गुरुवार, 29 जुलाई 2010

२९/७/२०१०, गुरुवार

मैं थोडा शांत किस्म का जीव हूँ.

भीड़ भाड़ से  चाहे वो लोगों कि हो या विचारों कि, दूर ही रहना पसंद करता हूँ. लोगों कि भीड़ में मैं असहज महसूस करता हूँ और विचारों कि भीड़ में असामान्य हो जाता हूँ.

लोगों कि भीड़ से मेरा मतलब है उन लोगों कि भीड़ जिन्हें मैं जानता हूँ. अजनबी लोगों कि भीड़ में मैं जरा भी परेशान नहीं होता. बल्कि वहां तो अच्छा लगता है. चुपचाप एक कोने मैं बैठ कर उनकी हरकतें देखो और मजा लो.

ऐसा ही विचारों में भी होता है. जाने पहचाने विचार जो अक्सर दिमाग में आते जाते रहते हैं वो बहुत तंग करते हैं.एकदम नए विचार जरा भी तंग नहीं करते बल्कि उनसे तो खेलने में मजा ही आता है.

ऐसे में जब लोगों कि या विचारों कि भीड़ सताती है तो  मैं क्या करता हूँ? बड़ा सीधा साधा सा तरीका है. अपन तो जाने पहचाने  विचारों से बचने के लिए लिखना शुरू करते हैं और जाने पहचाने लोगों से बचने के लिए दिखना बंद करते हैं.

जाने पहचाने लोगों कि भीड़ में कौन से लोग हैं. सच बताऊँ तो इस भीड़ में वो लोग हैं जिन्हें मैं दिल से चाहता हूँ, जिनसे मैं रोज मिलता हूँ.

क्या करूँ मैं ऐसा ही हूँ. जिन्हें मैं पसंद करता हूँ, जिन्हें मैं प्यार करता हूँ और फलते फूलते विकास करते हुए देखना चाहता हूँ उनसे ही दूर रहने कि मन में चाहत होती है, उनसे ही बचाना चाहता हूँ.  मैं पैदायशी ऐसा ही हूँ. पहले जब मैं छोटा था और कभी घर में मेहमान आते थे तो उनकी आवभगत के बाद जैसे ही सब शांत होता मैं अपनी  छत पर चला जाता था और वहां से अम्मा पिताजी और बड़े भाई आगुन्तक के साथ बतियाते देखता रहता था. मुझे ऐसे बड़ा अच्छा लगता था. दूर से उन्हें देखना. जब भी मेरी कहीं जरुरत होती तो मैं पहुच जाता था हाथ बताने पर अपना काम ख़त्म होने के बाद मुझे सभी लोगों को एक फासले से देखना अच्छा लगता था. आज भी जब मेरे बच्चे अपने खेलों में मगन होते हैं और पत्नी अपने daily soaps में तब मैं दुसरे  कमरे में चला आता  हूँ और अपनी कुर्सी शांत बैठ उनकी दुसरे कमरे से आती शोर गुल कि आवाजें सुनता रहता हूँ. ऐसे ही  घर में जब पत्नी और बच्चे गहरी नींद में सो जाते हैं तो मैं उठता हूँ और अपनी पसंदीदा जगह यानि कि वो कमरा जहाँ कोई नहीं होता वहां आकार बैठ जाता हूँ और फिर कल्पनाओं कि उड़ान शुरू हो जाती है. ये मेरे जीवन के सबसे सुखद क्षण होते हैं जब वो जिन्हें मैं प्यार करता हूँ सुखी होते हैं और मैं उन्हें दूर से देख रहा होता हूँ. (अजीब सी इच्छा है)



 मेरी सबसे प्यारी कल्पना है कि मुझे मिस्टर इंडिया वाली घड़ी मिल जाये जिससे मैं  अदृश्य होकर अपने पसंदीदा लोगों के मध्य ही रहूँ और उनको हँसते खेलते देखता रहूँ और जब उन्हें जरुरत हो तो  उनकी सहायता कर दूँ और  जब बहुत ही जरुरी हो तभी दिखाई दूँ.

