"अरे ! तू आज भी लेट हो गया !", राजीव ने फाइलों के ढेर से बहार झाँका, " कम से कम आज तो टाइम पर आ जाता।
पता है यार आज नए अफसर ने आना है, पर इसका मतलब ये तो नहीं की नौ बजे ही आकार उसके स्वागत के लिए खड़े हो जाएँ", मैंने अपना बैग अलमारी में रखा और पानी का गिलास लेकर वाटर कूलर का रुख किया, "पहला दिन है, वो आराम से ही आयेगा, बारह एक बजे तक। "
बारह एक बजे तक," फाइल बगल में दाबे शर्मा जी ने कमरे में प्रवेश किया, "साहब तो ठीक सुबह नौ बजे ही आ गए थे और प्यारे तुम्हारा ही इंतजार हो रहा है, जाकर अपनी शक्ल दिखा लो", शर्मा जी ने व्यंगपूर्ण स्वर में कहा।
"पहले दिन ही सही वक्त पर आ गए", मेरे मन से बेफिक्री का भाव जाता रहा, "लगता है ये भी कालू की ही तरह से सख्त है", हमारे पुराने ऑफिसर को हम कालू के उपनाम से बुलाते थे। वो अनुशासन प्रिय व्यक्ति हममे से किसी को पसंद नहीं था।
मैं वाटर कूलर पर गया। ठंडा पानी पीकर ठन्डे दिमाग से सोच विचार किया। नए साहब को शक्ल तो दिखानी ही पड़ेगी। मैं पुरे दो घंटे लेट था। सनकी ऑफिसर हुआ तो पहली मुलाकात में ही देर से आने के लिए डाट खानी पड़ेगी। क्या बहाना बनाऊं ? मंदिर गया था इसलिए लेट हो गया। वैसे गया तो मंदिर ही था लेकिन अगर चाहता तो मंदिर जाकर भी समय पर ऑफिस पहुच सकता था , पर लापरवाही और बेफिक्री की वजह से इतना लेट हो गया था। मैंने सोचा ना था की नया ऑफिसर पहले ही दिन टाइम पर आ जायेगा। खैर निचले कर्मचारियों को तो डाट खाने की आदत होती है, चाहे उन्होंने गलती की हो या ना, और यहाँ पर तो मेरी गलती है ही तो डरना क्या ये सोच कर मैं ऑफिसर के कमरे में घुस गया।
"हाँ जी कहिये", सामने कुर्सी पर बैठे महानुभाव ने मुस्कुराते हुए पूछा। इस आदमी में मुख पर बच्चों सी भोली मुस्कान थी। इस मुस्कान को देखकर मैं थोडा सहज हो गया।
"सर !.. मैं,.... अनिल विश्वास,LDC " मेरे गले से दबी दबी आवाज निकली।
" अनिल विश्वास ?.... अच्छा! अच्छा !.....बैठो! , क्या बात हुई काफी लेट हो गए? ", स्वर में जरा भी कड़वाहट नहीं थी।
"सर वो आज मंगलवार है ना ! मैं हर मंगलवार को सुबह हनुमान मंदिर जाता हूँ ..... इस वजह से लेट हो गया," मुझे अपनी गलती का अहसास था इसलिए मन में थोड़ी घबराहट थी।
"यह तो बहुत अच्छी आदत है। मैं खुद भी हर मंगलवार को कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर जाता हूँ ", नए साहब ने फिर अपनी निश्छल भोली मुस्कान बिखेरी।"मेरे बारे में तो तुम्हे पता चल ही गया होगा , मैं हूँ भास्कर जोशी, यहाँ का नया प्रशासनिक अधिकारी" ,अब जोशी जी की मधुर मुस्कान हंसी में बदल गयी थी ।
जोशी जी ने देर से आने के लिए कुछ नहीं कहा यह मेरे लिए रहत की बात थी। मेरे विचार में अगर गलती करने वाले को अपनी गलती का एहसास हो और वो शर्मिंदा हो तो उसे डाटना नहीं चाहिए बल्कि अपनी भूल सुधारने का मौका देना चाहिए। डाटने से तो इसी स्थिति में बात बनाने की बजाये बिगड़ जाती है। जोशी जी ने बड़ी सफाई से मुझे ये दर्शा दिया की वो भी मंदिर जाते है और लेट भी नहीं होते। जोशी जी की यह बात मुझे अच्छी लगी। वो मुझे सीधे सच्चे और सुलझे हुए इन्सान लगे।
