ये कैसे हो सकता है की हम किसी से मोहब्बत तो करें पर उसका विश्वास ना करें.
हम जिस किसी से भी मोहब्बत करते हैं उस पर सहज ही विश्वास करने लगते हैं. यह एकदम सामान्य सी बात है. ऐसा हो ही नहीं सकता की जिसे हम प्यार करें उसका विश्वास ही ना करें. असल में तो होता यह है की जब कोई व्यक्ति हमें अच्छा लगने लगता है तब हम उसकी हर अच्छी बुरी बात को भी पसंद करने लगते हैं और विश्वास करना इसी पसंद करने वाली भावना का अगला पढ़ाव होता है.
इसका अर्थ यह हुआ की ये कहना बिलकुल गलत है की प्यार करो पर विश्वास नहीं. ऐसा हो नहीं सकता.
वैसे क्या कुछ ऐसा हो सकता है की आदमी किसी पर विश्वास तो करे पर उससे मोहब्बत ना करे..... हाँ ऐसा तो हो सकता है की हम किसी व्यक्ति की बातों का विश्वास तो करें पर उससे प्यार ना करें.
तो क्या ऐसा भी हो सकता है की किसी व्यक्ति से हम घृणा करे पर उसका विश्वास भी करें. ...... शायद ऐसा नहीं हों सकता ... हम जिससे घृणा करेंगे उसकी बातों पर विश्वास तो कभी नहीं करेंगे.
अच्छा अगर हम साधारणतः जिस व्यक्ति से मोहब्बत करते हैं उस पर विश्वास ना करें तो क्या इसका कुछ फायदा होगा?
फायदे तो इस बात में बहुत हैं. उदहारण के लिए ..........
एक लड़की एक लड़के से मोहब्बत करती है. लड़का उसे अकेले में मिलने के लिए बुलाता है. चूँकि लड़की लड़के से मोहब्बत के साथ साथ विश्वास भी करती है अतः उससे मिलाने के लिए अकेले चली जाती है और वहां लड़का आपने दोस्तों के साथ मिलकर लड़की से बलात्कार करता है. तो अपने विचार के अनुरूप यदि मोहब्बत विश्वास के बिना होती तो बलात्कार नहीं होता.
डिस्कवरी चेंनेल पर अंग्रेज पति फूट फूट कर रोता है. जिस पत्नी को प्यार किया और जिसका विश्वास किया वो बेवफा निकली. उनके बच्चों का पिता कोई और ही था. बन्दे का दिल टूट गया.
आप आपने भाई से मोहब्बत करते हैं आप उस पर विश्वास भी करते हैं पर किसी दिन आपको पता चलता है की आपकी सारी संपत्ति उसने हथिया ली.
जनाब को बेटे से बड़ा प्यार था और उस पर विश्वास भी बहुत था एक दिन पता चला की बेटा बुरी संगत में पड़ कर अपराधी बन गया.
तो क्या कहने वाले की बात सही है की प्यार करो पर विश्वास नहीं
और क्या यह संभव है की हम किसी से सिर्फ प्यार करें उस पर विश्वास नहीं?
ऑफिस में एक बंधू ने यूँ ही बातों बातों में विचार उछाला की मोहब्बत करो पर विश्वास ना करो. सारा ऑफिस उनका विरोधी हो गया. स्त्रियों ने इस विचार का सबसे ज्यादा विरोध किया. उन लोगों का मत था की विश्वास नहीं तो मोहब्बत नहीं. इस विचार के मुखर विरोधियों में से बहुत से ऐसे थे जिनके बारे में मुझे व्यक्तिगत रूप पता है की वो अपने प्रेमियों से विश्वासघात करते हैं. अतः मुझे इस विचार के पक्ष में आना पड़ा. वैसे भी अपनी हमेशा से "मां सेव्यं पराजितः" वाली मानसिकता रही है. मैंने आपने तर्क और कुतर्क लगा कर किसी तरह से बंधू की इज्जत बचायी. मामला वहीँ ख़त्म हो गया पर विचार मेरे मन में अटका ही रह गया.
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
लघु-शंका
उफ्फ.... ये लेह में क्या हो गया.... हे भगवान ये तू क्या क्या करता रहता है....... तेरी दुनिया में अव्यवस्था फैली पड़ी है..... जो निर्दोष हैं वो दुःख उठा रहे हैं और जो पापी हैं दुराचारी हैं वो फल फूल रहे हैं..... क्या हैं ये सब... हूँ...
...
.......
...............
देखा मैं इस ब्रह्माण्ड के रचयिता उस सर्वशक्तिमान को यूँ पुकार रहा हूँ जैसे वो मेरा कोई अधीनस्थ कर्मचारी हो और अपना कार्य सही ढंग से ना कर रहा हो पर मैं भगवान राम या कृष्ण को कभी इस तरह से तू कहकर नहीं पुकारता जबकि वो उसके ही अवतार कहलाते हैं.
मुस्लिम भी अल्लाह को यूँ पुकारते हैं जैसे वो कोई भेड़ बकरी चराने वाला ग्वाला हो पर मजाल है की पैगम्बर हजरत मोहम्मद की शान में कोई गुस्ताखी हो जाय. कोई सलमान रुश्दी जैसा हो तो उसके नाम पर फ़तवा जारी हो जाता है........
ऐसा क्यों है?
मुझे शंका है की कहीं हम लोग पागल तो नहीं हैं जो बिग बॉस को तो तू कहकर पुकारते हैं पर उसके सन्देश वाहकों को इतना सम्मान देते हैं......
...
.......
