहीं जनेऊ के वक्त कान छिद्वाये जाते हैं, कही खतना करवाया जाता है, कहीं कुछ और। अगर आप जनेऊ नहीं पहनेगे तो आप हिन्दू नहीं। धागे का एक टुकड़ा ही धर्म है और उसी धागे से बने कपडे पहनने वाले का कोई धर्म नहीं। अगर जनेऊ प्रतीकात्मक है तो ऐसे प्रतीकों को अपनाओ जिनका हमें ज्ञान हो और एहसास हो की ये किस लिए है वर्ना इनका कोई उपयोग नहीं। मुस्लमान भाई मुझे माफ़ करें इस्लाम में भी एसा ही है। खतना क्यों जरुरी है ? क्या सिर्फ खाल के एक टुकडे पर ही हमारा धर्म टिका है। अगर ये सिर्फ साफ सफाई के लिए है तो नाख़ून कटवा के काम नहीं चलेगा क्या ?

देखा इन पुराने मॉडल के स्कूटरों को भी स्टार्ट करना मुश्किल है । एक और समानता है। अगर आपकी किक ठीक ढंग से नहीं लगी तो लंगड़े हो जाओगे मतलब धार्मिक कर्मकांडो को सही ढंग से नहीं करोगे तो आपकी गत नहीं। मन्त्रों का सही उच्चारण करो वर्ना फायदे की जगह नुकसान हो जायेगा। बेचारे हकले और तोतले लोग तो हिन्दू धर्म में मुक्ति पा ही नहीं सकते। नमाज तो उत्तर की ओर मुह करके पढो वर्ना अल्लाह मियां सुन नहीं पाएंगे कोई और ही सुन लेगा। ( अल्लाह जी मुझे माफ़ करें मैं आपसे बड़ा डरता हूँ। कोई गलती हो तो पड़ोस वाले विष्णु जी का बच्चा समझ कर माफ़ कर देना बाकि हिन्दू देवी देवताओं से मैं नहीं डरता वो तो अपने ही है।)

चलिए अपने स्कूटर स्टार्ट कर लिया पर फिर आपको बार बार गियर बदलने पड़ेंगे। कभी व्रत लो कभी रोजा रखो। कभी गंगा जी में डूबकी लगाओ कभी मक्का मदीना जाओ, सिर्फ घर पर रहने से धर्म नहीं निभेगा। कठिन मन्त्रों का जाप करो , संध्या पूजा करो, तप करो व्रत करो , अष्टांग योग नियमों का पालन करो, ये करो, वो मत करो, बस इसी तरह से गियर बदलते रहो मंजिल पर पहुच जाओगे।

मंजिल पर पहुचो न पहुचो पर थक जरुर जाओगे इस बात की गारंटी है।

अच्छा कुछ नए धर्म भी आये जिनमे ये कहा गया की ये आसान है, इनमे ज्यादा कर्म कांड नहीं हैं पर कालांतर में उनका हश्र भी कुछ अच्छा नहीं हुआ । मानव स्वभाव को तो देखो जिन धर्मों को सरलता की नीव पर खड़ा किया गया, उनमे भी लोगों ने पुराने कर्म कंडों की ईटों से नए कमरे बनवा लिए ताकि पुराने घर का सा अहसास बना रहे। वैदिक धर्म को अपनाने वाले संतानी भाइयों ने अपने कर्म कांड वैदिक धर्म में भी जोड़ लिए।

अगर आप ध्यान से देखें तो पाएंगे की सभी धर्म शुरू तो होते हैं छोटे छोटे सरल सिद्धांतों से पर धीरे धीरे जटिल होते चले जाते हैं। एसा क्यों होता है ? शरीर के लिए तो मुश्किलों को हम आसान बनाते है पर आत्मा के लिए सरल से सरल सूत्र को भी घुमा फिर कर इतना जटिल कर देते हैं की बेचारी आत्मा मुक्त होने की जगह और ही इन बन्धनों में जकड़ी जाती है।

क्या कोई धर्म एसा नहीं हो सकता जिसमें नियम कानून , तंत्र मन्त्र, पूजा पाठ आदि चीजो से आजादी हो और जीवन का सफ़र आनंद के साथ कटे।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

अथ आधुनिक देवी सूक्तं.

या देवी भारत वर्षं जनसँख्या रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ १ ॥

या देवी मनमोहन सिंह हृदये मैडम रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ २ ॥

या देवी मायावती हृदये हस्ती रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ ३ ॥

या देवी मुलायम हृदये माया रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ ४॥

या देवी ममता हृदये बंग रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ ६ ॥

या देवी अमर सिंह हृदये अमिताभ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ ७ ॥

या देवी लालू हृदये रेल रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ ८ ॥

या देवी शाहरुख़ हृदये खान रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ ९ ॥

या देवी मम हृदये हास्य रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः ॥ १० ॥

दस और बस ॥
ॐ चण्डिके नमः ।

सोमवार, 15 मार्च 2010

वेद कुरआन ब्लॉग के आदरणीय जमाल साहब को मेरा सन्देश.