पहली मुलाकात में मैंने जोशी जी के विषय में जो राय कायम की वो धीरे धीरे पक्की होती चली गयी। अपने सीधे व सरल व्यव्हार से जोशी जी ने मेरा ही नहीं बल्कि सबका दिल जीत लिया। ऑफिस का हर छोटा बड़ा आदमी उनका प्रशंसक बन गया।
"भाई जोशी जी जैसा ऑफिसर नहीं देखा! अफसरी की जरा भी बू नहीं है इनमे। फाइलों को जरा भी नहीं रोकते। एकदम निबटा देते हैं। ", जब भी शर्मा जी फाइलें लेकर जोशी जी के कमरे से लोटते तो आते ही घोषणा करते।
"मुझे भी बार बार तंग नहीं करते है। इतने शरीफ हैं की गिलास लेकर खुद ही वाटर कूलर पर पानी पीने पहुच जाते है।", हमारा चपरासी अक्सर बताता।
"जोशी जी की सबसे अच्छी आदत यह है की वो शाम को जल्दी जाने से रोकते नहीं हैं ", मिसेज विमला ख़ुशी से चहकतीं।
"पहाड़ी लोग शरीफ होते है। जोशी जी पहाड़ के आदमी हैं। " बहुगुणा जी गर्व के साथ कहते
हर व्यक्ति के जोशी जी को पसंद करने के कारण अलग-2 थे पर सभी लोग जोशी जी को पसंद करते थे।
मैं थोडा शक्की किस्म का आदमी हूँ। मेरे लिए कोई आदमी सिर्फ इसलिए अच्छा नहीं हो सकता की वो मेरे फायदे की बात करता है। मैं उस आदमी को अच्छ समझता हूँ जिसमे वास्तव में अच्छे गुण हैं। अतः मैंने जोशी जी को शुरू में बारीकी से परखा। जोशी जी वास्तव में एक सच्चे सरल इन्सान थे। कोई एब नहीं , कोई बुराई नहीं। अपने काम से काम रखना । ना किसी को तंग करना , ना किसी को अपनी अफसरी को रोब दिखाना, कोई व्यर्थ का झंझट नहीं था उनमे। कहा जाता है की पद का मद अच्छे व्यक्ति को भी बदल देता है और जोशी जी तो निचे से उठकर इस अवस्था तक पहुचे थे पर भास्कर जी में घमंड का नामोनिशान तक नहीं था। वे एक सच्चे संत ह्रदय व्यक्ति थे।
जोशी जी के आने के बाद आफिस का माहोल अच्छा हो गया था। किसी को कोई व्यर्थ की परेशानी नहीं थी। यों ही मजे में समय बीत रहा था। एक दिन सुबह जब मैं बस स्टैंड से आफिस की तरफ आ रहा था तो मैंने देखा की एक पागल से लड़का बीच सड़क मैं जोशी जी को थप्पड़ पर थप्पड़ मारे जा रहा है और जोशी जी असहाय से उसे किनारे ले जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। मैं दोड़ कर वहां पंहुचा और उस लडके को गुस्से में तीन चार थप्पड़ रसीद कर दिए। इतने में जोशी जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया।
" अनिल ये मेरा बेटा है, इसे मत मरो बस किसी तरह से आफिस ले चलो वहां सारी बात बताऊंगा।" जोशी जी ने विनती भरे स्वर में कहा। थप्पड़ खाकर वो लड़का कुछ शांत सा हो गया था। हम आसानी से उसे आफिस ले आये।
यह जोशी जी का इकलोता लड़का था। तीन लड़कियों के बाद हुआ पुत्र जिसे बड़े लाड प्यार के साथ पाला गया था। इंजीनियरिंग के लिए बंगलौर गया पर जाने क्या गड़बड़ हुई की इंजिनियर की डिग्री के बजाय पागलपन का सर्टिफिकेट लेकर वापस लौटा। जोशी जी के सपने बिखर गए। सोचा था बाप का सहारा बनेगा पर यह तो उन्माद में बाप की ही पिटाई कर देता था।
पता है यार आज नए अफसर ने आना है, पर इसका मतलब ये तो नहीं की नौ बजे ही आकार उसके स्वागत के लिए खड़े हो जाएँ", मैंने अपना बैग अलमारी में रखा और पानी का गिलास लेकर वाटर कूलर का रुख किया, "पहला दिन है, वो आराम से ही आयेगा, बारह एक बजे तक। "
बारह एक बजे तक," फाइल बगल में दाबे शर्मा जी ने कमरे में प्रवेश किया, "साहब तो ठीक सुबह नौ बजे ही आ गए थे और प्यारे तुम्हारा ही इंतजार हो रहा है, जाकर अपनी शक्ल दिखा लो", शर्मा जी ने व्यंगपूर्ण स्वर में कहा।