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देखा मैं इस ब्रह्माण्ड के रचयिता उस सर्वशक्तिमान को यूँ पुकार रहा हूँ जैसे वो मेरा कोई अधीनस्थ कर्मचारी हो और अपना कार्य सही ढंग से ना कर रहा हो पर मैं भगवान राम या कृष्ण को कभी इस तरह से तू कहकर नहीं पुकारता जबकि वो उसके ही अवतार कहलाते हैं.
मुस्लिम भी अल्लाह को यूँ पुकारते हैं जैसे वो कोई भेड़ बकरी चराने वाला ग्वाला हो पर मजाल है की पैगम्बर हजरत मोहम्मद की शान में कोई गुस्ताखी हो जाय. कोई सलमान रुश्दी जैसा हो तो उसके नाम पर फ़तवा जारी हो जाता है........
ऐसा क्यों है?
मुझे शंका है की कहीं हम लोग पागल तो नहीं हैं जो बिग बॉस को तो तू कहकर पुकारते हैं पर उसके सन्देश वाहकों को इतना सम्मान देते हैं......
रविवार, 15 अगस्त 2010
प्रेम प्रदर्शन, पत्नी की शिकायत और मेरा नजरिया
प्रेम क्या है मैं आज तक नहीं समझ पाया. पत्नी कहती है की अगर मैं उन्हें अंग्रेजी में I love you कहता हूँ या फिर महीने में एक बार फिल्म दिखाने ले जाता हूँ या समय समय पर लाल गुलाब भेंट करता हूँ तो मैं उनसे प्यार करता हूँ अन्यथा नहीं.
पता नहीं क्यों प्यार के इस प्रदर्शन को मेरा दिल स्वीकार नहीं पाता. मुझे मेरे बहुत से मित्रों ने समझया की प्यार होना ही काफी नहीं कुछ लोगों के लिए प्रेम का प्रदर्शन भी बहुत आवश्यक होता है. हमें अपना प्रेम दर्शना भी आना चाहिए. वैसे तो हमारा प्रेम हमारे क्रिया कलापों से प्रदर्शित हो ही जाता है. पर फिर भी हमें कभी कभार इसका प्रदर्शन करना ही चाहिए.
मैं इन बातों को रोमांस की श्रेणी में रखता हूँ और साफ़ स्वीकारता हूँ की मैं रोमांटिक नहीं हूँ.
मैं सच्चे प्यार और रोमांस को एक ही बात नहीं मानता. आप बिना सच्चे प्यार के भी रोमांस कर सकते हैं. रोमांस करना एक आदत हो सकती है पर प्यार करना एक आदत नहीं होती. सच्चा प्यार किसी किसी से ही हो पाता है और जरुरी ही नहीं की उसे प्रदर्शित भी किया जा सके.
मेरी माँ ने या मेरे पिता ने कभी भी अपने प्यार को शब्दों में प्रकट नहीं किया. उनके प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी रोजमर्रा की बातों से ही हो जाती थी. मुझे इस तरह का प्रेम ही करना आता है जिसमे प्रेम करना ही महत्वपूर्ण है और उसका प्रदर्शन महत्वपूर्ण नहीं है.
मेरी इस बात का मुझे यह उत्तर मिला की माता पिता और बच्चों का प्रेम कुछ और होता है और प्रेमी प्रेमिका या पति पत्नी का प्रेम कुछ और. ये बात भी मेरी समझ से परे है. मैं प्रेम को वर्गों में नहीं बाट पाता की ये प्रेम माता पिता के लिए, ये प्रेम प्रेमिका के लिए, ये प्रेम भाई बहिनों के लिए और ये दोस्तों के लिए आदी आदी.
मेरे लिए प्रेम की भावना एक शाश्वत भावना है जो एक ही तरीके से हो सकता है . आप जिस से भी प्रेम करें उसे पूरी तरह से समर्पित होकर प्रेम करें. यही सच्चा प्रेम है. मुझे कभी नहीं लगता की अलग अलग लोगों के लिए किये गए प्रेम का अलग अलग महत्व होता है. अगर ऐसा है तो फिर वो भावना प्रेम नहीं कुछ और होगी.
मैं जब समाज में देखता हूँ तो लगता है की आजकल प्रेम करो या ना करो पर उसका प्रदर्शन जरुर करो वाली मानसिकता चारों तरफ व्याप्त है.
कुछ लोगों के लिए ये प्रदर्शन का भाव इतना महवपूर्ण होता है की सच्चाई कहीं दूर उनके सीनों में दफ़न होती है. इसका एक ज्वलंत उदहारण अभी मुझे टीवी पर मिला जब मैं एक टीवी अभिनेत्री का उनके पुरुष मित्र (boy friend) वाला mms जो की समाचार चेनलों में प्रसारित हो रहा था देखा. उस mms में वो लड़की इतने विश्वसनीय तरीके से अपने प्रेम का खुल्ला इजहार कर रही थी की कोई भी व्यक्ति किसी भी तरीके से उसकी बातों पर शक नहीं कर सकता था . पर बाद में वही अदाकारा कहती है की वो सब बातें उससे जबरदस्ती बुलवाई या करवाई गयी थीं. मैं समझता हूँ की इससे बड़ी अदाकारी और कुछ नहीं हो सकती.
मैंने टीवी पर आ रही ये खबर अपनी पत्नी को दिखाई और पूछा की अगर मैं भी इन अभिनेत्री की तरह से अपने प्रेम का इतना ही विश्वसनीय प्रदर्शन करूँ पर वह वास्तविकता में एक अभिनय मात्र हो तो क्या फिर भी वो इस नकली अभिनय से संतुष्ट होंगी. उनका जवाब तो कुछ नहीं आया पर मैं समझता हूँ कुछ समय के लिए मुझे अनरोमांटिक होने के लिए कोसा नहीं जायेगा.