महोदय ,
आपके कई लेख पड़े। आप प्रयास कर रहे हैं हिन्दू धर्म में विद्यमान बुराइयों को सामने लाने का।
बहुत बढ़िया, बहुत अच्छा व नेक कार्य है।

गन्दगी जहाँ भी हो हटानी ही चाहिए। मेरे हिसाब से पढ़े लिखे होने का यही मतलब है। और आप तो ज्यादा पढ़े लिखे है। मैं तो सिर्फ हाई स्कूल पास हूँ और आपके समक्ष अपने को तुच्छ मानता हूँ। पर मैंने जब पहली बार आपका लेख पढ़ा तो इतना ही समझ पाया की आप नहा धोकर इस धर्म (वैदिक/सनातन ) के पीछे पड़े हैं।

जितनी भी मेरी समझ है, उससे लगा की आपकी भावनाए दयानंद जी के लेखो को पढ़कर भड़की हैं। उन्होंने इस्लामिक धर्म की गलत बातों को अपनी पुस्तक में उजागर किया । जहाँ तक मुझे लगा आपकी यही पीड़ा है। ठीक है हम जिस धर्म का अनुसरण करते हैं उसकी कोई बुराई करे तो जाहिर है किसी भी पढ़े लिखे व्यक्ति को पीड़ा होगी ही।

इस पीड़ा को दूर करने के दो तरीके हैं। पहला तरीका जिसे आमतौर पर सभी साधारण मानसिकता वाले जन अपनाते है, यह है की अगर आपको दर्द हुआ है या किसी ने कोई चोट मारी है तो आप हाथ में लठ्ठ ले और बाज़ार में जाकर धुमाने लगें और इसका ख्याल बिलकुल भी ना करें की किसको चोट लग रही है। आपका लठ्ठा चाहे जिस को लगे , उसने आपका भला किया हो या बुरा, वह चाहे तटस्थ हो या नहीं, आपको इससे क्या लेना आपको तो अपने मन की भडास निकालनी है। हाँ आप इस तरह से किसी अनजान को आप अपना दर्द ट्रांसफर कर देंगे और शायद तभी आपके मन की पीड़ा भी कम होगी। गर्दन के बदले गर्दन, हाथ के बदले हाथ, और अपमान के बदले अपमान। बिलकुल अरब देशो के कानून की तरह से। यह पाशविक तरीका है। जानवर ही इस तरीके को अपनाते हैं । सड़क के बीचों बीच बैठी गाय को हटायें वो तो वो गौ माता भी, अपनी जानवरों वाली प्रवृति का पालन करते हुए, आपको सींग मारकर घायल कर सकती है।।

दूसरा तरीका है तर्क का। आप अपनी बात को तार्किक रूप से साबित करें । आपकी बात में दम होगा तो बेशक अभी नहीं बाद में ही सही सामने वाला आपका समर्थन करेगा ही। अब भला अपना नुकसान कौन चाहता है। आपकी बात अगर किसी को फायदा देती है तो वह इसका पालन अवश्य करेगा चाहे छुप कर करे। ठीक है न।

पर आपका मकसद नेक होना चाहिए । अगर आपका मकसद इतना सा है की मुझे तो सामने वाले के मुह पर कीचड़ सिर्फ इसलिए मलना है क्योकि उसने मेरे मुह पर गुलाल लगाया था तो फिर आप अपनी बात को तर्क के बजाये लठ्ठ से मनवाने का विकल्प चुनेगे।

देखिये दयानंद जी ने जो भी बातें इस्लाम के विरुद्ध लिखी वो अगर सत्य नहीं थी तो उनका विरोध न करें क्योकि झूट तो झूट ही होता है। वह अपनी मौत खुद ही मर जायेगा । अपने अपने किसी लेख में अल्लोहोप्निषद का उल्लेख किया है जो की इस्लाम का समर्थन करता है और जिसको वैदिक ग्रन्थ कह कर प्रचारित किया गया।। बहुत समय हो गया है इसकी रचना हुए क्या हिन्दू धर्म पर इसका कुछ असर हुआ । जो गलत है , झूट है उसका पालन कोई नहीं करता।

आप अपने धर्म को हमसे बेहतर तरीके से जानते हैं । किसी के झूट से आपका धर्मं ख़त्म नहीं होने वाला बल्कि आपके धर्मावलम्बी ज्यादा शक्ति से अपने धर्म से जुड़ जायेंगे जैसे की आपके लेखों को पढ़कर मेरा अपने धर्म पर ज्यादा विश्वास बढ़ा है। मैंने सही और गलत का दुबारा से अवलोकन किया है।

मैंने आपकी बातों को ध्यान से पढ़ा और पाया की आपका उद्देश्य केवल विरोध करना है इसलिए आप केवल उन बातों को सामने ला रहे हैं जो गलत है। भाई सौ प्रतिशत कोई सही नहीं होता । कुछ न कुछ गलतियाँ तो सभी में होती ही हैं। देखना यह चाहिए की औसत क्या है । फिर मानवीय व्यव्हार से सम्बंधित किसी भी विज्ञानं में आप दो और दो चार वाला गणितीय सूत्र नहीं अपना सकते । जो कल गलत था आज सही है और जो आज सही है हो सकता है कल गलत हो। हमारी धार्मिक मान्यताओं में भी यही बात समझनी चाहिए । हो सकता है की वैदिक धर्म की कुछ पुरानी मान्यताएं आज के सन्दर्भ में आपको विचित्र लगें । हमें भी लगाती हैं इसलिए ही तो वे आज प्रचलन में नहीं हैं। आप हमारे धर्मं की कुछ पुरानी मान्यताओं का मजाक उड़ाने की जगह वर्तमान की बात करें । और देखे की आज हमारे धर्म में क्या गलत है। उसका विरोध करें । उसे उजागर करने का प्रयास करें । अपने धर्म के लिए भी यही रवैया रखें। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखे की कुछ सामाजिक समस्ये होती हैं और उनका धर्म से कुछ लेना देना नहीं होता है। एक जगह आपने लिखा है की हिन्दू धर्म में दहेज़ के लिए औरतों को जलाया जाता हैं। यह एक सामाजिक समस्या है । इसका किसी धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। मेरे कुछ मुस्लिम दोस्तों की शादियों में मेने देखा है दहेज़ लिया व दिया जाता है। यह कुरीति हमारे भारतीय समाज में व्याप्त है और कोई अंग्रेज भी अगर यंहा रहेगा तो वो भी दहेज़ लेना शुरू कर देगा। संतान की चाह में वीर्य बैंक में जाने वाली बात का भी धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। यह सिर्फ आपके मन की खीज है।