"पहले दिन ही सही वक्त पर आ गए", मेरे मन से बेफिक्री का भाव जाता रहा, "लगता है ये भी कालू की ही तरह से सख्त है", हमारे पुराने ऑफिसर को हम कालू के उपनाम से बुलाते थे। वो अनुशासन प्रिय व्यक्ति हममे से किसी को पसंद नहीं था।
मैं वाटर कूलर पर गया। ठंडा पानी पीकर ठन्डे दिमाग से सोच विचार किया। नए साहब को शक्ल तो दिखानी ही पड़ेगी। मैं पुरे दो घंटे लेट था। सनकी ऑफिसर हुआ तो पहली मुलाकात में ही देर से आने के लिए डाट खानी पड़ेगी। क्या बहाना बनाऊं ? मंदिर गया था इसलिए लेट हो गया। वैसे गया तो मंदिर ही था लेकिन अगर चाहता तो मंदिर जाकर भी समय पर ऑफिस पहुच सकता था , पर लापरवाही और बेफिक्री की वजह से इतना लेट हो गया था। मैंने सोचा ना था की नया ऑफिसर पहले ही दिन टाइम पर आ जायेगा। खैर निचले कर्मचारियों को तो डाट खाने की आदत होती है, चाहे उन्होंने गलती की हो या ना, और यहाँ पर तो मेरी गलती है ही तो डरना क्या ये सोच कर मैं ऑफिसर के कमरे में घुस गया।
"हाँ जी कहिये", सामने कुर्सी पर बैठे महानुभाव ने मुस्कुराते हुए पूछा। इस आदमी में मुख पर बच्चों सी भोली मुस्कान थी। इस मुस्कान को देखकर मैं थोडा सहज हो गया।
"सर !.. मैं,.... अनिल विश्वास,LDC " मेरे गले से दबी दबी आवाज निकली।
" अनिल विश्वास ?.... अच्छा! अच्छा !.....बैठो! , क्या बात हुई काफी लेट हो गए? ", स्वर में जरा भी कड़वाहट नहीं थी।
"सर वो आज मंगलवार है ना ! मैं हर मंगलवार को सुबह हनुमान मंदिर जाता हूँ ..... इस वजह से लेट हो गया," मुझे अपनी गलती का अहसास था इसलिए मन में थोड़ी घबराहट थी।
"यह तो बहुत अच्छी आदत है। मैं खुद भी हर मंगलवार को कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर जाता हूँ ", नए साहब ने फिर अपनी निश्छल भोली मुस्कान बिखेरी।"मेरे बारे में तो तुम्हे पता चल ही गया होगा , मैं हूँ भास्कर जोशी, यहाँ का नया प्रशासनिक अधिकारी" ,अब जोशी जी की मधुर मुस्कान हंसी में बदल गयी थी ।
जोशी जी ने देर से आने के लिए कुछ नहीं कहा यह मेरे लिए रहत की बात थी। मेरे विचार में अगर गलती करने वाले को अपनी गलती का एहसास हो और वो शर्मिंदा हो तो उसे डाटना नहीं चाहिए बल्कि अपनी भूल सुधारने का मौका देना चाहिए। डाटने से तो इसी स्थिति में बात बनाने की बजाये बिगड़ जाती है। जोशी जी ने बड़ी सफाई से मुझे ये दर्शा दिया की वो भी मंदिर जाते है और लेट भी नहीं होते। जोशी जी की यह बात मुझे अच्छी लगी। वो मुझे सीधे सच्चे और सुलझे हुए इन्सान लगे।
पहली मुलाकात में मैंने जोशी जी के विषय में जो राय कायम की वो धीरे धीरे पक्की होती चली गयी। अपने सीधे व सरल व्यव्हार से जोशी जी ने मेरा ही नहीं बल्कि सबका दिल जीत लिया। ऑफिस का हर छोटा बड़ा आदमी उनका प्रशंसक बन गया।
"भाई जोशी जी जैसा ऑफिसर नहीं देखा! अफसरी की जरा भी बू नहीं है इनमे। फाइलों को जरा भी नहीं रोकते। एकदम निबटा देते हैं। ", जब भी शर्मा जी फाइलें लेकर जोशी जी के कमरे से लोटते तो आते ही घोषणा करते।
"मुझे भी बार बार तंग नहीं करते है। इतने शरीफ हैं की गिलास लेकर खुद ही वाटर कूलर पर पानी पीने पहुच जाते है।", हमारा चपरासी अक्सर बताता।
