टी वी पर हो रही बहसों में अक्सर मैंने यह देखा है कि अगर आप मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा बनाये दुर्गा और भारत माता नग्न चित्रों का समर्थन करते हों, या समाज में तेजी से बढ़ रहे बिना विवाह युवक युवतियों के घर बसा लेने वाले नए चलन के हिमायती हों, या विलायती संत वेलेंटाइन के दिवस पर युवा वर्ग द्वारा खुले आम प्रेम प्रदर्शन को सही ठहराते हों या भारतीय समाज में समलैंगिकता को सम्मानजनक दर्जा दिलाना चाहते हों तो मान लीजिये कि खजुराहों के मंदिर आपके इस जन्म के तारणहार हैं। अगर कोई भारतीय परम्पराओं का समर्थक आपसे बहस करे तो उसके ऊपर खजुराहो नामक बम फोड़ दीजिये आपकी जीत सुनिश्चित है। और फिर भी कुछ बचा रहे तो कामसूत्र के सूत्र से उसका गला घोट दीजिये।
कल डाक्टर दराल sahab के ब्लॉग par देखा कि समलेंगिकता के समर्थन में कृष्ण, अर्जुन और शिखंडी को भी खीच लाया गया है । मुझे समझ नहीं आया कि समलेंगिकता और कृष्ण या अर्जुन के बीच कहाँ का साम्य है।
मुझे तो इन लोगों कि हाय तौबा भी समझ में नहीं आती। क्या कुछ आकड़े मौजूद हैं कि पुलिस वाले कितने लोगों को समलेंगिकता (धारा ३७७ ) के अपराध में जेल में बंद करते हैं। कल ही मैंने दिल्ली पुलिस के एक सब इस्पेक्टर से पूछा तो उसने बताया कि अपनी सैंतीस साल कि नौकरी में उसने धारा ३७७ में एक भी आदमी या औरत को नहीं पकड़ा। चारों तरफ सम्लेंगिक और उनके समर्थक इस तरह से व्यव्हार कर रहे हैं मानो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से इन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा और अब सारे समलैंगिकों के शयनकक्षों में पुलिसवाले जाकर पहरा देने लगेंगे।
असल में धारा ३७७ पर सुधार के बहाने सम्लेंगिक अपने अप्राकृतिक असामान्य व्यव्हार को सामाजिक स्वीकृति दिलवाना चाहते हैं जो होना नहीं चाहिए। इस विषय में तो मैं चाहता हूँ कि यदि धारा ३७७ में सुधार करके सहमति से बनाये अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों को सजा योग्य अपराध श्रेणी से हटाया जाता है तो साथ में एक बात अवश्य जोड़ी जानी चाहिए कि समलेंगिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन सजा दिए जाने योग्य अपराध होगा। क्योंकि एक बार अगर इन्हे क़ानूनी स्वीकृति मिल गयी तो इन लोगों ने प्यार के इजहार के नाम पर ऐसी गन्दगी फैलानी है कि सम्हालना मुश्किल हो जायेगा। समलेंगिकता एक मनो विकृति है जिसकी सामाजिक स्वीकृति आने वाली पीढ़ियों को विकृत ही करेगी।
कल डाक्टर दराल sahab के ब्लॉग par देखा कि समलेंगिकता के समर्थन में कृष्ण, अर्जुन और शिखंडी को भी खीच लाया गया है । मुझे समझ नहीं आया कि समलेंगिकता और कृष्ण या अर्जुन के बीच कहाँ का साम्य है।
मुझे तो इन लोगों कि हाय तौबा भी समझ में नहीं आती। क्या कुछ आकड़े मौजूद हैं कि पुलिस वाले कितने लोगों को समलेंगिकता (धारा ३७७ ) के अपराध में जेल में बंद करते हैं। कल ही मैंने दिल्ली पुलिस के एक सब इस्पेक्टर से पूछा तो उसने बताया कि अपनी सैंतीस साल कि नौकरी में उसने धारा ३७७ में एक भी आदमी या औरत को नहीं पकड़ा। चारों तरफ सम्लेंगिक और उनके समर्थक इस तरह से व्यव्हार कर रहे हैं मानो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से इन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा और अब सारे समलैंगिकों के शयनकक्षों में पुलिसवाले जाकर पहरा देने लगेंगे।
असल में धारा ३७७ पर सुधार के बहाने सम्लेंगिक अपने अप्राकृतिक असामान्य व्यव्हार को सामाजिक स्वीकृति दिलवाना चाहते हैं जो होना नहीं चाहिए। इस विषय में तो मैं चाहता हूँ कि यदि धारा ३७७ में सुधार करके सहमति से बनाये अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों को सजा योग्य अपराध श्रेणी से हटाया जाता है तो साथ में एक बात अवश्य जोड़ी जानी चाहिए कि समलेंगिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन सजा दिए जाने योग्य अपराध होगा। क्योंकि एक बार अगर इन्हे क़ानूनी स्वीकृति मिल गयी तो इन लोगों ने प्यार के इजहार के नाम पर ऐसी गन्दगी फैलानी है कि सम्हालना मुश्किल हो जायेगा। समलेंगिकता एक मनो विकृति है जिसकी सामाजिक स्वीकृति आने वाली पीढ़ियों को विकृत ही करेगी।