मुझे लगता तो नहीं की मैं आपको कोई राय देने के लायक हूँ पर ध्रष्टता करने का मन कर रहा है। मैंने आपके लेखों में एक अजीब सा बिखराव देखा है । आप एक बात पर नहीं टिकते , भटकते रहते हैं । इसके साथ ही आपके लेख हमेशा किसी न किसी की कही हुई बात का उत्तर होते हैं । कोई कुछ कहता है आप उस बात का अपने ब्लॉग में उत्तर देते हैं। दुसरे ने क्या कहा था पता ही नहीं चलता । देखिये मेरे हिसाब से आप सच्चे दिल से हिन्दू धर्म की बुराई करना ही चाहते हैं तो फिर इस धर्म का एक वो विचार या मान्यता जो आपको गलत लगाती है लें और अपनी राय /विचार उस पर लिखे । दूसरा क्या कहता है इस का उत्तर अपने ब्लॉग पर न देकर उसके ब्लॉग पर ही दे। इससे मेरे जैसे कम बुध्धि के लोगों को आपकी बात समझने में आसानी होगी।


अंत में एक और बात कहना चाहता हूँ। दयानंद जी ने खुले रूप में हिन्दू धर्म में प्रचलित गलत मान्यताओं का पहले विरोध किया फिर उन्होंने इस्लाम की बात की। यह दिखता है की उनका उद्देश्य मात्र बुराई को दूर करना था न की किसी का मजाक उड़ना। अगर निंदा करना ही उनका उद्देश्य होता तो वे सिर्फ इस्लाम पर ही लिखते। आप भी एसा करने का प्रयास करे। आखें खोल कर अपने धर्म की बुराइयों को देखें और उनका विरोध करें। अगर पहले से ही कर रहे हैं तो ज्यादा मुखरित हों । खुल कर बोलें। मुझे एसा नहीं दिखाई पड़ा। मुझे लगा की आप अपनी बुराइयों को भूल कर दुसरे की कमियों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।

आप बड़े अच्छे हैं । सभी जगह अपनी अच्छाई फैलाएं। कोशिश करें की जिस तरह से खनिक सेकड़ो टन मिट्ठी हटाकर एक ग्राम सोने का एक टुकड़ा पाकर खुश होता और हटाई गयी मिटटी को भूल जाता है उसी तरह की मानसिकता रख कर आप भी हिन्दू धर्म की लाख बुराइयों में से (जो सिर्फ आपको दिखती है, हमें नहीं) एक अच्छाई खोजे और उसे अपने जीवन में अपनाये। मैं भी अपने जीवन में यही करने का प्रयास करता रहता हूँ।

रविवार, 14 मार्च 2010

टी -२० का चमत्कार.

क्रिकेट के नए अवतार टी-२० का सबसे बड़ा चमत्कार यह है की इसमे हम विश्व में इस युग के बेहतरीन और अलग अलग देशों के नए व पुराने खिलाडियों को एक साथ खेलते हुए देख सकते हैं। मैं इसे एक दुर्लभ सौभाग्य मानता हूँ जो हमसे पहली पीढ़ी को नहीं प्राप्त हुआ। जब मुरलीधरन हमारे धोनी के साथ मिलकर अपने ही देश के जयसूर्या को आउट करने की रणनीति बनाते हैं या आस्ट्रेलिया के गिलक्रिस्ट को आउट करने की लिए शेन वार्न अपनी प्रसिद्ध फिरकी का जल बुनते हैं तो मुझे एक अजीब सा आनंद मिलाता है। लगता हैं की बेशक कुछ समय के लिए ही सही देशों की सीमाएं मिट गयी हैं। जो पहले एक दुसरे के विरुद्ध होते थे अब साथ साथ हैं। बड़ा अच्छा लगता है।

इस सब से मेरे दिल को बड़ी तसल्ली मिलाती है की जो पैसा भाई से भाई को अलग कर देता है और परिवारों में फूट डाल देता है वही पैसा कभी कभी देशों की दूरियों को ख़त्म कर विरोधियों को मिला भी देता है। बड़ी अजब माया है लक्ष्मी देवी की।

चलो जो भी हो इस नयी सोच के लिए ललित मोदी जी धन्यवाद के पात्र हैं।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

प्रगतिशील आधुनिक महिलाओं को मेरा सन्देश.

