सोमवार, 28 मार्च 2011

गृहस्थी और ब्रह्मचर्य

मेरी ये पोस्ट मध्य वर्ग के उन अधेड़ दम्पतियों  को समर्पित है जो अपनी अधेड़ अवस्था को मन से स्वीकार चुके हैं.

ऑफिस में मैं अपने तीन  मध्य वय साथियों के  साथ दोपहर का भोजन करता हूँ.इनमे से एक हैं श्री राजकुमार जी जो उम्र के पांचवे पड़ाव में हैं. राज कुमार जी की भोजन उपरांत मीठा खाने की आदत है अतः उनके लंच बॉक्स में भोजन के साथ हमेशा ही कोई न कोई मिठाई जरुर होती है जैसे कभी लड्डू, कभी बर्फी, या कुछ और जिसका मजा हम लोग भी लेते हैं.  मैं यूँ ही मजाक में उनसे कहता हूँ की ये मिठाई उनकी रात के प्रदर्शन के अनुरूप होती है. अगर रात में राजकुमार जी बढ़िया प्रदर्शन करते हैं तो बर्फी आती है और अगर उनका प्रदर्शन ढीला होता है तो लड्डू मिलता है. 

अभी कुछ दिन पहले राजकुमार जी घर से खाना लेकर नहीं आये तो  मैंने फिर से मजाक में कहा की राजकुमार जी का  रात  का प्रदर्शन इतना ख़राब रहा की घर से मिठाई क्या खाना भी नहीं आया. मेरी इस बात का शायद उन्हें बुरा लगा और उन्होंने थोडा चिढ़कर बताया की उन्होंने पिछले डेढ़ दो वर्षों से पत्नी के साथ सेक्स नहीं किया है. पता चला की उनकी पत्नी ने किन्हीं  महाराज जी से गुरु मंत्र लिया हुआ है और वो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रही हैं. मुझे कहीं न कहीं खुद में भविष्य का राजकुमार छिपा दिखा इसलिए मेरे मन में  राजकुमार जी के लिए सहानभूति पैदा हो गयी  और मैंने इस विषय पर "अपने स्तर का" गहन चिंतन मनन आरंभ किया .

मुझे लगता है की ये हमारे मध्य वर्ग की आम समस्या है. ज्यों ही बच्चे थोडा बड़े हुए नहीं,  पति और पत्नी एक दुसरे से दुरी बनाना शुरू कर देते हैं. पति पत्नी की शारीरिक निकटता कम होती  जाती है. ऐसे में अगर दोनों की मानसिकता एक सी हो तब तो कोई बात नहीं पर अगर  पति या पत्नी दोनों में से कोई एक सेक्स में रूचि रखता है और दूसरा न रखे तो गड़बड़ होनी शुरू हो जाती है. ज्यादातर मामलों में पति ही बढती  उम्र में भी सेक्स क्रिया जारी रखने में रूचि रखते हैं और पत्नियाँ असहयोग आन्दोलन शुरू कर देती हैं.

मध्य वर्ग के दम्पतियों   में इस "आचरण" के लिए बहुत से कारण गिनवाये जा सकते हैं पर मुझे इस सब के पीछे  जो सबसे बड़ा या मुख्य कारण नज़र आता है वो है  सेक्स के प्रति हम लोगों का नजरिया. हमारे यहाँ सेक्स को पाप समझा जाता है और ब्रह्मचर्य को पुण्य. हमें समझाया जाता है की  गृहस्थों को भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए. कहा जाता है की सेक्स सिर्फ संतान उत्पत्ति के लिए ही किया जाना चाहिए अन्यथा नहीं. गृहस्थों से भी ब्रहमचर्य के पालन की अपेक्षा की जाती है. 