पता नहीं क्यों प्यार के इस प्रदर्शन को मेरा दिल स्वीकार नहीं पाता. मुझे मेरे बहुत से मित्रों ने समझया की प्यार होना ही काफी नहीं कुछ लोगों के लिए प्रेम का प्रदर्शन भी बहुत आवश्यक होता है. हमें अपना प्रेम दर्शना भी आना चाहिए. वैसे तो हमारा प्रेम हमारे क्रिया कलापों से प्रदर्शित हो ही जाता है. पर फिर भी हमें कभी कभार इसका प्रदर्शन करना ही चाहिए.
मैं इन बातों को रोमांस की श्रेणी में रखता हूँ और साफ़ स्वीकारता हूँ की मैं रोमांटिक नहीं हूँ.
मैं सच्चे प्यार और रोमांस को एक ही बात नहीं मानता. आप बिना सच्चे प्यार के भी रोमांस कर सकते हैं. रोमांस करना एक आदत हो सकती है पर प्यार करना एक आदत नहीं होती. सच्चा प्यार किसी किसी से ही हो पाता है और जरुरी ही नहीं की उसे प्रदर्शित भी किया जा सके.
मेरी माँ ने या मेरे पिता ने कभी भी अपने प्यार को शब्दों में प्रकट नहीं किया. उनके प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी रोजमर्रा की बातों से ही हो जाती थी. मुझे इस तरह का प्रेम ही करना आता है जिसमे प्रेम करना ही महत्वपूर्ण है और उसका प्रदर्शन महत्वपूर्ण नहीं है.
मेरी इस बात का मुझे यह उत्तर मिला की माता पिता और बच्चों का प्रेम कुछ और होता है और प्रेमी प्रेमिका या पति पत्नी का प्रेम कुछ और. ये बात भी मेरी समझ से परे है. मैं प्रेम को वर्गों में नहीं बाट पाता की ये प्रेम माता पिता के लिए, ये प्रेम प्रेमिका के लिए, ये प्रेम भाई बहिनों के लिए और ये दोस्तों के लिए आदी आदी.
मेरे लिए प्रेम की भावना एक शाश्वत भावना है जो एक ही तरीके से हो सकता है . आप जिस से भी प्रेम करें उसे पूरी तरह से समर्पित होकर प्रेम करें. यही सच्चा प्रेम है. मुझे कभी नहीं लगता की अलग अलग लोगों के लिए किये गए प्रेम का अलग अलग महत्व होता है. अगर ऐसा है तो फिर वो भावना प्रेम नहीं कुछ और होगी.
मैं जब समाज में देखता हूँ तो लगता है की आजकल प्रेम करो या ना करो पर उसका प्रदर्शन जरुर करो वाली मानसिकता चारों तरफ व्याप्त है.
कुछ लोगों के लिए ये प्रदर्शन का भाव इतना महवपूर्ण होता है की सच्चाई कहीं दूर उनके सीनों में दफ़न होती है. इसका एक ज्वलंत उदहारण अभी मुझे टीवी पर मिला जब मैं एक टीवी अभिनेत्री का उनके पुरुष मित्र (boy friend) वाला mms जो की समाचार चेनलों में प्रसारित हो रहा था देखा. उस mms में वो लड़की इतने विश्वसनीय तरीके से अपने प्रेम का खुल्ला इजहार कर रही थी की कोई भी व्यक्ति किसी भी तरीके से उसकी बातों पर शक नहीं कर सकता था . पर बाद में वही अदाकारा कहती है की वो सब बातें उससे जबरदस्ती बुलवाई या करवाई गयी थीं. मैं समझता हूँ की इससे बड़ी अदाकारी और कुछ नहीं हो सकती.
मैंने टीवी पर आ रही ये खबर अपनी पत्नी को दिखाई और पूछा की अगर मैं भी इन अभिनेत्री की तरह से अपने प्रेम का इतना ही विश्वसनीय प्रदर्शन करूँ पर वह वास्तविकता में एक अभिनय मात्र हो तो क्या फिर भी वो इस नकली अभिनय से संतुष्ट होंगी. उनका जवाब तो कुछ नहीं आया पर मैं समझता हूँ कुछ समय के लिए मुझे अनरोमांटिक होने के लिए कोसा नहीं जायेगा.
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
मिर्च बिना जीवन सूना.
मुझे कभी लौकी कि सब्जी बेहद पसंद थी. ये वो समय था जब माँ खाना बनाया करती थी. ये वो समय भी था जब लौकी इंजेक्शन के बिना ही उपजती थी. आज ना माँ है और ना प्राकृतिक ढंग से उगी लौकी तो वो स्वाद भला कैसे आयेगा. फिर भी मेरी पत्नी अपनी पूरी कोशिश करती हैं कि मेरी जिव्हा को भाता लौकी का कोई व्यंजन बन सके.
उन्होंने तरह तरह के प्रयोग किये फिर एक दिन जब हमारे घर पर लाल मिर्च ख़त्म थी तो उन्होंने हरी मिर्च डाल के लौकी कि सब्जी बना दी. हरी मिर्च का ये प्रयोग हम दोनों को बहुत भाया. तब से हमने अपने घर में बनाने वाली प्रत्येक सब्जी में हरी मिर्च डालकर देखा. कुछ सब्जियों का जायका तो एकदम ही बदल गया. मैंने एक बार किसी शेफ के इंटरव्यू में पढ़ा था कि आप सिर्फ भारतीय पकवानों के साथ इस प्रकार के प्रयोग कर सकते हैं जहाँ कि आप कभी भी किसी एक मसाले को कम ज्यादा या अदल बदल कर उस पकवान का जायका बदल सकते हैं. उसने बताया था कि दुसरे देशों के पकवानों कि रेसिपी एकदम नपी तुली होती है. जरा सा भी एक आद मसाला कम ज्यादा या इधर उधर किया और पकवान कि वाट लग जाती है.
