रविवार, 7 मार्च 2010

स्त्रियों को बराबरी का हक़ दो.


हमारे आराध्य देश अमेरिका में कुछ महिलाएं एक क्रन्तिकारी आन्दोलन चला रहीं है। वे चाहती हैं की स्त्रियों को पुरुषों के भांति समुद्र तट या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अनावृत वक्ष स्थल के साथ आजादी से घुमाने दिया जाये। उनका तर्क है की जब पुरुष बिना हिचक सिर्फ कच्छा पहन कर आराम से इधर उधर घूमते हैं तो स्त्रियाँ एसा क्यों नहीं कर सकती। उनके हिसाब से यह स्त्री व् पुरुष के बीच भेदभाव का मामला है। वे चाहती हैं की महिलाओं को बराबरी का हक़ दिया जाये। अगर पुरुष नंगी छाती घुमाते हैं तो स्त्रियों को भी एसा ही अधिकार मिले। बात सामान अधिकारों की है।

मैं दिल से उनके साथ हूँ। मैं दिल से चाहता हूँ की एसा हो ताकि लोगों के मन में चोली के पीछे क्या है वाली उत्सुकता न रहे। पर दिल मैं कुछ सवाल बरबस ही आ जाते हैं। शायद मेरी पुरुषवादी मानसिकता का असर हो या भारतीय मानसिकता का , पर ऐसे सवाल तो मन में उठते ही हैं जिनका उत्तर मैं जानना चाहता हूँ।

पहला सवाल यह आता है की यह समानता के अधिकार की बात किस स्तर तक होगी। कल कुछ महिलाएं कहें की पुरुषों की छाती पर बाल हैं और हमारे नहीं। यह असमानता है तो समानता लाने के लिए फिर क्या वो हेयर ट्रांसप्लांट कराएंगी। कुछ प्रगतिशील महिलाओं को लगेगा की सिर्फ पुरुष ही जहाँ तहां खड़े होकर मूत्र त्याग करते हैं। हमें भी यह अधिकार चाहिए। इस तरह यह बराबरी व् समानता की मांग कहाँ तक जाएगी।

एक प्रश्न मेरे मन में और उठता है। प्रकृति ने स्त्री व पुरुष में भेद किया ही क्यों। दोनों को एक जैसा क्यों नहीं बनाया। पहले तो स्त्री को स्तन दिए फिर पुरुष के मन में उनके प्रति आकर्षण पैदा किया जिससे स्त्रियों को इन्हें ढकने की जरुरत पड़ी। अगर पुरुष के मन में यह आकर्षण नहीं होता तो इस आन्दोलन की जरुरत ही नहीं पड़ती। अतः सबसे बड़ी गलती तो प्रकृति या ईश्वर की है। ईश्वर ने ऐसी व्यवस्था क्यों बनाई जिसमे पुरुष स्त्री की तरफ आकर्षित होता है और इससे ही जीवन आगे बढता है। क्यों नहीं कोई और उपाय सोचा गया। अब इस गलती को सुधारने के लिए प्रगतिशील महिलाओं को पुरुषों के गुणसूत्रों में बदलाव करना पड़ेगा और कुछ ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी की बिना पुरुष के बच्चे हो सकें।

ओह्ह भगवान् की छोटी सी गलती का खामयाजा स्त्रियों को अब भुगतना पढ़ रहा है। काश यह जागरूकता पहले ही होती तो मानव जाती का इतिहास कुछ और होता।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आप अपनी बात बेबाक रूप से कहते हो, अच्छी बात है। कथित प्रगतिवादी सोच रखने वालों के लिए आप के तर्क निरुत्तर कर देने को काफी हैं। किन्तु आप स्त्रियों और स्त्रियों सम्बन्धी बातों पर जितना अधिक चिंतन करोगे उतना अधिक उलझोगे। वैसे बातों का ये उलझाव विमर्श करने की बेचैनी पैदा करता है। सुलझने की छटपटाहट लाता है। फिर भी मित्र एक भय बना रहता है कहीं आप इन विचारोतेजक लेखों से कामुकता की खोज में लगे जिज्ञासुओं की भूख बढाने और शांत करने का ही उपक्रम करते न रह जाओ।
    आपने देखा होगा की जो भी बुद्धिजीवी जब-जब इन विषयों को अपने लेखन का आधार बनाता है उनको ये जिज्ञासु जन सर माथे बैठाते हैं; जब-जब कोई कलाकार इन विषयों को अपनी चित्रकारी, शिल्प, मूर्तिकला आदि में उतारता है, सौंदर्य के उपासक धर्म के पंडित उसे संस्कृति का अंग कह कर सराहते हैं।
    किन्तु एकान्तिक साधना ही हल है इन सबसे सुलझने का। सुगंध जिस तरह दबाये नहीं दबती। उसी तरह स्वयं को एक आदर्श के रूप में जीना ही एकमात्र हल नज़र आता है।

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