मुझे ये सब बातें बकवास लगती हैं खासकर की  किसी शादी शुदा व्यक्ति द्वारा ब्रह्मचर्य का पालन तो एक अप्राकृतिक सी बात लगती है.  कोई व्यक्ति  तभी ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है जब वो किसी भी स्त्री को न देखे, न स्पर्श  करे, न ही उसके साथ एकांत में कोई बातचीत करें, और न ही कभी मन में उसका स्मरण करे और न ही कभी उसे प्राप्त करने का मन में कोई संकल्प करे. क्या एक पति और पत्नी के बीच ऐसा हो सकता है और अगर हो तो क्या वो पति पत्नी कहलायेंगे.

मेरा तो शुरू से ये मानता रहा हूँ की समाज में रहते हुए कोई व्यक्ति ब्रहमचर्य का पालन नहीं कर सकता. जरा सोचिये आप कोई घ्रणित वास्तु देखते हैं तो आपके मुह में स्वतः ही थूक भर आता है  या आपको कोई बढ़िया खाने की वास्तु मिलती है और आपके मुह में पानी भर आता है. ये सब स्वतः ही होता है. आप चाहें या न चाहें आपका मस्तिष्क आपकी ग्रंथियों को सक्रिय कर देता हैं. ऐसा ही कुछ विपरीत लिंगी के संपर्क में आने पर होता है. मनोअनुकुल साथी मिलने पर हमारा मस्तिष्क हमारी यौन ग्रंथियों को सक्रिय कर देता है. ये स्वाभाविक क्रिया है और इस पर प्रतिबन्ध लगाना अस्वाभाविक है.

हम लोगों की मान्यता है की स्वस्थ संतान के लिए वीर्य का संचय होना चाहिए पर कुछ लोगों द्वारा की गयी रिसर्च कुछ और ही प्रतिपादित करती है. मध्य वय के स्त्री पुरुष के लिए प्रेम की शारीरिक अभिव्यक्ति कितनी जरुरी है इस बात को कितने सुन्दर तरीके से यहाँ समझाया गया है.
कुछ लोगों का मानना है की उन्मुक्त प्रेम स्त्री व पुरुष दोनों को तनाव मुक्त और खुशहाल जीवन देता है.

तो क्यों न अधेड़ होते जा रहे  भारतीय दम्पति  हफ्ते में कम से कम दो बार अपने घर के सारी  बत्तियां बुझा  कर  earth hour  मनाएं  और उस अँधेरे में खुल कर प्रेम की शारीरिक अभिव्यक्ति करें. जैसे अपनी युवा अवस्था  में अपने माँ बाप की आँखों में धुल झोंककर प्यार के दो पल चुराते थे वैसे ही अब अपने युवा हो रहे बच्चों से बच कर प्यार करें. 

भैय्या मैं तो अपने संपर्क में आ रहे सभी बुढ़ाते लोगों को यही सन्देश देता हूँ. 

(मैं जनता हूँ की मेरे विचारों का समर्थन कर पाना बेहद मुश्किल है पर अगर आपको मेरी बातों में कहीं भी गलती लगे तो खुल कर  विरोध तो कर ही सकते हैं. क्या पता आप मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा सकें .) 


शनिवार, 19 मार्च 2011

हमारे धर्म और रीती रिवाजों की प्रतीकात्मकता.

हम लोग अपने जीवन में बहुत से प्रतीकों को प्रयोग में लाते  हैं

मैं जनेऊ पहनता हूँ. मेरी  जनेऊ के छः सूत्र  मेरे विभिन्न  ऋणों और कर्तव्यों के प्रतीक हैं.


स्त्रियों विवाह के उपरांत मंगल सूत्र धारण करती   हैं. अपनी मांग में  सिंदूर   भरती  हैं. ये उनके  सुहागन  होने  का प्रतीक है.

हमारे कुछ देवताओं का विचित्र स्वरुप भी प्रतीकात्मक ही है जो कुछ लोगों को भ्रमित कर देता है . शिवरात्रि पर शिव के स्वरुप पर प्रश्न चिन्ह लगाती  एक पोस्ट "नास्तिकों के ब्लॉग " पर पढ़ी थी जिसके लेखक "श्रीमान दृष्टिकोण" का खुद का स्वरुप भी  प्रतीकात्मक ही था.  