पर ऐसा होता नहीं हैं. बच्चे जब सक्रिय रूप से मेरे साथ नहीं खेल रहे होते हैं और  खुद में मस्त होते हैं तब भी वो मुझे  अपने आस पास ही चाहते हैं. पत्नी भी चाहती है कि उनके  सभी कार्यों का निष्पादन मेरे सानिध्य में ही हो. अजीब समस्या है. जब उन्हें मेरी जरुरत हो तब तो उनके साथ रहना ठीक है पर जब उन्हें मेरी जरुरत ना हो तो भी उनके प्यार का बंधन मुझे बांधे रखता है.

ओशो से मैंने सीखा कि प्यार तीन तरीकों का होता है. निम्न श्रेणी का प्यार जिसमे हम लोगों वास्तु समझ कर प्यार करते हैं. दूसरी श्रेणी में हम लोगों को मानव समझते हैं और सबसे श्रेष्ठ प्यार वो है जिसमे हम व्यक्ति को  ईश्वर समझ कर उससे प्यार करते हैं.  अब ये दार्शनिकता अपनी दो वर्षीया बेटी, आठ वर्षीया पुत्र और इन दोनों कि उम्र के योग से तिगुनी उम्र कि पत्नी को कैसे समझाऊ.

रविवार, 25 जुलाई 2010

शिक्षा के नाम पर मासूम बच्चों को प्रताड़ित करना सही है क्या?

कल मेरे पुत्र कि PTM थी. इसका हिंदी में अनुवाद करूँ तो शायद होगा शिक्षक अभिवावक मिलन.

मुझे तो ना चाहते हुए भी ये मिलन करना ही पड़ता है. मेरा पुत्र तीसरी कक्षा में पढता है. मुझे तीन वर्ष हो गए हैं इस तरीके का मिलन करते हुए. शुरु में जब जाता था तो बड़ा उत्साह होता था. लगता था कि कोई महत्वपूर्ण कार्य करने जा रहा हूँ. मुझे मेरे बेटे कि प्रगति के विषय में पता चलेगा. मैं उसके शिक्षक से स्कूल में अपने  बेटे के  व्यव्हार कि  कुछ जानकारी लूँगा और उन्हें घर में इसके व्यव्हार के विषय में बताऊंगा ताकि हम लोग बच्चे कि मानसिकता को ढंग से समझ सकें और मेरा बेटा स्कूल में ज्यादा सहजता के साथ शिक्षा ग्रहण कर सके . ये सब किताबी बातें हैं. असलियत में ऐसा नहीं होता.

असलियत में क्या होता है. आपकी बारी आयी  और शिक्षिका का रटा रटाया संवाद शुरू. (उनकी तरफ से सारा संवाद अंग्रेजी में होता है ज्यादातर अभिवावक तो  बस मूक भाषा का प्रयोग करते हैं ) सुप्रभात ! कार्तिक कैसे हो?  आपने मुझे सुप्रभात नहीं कहा. देखिये आपका बच्चा बहुत बोलता है/बिलकुल चुप रहता है. मैं बहुत परेशान हूँ. मैंने बहुत कोशिश कि इसे चुप करवाने/बोलना शुरू करवाने कि पर इस पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता. आप इस ओर ध्यान दीजिये. अभी तो चल रहा है पर भविष्य में बहुत परेशानी होगी. आपका बच्चा  बहुत धीमा /तेज लिखता है. इससे गलती होने कि संभावना रहती है. इस ओर भी ध्यान दीजिये. आपके बच्चे  का इस बार प्रोजेक्ट सुन्दर नहीं था. आप इस ओर ध्यान क्यों नहीं देते. आपके बच्चे के इस बार हिंदी में अंक अच्छे नहीं आए आपको इसे बहुत मेहनत करवानी पड़ेगी. आपके बच्चे  के इस बार इंग्लिश में अच्छे अंक आए हैं पर थोडा ज्यादा मेहनत करवाए तो पूरे अंक आएंगे. गणित में इसके पूरे अंक हैं मेहनत करवाते रहे ये नहीं कि  अगली बार कम अंक आ जाएँ. इस प्रकार  ये जबानी शिकायतें  चलती रहती है जिसमे सारा दोष आपका और आपके बच्चे  का होता.  इस दौरान अभिवावक जी जी करके जिजीयाते रहते हैं