रोज सुबह जब
छः बजे की बस पकड़कर
काम पर जाती हूँ
तुम्हारा नन्हा सा मुहँ
अपनी छाती से और
बंद मुट्ठी से आँचल छुड़ाती हूँ
तुमसे ज्यादा मैं रोती हूँ
बिटिया ! मैं बिलकुल सच कहती हूँ ।


ये पंक्तियाँ मैंने शेफाली पांडे के ब्लॉग कुमाउनी चेली पर पढ़ी । मैं भावुक हो गया। मेरी भी एक बेटी है। मैं जब आफिस जाता हूँ तो रोती है। वापस जब घर आता हूँ तो मेरे पास दोड़ी चली आती है, मेरे साथ खेलती है, पार्क मैं घुमने जाती है । मुझे लगता है मैं एक बहुत अच्छा पिता हूँ पर जब भी मैं और मेरी पत्नी साथ होते हैं तो वो अपनी माँ की गोदी में ही बैठती है । मेरा सारा प्यार, दुलार व्यर्थ जाता है,कम पड़ जाता है और उसकी माँ की एक नज़र ही उसे अपनी ओर खीच लेती है। तब पता चलता है की एक बच्चे के लिए माँ क्या होती है। पिता चाहे कितना ही प्यार करे माँ की जगह नहीं ले सकता।


प्रकृति ने बच्चे के लिए माँ से बढकर और कोई चीज़ नहीं बनाई है। जो भावनात्मक सुरक्षा माँ दे सकती है वह कोई और नहीं दे सकता । माँ अगर अपने बच्चे को मारती भी है तो अगले ही पल प्यार भी करती है। बच्चे के कोमल ह्रदय पर केवल माँ का प्यार अंकित होता है उसकी प्रताड़ना तो पानी पर लिखे शब्द के समान कोई प्रभाव नहीं छोड़ती। पिता घर पर ही रहे या घर छोड़कर कार्य करने बाहर जाये बच्चे को कोई फर्क नहीं पड़ता। कहीं मैंने पढ़ा था की पिता का प्यार तो एक सुविधा है और माँ का प्यार एक जरुरत। तो फिर स्त्रियाँ आधुनिकता की इस अंधी दौड़ मैं, पुरुषों से बराबरी करने की मुर्खता भरी होड़ में क्यों अपने ही बच्चो को अपने ममता भरे आंचल की छाव से वंचित करती हैं।


ईश्वर या प्रकृति ने स्त्री को कुछ विशेषताएँ दी हैं जो पुरुष के पास नहीं हैं। स्त्री जन्म दे सकती है। यह प्राकृतिक रूप से उसका एकाधिकार है। स्त्री और पुरुष का सृजन अलग अलग कार्यों के लिए हुआ है और वो एक दुसरे से भिन्न हैं। दोनों की शारीरिक संरचना भिन्न है। दोनों अलग अलग कार्यों के लिए बने हैं। पुरुष घर से बाहर निकल कर कार्य करने के लिए ज्यादा अनुकूलित है जबकि स्त्री का घर में रहना ,घर और खुद उसकी अपनी सुरक्षा के लिए अच्छा होता है। जब स्त्री व पुरुष प्राकृतिक रूप से भिन्न हैं तो फिर समानता लाने के लिए औरत को काम पर बाहर भेजना जायज़ कैसे हुआ। स्त्रियाँ क्यों अपना प्राकृतिक स्वभाव छोड़कर पौरुष अपनाना चाहती हैं। सोचो अगर हमारी पृथ्वी माता कहे की मैं सूरज की आग से तपकर परेशान हो चुकी हूँ और मैं भी बराबरी चाहती हूँ, मैं भी उसकी तरह से गर्म होना चाहती हूँ, चमकाना चाहती हूँ तो हम निरीह जीवों का क्या होगा।

कुछ प्रगतिवादी महिलाये कहती हैं की औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती हैं। सब बकवास है। औरतें बनाई नहीं जा सकतीं वे पैदा ही होती हैं। यह एक नैसर्गिक गुण है। मेरी दो साल की बेटी है। मैंने उसे गुडिया लाकर नहीं दी तो वो मेरे बेटे के बल्ले को ही गुडिया बनाकर खेलने लगी। यह ममता का भाव उसमे मैंने पैदा नहीं किया, समाज ने पैदा नहीं किया यह उसका नैसर्गिक गुण है। दो साल की उम्र में उसे अपने लड़की होने का अहसास नहीं पर वो अभी से सजती है, सवरती है जो उसकी उम्र में मेरे पुत्र ने कभी नहीं किया। उसमे अभी से प्यार है, करूणा है, ममता है। अभी वह कन्या है और परिपक्व होने पर स्त्री हो जाएगी । यह सब आपने अपने बच्चों के साथ भी महसूस किया होगा। मैं हमेशा चाहूँगा की मेरी बेटी औरत बने, स्त्री बने । जो उसके प्राकृतिक गुण है उनका विकास करे और कभी भी मर्द बनाने का प्रयास न करे।

औरतें हवाई जहाज़ चला रही हैं ट्रक चला रही हैं रेल चला रही हैं। लोग वाहवाही कर रहे हैं की औरत मर्द की बराबरी कर रही है। अरे ये सब काम औरतें करेंगी तो बच्चो को कौन सम्हालेगा। उनकी परवरिश कौन करेगा। क्या वो अपनी माँ को छोड़कर बाई के सहारे पलेंगे। माँ की ममता पैसे से खरीदी जाएगी तो बच्चों का प्यार भी पैसे से ही खरीदना पड़ेगा। मुझे एक घटना याद आती है की किसी चिड़िया घर में एक बंदरिया को जू के लोगों ने पाल पोस कर बड़ा किया बाद में जब उसके खुद के बच्चे हुए तो उसने उन्हें नहीं पाला क्योंकि उसे पता ही नहीं था की बच्चे को माँ पालती है।