मुझे बहुत बार लगता है की आज के जीवन में हमारे धर्म और रीती रिवाजों के प्रतीकात्मक चिन्ह ही मुख्य हो चले हैं और वो मूल भावना जिनका की वो प्रतिनिधित्व करते  हैं कहीं भुला दी गयी है.  

आप सिख बनाना चाहते हैं. गुरु नानक जी  को दिल से मानें  और सिख विचारधारा का चाहे मन से कितना भी पालन कर लें बिना बाल बढ़ाये,कृपाण,  कच्छा, कड़ा और कंघा धारण किये कोई आपको सिख नहीं मानेगा क्योंकि यही सिख धर्म के प्रतीक चिन्ह है.  

हिन्दुओं में कोई स्त्री मन कर्म और वचन से कितनी भी पतिव्रता  क्यों न हो अगर वो सुहाग के चिन्ह धारण नहीं करेगी तो उसका पति के प्रति प्रेम निरर्थक माना जाता है.

इस वेलेंटाइन डे पर मैंने खुद को सशरीर अपनी पत्नी के चरणों में समर्पित  कर दिया पर वो नाराज ही रहीं क्योंकि मैंने सच्चे प्यार का प्रतीक लाल गुलाब उन्हें भेट नहीं किया था.

कभी कभी मैं सोचता हूँ की क्यों न हम अपने जीवन  से इन प्रतीक चिन्हों को हटा दे और अपने कर्म और सोच  से ही किसी विचार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण को आकें.

पर क्या ये संभव है?
  

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

छद्मवेश


 प्रकृति अपने जीवों की सुरक्षा के लिए तमाम तरह के अजब गजब  उपाय करती है. इस विषय में आज मुझे एक नया अनुभव हुआ. मैंने गमले में मीठी नीम (या कड़ी पत्ता या फिर आप बताएं ये की ये क्या  है ) का पौंधा लगाया हुआ है.  इस मीठी नीम मे आजकल बौर आया हुआ है जिसकी सुगंध  मेरी छत  पर फैली  रहती है. सुबह जब मैं इसे पानी दे रहा था तो कुछ पत्तों पर मुझे चिड़िया की बीट  लगी दिखाई दी. मैंने  सोचा चलो इसे पानी से धो दिया जाय पर पानी के तेज छीटे मरने के बावजूद वो  बीट धुली नहीं.  ध्यान  से देखा तो पाया की ये बीट नहीं बल्कि चिड़िया की बीट का रूप धारण किये छोटी छोटी इल्लियाँ हैं.  इन इल्लियों ने मेरे पौंधे की बहुत सारी पत्तियां भी चबा दी हैं. अब मैं परेशान हूँ की इन इल्लियों को  हटा दूँ या प्रकृति के कार्य में दखलंदाजी  न करके इन इल्लियों को मेरे गमले में लगे पौधें की पत्तियों पर  पलने बढ़ने दूँ.    



मेरे पौंधे में आया बौर ( यूँ गुच्छे में आये फूल मुझे बौर ही लगते हैं)
और ये देखे चिड़िया की बीट


अरे नहीं ये चिड़िया की बीट नहीं ये तो कुछ और है.

अब क्या करूँ ?

चलो हटो जाने दो.


मंगलवार, 15 मार्च 2011

ईश्वर को तो इन्सान बना दिया पर खुद इन्सान नहीं बन पाए.

मुझे नहीं मालूम की मैं सच्चे अर्थों में आस्तिक हूँ या फिर नास्तिक क्योंकि मैं ईश्वर में तो पुर्णतः विश्वास रखता हूँ पर उसके व्यक्तिगत अस्तित्व  में बिलकुल भी विश्वास  नहीं रखता. "व्यक्तिगत अस्तित्व" शायद सही शब्द न हो इसलिए  मैं स्पष्ट कर दूँ की व्यक्तिगत अस्तित्व से मेरा तात्पर्य है एक आदमी जैसा अस्तित्व जहाँ की वो दूर बैठा है और हमें देख रहा है या हमारी बात सुन रहा है और कभी हमारी प्रार्थना या पुकार पर कोई कार्यवाही करेगा. ईश्वर कोई आदमी नहीं की वो पहले तो यह निर्धारित करेगा की क्या सही है क्या गलत है  और फिर सही को पुरष्कृत और गलत को दण्डित करेगा.