इसके बाद बारी आती है अभिवावकों की.  अभिवावक भी आपने मन की भड़ास निकालते हैं हा ये बात अलग है कि उनकी सारी शिकायते मातृभाषा में ही होती हैं. मेडम मेरे बच्चे को आपने  आधा अंक उस वाले पेपर में नहीं दिया था.  मेरा बच्चा उनके बच्चे से पीछे क्यों चल रहा है.  हमारे बच्चे को कक्षा के सबसे होशियार बच्चे के साथ बैठाये.  हमारे बच्चे को सबसे आगे बैठाएं.   आजकल पढ़ाई कम हो रही है स्कूल में. होमवर्क ज्यादा नहीं मिलता. हमारा बच्चा तो हमारी सुनता ही नहीं थोडा इस टाईट करो. हम तो सारा दिन इसके पीछे पड़े रहते हैं. सभी विषयों कि ट्यूशन भी लगवाई हुई है पर क्या करें सब चौपट है

अब बारी आती है बेचारे बच्चे कि जो कुछ बोलता नहीं बस मूक सुनता रहता है.  शिक्षक बच्चे से पूछता है. हाँ बेटे बताओ ऐसा क्यों करते हो? देखो आपके माता पिता आपके लिए कितना कुछ कर रहे हैं. आप इतने बड़े हो गए हो अभी भी आपको समझ नहीं है. आगे जाकर क्या करोगे . अब  तीसरी कक्षा में पढने वाला सात आठ साल का बच्चा क्या जवाब देगा?  अंततः सारा दोष मासूम बच्चे के  सर मढ़ दिया जाता है. 

ये वो वक्त होता है जब मेरे जैसा पचास किलो का आदमी भी यही सोचता है कि अभिवावक और शिक्षक दोनों को कान पकड़ मैदान  में ले जाऊ जहाँ शिक्षक को तो  मुर्गा/मुर्गी  बना दूँ और बच्चे के माँ बाप को हाथों  में कम से कम दस दस डंडे लगाऊ. पर यार दिन में ग्यारह बजे देखे सपने सच थोड़े ना हो सकते हैं.

अपनी खुद कि बताऊँ तो मैं हर सत्र  के शुरू में ही शिक्षक को बता देता हूँ कि मुझे आपने बच्चे को अभी से आइन्स्टाइन नहीं बनाना. अगर वो पढ़ाई में औसत प्रदर्शन भी करता है तो मैं संतुष्ट हूँ. इसके बाद मुझे कोई तंग नहीं करता. मैं PTM में जाता हूँ. कोशिश करता हूँ कि सबसे पहले पहुचुं ताकि मुझे ऊपर लिखे दृश्य झेलने ना पड़ें. शिक्षक मुझे मुस्कुराकर बताती है कि आपका बच्चा औसत चल रहा है. कक्षा में ज्यादा बोलता नहीं. अनुशासित  है. बस मैं ख़ुशी ख़ुशी बच्चे को लेकर बापस लौटता हूँ. हाँ रास्ते में एक आद आइसक्रीम भी खिला देता हूँ.

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बातचीत बंद पर बातें चालू.

बच्चे बड़े हो रहे हैं.... बड़ा महत्वपूर्ण समय है उनके लिए भी और हमारे लिए भी.

हमारे से मेरा मतलब हम मिया बीबी से ही है. बच्चे नहीं थे हम दोनों स्वतंत्र थे. सारा वक्त हमारा निजी वक्त था. जब चाहते जितना चाहते एक दुसरे के लिए समय होता था. साथ बैठते, बतियाते, और जी हाँ.. जी भर के बातचीत किया करते.....

अब सुबह उठते हैं बच्चों को उठते हैं.... जिंदगी कि भागमभाग शुरू.... दूध लाओ.. कपडे प्रेस करो...स्कुल छोडो..खुद तैयार हो कर ऑफिस जाओ.... शाम को आप थके पर बच्चे तरो ताजा... चलो खेलो.... फिर होम वर्क.. फिर रात्रि भोजन... फिर कहानी....बज गए दस. दस का मतलब बस. अब सोने कि तैयारी.

जब बच्चे सोते हैं तब शुरू होता है हमारा सुनहरी एकांत जो कभी हमें २४ गुना ३६५ दिन उपलब्ध था पर अब सिर्फ उस वक्त तक मिलता है जब बच्चे सो जाते हैं और जब तक हम में जगाने कि इच्छा और ताकत होती  है.