"जोशी जी की सबसे अच्छी आदत यह है की वो शाम को जल्दी जाने से रोकते नहीं हैं ", मिसेज विमला ख़ुशी से चहकतीं।
"पहाड़ी लोग शरीफ होते है। जोशी जी पहाड़ के आदमी हैं। " बहुगुणा जी गर्व के साथ कहते
हर व्यक्ति के जोशी जी को पसंद करने के कारण अलग-2 थे पर सभी लोग जोशी जी को पसंद करते थे।
मैं थोडा शक्की किस्म का आदमी हूँ। मेरे लिए कोई आदमी सिर्फ इसलिए अच्छा नहीं हो सकता की वो मेरे फायदे की बात करता है। मैं उस आदमी को अच्छ समझता हूँ जिसमे वास्तव में अच्छे गुण हैं। अतः मैंने जोशी जी को शुरू में बारीकी से परखा। जोशी जी वास्तव में एक सच्चे सरल इन्सान थे। कोई एब नहीं , कोई बुराई नहीं। अपने काम से काम रखना । ना किसी को तंग करना , ना किसी को अपनी अफसरी को रोब दिखाना, कोई व्यर्थ का झंझट नहीं था उनमे। कहा जाता है की पद का मद अच्छे व्यक्ति को भी बदल देता है और जोशी जी तो निचे से उठकर इस अवस्था तक पहुचे थे पर भास्कर जी में घमंड का नामोनिशान तक नहीं था। वे एक सच्चे संत ह्रदय व्यक्ति थे।
जोशी जी के आने के बाद आफिस का माहोल अच्छा हो गया था। किसी को कोई व्यर्थ की परेशानी नहीं थी। यों ही मजे में समय बीत रहा था। एक दिन सुबह जब मैं बस स्टैंड से आफिस की तरफ आ रहा था तो मैंने देखा की एक पागल से लड़का बीच सड़क मैं जोशी जी को थप्पड़ पर थप्पड़ मारे जा रहा है और जोशी जी असहाय से उसे किनारे ले जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। मैं दोड़ कर वहां पंहुचा और उस लडके को गुस्से में तीन चार थप्पड़ रसीद कर दिए। इतने में जोशी जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया।
" अनिल ये मेरा बेटा है, इसे मत मरो बस किसी तरह से आफिस ले चलो वहां सारी बात बताऊंगा।" जोशी जी ने विनती भरे स्वर में कहा। थप्पड़ खाकर वो लड़का कुछ शांत सा हो गया था। हम आसानी से उसे आफिस ले आये।
यह जोशी जी का इकलोता लड़का था। तीन लड़कियों के बाद हुआ पुत्र जिसे बड़े लाड प्यार के साथ पाला गया था। इंजीनियरिंग के लिए बंगलौर गया पर जाने क्या गड़बड़ हुई की इंजिनियर की डिग्री के बजाय पागलपन का सर्टिफिकेट लेकर वापस लौटा। जोशी जी के सपने बिखर गए। सोचा था बाप का सहारा बनेगा पर यह तो उन्माद में बाप की ही पिटाई कर देता था।
"जाने किस जन्म का बैर निकल रहा है", जोशी जी की ऑंखें भर आई, " ना खता है ना पीता है बस यों ही गम सुम सा घर में बैठा रहता है। कुछ पूछो तो मरने दोड़ता है। सब जगह दिखा लिया, तरह तरह के इलाज करवा लिए कोई फायदा नहीं। कुछ दिनों से शांत था , सोचा यहाँ आकार इसका कुछ मन बहल जायेगा तो साथ ले आया। इसके बाद जोशी जी अक्सर ही अपने लडके को अपने साथ ऑफिस ले आते। वो सारा दिन कोने में एक कुर्सी पर शांत बैठा रहता। यहाँ तो वो शांत रहता था पर अपने घर में पागलपन के दौरे में किये गए कार्यों के निशान हमें अगली सुबह देखने को मिल जाते। कभी गुस्से में कांच का गिलास दीवार पर दे मारा और हाथ जख्मी कर लिया। कभी दीवार पर सर पटका और माथे पर नीला गुमड निकल आया। जो भी हो वो खुद को शारीरिक और अपने घर वालों को मानसिक पीड़ा पहुचता रहता था। उसकी काले गड्ढों में धंसी और नींद ना आने की वजह से लाल हुयी आंखे बड़ी भयानक दिखती थीं। उसे देख कर जोशी जी के दिल पर क्या बीतती होगी?