ईश्वर एक व्यवस्था है जिसे हमने एक इंसानी अस्तित्व प्रदान कर दिया है. किसी ने उसे अल्लाह बनाया किसी ने भगवान, किसी ने वाहे गुरु और किसी ने ईसामसीह. अल्लाह  सिर्फ कुरान पढने वाले को मुक्ति देगा और सिर्फ मुस्लमान की ही सहायता करेगा एसा नहीं है.

ईश्वर के व्यक्तिगत अस्तिस्त्व में विश्वास रखने वाले धार्मिक विद्वानों कभी तो अपने मन में इंसानियत को जगह दो.

ईश्वर को तो इन्सान बना दिया पर खुद इन्सान नहीं बन पाए.

किसी की तकलीफ में उसे सांत्वना देने और उससे सहानभूति जताने की बजाये आप लोग उसका मजाक उड़ा रहे हो और अपन उल्लू सीधा करने की कोशिश कर रहे हो. 

थू  है तुम लोगों पर.  



मेरे मन में ये विचार इस दुनिया के सबसे बड़े और सच्चे मुस्लमान श्रीमान सलीम खान की उस टिपण्णी को पढ़ कर आये हैं जिसमे उन्होंने कहा की जापान इस्लाम को प्रतिबंधित करने वाला पहला देश है और जो उन्होंने एक सच्चे सेकुलर कांग्रेसी  श्रीमान समीर लाल  जी की एक पोस्ट पर व्यक्त किये हैं. अभी सिर्फ इतना ही बाकि शाम को ...........

शनिवार, 12 मार्च 2011

मांसाहार या शाकाहार.

मैं कुमाउनी ब्रह्मण हूँ. हम लोगों में मांसाहार एक सामान्य सी बात  है अतः मैं बचपन से मांस, मछली इत्यादि का सेवन करतारहा हूँ. मैदानी इलाकों में एक ब्राह्मण द्वारा मांस भक्षण सर्वथा वर्जित  है   इसलिए मेरा ऐसे मैदानी  मित्रों से सामना होता रहा  जो  ब्राह्मण होने के बावजूद मांसाहार करने की मेरी
आदत को लेकर मेरा  मजाक  उड़ाते  या मुझे हेय दृष्टि से देखते.  शाकाहार को प्राकृतिक और मांसाहार को अप्राकृतिक ठहराया जाता. बताया जाता की मांसाहार करने से व्यक्ति में क्रूरता की भावना का विकास होता है. मांसाहारी लोग गुस्सैल होते हैं और आपराधिक प्रवृति के हो जाते हैं. अपने मित्रों के इस व्यवहार के पीछे मुझे शाकाहार को सही नहीं बल्कि श्रेष्ट सिद्ध करना और  मांसाहारियों को नीचा दिखने का प्रयास ज्यादा महसूस होता था.


कोई हमारी आस्था, परंपरा रीती-रिवाज और विश्वास  के विरुद्ध कुछ कहे तो हम स्वाभाविक रूप से तर्क या कुतर्क करके उसका विरोध  करते हैं  अब चाहे हम गलत हो या सही. शायद  ऐसा ही कुछ मेरे साथ होता था. जब मेरे कुछ शाकाहारी मित्र अपने शाकाहारी होने  की बात  को  बड़े  गर्व    के साथ बताते और मांसाहार को अवगुण घोषित करते तो मेरी  तार्किक  बुद्धि  हमेशा उन तर्कों की  तलाश में  रहती जिनसे  मैं मांसाहार को उन लोगों के समक्ष सही ठहरा सकूँ.