मैं एक कुक नहीं हूँ अतः इस विषय पर ज्यादा कुछ नहीं कह सकता पर हाँ मिर्च पर जरुर चार बातें बनाऊंगा.
मेरी समझ से मिर्च एक ऐसी चीज है जिसे जब हमारा शरीर ग्रहण करता है और जब त्यागता हैं तो दोनों ही वक्त इसका स्वाद हम पहचान लेते हैं. खड़ी भाषा में कहूँ तो मिर्च के स्वाद को हमारे दोनों मुंह पहचान लेते हैं.
मिर्च को जिव्हा के अतिरिक्त हमारी कम से कम तीन इन्द्रियां तो स्पष्ट रूप से पहचान ही लेती हैं आइये गिन लें:
१. आंख में मिर्च लगती हैं. आँखों को नमक का स्वाद महसूस नहीं होता. हमारे आंसू नमकीन होते हैं ये हमें अपनी जीभ से पता चलता है. मीठे पानी से आंखे धोते हैं कभी पता चला आपको?
२. नाक में मिर्च लगती है. मिर्च के धुंए को सूंघे तब महसूस होगा.
3. कटे पर मिर्च लगती है यानि कि हमारी त्वचा भी मिर्च को पहचान लेती है.
हरी मिर्च हमें नजर से बचाती है. और अगर किसी कि बुरी नजर लग ही गयी हो तो उसे लाल मिर्च से झाड़ दिया जाता है.
अब अगर थोडा दुसरे ढंग से सोचे तो लाल या हरी मिर्च को जरुरत से ज्यादा अपने जीवन में स्थान देंगे तो ये नुकसान करती हैं. इनकी जगह पर काली या सफ़ेद मिर्च का उपयोग ज्यादा बेहतर रहता है.
मिर्च के और भी गुण और उपयोग हो सकते हैं पर फ़िलहाल तो मेरे दिमाग में ये बातें ही आयी हैं और मैने अपने दिमाग से निकल बाहर की हैं.
उन्होंने तरह तरह के प्रयोग किये फिर एक दिन जब हमारे घर पर लाल मिर्च ख़त्म थी तो उन्होंने हरी मिर्च डाल के लौकी कि सब्जी बना दी. हरी मिर्च का ये प्रयोग हम दोनों को बहुत भाया. तब से हमने अपने घर में बनाने वाली प्रत्येक सब्जी में हरी मिर्च डालकर देखा. कुछ सब्जियों का जायका तो एकदम ही बदल गया. मैंने एक बार किसी शेफ के इंटरव्यू में पढ़ा था कि आप सिर्फ भारतीय पकवानों के साथ इस प्रकार के प्रयोग कर सकते हैं जहाँ कि आप कभी भी किसी एक मसाले को कम ज्यादा या अदल बदल कर उस पकवान का जायका बदल सकते हैं. उसने बताया था कि दुसरे देशों के पकवानों कि रेसिपी एकदम नपी तुली होती है. जरा सा भी एक आद मसाला कम ज्यादा या इधर उधर किया और पकवान कि वाट लग जाती है.
मैं एक कुक नहीं हूँ अतः इस विषय पर ज्यादा कुछ नहीं कह सकता पर हाँ मिर्च पर जरुर चार बातें बनाऊंगा.
मेरी समझ से मिर्च एक ऐसी चीज है जिसे जब हमारा शरीर ग्रहण करता है और जब त्यागता हैं तो दोनों ही वक्त इसका स्वाद हम पहचान लेते हैं. खड़ी भाषा में कहूँ तो मिर्च के स्वाद को हमारे दोनों मुंह पहचान लेते हैं.
मिर्च को जिव्हा के अतिरिक्त हमारी कम से कम तीन इन्द्रियां तो स्पष्ट रूप से पहचान ही लेती हैं आइये गिन लें:
१. आंख में मिर्च लगती हैं. आँखों को नमक का स्वाद महसूस नहीं होता. हमारे आंसू नमकीन होते हैं ये हमें अपनी जीभ से पता चलता है. मीठे पानी से आंखे धोते हैं कभी पता चला आपको?
२. नाक में मिर्च लगती है. मिर्च के धुंए को सूंघे तब महसूस होगा.
3. कटे पर मिर्च लगती है यानि कि हमारी त्वचा भी मिर्च को पहचान लेती है.
हरी मिर्च हमें नजर से बचाती है. और अगर किसी कि बुरी नजर लग ही गयी हो तो उसे लाल मिर्च से झाड़ दिया जाता है.
अब अगर थोडा दुसरे ढंग से सोचे तो लाल या हरी मिर्च को जरुरत से ज्यादा अपने जीवन में स्थान देंगे तो ये नुकसान करती हैं. इनकी जगह पर काली या सफ़ेद मिर्च का उपयोग ज्यादा बेहतर रहता है.
मिर्च के और भी गुण और उपयोग हो सकते हैं पर फ़िलहाल तो मेरे दिमाग में ये बातें ही आयी हैं और मैने अपने दिमाग से निकल बाहर की हैं.
शनिवार, 7 अगस्त 2010
नक्कटों का गाँव.
दसवीं कक्षा में हमारे इतिहास के एक गुरूजी थे सोहन लाल जी. उनके लिए इतिहास का मतलब कथा कहानियों से होता था. पाठ्यक्रम के इतिहास कि जगह वो आपने खुद के इतिहास का वर्णन करने में ज्यादा रूचि लेते थे.
उन्होंने एक बार एक कथा सुनाई थी "नक्कटों का गाँव".