इसलिए मेरा सभी कामकाजी महिलाओं से अनुरोध है की वो नौकरी करैं। मर्दों की बराबरी करें । और जी में आये तो शादी भी करें पर बच्चे तभी पैदा करें जब वे खुद उनकी परवरिश कर सकें। बच्चो की परवरिश पार्ट टाइम जॉब बिलकुल भी ना समझें । यह एक फुल टाइम जॉब है। आपने पतियों से कहें की जाओ तुम जो भी कमा कर लाओगे मैं उस में गुजरा कर लुंगी पर बच्चो को छोड़कर सुबह छ बजे की बस नहीं लुंगी ।

मैं फिर से सभी स्त्रियों से विनती करता हूँ की वो पुरुषो के साथ बराबरी की इस अंधी दौड़ में अपनी माँ की पदवी को न त्यागें क्योंकि माँ का स्थान ईश्वर ने केवल औरत के लिए अरक्षित कर रखा है और यह आरक्षण सौ प्रतिशत है।

और अंत में मेरी प्यारी बेटी टुपुर जिसने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया।

बुधवार, 10 मार्च 2010

कुछ मुर्खता भरे प्रश्न. उत्तर देना चाहेंगे.

मैं बचपन से सुनता आया हूँ आत्मा अजर अमर हैं, न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है। बस अपना चोला बदलती है। हमारे धर्म ग्रंथों में यही बात बार बार दोहराई गयी है।

जब से मेरी तार्किक बुद्धि ने अपना कार्य करना शुरू किया तब से जब भी मैं इस प्रकार की बातें सुनता हूँ तो कुछ प्रश्न मुझे तंग करना शुरू कर देते हैं । मैंने अपने इन प्रश्नों का उत्तर अपने परिचित लोगो से पाने का प्रयास किया पर मुझे संतोषजनक जवाब अभी तक नहीं मिला। मैं अपने प्रश्नों को यहाँ पर दोहराता हूँ अगर किसी के पास कोई जवाब हो तो मेरा दर्द दूर करैं।


जब भारत आजाद हुआ तो भारत की जनसँख्या लगभग ३० करोड़ थी । वही जनसँख्या आज एक अरब के पार है। यह हल सिर्फ भारत का ही नहीं पुरे विश्व का है। पुरे विश्व में जनसँख्या बड़ी है। अब मेरे मन मे सवाल उठता है की ये ७० करोड़ आत्माए कहाँ से भारत मैं आयी ? आत्मा तो न पैदा होती है और न मरती है।

माना कुछ जानवरों की आत्माए मानव बनकर अवतरित हुई तो क्या उन जानवरों की प्रजाति लुप्त हो गई ? ७० करोड़ जानवर इन्सान बन गए।



क्या जो इंसानों में पशुता का भाव बढता जा रहा है इसी वजह से तो नहीं है?



कहते हैं " बड़े जतन मानव तन पायोपर ७० करोड़ जानवरों का इन्सान बनाना तो दिखाता है की इन्सान के रूप में जन्म लेना तो बड़ा आसन हो गया है। कहीं यह कलयुग की महिमा तो नहीं?

प्रश्न तो बहुत हैं पर इनका इलाज हो तो आगे बढें।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

मेरे मन की व्यथा.

मैं सुबह उठता हूँ रात मैं सो जाता हूँ। दिन में तरह तरह के कार्यों में उलझा रहता हूँ। कुछ समय आफिस में बीतता है और कुछ समय घर पर। कुछ समय परिवार के साथ व्यर्थ करता हूँ कुछ अकेले में। कभी हँसता हूँ कभी रोता हूँ, कभी क्रोध करता हूँ कभी खीजता हूँ। जिंदगी यों ही बीत रही है पर मोक्ष की कामना नहीं करता । आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिए कुछ नहीं करता। हम कहाँ से आये हैं कहाँ जायेंगे? हमारे आने का क्या उद्देश्य है इस प्रकार के प्रश्न मेरे अंतर्मन में नहीं उठते।

मेरा सब कुछ सांसारिक है। मैं खुद, मेरे पिता, मेरी माता, मेरी पत्नी ,मेरे बच्चे, मेरा भाई, मेरे मित्र सब कुछ इस संसार की ही देन है, परालौकिक कुछ भी नहीं। मेरा मन इन्हीं में रमता है। आफिस जाता हूँ काम करना पड़ता है। थक जाता हूँ। घर आता हूँ तो पत्नी अपेक्षा करती है उसके साथ बैठू चाय पियूँ , दो बात अपनी बताऊ और दो बातें उसकी सुनु। पूजा करता हूँ तो मेरी बिटिया मेरी गोद में आ बैठती है। मेरा ध्यान उसकी बाल क्रीडाओं में लग जाता है और मैं भगवन को छोड़ उसकी पूजा शुरू कर देता हूँ। मेरा पुत्र चाहता है सोते समय मैं उसके साथ रहूँ। मेरे बिना उसे नीद नहीं आती। कई बार प्रयास किया इन्हें छोड़ दूँ । अपने लिए अलग से कुछ समय निकालू , कुछ ध्यान करू कुछ आत्मा से परमात्मा के मिलन का उपाय करूँ पर अपने इन सांसारिक बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता। अपनी पत्नी अपने बच्चो को नाराज़ नहीं कर पाता। जाने सिद्धार्थ कैसे अपने सोते हुए पत्नी व् पुत्र को छोड़ कर उस अनादी अनंत सत्य की खोज में निकल पड़े थे? मैं तो अपने बिस्तर से कदम भी नीचे नहीं रख पाता।