कई लोगों ने जोशी जी को समझाया भी की लडके को ऐसे में घर पर रखना ठीक नहीं, अस्पताल में भारती करवा दो पर वो एसा नहीं कर पाए। अस्पताल में लडके की दुर्दशा देखकर वो अपने लडके को घर वापस ले आये और घर पर ही इलाज करवाना शुरू कर दिया। इसी अवस्था में भी जोशी जी शांत व संयत दिखते। उनके दिल की पीड़ा उनके चेहरे पर नहीं झलकती थी। कहते हैं की व्यक्ति के चरित्र की परीक्षा कष्ट आने पर ही होती है। मेरे ख्याल से एक पिता के लिए जवान लडके को इस प्रकार दुःख भोगते हुए देखने से ज्यादा कश्कर बात एक पिता के लिए और कुछ नहीं हो सकती । इन परिस्थितियों में जोशी साहब का संयम काबिले तारीफ था।
लंच के दौरान अक्सर लोग जोशी जी के दुर्भाग्य की चर्चा करते। कोई कहता बेचारे बड़ी लगन से अपने पुत्र की सेवा कर रहे हैं और उनकी हिम्मत की दाद देता। कोई उनके पुत्र मोह को ही परेशानी की जड़ बताकर लडके को पागलखाने में भर्ती ना करवाने के लिए जोशी जी को दोषी ठहराता। पर अंत में एक बात पर सभी सहमत होते की जोशी जी एक अच्छे आदमी हैं और यह कलयुग जोशी जी जैसे लोगों के लिए नहीं है। इस ज़माने में सिर्फ भ्रष्ट लोग ही पनप सकते हैं। ईश्वर भी सच्चे व नेक इंसानों को ही कष्ट देता है। इस तरह से सारा दोष जोशी जी की अच्छाइयों पर ही मढ़ दिया जाता।
क्या वास्तव में सीधे सच्चे व इमानदार लोग इस दुनिया में सुखी नहीं रह सकते? क्या अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति की भगवन इसी तरह से परीक्षा लेते रहते हैं। ये प्रश्न मेरे मन में बार बार उठते रहते। लोगो के विचार सुनकर मेरा मन भरी हो जाता। जोशीजी का उदहारण देखकर लगता की सच्चाई की राह पर चलाना बड़ा कठिन काम है और दुखदायी भी। भगवान जबरदस्ती ही दुखों का टोकरा परीक्षा के नाम पर आपके सर पर लाद देते हैं। इससे तो अच्छा है की आदमी झूट बोले , चोरी करे, इर्ष्या करे, रिश्वत ले, सरे गलत काम करे और सुखी रहे। क्या जरुरत है अच्छा बनकर दुःख झेलने की।
मेरा यह मानना था की जो दुःख व परेशानियाँ हमारे जीवन में आती हैं वे सब हमारे ही कर्मों का फल होती हैं जिन्हें हमने जाने अनजाने में किया है। अगर हम गलत कार्य करेंगे तो हमें कष्ट भोगने ही होंगे पर जोशी जी को देखकर लगता की हम भले ही बुराई से बचे और अच्छाई के रास्ते पर चलें पर दुःख तो जीवन में आने ही हैं। कर्मफल के रूप में ना सही परीक्षा के रूप में ही सही दुःख तो आएंगे ही।
कुछ समय बीता जोशी जी के लडके की हालत में सुधर दिखाई पड़ने लगा। अब उसके दौरे पड़ने काम हो गए थे। अपने पुत्र की हालत में सुधार होते देख जोशी जी भी संतुष्ट नजर आते थे । लगा अब उनके परीक्षा के दिन पुरे हो चले हैं।