कथा के अनुसार एक गाँव में एक शरारती लड़का रहता था. एक बार किसी शरारत के समय उसकी नाक कट गयी. अब सारे गाँव के लोग उसे नक्कटा कह कर बार बार चिढाते.
बच्चा शरारती था. थोड़े दिनों के बाद उसने आपने आस पास के लोगों को बरगलाना शुरू किया कि नाक कटाने के बाद उसे तरह तरह कि शक्तियां प्राप्त हो गयी हैं. उसने लोगों को अपनी बातों के जाल में फंसा कर धीरे धीरे गाँव के सभी लोगों को आपने जैसा नक्कटा बनवा दिया.
जब गाँव में सभी कि नाक कट गयी तो उसे चिढाने वाला कोई ना रहा.
कहने का मतलब ये कि नाक वाले लोगों के बीच एक नक्कटे का जीना हराम था तो उसने सभी को नक्कटा बनवा दिया
पर अगर बात इसकी उलटी हो तो?
यानि कि गाँव ही नक्कटों का हो और उनमे एक नाक वाला आ जाए तो क्या वो सबकी नाक ठीक करवा पायेगा.
इस स्थिति में क्या होगा? या तो उस नाक वाले को नक्काटों के बीच से भागना पड़ेगा या फिर खुद कि नाक कटवानी पड़ेगी .
मेरी इस कहानी का कोई दूसरा अर्थ ना लें.
मेरे मन में ये सारी बातें हमारे ही मध्य के एक ब्लॉग हथकढ़ को पढ़ते पढ़ते आयी. असल में हथकढ़ ऐसा पहला ब्लॉग था जिसमे मैंने टिप्पणी वाला ऑप्शन हमेशा बंद देखा.
जहाँ सारा ब्लॉग जगत टिप्पणी के लिए मरा जाता हैं इस भाई को टिप्पणी कि कोई तलब लगती ही नहीं.
कमाल है.
हथकढ़ भैया इस गाँव में तुम अकेले हो. क्या करोगे? अरविन्द मिश्रा जी कि तरह से बच कर भागोगे या टिप्पणी का आप्शन चालू करोगे.
वैसे ये नक्कटा अपना प्रयास नहीं छोड़ेगा. ध्यान रखना.
उन्होंने एक बार एक कथा सुनाई थी "नक्कटों का गाँव".
कथा के अनुसार एक गाँव में एक शरारती लड़का रहता था. एक बार किसी शरारत के समय उसकी नाक कट गयी. अब सारे गाँव के लोग उसे नक्कटा कह कर बार बार चिढाते.
बच्चा शरारती था. थोड़े दिनों के बाद उसने आपने आस पास के लोगों को बरगलाना शुरू किया कि नाक कटाने के बाद उसे तरह तरह कि शक्तियां प्राप्त हो गयी हैं. उसने लोगों को अपनी बातों के जाल में फंसा कर धीरे धीरे गाँव के सभी लोगों को आपने जैसा नक्कटा बनवा दिया.
जब गाँव में सभी कि नाक कट गयी तो उसे चिढाने वाला कोई ना रहा.
कहने का मतलब ये कि नाक वाले लोगों के बीच एक नक्कटे का जीना हराम था तो उसने सभी को नक्कटा बनवा दिया
पर अगर बात इसकी उलटी हो तो?
यानि कि गाँव ही नक्कटों का हो और उनमे एक नाक वाला आ जाए तो क्या वो सबकी नाक ठीक करवा पायेगा.
इस स्थिति में क्या होगा? या तो उस नाक वाले को नक्काटों के बीच से भागना पड़ेगा या फिर खुद कि नाक कटवानी पड़ेगी .
मेरी इस कहानी का कोई दूसरा अर्थ ना लें.
मेरे मन में ये सारी बातें हमारे ही मध्य के एक ब्लॉग हथकढ़ को पढ़ते पढ़ते आयी. असल में हथकढ़ ऐसा पहला ब्लॉग था जिसमे मैंने टिप्पणी वाला ऑप्शन हमेशा बंद देखा.
जहाँ सारा ब्लॉग जगत टिप्पणी के लिए मरा जाता हैं इस भाई को टिप्पणी कि कोई तलब लगती ही नहीं.
कमाल है.
हथकढ़ भैया इस गाँव में तुम अकेले हो. क्या करोगे? अरविन्द मिश्रा जी कि तरह से बच कर भागोगे या टिप्पणी का आप्शन चालू करोगे.
वैसे ये नक्कटा अपना प्रयास नहीं छोड़ेगा. ध्यान रखना.
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
अपने बच्चों को राष्ट्रधर्म भी सिखाएं.
आजकल हमारे कुछ मुस्लिम भाई राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं.
इसके पीछे जो मानसिकता कार्य कर रही है वो शरीफ खान जी के अपने ताजा लेख में पूछे गए पहले प्रश्न से स्पष्ट है. शरीफ भाई साहब (ब्लॉग पर लगी फोटो से तो शरीफ खान साहब ६० ७० वर्ष कि उम्र के युवा लगते हैं पर उनकी पुत्री उम्र में मेरे बच्चों के बराबर कि ही है अतः उन्हें भाई साहब पुकार रहा हूँ. आशा है बुरा नहीं मानेंगे) ने जो प्रश्न पूछा है वो इस प्रकार है.