जीवन कि इस भागदोड़ में हम पति पत्नी बातें तो खूब करते हैं पर बातचीत करने का मौका कम ही मिलता है इसलिए बच्चों के सोने और हमारे ना सोने के बीच का यह वक्त मेरे लिए सोने से भी ज्यादा कीमती होता है.

भाइयों मैं क्या बताऊँ आपको मेरे लिए दुनिया के सारे सुख एक तरफ हैं और पत्नी के साथ खुल कर बिना किसी रोक टोक के बातचीत करने का सुख एक तरफ.

तुलसी दास जी ने ये दोहा  मेरे लिए ही तो लिखा था....

सात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिये तुला इक अंग.
तूल ना ताहि सकल मिली जो सुख पत्नी संग.

अभी कुछ दिन पहले कि ही बात है. ऊपर वाला अभी बरस कर थका ही था और वर्षा से भीगी हवा मंद मंद हमें हमारी ख्वाबगाह में भी भिगो  रही थी, बच्चे सो चुके थे  और हमारा सुनहरी एकांत पूरे कमरे में फैला था.  हम दोनों एक दुसरे में मगन  थे कि रंग में भंग हो गया. पत्नी ने कुछ ऐसी बात कही जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं तो मेरी प्रतिक्रिया  भी कठोर रही . उपरवाला रुका था नीचेवाली शुरू हो गयी...

क्या सोच रहे हैं अब बातचीत क्या खाक होती, दोनों करवट बदल कर सो गए.  ऐसी घटनाओं के बाद एक दो दिन तक तो मेरा जोश  कायम रहता है. मैं अपनी तरफ से सुलह या साफ़ साफ़ कहूँ तो बातचीत कि कोई पहल नहीं करता. पर फिर मेरी कमजोरी. अपनी प्यारी के साथ ज्यादा दिन तक बातचीत किये बिना मैं रह ही नहीं पाता.

मेरे कुछ दोस्त मेरी इस कमजोरी पर हंसते हैं. कहते हैं पत्नी के अलावा भी कोई ऐसा होना चाहिए जिसके साथ आप बातचीत कर अपना सुख दुःख बाट सकें. पत्नी पर से निर्भरता हटती है. मेरे एक मित्र तो बताते हैं कि जब भी उनकी बातचीत बंद होती है और अगर उनकी गलती ना हो तो वो कभी पहल नहीं करते. उन्हें जरुरत ही नहीं होती बातचीत करने के लिए पहल करने कि. असल में उनकी एक और मित्र हैं. अरे वही सिर्फ मित्रता रखने  वाली मित्र जिनके साथ वो बातचीत कर हलके हो लेते हैं. मैं उनसे ईर्ष्या करता हूँ . विशुद्ध ईर्ष्या. पर कभी उनका अनुसरण नहीं कर पाता.   

मैं तो अपनी घरवाली के पास ही लौट आता हूँ. यार जब छप्पन भोग घर पर ही हों तो होटल का मुंह तो कोई गधा ही देखेगा. मैं बातचीत शुरू करने का प्रयास दिन से ही शुरू कर देता हूँ. दिन में बार बार उनसे बात करता हूँ. बच्चे सोते हैं. सुनहरी एकांत मिलता है और मैं बातचीत शुरू करने का अंतिम प्रयास करता हूँ.... उनके पास जाता हूँ और सीधे सीधे उनके पाँव पकड़ लेता हूँ..... प्यारी मान जाओ ना.... pleeesssse.....

और हमारी बातचीत शुरू हो जाती है..... एक दुगने जोश के साथ.....

( कुछ समय पहले कि बात है मेरी बच्ची बीमार थी तो हम उसे एक पास कि एक प्रसिद्ध महिला बाल चिकित्सक के  पास ले  गए. वो एक कुछ कम पढ़ी लिखी सी गंवाई महिला को समझा रही थी..... अपने मरद से बातचीत बिलकुल बंद कर दो. उसे पहले दो महीने आस पास नहीं फटकने देना, समझ गयीं.... मैं थोडा देर से समझा पर समझ गया कि पति पत्नी के बीच बातचीत का क्या मतलब होता है. अब आप भी जाएँ और अपनी पत्नी से खुलकर बातचीत करें. )

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

यक्ष प्रश्न : बच्चे कैसे पैदा होते हैं/बच्चे कहाँ से आते हैं?