मेरे एक मित्र कहते हैं यह पशुवत जीवन है। सभी जानवर ऐसा करते हैं। जीते हैं और मर जाते हैं। आप यहीं तक सीमित न rahen . अपने कल्याण के लिए कुछ करें। आप इस भूलोक में क्यों आये हैं यह जानने का प्रयास करें। कुछ ऐसा करो की उस परम सत्ता में तुम विलीन हो जाओ और जन्म मरण के बन्धनों से तुम्हें मुक्ति मिले।

मुझे यह सब समझ में नहीं आता। मेरा तार्किक मन तर्क करता है। वह अनेकों सवाल पूछता है और मैं भ्रमित हो जाता हूँ।

मेरा मन जानना चाहता है की क्या मैं आत्मा के रूप मैं शुरू से स्वतंत्र था या फिर बाद में उस से अलग हुआ।
अगर मैं पहले उसमे ही समाया था तो फिर उससे अलग क्यों हुआ? और अलग हुआ यह उसकी इच्छा थी या मेरी ?
अब अगर अलग हो ही गया तो क्यों दुबारा से उसमे विलीन होने का प्रयास करूँ?
क्या है यह सब? लोग कहते हैं योग का प्रयास करो मुझे पहले बताओ वियोग हुआ ही क्यों?
क्या अलग होना मेरी गलती थी या फिर उसकी इच्छा? कहींवो खुद ही तो नहीं चाहता की मैं इस संसार में रहूँ। यहाँ के सुख दुःख को भोगु और जब सजा पूरी हो तो वो स्वयं ही मुझे बुला लेगा।

तरह तरह के सवाल मन में उठते हैं। कभी लगता है यह सब पागलपन है और कुछ नहीं। जब अलग होना हमारी इच्छा नहीं थी तो फिर जुड़ने की इच्छा मन में क्यों पालें। इस पर एक कथा ध्यान में आती है। कथा कुछ इस प्रकार से है:

एक बार नारद जी ने यों ही कौतुहल वश भगवान् से पूछा भगवन आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है? नारद जी को विश्वास था की उनसे बड़ा भक्त और कोई नहीं हो सकता । भगवान् उनके मन बात समझ गए और उन्होंने कहा की मेरा सबसे बड़ा भक्त पृथ्वी पर वहां रहता है। नारद जी चकित हो गए। वे उस भक्त के घर उसकी भक्ति देखने पहुचे । वह भक्त एक मोची था। वह सुबह उठता नित्य कर्म से निवृत होकर चमडा लाता, जूते बनता, बेचता, अन्य सभी सांसारिक कार्यों को निबटता और सो जाता। ईश्वर का ध्यान, भक्ति, मोक्ष की कामना, मुक्ति के लिए प्रयास, एसा वो कुछ भी नहीं करता था।
नारद जी परेशान।
प्रभु यह कैसा भक्त है आपका जो आपका नाम तक नहीं लेता । पशुवत जीवन जीता है। बतलाइए वो मुझ से श्रेष्ठ कैसे हुआ?
प्रभु बोले " नारद मैं तुम्हें इसका रहस्य बताऊंगा पर तुम पहले मेरा एक काम करो। यह तेल भरा दीपक लो और इस संसार के तीन चक्कर लगा कर आओ। ध्यान रहे तेल की एक बूंद भी छलकने न पाए।"
नारद जी चक्कर लगा कर वापस आए । प्रभु ने पूछा, नारद बताओ तुमने इस दोरान कितनी बार मेरा स्मरण किया। नारद जी बोले प्रभु मेरा सारा ध्यान तो इस बात में लगा रहा की तेल की एक बूंद भी बहार न छलकने पाए । मैं आपका स्मरण कब करता? मेरा सारा ध्यान तो आपकी आज्ञा का पालन करने में ही लगा रहा।
प्रभु मुस्कुराए ! नारद को उनके प्रश्न का उत्तर मिल चूका था।



सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला आरक्षण क्यों ?

यादव कुल के तीन चश्मों चिराग महिलाओं को संसद में आरक्षण देने के विरुध हैं। ऐसा क्यों? भला इन यदुकुल वंशियों को स्त्रियों से क्या दुश्मनी है? क्या इन्हें डर है की स्त्रियों को आरक्षण दे दिया तो सत्ता इनके हाथों से फिसल जाएगी। इनमे से लालू यादव तो अपनी पत्नी को खुद सत्ता की बागडोर दे कर परोक्ष रूप से सत्ता का सुख भोग चुके हैं। फिर कम से कम लालू यादव को तो महिला आरक्षण का विरोध नहीं करना चाहिए था।

असल में ये तीनों भारत के उन हिस्सों का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ औरतों को सिर्फ चूल्हा चौका करने के लायक ही समझा जाता है। इससे ज्यादा महिलाओं का इन लोगो के जीवन में कोई महत्व नहीं। मुलायम सिह यादव तो रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को बक्श कर अपनी इस मानसिकता का परिचय पहले ही दे चके हैं। शरद यादव तो महिला आरक्षण बिल के पास होने पर जहर खा लेने की धमकी देकर अपनी हताशा जाहिर का चुके हैं। और लालू जी को पता है की जिस तरीके से उन्होंने खुद अपनी पत्नी को आगे रख कर बिहार पर शासन किया वैसा कोई और न कर पाए अतः इस बिल का विरोध आवश्यक है।