1. कक्षा सात में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने जिज्ञासावश मुझसे एक सवाल किया कि क्या कारण है कि इतिहास में जब अकबर, शाहजहां, बहादुर शाह आदि किसी मुस्लिम राजा से सम्बन्धित कोई बात कहनी होती है तो इस प्रकार से कही जाती है कि अमुक राजा ऐसा था, ऐसे काम करता था आदि। और यदि शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि हिन्दू राजाओं से सम्बन्धित कोई बात होती है तो सम्मानित भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार से लिखा जाता है कि वह ऐसे थे, ऐसे कार्य करते थे आदि। मैं बच्ची को जवाब से सन्तुष्ट नहीं कर सका क्योंकि मैं कैसे बतलाता कि लिखने के ढंग से ही जहां पक्षपात की गंध आ रही हो वहां सही तथ्यों पर आधारित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता।
शरीफ खान साहब कि बच्ची के मन में ऐसे प्रश्न उठाना स्वाभाविक हैं क्योंकि उसे सिखाया गया है कि उसका धर्म उसके राष्ट्र से ऊपर है.
अगर उसे बताया गया होता कि बाबर एक विदेशी आक्रमणकारी था जिसने अपनी क्रूरता और युद्ध के बेहतर तरीकों लो वजह से इस पवित्र धरा पर राज किया और यहाँ के मूल निवासियों कि श्रद्धा का अपमान किया और उसके वंशज भी ऐसी ही मानसिकता के तहत इस देश के लोगों को तंग करते थे तो शायद वो ऐसा प्रश्न नहीं करती पर उसे सिखाया गया है कि इस्लाम को मानने वाले सभी आक्रमण करी चाहे वो मोहम्मद गजनी हो चंगेज खान हो बाबर हो औरंगजेब हो या फिर आजकल भोपाल में आने वाले अरब हों सभी अच्छे लोग हैं.
बाबर के वंशजों ने भारत में रहकर यहाँ कि शहजादियों के साथ विवाह किये और बच्चे पैदा किये ये उनका इस देश से प्यार नहीं बल्कि उनकी राजनीती थी. अकबर जिसे उदारवादी मुस्लिम कहा जाता है उसके दरबार में ईरानी , तुर्क और पठानों कि क्या हेसियत थी इसके ऐतिहासिक प्रमाण आसानी से मिल जायेंगे. आज भी दिल्ली कि जामा मस्जिद का इमाम एक ईरानी परिवार है जो भारतीय मूल के मुसलमानों से खुद को उच्च समझते हैं.
ऐसे लोगों को क्या सिर्फ इसलिए सम्मान दिया जाय कि वो मुस्लिम हैं. मैं ऐसा नहीं समझता.
मैं तो अपने बच्चों का सिखाता हूँ कि हमारा युसूफ पठन श्रीलंका के मुरलीधरन,न्यूजीलैंड के दीपक पटेल या इंग्लैंड के मोंटी पनेसर से अच्छा स्पिनर है.
अगर आप धर्म को राष्ट्र के ऊपर प्रमुखता देंगे और चाहेंगे कि पाकिस्तान के जिया उल हक, भुट्टो और मुशर्रफ़ को आदर के साथ उल्लेखित किया जाय तो बच्चे तो कन्फ्यूज होंगे ही जनाब.
नेपाली हिन्दू राजाओं ने हमारे उत्तराखंड पर आक्रमण किया और उसे बहुत दिनों तक कब्जे में रखा हम उनके लिए सम्मान कि बात नहीं करते आप भी ऐसा ही करे और अपने बच्चों को भी यही सिखाएं तभी इस देश का भला होगा.
नेपाल चीन के साथ मिलकर भारत के विरुद्ध अगर षड़यंत्र रचता है तो मैं चाहूँगा कि नेपाल को भी सबक सिखाया जाय जबकि वहां पर हिन्दू बाहुल्य है. पर ऐसा सिर्फ एक हिन्दू ही क्यों सोचे. ये सोच अधिकांश मुस्लिम लोगों कि क्यों नहीं है. एक मुस्लिम क्यों विदेशी आक्रमण कारियों को इस देश के लोगों से ज्यादा सम्मान देना चाहता है?
धर्म राष्ट्र से ऊपर नहीं है राष्ट्रवादी भावना धर्म से ऊपर है वर्ना धर्म को ऊपर रखने वाले पाकिस्तान कि क्या हालत है किसी से छुपी नहीं है. मुस्लिम राष्ट्र होने कि वजह से क्या दिन देख रहा है.
कृपया भारत के बच्चों को राष्ट्रवाद कि प्रेरणा दें तभी हमारा और आने वाली पीढ़ियों का विकास होगा.
इसके पीछे जो मानसिकता कार्य कर रही है वो शरीफ खान जी के अपने ताजा लेख में पूछे गए पहले प्रश्न से स्पष्ट है. शरीफ भाई साहब (ब्लॉग पर लगी फोटो से तो शरीफ खान साहब ६० ७० वर्ष कि उम्र के युवा लगते हैं पर उनकी पुत्री उम्र में मेरे बच्चों के बराबर कि ही है अतः उन्हें भाई साहब पुकार रहा हूँ. आशा है बुरा नहीं मानेंगे) ने जो प्रश्न पूछा है वो इस प्रकार है.
1. कक्षा सात में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने जिज्ञासावश मुझसे एक सवाल किया कि क्या कारण है कि इतिहास में जब अकबर, शाहजहां, बहादुर शाह आदि किसी मुस्लिम राजा से सम्बन्धित कोई बात कहनी होती है तो इस प्रकार से कही जाती है कि अमुक राजा ऐसा था, ऐसे काम करता था आदि। और यदि शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि हिन्दू राजाओं से सम्बन्धित कोई बात होती है तो सम्मानित भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार से लिखा जाता है कि वह ऐसे थे, ऐसे कार्य करते थे आदि। मैं बच्ची को जवाब से सन्तुष्ट नहीं कर सका क्योंकि मैं कैसे बतलाता कि लिखने के ढंग से ही जहां पक्षपात की गंध आ रही हो वहां सही तथ्यों पर आधारित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता।
शरीफ खान साहब कि बच्ची के मन में ऐसे प्रश्न उठाना स्वाभाविक हैं क्योंकि उसे सिखाया गया है कि उसका धर्म उसके राष्ट्र से ऊपर है.