पर शायद जोशी जी की परीक्षा कुछ ज्यादा ही कठोर थी। एक सुबह जब मैं अपने ऑफिस आ रहा था तो मुझे रास्ते में ही शर्मा जी मिल गए। मिलते ही वो बोले, "अनिल जोशी जी के घर से खबर आयी है, कल रात उनके लडके की छत से गिरकर मृत्यु हो गयी है।" मुझे एक झटका सा लगा। मैं शर्मा जी के साथ जोशी जी के घर पंहुचा। वहां का वातावरण बहुत ग़मगीन था। लडके की अर्थी तैयार की जा रही थी । पता चला शाम को अचानक वो छत पर चला गया था। जोशी जी भी पीछे गए की कहीं गिर ना जाये पर होनी को कौन टाल सकता था। वापस उतरते वक्त लडके का पाँव फिसला और वो निचे आ गिरा। गिरते ही बेचारे के प्राण निकल गए। जोशी जी की आँखों के सामने ही उनका जवान पुत्र चला गया।
सारी रात जगे रहने और शायद आँखों के आसुओं को रोके रहने से जोशी जी की आखें लाल thi . सारे का सारा दर्द उन्होंने अपने ह्रदय में ही समेट लिया था। अब तक उनके सारे रिश्तेदार व परिचित इकट्ठे हो चुके थे। जोशी जी ने सभी अंतिम रस्मों को शांत भाव से पूरा किया। जब उन्होंने लडके की अर्थी को कन्धा दिया तो वहा उपस्थित सभी लोगों की आखें भर आयी । जिस पुत्र को अंतिम समय अपने पिता को सहारा देना चाहिए था आज वही अपने पिता कंधे पर अपनी अंतिम यात्रा पर जा रहा था।
पहाड़ी लोगों की रिवाज है की वो शव के पूरी तरह जल जाने के पश्चात् ही घाट से बापस लोटते हैं। अतः सभी लोग आस पास ही बैठ कर शवदाह के पुरे होने का इंतजार करने लगे। मैं भी थोडा दूर हट कर एक पीपल की छाव के नीचे बैठ गया।जोशी जी पुत्र की चिता के समीप ही सर झिकाए बैठे थे । शायद पुत्र से सम्बंधित यादों का चलचित्र उनकी आँखों के सामने चल रहा था जिसमे वो खोये थे।
मैं पीपल के छाव मैं बैठा था और सोच रहा था की जोशी जी के साथ ऐसा क्यों हुआ? उन्होंने ऐसा क्या भरी अपराध किया था जिसकी यह सजा थी या फिर ये कोई कठिनतम परीक्षा थी। सोच सोच कर मेरा सर भरी हो गया। मैं अभी इन विचारों में मगन ही था की एक बुजुर्ग मेरे पास आकार बैठ गए। ये शायद जोशी जी के कोई निकटवर्ती रिश्तेदार ही थे।
"बेचारा !.... क्या भाग्य पाया है इसने भी.... आँखों के सामने जवान जहान बेटा चला गया । कैसा दुर्भाग्य है? ", बुगुर्ग की आखें जोशी जी पर ही टिकी थीं।
"हूँ ....... " मैंने सहमती में अपना सर हिलाया।
"इसे ही तो कलयुग कहते हैं बेटा। इतना सीधा आदमीं और एसा दुःख भोग रहा है। " उस वृद्ध की आंखे आकाश के शुन्य से बीती हुयी यादों को कुरेद रहीं थीं। "इस लडके को पाने की लिए भास्कर ने क्या नहीं किया। तीन लडकियां हो चुकी थी । मन में लड़के की आस थी। कहाँ नहीं गया। कितने डाक्टरों के चक्कर काटे। अल्ट्रा साउंड करवाए। तीन और लड़किया थी उनको गिरवाया तब जाकर सातवीं संतान ये लड़का हुआ जो आज छोड़कर चल दिया। इतनी कठिनाई से ये लड़का मिला था जो यों बीच रास्ते में छोड़कर चल दिया। कितना भरी दुःख है। भास्कर से जाने क्या अपराध हुआ होगा जिसका ये दंड भोग रहा है?"
पता नहीं उन वृद्ध को अपने भास्कर का अपराध पता चला या नहीं पर उनकी बातें सुनकर मुझे मेरे दिल को तसल्ली देने के लिए एक सहारा मिल गया था।
@"पता नहीं उन वृद्ध को अपने भास्कर का अपराध पता चला या नहीं पर उनकी बातें सुनकर मुझे मेरे दिल को तसल्ली देने के लिए एक सहारा मिल गया था।"
जवाब देंहटाएं"कर्म प्रधान विश्व करी राखा,जो जस करई तस फल चाखा"
अद्भुत मित्र!!!