मुझे शुरू से लगता था की मानव सर्व भक्षी हैं यानि की वो शाकाहार और मांसाहार दोनों ही तरह के भोजन कर सकता है. मानव के जबड़े में केनाइन दांत के होने से मुझे लगता था की कहीं न कहीं मानव में मांसाहार की क्षमता है  और चिम्पंजियों के द्वारा छोटे बंदरों को मार कर खाना भी इसी बात का साबुत देता था. अपनी दिल्ली में मैंने खुद  रीसस बंदरों को कोए के खोंसले से अंडे चुराकर खाते देखा है. हालाँकि नेट पर  दूसरी जगहों के भी ऐसे सबूत मौजूद  हैं. कभी पढ़ा था की मानव की छोटी आंत की  लम्बाई न तो मांसाहारियों जैसी कम होती हैं और न ही शाकाहारियों की तरह बहुत ज्यादा.

इन सब बातों से मुझे अपने मांसाहार को सही ठहराने का हौसला  मिलता रहा. इसके साथ ही अपने पारिवारिक  और सामाजिक अनुभवों से मैंने पाया  की जो लोग शुद्ध शाकाहारी थे वो ज्यादा गुस्सैल  थे और उनकी अपेक्षा मांसाहार करने वाले ज्यादा शांत और मनमौजी थे.

मेरे पिता सारी उम्र सप्ताहांत मीट या मछली खाते रहे और मेरी माताजी पुर्णतः शुद्ध शाकाहारी महिला थी पर मैंने कभी अपने पिता को किसी पर नाराज होते नहीं देखा जबकि मेरी माताजी को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता था. मैंने बहुत से शुद्ध शाकाहारी परिवारों को अपने पारिवारिक झगड़े सडकों पर मारपीट के साथ सुलझाते देखा. मेरे बहुत से जैनी भाई अपनी दुकानों में और अपने घरों में नौकरों के साथ अमानवीय क्रूर व्यवहार करते दिखे. प्याज और लहुसन से मुक्त शाकाहार मेरे वणिक वर्ग के  भाइयों को भ्रष्टाचार से मुक्त न कर पाया. ऐसे में मैं अपने सप्ताहांत मांसाहार के साथ सुखी था.

पर फिर आया अपने ब्लॉग जगत में एक  शाकाहारी तूफान जिसकी शुरुवात मेरे मित्र अमित ने अपनी एक पोस्ट से की और  जिसको वत्स जी, सुज्ञ जी, अनुराग शर्माजी, प्रतुलजी और गौरव  अग्रवाल जी  जैसे आदरणीय ब्लोग्गेर्स के विचारों का सहारा  मिला. यहाँ पर मैं मित्र गौरव अग्रवाल जी  की  एक  विचारणीय पोस्ट का  उल्लेख करना चाहूँगा जिसने मुझे इस विषय पर पुनः  विचार करने को बाध्य किया.

गौरव की पोस्ट में शाकाहार के समर्थन में कुछ लेखों के लिंक थे. इनके आलावा भी मैंने नेट खंगाला और पाया की मानव तकनीकी रूप से शाकाहारी प्राणियों की श्रेणी में आता है. पर मेरे मन के कुछ प्रश्नों का उत्तर मुझे नेट पर नहीं मिल पाया.

मुझे ये समझ नहीं आ रहा था की यदि मानव विशुद्ध रूप से शाकाहारी है तो फिर किसी किसी मानव के  मन में मांसभक्षण की इच्छा क्यों उत्पन्न होती है? बहुत से लोग बिना किसी प्रेरणा के मांस खाना पसंद करते हैं और बहुत से लोग तमाम प्रयासों के बाद भी मांस की और देखते तक पसंद नहीं करते. ऐसा क्यों?  यह बात मुझे समझ नहीं आ रही थी की क्यों प्राकृतिक रूप से पुर्णतः शाकाहारी बन्दर क्यों कभी कभार मांसाहार करने को उद्यत होते हैं?