बच्चे कैसे पैदा होते हैं या बच्चे कहाँ से आते है?

प्रश्न तो बड़ा सरल है. इसका उत्तर खोजना भी आनंददायक कार्य है. मैं सोचता हूँ कि इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भी आदमी को बड़ा मजा आए बस प्रश्न कि शुरुवात इस तरह से ना हो....

"पापा बच्चे कैसे पैदा होते हैं?"

प्रश्न में पापा का जुड़ना बड़ा दर्ददायक है.

अपनी माता को प्रसव पीड़ा से परिचित करवाने   वाले पुत्र ने इस बार पिता को प्रजनन सम्बन्धी जानकारी देने कि पीड़ा  सहने के लिए चुना.

यार दोस्तों  और ऑफिस में सेक्स सम्बन्धी विषयों पर खुल कर बोलने के लिए प्रसिद्ध होने के बावजूद अपने पुत्र द्वारा इस प्रश्न का सामना होने पर मेरी बोलती बंद हो गयी.

अब बेटे को क्या उत्तर दूँ? उसे कैसे समझाऊ कि वो कैसे पैदा हुआ? कहाँ से आया?

आज मालूम हुआ हमारे ऋषि मुनियों को इन प्रश्नों का उत्तर अभी तक क्यों नहीं मिला कि वो कहाँ से आए हैं? कैसे आए हैं? किस प्रयोजन से आए हैं?

हमारे जनक, हमारे उस परम पिता परमेश्वर को भी शायद हिचक होती होगी इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए. वो क्या  बताये अपने पुत्रों को कि उसे तो सृजन सुख मिल रहा था तो उसने रचना  कर दी हमारी. उसने सोचा थोड़े ही था कि कहा से आए हैं? क्यों आए हैं जैसे प्रश्नों का उत्तर भी देना पड़ेगा.

ढूंढते रहो उत्तर! कहाँ से आए हैं? आने का क्या प्रयोजन है? कहाँ जायेंगे?

चलो ये समस्या तो अध्यात्मिक  समझदारों कि है  हम तो अपनी बात करें. तो मेरे पुत्र ने मुझे पहली बार ऐसी  परेशानी में डाला जिसका मेरे पास तुरंत कोई हल  नहीं था.

पुत्र ने पूछा  " पापा बच्चे कैसे पैदा होते हैं ? मैंने भी एक प्रति प्रश्न  कर दिया, " बेटा तुम किस के बच्चों कि बात कर रहे हो आदमी के बच्चे या जानवरों के बच्चे?

शायद मेरा बच्चा सोच रहा था कि अपने प्रश्न के उत्तर में उसे पापा कि झिडकी  मिलेगी या चुप्पी. अब जब झिडकी  मिली ना चुप्पी तो बच्चा उलझ गया. अपने मूल प्रश्न से भटक कर उसने पूछ लिया  पापा जानवरों के बच्चे कैसे होते हैं.

मैंने राहत कि साँस ली. इस प्रश्न का उत्तर तो दिया जा सकता है. मैं शुरू हो गया. आदि से अंत तक कि सारी कथा  मैंने कह सुनाई. अंत में  महाराज युधिष्ठिर  के श्राप वश सार्वजनिक रूप से अपनी प्रजनन लीला करने वाले श्वान  का उदहारण भी दे दिया. पर थोड़ी गलती हो गयी जब एक लाइन और जोड़ दी कि इंसानों के बच्चे भी ऐसे ही होते हैं.

उफ्फ  ये क्या कर दिया. मेरा आठ वर्षीय बेटा देर तक मुंह  दाबे हँसता रहा. तब ये ख्याल आया कि कही वो अपने कल्पना पटल पर उदहारण में प्रयुक्त श्वान कि जगह  पर इंसानों को रख कर तो हँसे नहीं जा रहा और उससे भी खतरनाक बात कि कहीं वो इन्सान हम दोनों मिया बीबी ही तो नहीं.

ये तो बुरे फंसे. क्या सोचा था क्या हो गया. अपनी तो इज्जत ही दाव पर लग गयी. तब से मैं बेटे से  मुंह छिपाए घूम रहा हूँ. सोचता हूँ काश मेरा बेटा मेरी तरह से ही इन बातों को खुद ही जान जाता तो कितना अच्छा होता.