में भी आरक्षण के बिलकुल विरोध में हूँ। मुझे लगता है की जिस प्रकार हमारे सविधान में जॉब्स में अनुसूचित जाती व् जनजातियों को आरक्षण देने का कोई फायदा नहीं हुआ है उसी प्रकार से इस आरक्षण का भी उचित लाभ नहीं मिल पायेगा। आरक्षण तो एक बैसाखी है जो अच्छे भले आदमी को लंगड़ाने पर मजबूर कर देती है। हमें कमजोर को मजबूत बनाने की कोशिश करनी चाहिए न की उसे बैशाखी पकड़ा कर हमेशा के लिए पंगु बनाना चाहिए।

मुझे पूरा विश्वास है की महिलाओं की स्थिति इस तरह से नहीं सुधरने वाली क्योकि उनकी बागडोर तो उनके पतियों के हाथ में ही रहेगी । लालू जी और राजस्थान के एक नेता जिन का नाम मुझे याद नहीं अपनी अंगूठा छाप पत्नियों को सत्ता देकर यह सिद्ध कर चुके हैं।

इस लिए हमें प्रयास यह करना चाहिए की स्त्रियाँ स्वावलंबी बने। उनमे आत्मविश्वास आये। ताकि कोई पुरुष उन्हें कठपुतली की तरह से इस्तेमाल न कर पाए। इसके बिना तो यह आरक्षण देना न देना एक बराबर है.

रविवार, 7 मार्च 2010

स्त्रियों को बराबरी का हक़ दो.


हमारे आराध्य देश अमेरिका में कुछ महिलाएं एक क्रन्तिकारी आन्दोलन चला रहीं है। वे चाहती हैं की स्त्रियों को पुरुषों के भांति समुद्र तट या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अनावृत वक्ष स्थल के साथ आजादी से घुमाने दिया जाये। उनका तर्क है की जब पुरुष बिना हिचक सिर्फ कच्छा पहन कर आराम से इधर उधर घूमते हैं तो स्त्रियाँ एसा क्यों नहीं कर सकती। उनके हिसाब से यह स्त्री व् पुरुष के बीच भेदभाव का मामला है। वे चाहती हैं की महिलाओं को बराबरी का हक़ दिया जाये। अगर पुरुष नंगी छाती घुमाते हैं तो स्त्रियों को भी एसा ही अधिकार मिले। बात सामान अधिकारों की है।

मैं दिल से उनके साथ हूँ। मैं दिल से चाहता हूँ की एसा हो ताकि लोगों के मन में चोली के पीछे क्या है वाली उत्सुकता न रहे। पर दिल मैं कुछ सवाल बरबस ही आ जाते हैं। शायद मेरी पुरुषवादी मानसिकता का असर हो या भारतीय मानसिकता का , पर ऐसे सवाल तो मन में उठते ही हैं जिनका उत्तर मैं जानना चाहता हूँ।

पहला सवाल यह आता है की यह समानता के अधिकार की बात किस स्तर तक होगी। कल कुछ महिलाएं कहें की पुरुषों की छाती पर बाल हैं और हमारे नहीं। यह असमानता है तो समानता लाने के लिए फिर क्या वो हेयर ट्रांसप्लांट कराएंगी। कुछ प्रगतिशील महिलाओं को लगेगा की सिर्फ पुरुष ही जहाँ तहां खड़े होकर मूत्र त्याग करते हैं। हमें भी यह अधिकार चाहिए। इस तरह यह बराबरी व् समानता की मांग कहाँ तक जाएगी।

एक प्रश्न मेरे मन में और उठता है। प्रकृति ने स्त्री व पुरुष में भेद किया ही क्यों। दोनों को एक जैसा क्यों नहीं बनाया। पहले तो स्त्री को स्तन दिए फिर पुरुष के मन में उनके प्रति आकर्षण पैदा किया जिससे स्त्रियों को इन्हें ढकने की जरुरत पड़ी। अगर पुरुष के मन में यह आकर्षण नहीं होता तो इस आन्दोलन की जरुरत ही नहीं पड़ती। अतः सबसे बड़ी गलती तो प्रकृति या ईश्वर की है। ईश्वर ने ऐसी व्यवस्था क्यों बनाई जिसमे पुरुष स्त्री की तरफ आकर्षित होता है और इससे ही जीवन आगे बढता है। क्यों नहीं कोई और उपाय सोचा गया। अब इस गलती को सुधारने के लिए प्रगतिशील महिलाओं को पुरुषों के गुणसूत्रों में बदलाव करना पड़ेगा और कुछ ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी की बिना पुरुष के बच्चे हो सकें।

ओह्ह भगवान् की छोटी सी गलती का खामयाजा स्त्रियों को अब भुगतना पढ़ रहा है। काश यह जागरूकता पहले ही होती तो मानव जाती का इतिहास कुछ और होता।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

सेक्स पर प्रतिबन्ध क्यों.