अगर उसे बताया गया होता कि बाबर एक विदेशी आक्रमणकारी था जिसने अपनी क्रूरता और युद्ध के बेहतर तरीकों लो वजह से इस पवित्र धरा पर राज किया और यहाँ के मूल निवासियों कि श्रद्धा का अपमान किया और उसके वंशज भी ऐसी ही मानसिकता के तहत इस देश के लोगों को तंग करते थे तो शायद वो ऐसा प्रश्न नहीं करती पर उसे सिखाया गया है कि इस्लाम को मानने वाले सभी आक्रमण करी चाहे वो मोहम्मद गजनी हो चंगेज खान हो बाबर हो औरंगजेब हो या फिर आजकल भोपाल में आने वाले अरब हों सभी अच्छे लोग हैं.
बाबर के वंशजों ने भारत में रहकर यहाँ कि शहजादियों के साथ विवाह किये और बच्चे पैदा किये ये उनका इस देश से प्यार नहीं बल्कि उनकी राजनीती थी. अकबर जिसे उदारवादी मुस्लिम कहा जाता है उसके दरबार में ईरानी , तुर्क और पठानों कि क्या हेसियत थी इसके ऐतिहासिक प्रमाण आसानी से मिल जायेंगे. आज भी दिल्ली कि जामा मस्जिद का इमाम एक ईरानी परिवार है जो भारतीय मूल के मुसलमानों से खुद को उच्च समझते हैं.
ऐसे लोगों को क्या सिर्फ इसलिए सम्मान दिया जाय कि वो मुस्लिम हैं. मैं ऐसा नहीं समझता.
मैं तो अपने बच्चों का सिखाता हूँ कि हमारा युसूफ पठन श्रीलंका के मुरलीधरन,न्यूजीलैंड के दीपक पटेल या इंग्लैंड के मोंटी पनेसर से अच्छा स्पिनर है.
अगर आप धर्म को राष्ट्र के ऊपर प्रमुखता देंगे और चाहेंगे कि पाकिस्तान के जिया उल हक, भुट्टो और मुशर्रफ़ को आदर के साथ उल्लेखित किया जाय तो बच्चे तो कन्फ्यूज होंगे ही जनाब.
नेपाली हिन्दू राजाओं ने हमारे उत्तराखंड पर आक्रमण किया और उसे बहुत दिनों तक कब्जे में रखा हम उनके लिए सम्मान कि बात नहीं करते आप भी ऐसा ही करे और अपने बच्चों को भी यही सिखाएं तभी इस देश का भला होगा.
नेपाल चीन के साथ मिलकर भारत के विरुद्ध अगर षड़यंत्र रचता है तो मैं चाहूँगा कि नेपाल को भी सबक सिखाया जाय जबकि वहां पर हिन्दू बाहुल्य है. पर ऐसा सिर्फ एक हिन्दू ही क्यों सोचे. ये सोच अधिकांश मुस्लिम लोगों कि क्यों नहीं है. एक मुस्लिम क्यों विदेशी आक्रमण कारियों को इस देश के लोगों से ज्यादा सम्मान देना चाहता है?
धर्म राष्ट्र से ऊपर नहीं है राष्ट्रवादी भावना धर्म से ऊपर है वर्ना धर्म को ऊपर रखने वाले पाकिस्तान कि क्या हालत है किसी से छुपी नहीं है. मुस्लिम राष्ट्र होने कि वजह से क्या दिन देख रहा है.
कृपया भारत के बच्चों को राष्ट्रवाद कि प्रेरणा दें तभी हमारा और आने वाली पीढ़ियों का विकास होगा.
रविवार, 1 अगस्त 2010
अगर आपके पार्टनर का पुराना साथी उसे वापस मांगे तो आप क्या करेंगें.. सोच लो.
How would you handle it if your partners ex want him or her back.. soch lo.
मेरे एक ब्लॉगर मित्र ने मुझे बताया कि उन्हें इस विषय पर लेखन के लिए एक e- mail आया है. मुझे ऐसा कोई मेल नहीं मिला पर शीर्षक ही आमंत्रित कर रहा था तो मेरी सोच के घोड़े खुद ही खुद दौड़ने के लिए उछलने लगे. मैंने भी कहा जाओ बेटा थोड़ी मस्ती कर लो. इसी मस्ती में ये पोस्ट निकल आयी.
मैं जो कुछ भी अंग्रेजी में पढता हूँ उसे पहले हिंदी भाषा में परिवर्तित करता हूँ फिर उस पर अपनी खालिस हिन्दुस्तानी विचारधारा के दायरे में रहकर ही विचार करता हूँ. अब मैंने इस शीर्षक का हिंदी अनुवाद करना शुरू किया पर partner शब्द पर आकार मेरी गाड़ी अटक गयी . अंग्रेजी के इस partner शब्द का इस शीर्षक के सन्दर्भ में हिंदी अर्थ क्या होना चाहिए ? पत्नी, प्रेमिका या इन दोनों से जुदा कोई तीसरा व्यक्तित्व जिसे हम सिर्फ भागीदार कहें. फादर कामिल बुल्के का हिंदी इंग्लिश शब्कोष पार्टनर शब्द का अर्थ बताता है साथी, संगी, साझेदार, जोड़ीदार, खेल का साथी.