मुझे लगता है की बन्दर  मांसाहार अपनी किसी विशेष शारीरिक  आवश्यकता जैसे प्रोटीन इत्यादि  की पूर्ति के लिए करते हैं  क्योंकि वो किसी दुसरे प्राकृतिक तरीके से अपनी इस जरुरत को पूरा नहीं कर पाते और ये कभी कभार होने वाली घटना ही होती है ना की नित्य  प्रति की  आदत.  ठीक इसी प्रकार कुछ शुद्ध मांसाहारी भी कभी कभार  घास  खाते  हैं .  मैंने बिल्ली और कुत्ते को घास खाते देखा है. 

 मानव जब तक जंगलों में स्वतः  उत्पन्न होने वाले  फल फुल खाकर ही  अपना पेट भरता था  तब शायद वो भी कभी कभार मांसाहार कर प्रोटीन या शायद ऐसी ही किसी और  जरुरत की पूर्ति  करता हो पर जबसे  उसे खेती करने का तरीका समझ आया और वो अपनी जरुरत के हिसाब से अन्न उपजाने लगा तो उसे मांसाहार करने की जरुरत नहीं रही.  लेकिन फिर भी आज तक कुछ लोग  "बेसिक इंस्टिंक्ट"  का अनुसरण  करते हुए  मांसाहार की  और  आकर्षित होते हैं. 

इस विषय में ब्लॉग मित्रों, नेट और दुसरे स्रोतों से प्राप्त ज्ञान और खुद के चिंतन मनन के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ की मानव की शारीरिक संरचना तो शाकाहार के लिए ही बनी है पर  प्रकृति ने उसकी कुछ विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे कभी कभार मांसाहार करने की छुट प्रदान की है. मांसाहार मानव के लिए नित्य प्रति की जरुरत बिलकुल भी नहीं और आज जब मानव खेती कर अपनी आवश्यकता के अनुसार हर प्रकार का अन्न उगा सकता है तो उसे कभी कभार भी मांस खाने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है.   

मैं कभी मांसाहार का समर्थन किया करता था पर अब मेरी सोच में परिवर्तन आया है. मांसाहार एक प्रकार की आहार वैश्यावृति है जो मानव समाज में अति प्राचीन काल से व्याप्त है. एक विशेष  नजरिये   से  इसे  सही ठहराया जा सकता है और बहुत सी जगहों पर इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है पर इसके प्रचार प्रसार के लिए इसका समर्थन करना किसी भी नजरिये से ठीक नहीं.

मेरी सोच में जो बदलाव आया है उसके लिए मैं  श्रीमान गौरव  अग्रवाल   जी को मुख्यरूप से दोषी मनाता हूँ जिनकी सार्थक  ब्लॉग्गिंग ने मुझे इस विषय में गहराई से सोचने पर मजबूर किया  और  उनके इस कृत्या में   सुज्ञ जी, प्रतुल जी, अनुराग शर्मा जी, और प्यारे अमित भाई  भी सह अभियुक्त हैं. लोगों में शाकाहार के प्रति जागरूकता जगाने के इनके अभियान का मैं भी एक शिकार हूँ और पिछले तीन चार माह से अपने इलाके के सबसे बड़े मांस विक्रेता नज़ीर फूड्स की दुकान पर नहीं गया हूँ.  हो सकता है की कभी जीभ के लालच वश या किसी और कारण से मैं मांसाहार करूँ पर मैं अब जीवन में कभी भी मांसाहार का  समर्थन नहीं कर पाउँगा.  

अंत में मैं शाकाहार के प्रति लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे सभी भाइयों से यह प्रार्थना करूँगा की वो मांसाहारियों को एक अपराधी की दृष्टि से ना देखें. अपने सभी प्रयास ये ध्यान में रख कर करें की मांसाहार कभी प्राकर्तिक रूप से मानव की बेशक मामूली ही सही पर जरुरत जरुर रही है.