रविवार, 11 जुलाई 2010

नरेंदर सिंह नेगी जी का एक गढ़वाली गीत.

कुछ दिनों के अन्तराल पर लिख रहा हूँ. ब्लॉगजगत के कुछ वो लोग जिन्हें में निरंतर पढता था शायद मेरी तरह से छुट्टी पर चले गए हैं.
आदरणीय गोंदियाल जी अंधड़ वाले......... प्रिय दिलीप दिल की कलम से लिखने वाले....... गौरव, सन्डे के सन्डे का  साथी....

मेरी कुछ व्यक्तिगत व्यस्तताएं थी हो सकता है ये सभी लोग भी ऐसे ही व्यस्त हों. भगवन करे ये लोग बेशक व्यस्त हों पर आपने आप में मस्त हों.

मैं पिछले महीने पहाड़ गया था. वो मेरे पुरखों की  धरती है. वहां से आता हूँ तो बहुत दिनों तक वहा का खुमार उतरता ही नहीं है. जब देखो पहाड़ी बोली , पहाड़ी गीत, पहाड़ी व्यंजन, पहाड़ी विचार.  घर वाले परेशान हो उठते हैं...

अगर इतना ही शौक है तो वहीँ किसी पहाड़ की कन्दरा में समाधिस्त हो जाओ.... ऐसा भी अक्सर सुनने को मिल जाता है.

 कोई बात नहीं चुप चाप सुन लेता हूँ.

अभी कल यूँ ही नेट पर पहाड़ी गीत खोज रहा था तो नरेंदर सिंह नेगी जी का एक गीत देखा और सुना. पहली बार मुझे किसी पहाड़ी गीत का द्रश्यांकन बेहद पसंद आया.  ये गीत उन पहाड़ी स्त्रियों की मनोदसा का चित्रांकन है जिनके पति उन्हें छोड़कर कमाने के लिए पहाड़ से पलायन कर जाते हैं.

पुरुषों का आपने परिवार के पालन पोषण के लिए पहाड़ से पलायन एक आम बात है. करीब ७५ प्रतिशत पहाड़ी पुरुष आपने घर परिवार को छोड़कर दुसरे शहरों में कम करने के लिए आ जाते हैं और वहा उनकी पत्नियाँ उनका इंतजार करती हैं. मैं जब भी गाँव जाता हूँ तो ऐसी अपनी अनेक भाभियों, चाचियों के दर्शन होते हैं जिनके पति परदेश होते हैं. उनकी स्थिति को करीब से देखा है अतः कह सकता हूँ की नरेंदर सिंह नेगी जी के गीत और उसके फिल्मांकन में वास्तविकता की झलक है.

मैं कुमाउनी हूँ और गढ़वाली भाषा पर उतना अधिकार नहीं रखता पर फिर भी संक्षेप में इस गीत का  सार आपको बताता हूँ. गीत में एक पहाड़ी स्त्री आपने दिल्ली से आए देवर से पूछती है की क्या उसे  दिल्ली में आपने भाई जी की कोई खोज खबर है. देवर जवाब देता है की ओ ठोड़ी पर तिल वाली भाभी  अगर मुझे भाई जी का कोई आता पता होता तो मैं जरुर उनकी खबर ले आता. जब भाभी दुबारा यही बात पूछती है तो देवर मजाक में उसे कहता हैं की भाई जी तो रसिक मिजाज हैं कहीं उन्होंने वहीँ तो कोई दूसरी नहीं कर ली. फिर अंत में देवर उस भाभी को पंछी के वापस आपने घोंसले में लोट आने का दिलासा देकर वापस चला जाता है.

ये गीत गढ़वाली भाषा में है लेकिन मैं समझता हूँ की भावनाओं को आसानी से पकड़ा जा सकता है. जाने क्यों मैं इस गीत को देखकर बहुत भावुक हो जाता हूँ और मेरी आंखे भर आती हैं शायद इन दिनों मेरी अश्रुग्रंथी ढीली हो गयी है. कसावट के लिए  अलंकारिक शल्य चिकित्सा  तो नहीं करवानी पड़ेगी....

इस गढ़वाली गीत का यू टयूब का लिंक और विडिओ दोनों देने कि कोशिश कर रहा हूँ आगे भगवन मालिक....