तो यहाँ जिस पार्टनर कि बात हो रही है अगर उसे पत्नी या प्रेमिका ना मानकर उसे सिर्फ साथी, संगी, साझेदार, जोड़ीदार, खेल का साथी में से कोई एक माने तो. अरे तब तो ये आसान है. अब मेरे साथी का कोई पुराना जोड़ीदार उसे वापस मांगता है तो मैं तो सहर्ष ही तैयार हो जाऊंगा. यारों हम तो सारी दुनिया को एक ही कुटुंब मानने वाली भावना रखते हैं और सरकारी नौकरी में सीखा है कि जो कुछ मिले उसे मिल बाट कर खाओ इसलिए अगर हमारे पार्टनर का कोई एक्स हमारे पास आए तो हम तो उस एक्स को कहेंगे कि पार्टनर ही क्यों हम खुद भी आपके साथ चलते हैं. दो से भले तीन और यूँ ही कारवां बढ़ता चला जायेगा और हमारी साझेदारी फलती फूलती रहेगी. वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में मल्टी पार्टनर वाला मामला बन जायेगा.
आपका क्या ख्याल है?
पर जनाब अगर पार्टनर से आपका मतलब पत्नी या प्रेमिका है तब तो मुश्किल है. पत्नी और प्रेमिका को ये अंग्रेज पार्टनर कि श्रेणी में रख सकते हों पर हम तो पत्नी या प्रेमिका को partner नहीं sole proprietor या सही अर्थो में soul proprietor मानते हैं. अब किसी कम्पनी का मालिक ही कम्पनी को छोड़ दे तो भला वो कम्पनी अपना अस्तित्व बचा पायेगी. अपनी कंपनी तो बंद हो जाएगी. ये तो अस्तित्व कि लडाई है इसलिए इस मुद्दे पर हम तो कोई सोच विचार नहीं कर सकते, कोई समझोता नहीं कर सकते. जो गोरे अंग्रेज या काले अंग्रेज अपनी पत्नी या प्रेमिका को पार्टनर मानते हों वो इस मुद्दे पर विचार कर अपना जवाब दे.
अब फिर पूछूँगा आपका क्या ख्याल है?
मेरे एक ब्लॉगर मित्र ने मुझे बताया कि उन्हें इस विषय पर लेखन के लिए एक e- mail आया है. मुझे ऐसा कोई मेल नहीं मिला पर शीर्षक ही आमंत्रित कर रहा था तो मेरी सोच के घोड़े खुद ही खुद दौड़ने के लिए उछलने लगे. मैंने भी कहा जाओ बेटा थोड़ी मस्ती कर लो. इसी मस्ती में ये पोस्ट निकल आयी.
मैं जो कुछ भी अंग्रेजी में पढता हूँ उसे पहले हिंदी भाषा में परिवर्तित करता हूँ फिर उस पर अपनी खालिस हिन्दुस्तानी विचारधारा के दायरे में रहकर ही विचार करता हूँ. अब मैंने इस शीर्षक का हिंदी अनुवाद करना शुरू किया पर partner शब्द पर आकार मेरी गाड़ी अटक गयी . अंग्रेजी के इस partner शब्द का इस शीर्षक के सन्दर्भ में हिंदी अर्थ क्या होना चाहिए ? पत्नी, प्रेमिका या इन दोनों से जुदा कोई तीसरा व्यक्तित्व जिसे हम सिर्फ भागीदार कहें. फादर कामिल बुल्के का हिंदी इंग्लिश शब्कोष पार्टनर शब्द का अर्थ बताता है साथी, संगी, साझेदार, जोड़ीदार, खेल का साथी.
तो यहाँ जिस पार्टनर कि बात हो रही है अगर उसे पत्नी या प्रेमिका ना मानकर उसे सिर्फ साथी, संगी, साझेदार, जोड़ीदार, खेल का साथी में से कोई एक माने तो. अरे तब तो ये आसान है. अब मेरे साथी का कोई पुराना जोड़ीदार उसे वापस मांगता है तो मैं तो सहर्ष ही तैयार हो जाऊंगा. यारों हम तो सारी दुनिया को एक ही कुटुंब मानने वाली भावना रखते हैं और सरकारी नौकरी में सीखा है कि जो कुछ मिले उसे मिल बाट कर खाओ इसलिए अगर हमारे पार्टनर का कोई एक्स हमारे पास आए तो हम तो उस एक्स को कहेंगे कि पार्टनर ही क्यों हम खुद भी आपके साथ चलते हैं. दो से भले तीन और यूँ ही कारवां बढ़ता चला जायेगा और हमारी साझेदारी फलती फूलती रहेगी. वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में मल्टी पार्टनर वाला मामला बन जायेगा.
आपका क्या ख्याल है?
पर जनाब अगर पार्टनर से आपका मतलब पत्नी या प्रेमिका है तब तो मुश्किल है. पत्नी और प्रेमिका को ये अंग्रेज पार्टनर कि श्रेणी में रख सकते हों पर हम तो पत्नी या प्रेमिका को partner नहीं sole proprietor या सही अर्थो में soul proprietor मानते हैं. अब किसी कम्पनी का मालिक ही कम्पनी को छोड़ दे तो भला वो कम्पनी अपना अस्तित्व बचा पायेगी. अपनी कंपनी तो बंद हो जाएगी. ये तो अस्तित्व कि लडाई है इसलिए इस मुद्दे पर हम तो कोई सोच विचार नहीं कर सकते, कोई समझोता नहीं कर सकते. जो गोरे अंग्रेज या काले अंग्रेज अपनी पत्नी या प्रेमिका को पार्टनर मानते हों वो इस मुद्दे पर विचार कर अपना जवाब दे.
अब फिर पूछूँगा आपका क्या ख्याल है?
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