भारतीय संस्कृति में सेक्स एक वर्जित विषय है। हम इसे मानव संतति को आगे बढाने का साधन भर मानते हैं, भोग विलास का नहीं। इसलिए इसे परदे में रखे जाने की जरुरत समझी गई होगी क्योंकि इस विषय पर कोई भी खुलापन या आजादी हमें काम वासना में ही रत रहने को प्रेरित कर सकती है। काम या सेक्स का नशा अन्य सभी इंद्रिय नशों से बढकर है। अगर कोई इसमें बिना किसी प्रतिबन्ध के रत रहे तो वो इससे कभी बहार नहीं आ पायेगा। इन्सान के लिए तो प्रतिबन्ध और भी जरुरी है क्योंकि हम लोगों में सेक्स के लिए कोई नियत समय नहीं है जैसा की आमतौर पर सभी स्तनपायी जानवरों में होता है ( अब चाहे अजीब लगे पर हैं तो हम भी स्तनपायी जानवर ही) ।

शायद ईश्वर ने सोचा होगा की इन्सान को दिमाग दिया गया है अतः वह सेक्स के लिए उचित उम्र, स्थान, और समय आदि का निर्णय खुद ही कर लेगा। और हमने किया भी। हमारे पूर्वजो ने कुछ नियम बनाये। कुछ इंद्रिय सुखों को भोगने की खुली आजादी दी गई और कुछ पर बंधन लगाये गए। आप जितना चाहे खा सकते हैं, कुछ भी देख सकते हैं, कुछ भी सुन सकते हैं और अपने आराम के लिए कुछ भी कर सकते हैं पर सेक्स तो नियंत्रित ढंग से ही करना होगा। इसमें कोई छुट नहीं। इसमें कोई खुलापन नहीं। यह तो ढका छिपा ही ठीक है।

पर हमारे कुछ समझदार लोगों को सेक्स में खुलापन चाहिए। वे चाहते हैं की इस विषय पर हम पश्चिमी सभ्यता व् संस्कृति का अनुकरण करें। जाने क्यों इन्हें लगता है की अगर भारत में लोग नंगे घूमेंगे तो देश ज्यादा तरक्की करेगा। अगर यहाँ की लड़कियाँ भी शादी से पहले ही गर्भवती होंगी तो यहाँ की उत्पादन दर बढ़ जाएगी। पार्कों में अगर खुल्ले आम चुम्मा चा टी होगी तो बच्चे ज्यादा शिक्षित होंगे।

क्या अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों में बलात्कार नहीं होते ? क्या वहां पर यौन अपराधों में कोई कमी है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्यों हम अपनी संस्कृति के विरुद्ध जाएँ । बताइए।
अब हमारे प्रगतिवादी कहेंगे की अगर सेक्स ढका छिपा रहेगा तो मन कुंठित हो जायेगा। अरे भाई इसका भी इलाज हमारे पास है। हमारी संस्कृति बहुत गहरी व् समृद्ध है। यहाँ हर भावना का ख्याल रखा गया है। सेक्स पर इस बात का प्रतिबन्ध नहीं है की सेक्स किया ही न जाये। अगर एसा होता तो फिर खुजराहो के मंदिर नहीं होते। भारत में वसंतौत्सव नहीं मनाया जाता। प्रतिबन्ध है तो सिर्फ उचित स्थान, उम्र व् समय का।

काश हमें भी भगवन ने दुसरे जानवरों की ही तरह से बनाया होता तो अच्छा होता। हममे सही गलत में फर्क करने वाली बुद्धि नहीं होती । हम भी अन्य जानवरों की तरह से होते, कोई बंधन नहीं, कोई रिश्ता नहीं बस अनुकूल अवसर मिला, दाव लगा, जिससे चाहा सेक्स कर लिया। आजादी ही आजादी।

भाइयो समझो ! हमारी संस्कृति बहुत गहरी व समृद्ध है। यहाँ कुछ भी अप्राकृतिक व अवैज्ञानिक नहीं है। जहाँ छुट मिलनी चाहिए वहां छुट है और जहाँ नियंत्रण होना चाहिए वहां नियंत्रण है। इससे ज्यादा क्या कहा जाये आप लोग खुद समझदार हैं स्वयं निर्णय लें।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

ताई तुझे सलाम.

आशा भोसले जिन्हें लोग प्यार से आशा ताई भी कहते हैं का मैं भी लाखों में से एक फेन रहा हूँ, पर अब मेरे मन में उनके लिए इज्ज़त कई गुना बढ चुकी है। आशा जी ने वो काम कर दिखाया है जिसे कोई आम आदमी कभी नहीं कर सकता। उन्होंने राज ठाकरे जैसे गुंडागर्दी के बल पर राजनीती करने वाले व्यक्ति को खुले आम जिस तरह से बेइज्जत किया है वो कोई आसन काम कतई नहीं है। हमारे भारतवर्ष में आप किसी आदमी की गलती का इस खुल्ले तरीके से इज़हार नहीं कर सकते वो भी एक राजनेता के गलत कार्यों का। इस तरह से आशा जी ने राज ठाकरे की गलत बातों का उसके ही मंच से उत्तर देकर जो हिम्मत दिखाई है मैं समझता हूँ की हम सभी भारतियों विशेषकर मराठी लोगों को आगे बढकर इसका स्वागत करना चाहिए और आशा जी का पुरजोर समर्थन करना चाहिए।
आशा जी आपको नमन है।
जाने क्यों ऐसी बातो पर मीडिया ज्यादा ध्यान नहीं देता। कोई पत्रकार लेख नहीं लिखता । टी वी चैनलों पर कोई बहस नहीं होती। क्यों??????